द्विवेदी युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ, नामकरण एवं युगीन परिस्थितियाँ।

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में एक नवीन मोड़ आया। साहित्यकारों का चिंतन व्यष्टि से समष्टि, वैयक्तिक से सामाजिक, जड़ता से चेतना, स्थायित्व से प्रगति, श्रृंगार से देशभक्ति, रूढ़ि से स्वच्छंदता की ओर अग्रसर हुआ। भारतेंदु युग के कवियों में भावबोध आधुनिकता से प्रभावित होते हुए भी रीतिकालीन पंरपरा से सर्वथा मुक्त नहीं हो पाया था। भारतेंदु युग में साहित्यगत विषयों में नवीनता आने पर भी अभिव्यक्ति के माध्यम एवं उपादानों में पूर्ण परिवर्तन नहीं आया। 

राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना के साथ-साथ राज्य भक्ति भी विद्यमान थी क्योंकि अंग्रेजी सरकार के प्रति आस्था उत्पन्न होती जा रही थी कि सुधारों के द्वारा वह भारतवासियों का कल्याण कर रही है किंतु वास्तव में विदेशी सरकार सुधार, भारतवासियों के लिए नहीं अपितु स्वहिताय कर रही थी, सड़क, रेल, डाक-तार आदि संबंधी सुधार भारतीयों से अधिक उनके दोहन में सहायक सिद्ध हो रहे थे फिर भी भारतीय साहित्यकार उनकी चाटुकारिता में अपना समय व्यर्थ कर रहे थे। आवेदन, निवेदन अथवा प्रशंसा से उसकी नीति में, कुटिलता, कठोरता में वृद्धि हो रही थी। उनके अत्याचारों में कमी नहीं आ रही थी।

बीसवीं शताब्दी में राजनीतिक परिवर्तन आया। सन् 1885 ई. में ‘राष्ट्रीय नेशनल कांग्रेस’ की स्थापना हुई जिसका उद्देश्य अंग्रेजी सरकार को जनता के हित के लिए ठोस सुझाव देना था किंतु वह अंग्रेजी सरकार को सुदृढ़ता प्रदान करने में संलग्न हो गई।

सुधार का आश्वासन अंग्रेजी सरकार निरंतर देती रही किंतु उनका क्रियान्वयन नहीं हुआ। भारतीय जनता महारानी विक्टोरिया के जयकारे लगा रही थी। भारतीय इतिहास में अंग्रेजों का शासन काल दमन नीति एवं कूटनीति का काल था। सन् 1858 की महारानी विक्टोरिया की सहृदयतापूर्ण घोषणा पत्र का आंशिक रूप भी कार्य में परिवर्तन नहीं हुआ। जनता की अंग्रेजी सरकार के प्रति लगी बड़ी-बड़ी आशाएं अधूरी क्या पूरी की पूरी अछूती रह गई। जनता को दमन-नीति में निर्दयता से पीसने हेतु अनेक प्रतिगामी काले कानून पास होते रहे जिससे जनता में असंतोष एवं क्षोभ की अग्नि भड़कने लगी।

तत्कालीन सरकार शक्ति स्रोतों तथा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में तत्पर थी। उसकी आर्थिक नीति उसके लिए हितकारी तथा भारतीयों के लिए अहितकारी थी। भारतीय कच्चा माल विदेशी कारखाने पी रहे थे तथा अपना तैयार माल महंगे दामों पर भारतीय बाजारों में भरते जा रहे थे जिससे यहां के कल-कारखानों की स्थिति बिगड़ती ही नहीं जा रही थी अपितु ग्रामीण कुटीर उद्योग धंधे बंद होते जा रहे थे। भारतीयों की निर्धनता घटने के स्थान पर बढ़ती जा रही थी। दुर्भिक्षों ने भारतीयों की रही-सही कमर तोड़ दी। जनता एवं साहित्य-चिंतकों की समझ में यह स्पष्ट भासित होने लगा था कि सुधार के सर्वतोमुखी कार्यों की विफलता तथा उनके अत्याचारों का और कोई कारण नहीं, मात्रा परतंत्राता है। दासता से मुक्ति हेतु जनता ने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की। 

गोपाल कृष्ण गोखले तथा बाल गंगाधर तिलक जैसे मेधावी, कर्मठ, दृढ़ प्रतिज्ञा नेता जनता के समक्ष आए जिन्होंने आते ही ‘स्वराज्य’ एवं ‘स्वतन्त्राता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ के नारों से आसमान गुंजा दिया।

भारतेंदुकालीन साहित्यकार भारत दुर्दशा के दुखों में डूबे रहे। इस युग का श्रीगणेश होने से पूर्व साहित्यकारों में अपूर्व चेतना आई और उसने करवट बदली।

द्विवेदी युग का नामकरण

आचार्य रामचन्द्र शुक्त ने इस युग को प्रकरण 3 गद्य साहित्य का प्रसार द्वितीय उत्थान नाम दिया है। जिसमें गद्य विद्या का विवेचन किया है एवं प्रकरण 3 नई धारा द्वितीय के अंतर्गत पद्य विद्या का विवेचन करते हुए लिखा है- “इस द्वितीय उत्थान के आरंभ काल में हम पंडित महावीर प्रसाद जी द्विवेदी ही को पद्य रचना की एक प्रणाली के प्रवर्तक के रूप में पाते हैं। गद्य पर जो शुभ प्रभाव द्विवेदी जी का पड़ा है उसका उल्लेख गद्य के प्रकरण में हो चुका है।”

इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस युग के गद्य-पद्य दोनों विधाओं में द्विवेदी जी का प्रमुख स्थान था। ‘द्विवेदी युग’ को शुक्ल ने द्वितीय उत्थान नाम दिया है क्योंकि आधुनिक काल का अंतर्विभाजन उन्होंने प्रकरण तथा उत्थानों के आधार पर किया है।

डॉ. नगेन्द्र ने इस काल खंड को नया नाम ‘जागरण-सुधार काल’ देना चाहकर भी द्विवेदी युग नाम को उचित कहा है। उनकी 40 हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल) मनसा की अभिव्यक्ति इसी से स्पष्ट हो जाती है कि हिंदी साहित्य का इतिहास के अध्याय 11 के शीर्षक ‘द्विवेदी युग’के नीचे लघु कोष्ठक के मध्य (जागरण सुधार काल) भी लिखा है।

डॉ. नगेन्द्र ने ‘द्विवेदी युग’ का औचित्य प्रतिपादन करते हुए लिखा है- “इस काल खंड के पथ-प्रदर्शक, विचारक और सर्वस्वीकृत साहित्य नेता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर इसका नाम ‘द्विवेदी युग’ उचित ही है।

स्पष्ट हो गया कि इस काल खंड का सर्वमान्य नाम “द्विवेदी युग” है।

द्विवेदी युग की काल सीमा

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने द्विवेदी युग की काल सीमा संवत 1957-1977 वि. अर्थात् 20 वर्षों की कालावधि स्वीकारी है।

डॉ. नगेन्द्र ने इस काल खंड का प्रारंभ ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादन काल से माना है। सौभाग्य की बात है कि जनता की रूचि एवं आकांक्षाओं के पारखी तथा साहित्य के दिशा-निदेशक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रादुर्भाव के फलस्वरूप सन् 1900 ई. में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। कालावधि 18 वर्ष मानते हुए सन् 1900-1918 ई. तक ‘द्विवेदी युग’ की सीमा स्वीकारी है।

प्रवृत्ति लगभग बीस वर्षों तक चलती रही है इसलिए सन् 1900-1920 तक मानना उचित है। इस युग की मुख्य प्रवृत्तियों में राष्ट्रीयता, मानवता, नीति एवं आदर्श, वण्र्य विषय का क्षेत्र विस्तार हास्य-व्यंग्य काव्य, विविध काव्य रूपों का प्रयोग, छंछ वैविध्य, देशभक्ति, प्रकृति चित्रण, काव्य में खड़ी बोली की प्रधानता आदि प्रमुख है।

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