सूफी काव्य की प्रमुख विशेषताएं



सूफी मत के विकास क्रम में प्रसिद्धि प्राप्त सूफियों के षिश्य प्रषिश्य बनते गये और उन्होंने भिन्न सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों का रूप ग्रहण किया और यही सम्प्रदाय शनै: शनै: सभी देशों में फैल गये।

विश्व के प्रमुख महान सूफी प्रस्थान अरब, ईरान, ईराक, मध्य ऐषिया, सिरिया, उत्तरी-अफ्रीका तथा भारत रहे है। इस मत ने अरब में ज्ञान मार्ग सिखलाया, ईरान में आध्यात्मिक प्रेम अथवा भक्ति की घोषणा की तथा भारत में ज्ञान और भक्ति के आधार पर प्रेम व कर्म मार्ग की प्रेरणा दी।

भारत में सूफी मत के आगमन का निश्चित तिथि या काल अंकित करना कठिन है परन्तु इतना निश्चित है कि इस्लाम धर्म और सूफी विचारधारा भारत में मुसलमानों के आने से बहुत पहले आयी।

अरब और भारत का संबंध प्राचीन समय से चला आ रहा है और इस्लाम-धर्म के प्रवर्तन एवं प्रचार-प्रसार के कुछ पहले से भी दोनों देशों में व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध वर्तमान था।

व्यापारियों के साथ-साथ अरब तथा पडोस के देष के लोग धर्मोपदेषन के लिए भी भारत आने लगे। भारत में मुसलमानों एवं सूफियों के आने के तीन मार्ग हो सकते थे- डॉ0 हरदेव सिंह जी ‘‘भारतीय इतिहास और साहित्य में सूफी दर्शन’’ में इस बात का उल्लेख किया है। खैबर के दर्रे, जल मार्ग तथा स्थल मार्ग, इन्हीं मार्गों से होकर सूफियों ने भारत में प्रवेश किया।

सूफी काव्य की प्रमुख विशेषताएं

सूफी काव्य की प्रमुख विशेषताएं हैं -

1. निर्गुण ईश्वर में विश्वास - सूफी कवि मुसलमान थे। वे एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। सूफी काव्यों में ईश्वर के एक होने निर्माण और निराकार होने के उल्लेख बार-बार मिलते हैं।

जायसी के ‘सुमिरों आदि एक करतारू’ इस कथन से एक ईश्वर की भावना व्यक्त होती है। सूफी कवियो ने अपने प्रेमाख्यानक काव्यो में ईश्वर को स्त्री के रूप में मानकर आत्मा का पुरुष के रूप में वर्णन किया है। ‘दूसरे शब्दों में आत्मा परमात्मा को प्राप्त करने के लिए उसी तरह प्रयत्न करती है जिस तरह प्रिया को प्राप्त करने के लिए प्रेमी प्रयत्न करता है। 

ईश्वर को इस प्रकार का आलम्बन बनाने की यह पद्धति भारतीय पद्धति से भिन्न है। भारतीय पद्धति में परमात्मा को पुरुष रूप में माना जाता है। आत्मा स्त्री के रूप में उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करती है।

2. गुरु की महिमा - सन्त कवियो की तरह सूफी कवियो ने भी अपने गुरु का अपने काव्य में स्मरण किया है। जहाँ इन कवियो ने वर और खलीफा की वन्दना की है, वहाँ गुरु के प्रति अपना आभार प्रदर्शन करना भी नहीं भूले हैं। यह दूसरी बात है कि इनकी गुरु.भक्ति उतनी उत्कट नहीं है, जितनी कि ज्ञानमार्गी सन्तो का। न ही इन्होंने गुरु को परमेश्वर से ऊपर माना है, जैसा कि कबीर ने। 

सूफी कवियो ने गरु को पीर कहा है। यह पीर उनका मार्गदर्शन करता है और उनकी साधना के मार्ग में शैतान जो बाधाएँ उपस्थित करता है, उन्हे वह दूर कर देता है।

3. शैतान को बाधक मानना - सूफी कवियो ने प्रिय-प्राप्ति के मार्ग में बाधक तत्त्व के रूप में शैतान की कल्पना की है। उनका विश्वास है कि खुदा ने शैतान को साधक की परीक्षा लेने के लिए बनाया है। जो साधक उस परीक्षा मे खरा उतरता है। वही परमात्मा से मिल सकता है। यह शैतान आत्मा और परमात्मा के मिलन में बाधा डालता है। इस तरह शकंराचार्य ने माया की जा े कल्पना की है तथा सन्त कवियो ने जिस माया का विरोध किया है, वही माया सूफियों के मत में शैतान है। 

प्रसिद्ध सूफी कवि जायसी ने अपने ‘पद्मावत’ में  राघव चते न का वर्णन शैतान के रूप में किया है।-’राघव दूत साइेर् सैतानू’ सूफियों का विश्वास है कि पीर (गुरु) की कृपा से शैतान की बाधाओं को दूर किया जा सकता है। शैतान से रक्षा करने के कारण गुरु को इन्होंने बहुत ऊँचा माना है।

4. साधना की चार अवस्थाएँ - सूफी मत में साधना की चार अवस्थाओं का उल्लेख है- (1) नासूत, (2) मलकूत, (3) मारिफत, (4) हकीकत। जब साधक एक.एक करके इन अवस्थाओं को पार करता है तो वह सत्य को प्राप्त कर लेता है। हकीकत सत्य को ही कहते हैं। जब उसे परमात्मा के ज्ञान की प्राप्ति होती है, तब वह अपने को ‘अनलहक’ अथवा ‘मैं ही ब्रह्म हूँ कहने लगता है। 

5. लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम की प्राप्ति - सूफी मत की एक विशेषता है- ‘प्रेम की उत्कटता।’ प्रेमगाथाओं के माध्यम से सूफियों ने प्रेम की पीड़ा का सुन्दर चित्रण किया है। सूफी लोग मानते हैं कि लौकिक प्रेम (इश्क मजाजी) के द्वारा ही अलौकिक प्रेम (इश्क हकीकी) को प्राप्त किया जा सकता है। जायसी के ‘पद्मावत’ में रतनसेन का पद्मिनी के लिए जो प्रेम है वह लौकिक प्रेम है। उसके वर्णन द्वारा जायसी अलौकिक प्रेम का निदर्शन करना चाहते हैं।

सूफी प्रेमाख्यानक काव्य में प्रेम के साथ सौन्दर्य का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध बताया गया है। जहाँ रूप है, वहाँ प्रेम के लिए आकर्षण है। सुन्दर वस्तुएँ परमात्मा के सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब है। रूप में परमात्मा की ज्योति प्रकट होती है। सूफी काव्यों में प्रेम के साथ विरह का भी अनिवार्य सम्बन्ध माना गया है। साधक (प्रेमी) जब तक विरह की आँच में तपकर कुंदन नहीं बन जाता, तब तक उसका संयोग अपने प्रिय से नहीं हो सकता।

6. हिन्दू-मुस्लिम एकता - सफी कवियो ने मुसलमान हाकेर हिन्दू घरो में प्रचलित कहानियो को चुना और इस तरह हिन्दू लोकमानस के समीप आने का प्रयास किया। उन्होंने मुसलमान और हिन्दुओं को समीप ला दिया तथा उनके भेद-भाव को दूर कर दिया। हिन्दुओं ने सूफियों के सिद्धान्तो का आदर किया। 

7. रहस्यवाद - सूफी काव्यों की एक बहुत बड़ी विशेषता उनकी रहस्यात्मक उक्तियाँ हैं। उनकी रहस्यात्मक उक्तियों में कहीं.कहीं साधनात्मक रहस्यवाद यानी हठयोग के संकेत मिलते हैं, जैसे ‘पद्मावत’ में शिवजी द्वारा रतनसेन से सिंहगढ़ का वर्णन ‘गढ़ तस बाकं जैस ताेर काया’ आदि। इस वर्णन मे पिडं में ही ब्रह्माण्ड की कल्पना का संकेत किया गया है। यह रहस्यवाद हठयोगियों या नाथपंथियों से प्रभावित है।

सूफियों के रहस्यवाद को सन्त कवियो के साधनात्मक रहस्यवाद से भिन्न भवात्मक रहस्यवाद की संज्ञा दी गई है। पद्मावत रतनसेन और पद्मावती के प्रेम के द्वारा परमात्मा के प्रति आत्मा की जिज्ञासा, प्रिय और प्रेमी के मिलन और विरह की अत्यन्त मार्मिक कल्पना की गयी है। सूफियों का रहस्यवाद संयोग के अत्यन्त श्रृंगारिक वर्णनो से युक्त है श्रृंगार का यहाँ खुलकर वर्णन किया गया है। विरह-वर्णन में धार्मिकता है और उस पर मसनवी प्रभाव है। 

सूफी कवियों के विरह वर्णन में फारसी. साहित्य का प्रभाव स्पष्ट हैं उसमें ऊहात्मकता आरै वीभत्सता तक आ गयी है। विरह में रक्त के आँसू बहाना फारसी का प्रभाव है, जिसमें हमे वीभत्सता लगती है। लेकिन कहीं-कहीं विरह.वर्णन की मार्मिकता हृदय को छू लेती है। 

पद्मावत का नागमती-विरह-वर्णन प्रसंग एक ऐसा ही उत्कृष्ट उदाहरण है-
‘प्रिय सों कहेऊ संदेसड़ा हे भौरा है काग,
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहिक धुआं हम लाग।’
8. प्रबन्धात्मकता - सूफी रचनाएँ प्रेमाख्यानक प्रबन्ध काव्य हैं। उनमें प्रेम कथाओं के वर्णन हैं। इनमें एक मुख्य कथा के साथ अनेक प्रासंगिक कथाएँ भी जुड़ी रहती हैं। मुख्य और प्रासंगिक कथानकों के कारण सभी सूफी काव्य महाकाव्य की कोटि में आते हैं। प्रबन्धकाव्य के लिए आवश्यक सर्गबद्धता, निश्चित छंद, प्रकृति-वर्णन आदि सभी शर्तों की पूर्ति ये काव्य करते हैं।

9. रस - सूफी प्रेमाख्यानक काव्यों का वर्णन रसमयी भाषा मे हुआ है। श्रृंगार की दोनों दशाओं.संयोग और वियोग का इनमे चित्रण है। कहीं.कहीं दूसरे रस भी मिलते हैं, जैसे-गोरा बादल युद्ध (पद्मावत) में वीररस और गोरा की माँ की अपने पुत्र के प्रति भावाभिव्यक्ति में वात्सल्य रस मिलता है। शान्तरस भी अनेक स्थलों पर आया है। इसी तरह करुण और वीभत्स रस भी इनके काव्य में मिल जाते हैं। ये सभी रस आध्यात्मिक रंगत पाकर शांत रस के अंग बन जाते हैं।

10. भाषा, छन्द, अलंकार - सूफी काव्यों की भाषा ठेठ अवधी है। जनता के बीच प्रचलित कथाओं को जनता की भाषा में कहने के लिए कवियो ने ग्रामीण अवधी का प्रयोग किया है। जिसमे जहाँ.तहाँ अपभ्रंश के कई शब्द आ गये हैं। छन्दों की दृष्टि से इन्होंने चौपाई और दोहा छन्दों का प्रयोग किया है।

अलंकारों में सभी प्रचलित अलंकार.अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि तो हैं ही, पर समासोक्ति सूफी कवियों का सबसे प्रिय अलंकार है। जो वर्णन कवि कर रहा होता है, उसके द्वारा अलौकिक सत्ता की ओर भी संकेत होता चलता है। ऐसे प्रसंग समासोक्ति अलंकार के अन्तर्गत आते हैं। जायसी समासोक्ति के प्रयोग में सबसे कुशल हैं।

11. प्रतीक-विधान - प्रतीक-विधान भी सूफी कवियो की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रतीको द्वारा अपने भावों को व्यक्त करने में सूफी कवि बहुत पटु है। सभी काव्यो में लौकिक प्रतीकों के द्वारा आध्यात्मिक भाव प्रकट किये गये हैं।

12. मसनवी शैली - सभी सूफी प्रेमाख्यानक काव्य मसनवी शैली में लिखे गये हैं। मसनवी फारसी का एक छन्द है जिसमें जामी, निजामी आदि कवियों ने अपने प्रबन्ध काव्यों की रचना की। हिन्दी के सूफी कवियो ने इस छन्द को नहीं अपनाया, परन्तु फारसी के मसनवी छन्द मे लिखे प्रबन्ध काव्यों (मनसवियो) में रूढ़ वर्णन-शैली को अवश्य अपनाया। 

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