सामुदायिक संगठन के अनेक अर्थ
हैं। इसके पर्याय शब्द सामुदायिक कार्य, सामुदायिक विकास तथा सामुदायिक
लामबंदी हैं। सामान्यतः सामुदायिक संगठन से तात्पर्य, समुदाय की समस्याओं
को समुदाय के लोगों को संगठित करके सहायता करना है।
सामुदायिक संगठन की परिभाषा
मूरे जी रॉस (1967) के अनुसार ‘सामुदायिक संगठन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें समुदाय अपनी आवश्यकताओं या उद्देश्यों की पहचान करता है, इन्हें प्राथमिकता देता है। इन पर कार्य करने के लिए विश्वास एवं संकल्प विकसित करता, है इनके लिए (आंतरिक तथा बाहरी तौर पर) संसाधन जुटाता है तथा इन समस्त कार्यों को करने के लिए समुदाय में सहकारिता तथा सहकार का दृष्टिकोण एवं अभ्यास का प्रसार करता है।’’सामुदायिक संगठन के सिद्धांत
जिस अर्थ में सामुदायिक संगठन के सिद्धांत यहाँ प्रयोग किए गए हैं, ये सुदृढ़ व्यवहार पद्धति हेतु सामान्य मार्गदर्शी नियम हैं। सिद्धांत मूल्य पर आधारित निर्णयों की अभिव्यक्ति होते हैं। यहाँ चर्चित किए जा रहे सामुदायिक संगठनों के सिद्धांत संदर्भ के अंतर्गत है तथा लोकतांत्रिक समाज में समाज कार्य के उद्देश्यों तथा भावना के अनुकूल हैं। हमारा संबंध प्रत्येक व्यक्ति की मर्यादा तथा योग्यता, स्वतंत्रता, सुरक्षा, सहभागिता और हितकारिता एवं पूरे जीवन से है।लोकतंत्र के
सिद्धांतों जैसे सीमांत व्यक्ति की दशा को बेहतर बनाना, पारदर्शिता, ईमानदारी,
जीवोत्तरता को बढाना, आत्मनिर्भरता, भागीदारी, सहयोग आदि का अनुसरण करने
से संबंधित है।
सामुदायिक संगठन के साहित्य मं े हम सिद्धांतों के विभिन्न आयाम पाते हैं। दुनहैम (1958) ने सामुदायिक संगठन के 28 प्रस्तावित सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है। उसने इन्हें सात शीर्षकों में समूहीकृत किया है।
11. स्थानीय नेतृत्व की पहचान तथा शामिल करना : जैसा कि कहा जा चुका है कि सामुदायिक संगठन में समुदाय के लोगों की सहभागिता अपेक्षित है तथापि समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति के साथ आमने-सामने वार्ता करके शामिल नहीं किया जा सकता। अत: यह आवश्यक है कि समुदाय के विभिन्न समूहों तथा उप समूहों द्वारा स्वीकृत नेताओं की पहचान (औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों) करें तथा इन्हें मान्यता प्रदान की जाए। मुख्य उप-समूहों के साथ घनिष्ठ संबंधों वाले सम्मानित तथा स्वीकार्य नेताओं को शामिल करने से, समुदाय को एक सूत्र में बाँधने में सहायता मिलती है। इससे आगे चलकर सम्प्रेषण प्रक्रिया शुरू करने में सहायता मिलती है, जिसके प्रभावी होने पर सामुदायिक संगठन की प्रक्रिया विकसित तथा कायम रहती है।
सामुदायिक संगठन के साहित्य मं े हम सिद्धांतों के विभिन्न आयाम पाते हैं। दुनहैम (1958) ने सामुदायिक संगठन के 28 प्रस्तावित सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है। उसने इन्हें सात शीर्षकों में समूहीकृत किया है।
- प्रजातंत्र तथा समाज कल्याण।
- सामुदायिक कार्यक्रमों के लिए सामुदायिक जड़।
- नागरिकों की समझ, संभरण, भागीदारी तथा व्यवसायिक सेवा।
- सहयोग
- समाज कल्याण के कार्यक्रम
- समाज कल्याण सेवाओं की पर्याप्तता, वितरण और संगठन तथा
- निवारण
- समुदाय के अंदर अपनी वर्तमान स्थितियों से असंतोष अवश्य पैदा होना चाहिए और/या संघों के विकास का पोषण हो बढ़ता है।
- असंतोष का फोकस एवं समुचित उपयोग संगठन, नियोजन एवं विशिष्ट समस्या के क्रम में कार्य में परिणत होना चाहिए।
- असंतोष जो सामुदायिक संगठन में फैला या बना हुआ हो, उस पर समुदाय में व्यापक चर्चा की जानी चाहिए।
- संघ मं े मुख्य उप-समूहों के द्वारा पहचाने गए तथा स्वीकृत नेताओं (औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों) को शामिल करना चाहिए।
- समुदाय के लक्ष्य तथा विधियों एवं प्रणालियों को समुदाय की पूर्ण स्वीकार्यता प्राप्त होनी चाहिए।
- संघ के कार्यक्रमों में कुछ भावनात्मक गतिविधियाँ भी शामिल होनी चाहिए।
- संघ को चाहिए कि वह समुदाय मं े वर्तमान लक्षित स्पष्ट तथा अव्यक्त सदभावना का पता लगाकर प्रयोग करना चाहिए।
- संघ को अपने अंदर तथा दो संघों के मध्य और समुदाय के बीच में संप्रेषण का सक्रिय एवं प्रभावशाली ढंग से विकास अवश्य करना चाहिए।
- संघ को चाहिए कि वह सहयोगी कार्य में समूह ों को सशक्त करें तथा उनका समर्थन लें।
- संघ को समुदाय की वर्तमान स्थितियों के साथ तालमेल करके काम की गति को बढ़ावा देना चाहिए।
- संगठन को चाहिए कि वह प्रभावी नेतृत्व का विकास करे।
- संघ को अपनी शक्ति, स्थायित्व तथा सम्मान को विकसित करना चाहिए।
भारत सामुदायिक संगठनकार्य के उपयोग की वास्तविक स्थितियों को ध्यान में
रखकर सिद्दिकी (1997) ने आठ सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं :
- विशिष्ट उद्देश्यों का सिद्धांत
- नियोजन का सिद्धांत
- लोगों की भागीदारी का सिद्धांत
- अंत: समूह दृष्टिकोण का सिद्धांत
- प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का सिद्धांत
- लचीले संगठन का सिद्धांत
- स्थानीय संसाधनों के अधिकतम उपयोग का सिद्धांत
- सांस्कृतिक अभिन्यास का सिद्धांत
1. सामुदायिक संगठन साधन है, साध्य नहीं : जैसा कि पहले चर्चा की जा
चुकी है, सामुदायिक संगठन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा एकीकृत
इकाई के रूप में समुदाय की क्षमता बढ़ाई जा सकती है। इस प्रकार से
यह एक पद्धति या साधन है, जिससे लोग सुखी तथा पूर्णतया विकसित
जीवन जी सकें। यह ऐसी अंत:क्षेप विधि का संदर्भ देता है, जिसके द्वारा
व्यक्तियों, समूहों या संगठनों वाले समुदाय को उनकी आवश्यकताओं तथा
समस्याओं के अनुसार नियोजित सामूहिक कार्यों में लगाने में सहायता की
जाती है।
2. सामुदायिक संगठन सामुदायिक एकता तथा प्रजातांत्रिक पद्धति को
विकसित करने को लिए है : इसे उन विघटनकारी प्रभावों को रोकना
चाहिए, जो समुदाय के कल्याण तथा प्रजातांत्रिक संस्थाओं की आंतरिक
शक्तियों में बाधा डालते हों। सामुदायिक संगठन में भेदभाव और पृथक्करण
या अलगाव से दूर रहना चाहिए और एकीकरण तथा परस्पर स्वीकार्यता
को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
3. समुदाय की स्पष्ट पहचान : चूंकि सामुदायिक संगठन कार्यकर्त्त्ाा का
मुवक्किल समुदाय ही है, अत: इसकी स्पष्ट पहचान की जानी चाहिए। यह
संभव हो सकता है कि वह उसी समय अनेक समुदायों के साथ काम कर
रहा हो। साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण है कि समुदाय की पहचान हो जाने पर
पूरे समुदाय के बारे में चिंता कार्यकर्ताओं को होनी चाहिए। समाज कल्याण
की आवश्यकताओं तथा पूरे समुदाय के संसाधनों से किसी भी कार्यक्रम को
अलग नहीं किया जा सकता। समुदाय में किसी एक एजेंसी/समूह के हित
या बेहतरी की तुलना में पूरे समुदाय का कल्याण ज्यादा महत्वपूर्ण होता
है।
4. तथ्यान्वेषण और आवश्यकता का मूल्यांकन : समुदाय विकास कार्यक्रम की
जडे़ समुदाय में होनी चाहिए। समुदाय में कोई भी कार्यक्रम प्रारंभ करने से
पहले सही ढंग स े तथ्यान्वेषण तथा समुदाय की आवश्यकताओं का
मूल्यांकन करना अनिवार्य है। स्थानीय सामुदायिक सेवाओं के लिए बाहर से
लादे जाने वाले कार्यक्रमों के स्थान पर आधारभूत देशी विकास कार्य
अपेक्षित होते हैं। जब कभी संभव हो, तब सामुदायिक संगठन का प्रारंभ
समुदाय की आवश्यकता या समुदाय में अत्यधिक व्यक्तियों की संख्या के
आधार पर किया जाना चाहिए।
सामुदायिक विकास में समुदाय की
भागीदार जानदार तथा समुदाय के नियंत्रण पर अनिवार्यत: होना चाहिए। सामुदायिक संगठन की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए कार्यक्रम को
समुदाय की आवश्यकताओं के आधार तथा अन्य तुलनात्मक उपलब्ध
सेवाओं के आधार पर आरंभ, विकसित, संशोधित तथा समाप्त किया जाना
चाहिए। जब आवश्यकता पूरी हो जाए तो कार्यक्रम को संशोधित या
समाप्त कर देना चाहिए।
5. उपलब्ध संसाधनों का पता लगाना, संग्रहण तथा इनका प्रयोग : नए
संसाधनों या नयी सेवाओं का सृजन करने से पहले वर्तमान समाज
कल्याणकारी संसाधनों का जहाँ तक संभव हो भरपूर प्रयोग किया जाना
चाहिए। संसाधनों/सेवाओं के अभाव में कार्यकर्ताओं को विभिन्न स्रोतों जैसे
समुदाय, सरकार, गैर-सरकारी निकायों आदि से संसाधन जुटाने होते हैं। स्थानीय संसाधनों का प्रयोग करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि इन्हें
विशेष आवश्यकताओं को पूरा करने से पहले कभी-कभी इन संसाधनों में
गहन परिवर्तन अपेक्षित होता है। भौतिक संसाधनों को जुटाने के साथ
साथ स्थानीय मानव संसाधनों का भी अधिकतम उपयोग किया जाना
चाहिए
6. नियोजन में भागीदारी : सामुदायिक संगठन के कार्यकर्त्त्ााओं को सामुदायिक
संगठन प्रक्रिया के दौरान भागीदारी नियोजन की आवश्यकता को स्वीकार
करना चाहिए। यह महत्वपूर्ण ा ह ै कि व्यवसायी कार्यकर्त्त्ाा कार्य शुरू करने से पहले एक रूपरेखा तैयार करें कि वह समुदाय के लिए क्या करना
चाहता है। ऐसा करने के लिए समुदाय की आवश्यकताओं, उपलब्ध
संसाधनों, एजेंसी के उद्देश्यों आदि को ध्यान में रखकर समुदाय के साथ
आगे बढऩ ा चाहिए। सामुदायिक संगठन में नियोजन एक अनवरत प्रक्रिया
है क्योंकि यह कार्यान्वयन तथा मूल्यांकन के चक्र की अनुपालना करता है।
नियोजन कल्याण की अभिव्यक्ति, ‘‘पक्षपात’’ या परीक्षण प्रणाली के आधार
पर न होकर निर्धारित तथ्यों के आधार पर होनी चाहिए। अधिकतम सहभागिता के लिए यह आवश्यक है कि आसन्न कारकों का विश्लेषण करें तथा इन्हें दूर करने के लिए समय अनुसार उपाय
करें। सभी मामलों में लोगों को भाग लेने के लिए बाध्य करने के स्थान पर
उन्हें किसी एक स्तर पर तथा मुद्दों के आधार पर भाग लेने के लिए प्रेरित
किया जाना चाहिए। यदि लोगों को कार्यक्रम के लाभ में विश्वास हो जाए
तो कार्यक्रम मं े अवश्य भाग लेंगे।
7. सक्रिय तथा व्यापक सहभागिता : स्वयं सहायता की अवधारणा सामुदायिक
संगठन का मूल मंत्र है। समुदाय के सदस्यों को सामुदायिक संगठन की
प्रक्रिया के दौरान सहभागिता को प्रजातांत्रिक सिद्धांत तथा व्यावहार्यता -
दोनों बिंदुओं के आधार पर प्रोत्साहित करना चाहिए अर्थात उन व्यक्तियों
को इसमें प्रत्यक्ष रूप से शामिल होना चाहिए, जिनकी इसके परिणामों में
मूल भागीदारी है। नागरिकों या मुवक्किलों के समूहों के स्वयं सहायता
समूहों को प्रेरित तथा विकसित करना चाहिए।
8. स्वयं निर्णय के समुदाय के अधिकार का आदर किया जाना चाहिए :
सामुदायिक संगठन कार्यकर्त्त्ाा की भूमिका व्यावसायिक निपुणता, सहायता
तथा सृजनात्मक नेतृत्व उपलब्ध कराना है ताकि लोगों के समूह और
संगठन समाज कल्याण के. उद्देश्यों को प्राप्त कर सकें। समुदाय के सदस्यों
को कार्यक्रम तथा नीति के बार मूल निर्णय लेने चाहिए। हालांकि
सामुदायिक संगठनों के कार्यकर्ताओं को विभिन्न परिस्थितियों में अनेक
भूमिका निभानी होती हैं परंतु मूलतः उनकी चितं ा, लोगों की अभिव्यक्ति
तथा नेतृत्व के बारे में होती है ताकि वे सामुदायिक संगठन के लक्ष्यों को
प्राप्त कर सकें और इस पर नियंत्रण, वर्चस्व या हेराफेरी का उनका प्रयास
नहीं होना चाहिए।
9. स्वैच्छिक सहयोग : सामुदायिक संगठन का आधार पारस्परिक समझ,
स्वैच्छिक स्वीकार्यता तथा पारस्परिक समझौता है। यदि सामुदायिक संगठन
लोकतांत्रिक सिद्धांतों के समन्वय से है, यह संगठन सैनिक शासन में नहीं
होता। इसे ऊपर से या बाहर से नहीं थोपा जाना चाहिए अपितु यह
आंतरिक स्वतंत्रता से लिया जाना चाहिए और इसमें कार्यरत सभी व्यक्तियों
को एकसूत्र में बांधे रखने की इच्छा चाहिए।
10. प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग की भावना तथा प्रयासों का व्यवहार में
समन्वय: सामुदायिक संगठन पद्धति प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग की
भावना पर आधारित है। सामुदायिक संगठन पद्धति ने प्रमाणित कर दिया
है कि अधिकांश प्रभावी विकास सहयोगी प्रयासों के द्वारा उपलब्ध किए गए
है। यह विभिन्न समूहों के द्वारा किए गए छुटपुट प्रयासों के स्थान पर
मुख्य समस्याओं पर समन्वित तथा नियमित/प्रेरक कार्यक्रमों के द्वारा
कार्रवाई करने पर संभव होता है।
11. स्थानीय नेतृत्व की पहचान तथा शामिल करना : जैसा कि कहा जा चुका है कि सामुदायिक संगठन में समुदाय के लोगों की सहभागिता अपेक्षित है तथापि समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति के साथ आमने-सामने वार्ता करके शामिल नहीं किया जा सकता। अत: यह आवश्यक है कि समुदाय के विभिन्न समूहों तथा उप समूहों द्वारा स्वीकृत नेताओं की पहचान (औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों) करें तथा इन्हें मान्यता प्रदान की जाए। मुख्य उप-समूहों के साथ घनिष्ठ संबंधों वाले सम्मानित तथा स्वीकार्य नेताओं को शामिल करने से, समुदाय को एक सूत्र में बाँधने में सहायता मिलती है। इससे आगे चलकर सम्प्रेषण प्रक्रिया शुरू करने में सहायता मिलती है, जिसके प्रभावी होने पर सामुदायिक संगठन की प्रक्रिया विकसित तथा कायम रहती है।
12. प्राधिकार या विवशता का सीमित प्रयोग : कभी-कभी सामुदायिक संगठन
में प्राधिकार का या बल का प्रयोग करना अनिवार्य हो जाता है। परतं ु
इसका प्रयोग यथासंभव कम से कम, सीमित समय तथा अंतिम उपाय के
रूप में ही प्रयोग किया जाना चाहिए। जब बल का प्रयोग किया जाता है
तो इसका अनुपालन सहकारी प्रक्रिया के द्वारा यथाशीघ्र पुनर्ग्रहण के द्वारा
करना चाहिए।
13. कार्यक्रमों तथा सेवाओं की गतिशील तथा लचीली प्रकृति : इस सिद्धांत का
मूल आधार स्वस्थ सामुदायिक संगठन है। सामाजिक कल्याण एंजेसियाँ
तथा कार्यक्रम सामुदायिक जीवन की बदलती हुई परिस्थितियों, समस्याओं
और आवश्यकताओं के अनुरूप होनी चाहिए। समुदाय गतिशील है, जिसमें
लगातार परिवर्तन हो रहे है। इसके कारण आवश्यकताएँ तथा समस्याएं भी
बदल रही हैं। अत: यह आवश्यक है कि कार्यक्रम तथा सेवाएँ काफी हद
तक लचीली हों।
14. सतत सहभागी मूल्यांकन : चूकि कार्यक्रमों का विकास सामुदायिक
आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए होता है, इस प्रक्रिया के मूल्यांकन के
लिए भी कुछ समय रखा जाना चाहिए। समुदाय से नियमित फ़ीडबैक प्राप्त
होना चाहिए। कार्यक्रमों के मूल्यांकन के लिए मानदंड निर्धारित होने चाहिए
ताकि कार्यक्रम की सफलता तथा किस हद तक कार्य समाप्त हो गया है,
देखा/जाना जा सके।
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सामुदायिक संगठन