ज्ञानाश्रयी शाखा की विशेषताएं
निर्गुण उपासना
इस शाखा के कवियों ने ईश्वर को निर्गुण माना है। निराकार ब्रह्म की
भक्ति को आलम्बन बनाना कठिन होता है। इसके सम्बन्ध में ज्ञान की चर्चा सुलभ होती है। कबीर ने
सिद्धों और नाथों की विचारधारा को और आगे बढ़ाया और निर्गुण, निराकार, अव्यक्त और घट.
घटवासी ब्रह्म की उपासना पर बल दिया। ‘निर्गुण राम जपहु रे भाई’ आदि पंक्तियों से उनके ये
विचार भली प्रकार समझे जा सकते हैं।
इनका ब्रह्म एक है। बहुदेववाद में इन्हें विश्वास नहीं। इनका
ब्रह्म अवतार नहीं लेता। यह जन्म-मरण के बन्धन से परे है, तथापि इन्होंने उस राम के अनेक पौराणिक
नामों का प्रयोग किया है।
निरक्षर कवि
ये कवि प्राय: निरक्षर थे। कबीरदास ने तो स्वयं कहा है कि उन्होंने “मसि
कागद छूओ नहीं कलम गही नहिं हाथ”। सन्त कवियों में शायद केवल सुन्दरदास की ही शिक्षा
व्यवस्थित ढंग से हुई थी। लेकिन शिक्षा के अभाव में भी, ज्ञान और अनुभव के आधार पर अपनी बात
स्पष्ट रूप से कहने के कारण, सन्तकाव्य में सच्चाई और गहराई है। इन लागे ों का जीवन भी वैसा
ही था, जैसा वे कहते थे। कथनी और करनी में अन्तर नहीं था।
कवि-रूप की प्रधानता न होते हुए
भी इनकी वाणी प्रभावपूर्ण रही, क्योंकि उसमें हृदय की सत्यता मिलती है। सत्संग ही इनके ज्ञान का
आधार रहा।
जाति-व्यवस्था का विरोध
जाति.पांति का सभी सन्तों ने विरोध किया। “जाति.पांति पूछे
नहिं काइेर् । हरि को भजे सो हरि का होई” कहकर उन्होनें जाति-भेद का विरोध किया है। ये सभी
कवि प्राय: निम्न जाति के थे। कबीर जुलाहा थे। रैदास चमार थे। दादू दयाल मोची या धुनिया थे।
अपनी जाति को इन्हांने कभी छिपाया नहीं, वरन् खुलकर कहते थ-े ‘तू ब्राह्मण मैं काशी का जुलाहा,
सच कहु ठारै ठिकाना’ या ‘कह रैदास खलास चमारा’।
ऊँची जातियों के कवियों में नानक और
सुन्दरदास के नाम प्रमुख हैं। परन्तु उन्होनें भी जाति की महत्ता को स्वीकार नहीं किया।
पाखंड विरोध
इन कवियों ने मिथ्या आडम्बरों का विरोध करके पाखंडियों की निन्दा की
है। उस समय के समाज में हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्मावलम्बियों में व्रत, पूजा, तीर्थ अथवा रोजा,
नमाज, हज आदि की प्रवृत्ति थी। इस प्रकार के आडम्बरों में इन कवियों की आस्था नहीं थी, अत:
इन्हांने मुल्लाओं और पण्डितों की खूब खिल्ली उड़ाने की चेष्टा की है- काँकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँ दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।
तथा
पाथर पूजे हरि मिलै तो मैं पूजू पहार। (कबीर)
हिन्दू-मुस्लिम एकता
हिन्दू-मुस्लिम एकता की दृष्टि से ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों ने बहुत
प्रयत्न किया। उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को समान दृष्टि से देखकर उन्हें सन्मार्ग पर चलने
का उपदेश दिया। कबीर की एक बड़ी प्रसिद्ध पंक्ति इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है- ‘अरे इन दोऊन
राह न पाई।’ कभी-कभी उन्होनें अपने को हिन्दू-मुस्लिम कुछ भी न मानकर पाँच तत्त्व का पुतला कहा
है-
‘हिन्दू कहो तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाहिं।
दोनों धर्मों की अच्छी बातों पर बल देकर और दुर्बलताओं पर प्रहार करके उन्होंने हिन्दू और
मुसलमानों को समीप लाने का प्रयत्न किया।
माया से बचने का उपदेश
सन्त कवियों ने माया से सावधान रहने का बराबर उपदेश
दिया है। माया के प्रभाव से बचना बड़ा कठिन है। मेरे-तेरे का विचार रखना, कंचन और कामिनी में
आसक्त रहना और संसार के विभिन्न आकर्षणों से युक्त रहकर इंद्रिय-सुख की कामना करना आदि
सब माया है। इस सबकी निन्दा की गई है।
नारी के प्रति सन्त कवियों की दृष्टि बड़ी आलोचनापूर्ण
रही है- ‘नारी की झांई परत अन्धा होत भुजंग’ जैसी उक्तियों द्वारा से दूर रहने का उपदेश दिया
गया है। यह तत्कालीन समाज की नारी विषयकर सामान्य धारणा का परिणाम है।
गुरु की महत्ता
गुरु को सभी सन्तों ने बहुत ऊँचा माना है। पढ़े-लिखे न होने से गुरु के
उपदेश का इनके यहाँ बहुत महत्व था। गुरु की कृपा बड़ी आवश्यक थी। कहीं-कहीं तो गुरु को
ईश्वर से भी ऊँचा मान लिया गया-
गुरु गाेिवन्द दोऊ खड़े काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय।। -कबीर
रहस्यात्मकता-
ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों की एक प्रमुख विशेषता उनकी ईश्वर से
सम्बन्धित रहस्यात्मक उक्तियाँ हैं। आत्मा.परमात्मा के सम्बन्ध का कथन करके जब आत्मा का परमात्मा
के प्रति काव्य में अनुराग व्यक्त किया जाता है तो उसे रहस्यवाद कहा जाता है। कबीर ने आत्मा को
स्त्री और परमात्मा को पुरुष मानकर विरह की मार्मिक व्यंजना की है। उनके ऐसे कथन रहस्यवाद
की कोटि में आते हैं। कबीर का रहस्यवाद कहीं तो नाथपंथियों के हठयोग से प्रभावित है, कहीं
सूफियों के प्रेम से और कहीं उपनिषदों के अद्वैत सिद्धान्त से। कबीर की तरह धर्मदास, सुन्दरदास
और मलूकदास आदि कवियों ने भी रहस्यात्मक भाव व्यक्त किये हैं। ईश्वर की सर्वव्यापकता बोधक
इन पंक्तियों में आत्मा.परमात्मा के विरह और मिलन दशा का वर्णन हुआ है-
लाली मरे लाल की, जित देखं ू तित लाल
लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल। -कबीर
काव्य-रचना तथा भाषा
इन कवियों की रचनाएँ मुक्तक रूप में मिलती हैं। गीति काव्य
की दृष्टि से इनका अपना महत्व है। इसमें संगीतात्मकता और आत्मभिव्यक्ति की प्रधानता है। दोहा
अथवा पदों में ही अधिकतर रचनाएँ मिलती हैं। कहीं-कहीं कवित्त, सवैया, रमैनी (चौपाई तथा सार
आदि छन्द भी मिलते हैं। इनकी भाषा सधुक्कड़ी कहलाती है। उसमें ब्रज, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी और
पंजाबी भाषाओं का मिश्रण है। ये रमते राम थे। इसलिए क्षेत्रीय शब्दावली का प्रभाव ग्रहण करते रहे
और जनभाषा में कविता करते रहे।
रस और अलंकार
रस और अलंकार की दृष्टि से सन्त.काव्य पर विचार करना समीचीन
नहीं है। इन्होंने काव्य-रचना के उद्देश्य से अपनी अभिव्यक्ति नहीं की। सामान्यत: इनकी रचनाओं में
शान्त रस की प्रधानता है। कहीं-कहीं अद्भुत रस भी मिल जाता है। अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक
रूप से हुआ है। कहीं-कहीं रूपक और विरोधाभास का अच्छा प्रयोग मिल जाता है।
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