सुमित्रा नंदन पंत का जीवन परिचय, रचनाएं, साहित्यिक विशेषताएं

सुमित्रा नंदन पंत का जीवन परिचय

सुमित्रानन्दन पंत आधुनिक हिंदी कविता के लिए काल खंड में रचना कार्य करते हें, वह बीसवीं शताब्दी का सामाजिक सांस्कृतिक जागरण युग है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों का एक विशाल जागरण उनके सामने मोजूद था। राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, दादाभाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक, अरविंद रवीन्द्रनाथ ओर गांधी जी जैसे महान व्यक्ति उस युग में सक्रिय थे। 

इन नेताओं दार्शनिकों ओर चिन्तकों में भारतीय संस्कृति की विवेक परम्परा नये तेज र्पाप्त कर रही थी। पूरा देश ब्रिटिश सामा्रज्यवाद से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था और देश के बंद्धिजीवी हर कीमत पर पराधीनता की बेडि़याँ काटना चाहते थे। 

इसी परिवेश में सुमित्रानन्दन पंत का आरम्भिक रचनाकार  व्यक्तित्व भी निर्मित हुआ।

सुमित्रा नंदन पंत का जीवन परिचय 

सुमित्रा नंदन पंत जन्म (सन् 1900 - 1977 ई.) ग्राम कौसानी, जनपद अल्मोड़ा, वर्तमान उत्तरराखंड (पुराने उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनके पिता का नाम गंगा दत्त पंत तथा माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। सबसे छोटी संतान थे। जन्म देते ही इनकी माता कुछ घंटे बाद ही इनको छोड़कर चल बसीं। जिसके परिणामस्वरूप अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा की गोद में पलने लगे तथा प्रकृति के उस मनोरंजक परिवेश का इनके व्यक्तित्व पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। सुमित्रा नंदन पंत की प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। 

इसके पश्चात् अल्मोड़ा गवर्नमेंट हाईस्कूल में प्रविष्ट हुए। काशी के जय नारायण हाई स्कूल से स्कूल लीविंग की परीक्षा पास की। 

सन् 1916 ई. में क्योर सेन्ट्रल कॉलेज प्रयाग से एफ.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। संस्कृत, अंग्रेजी तथा बंगला का अध्ययन किया। सन् 1950 में आल इंडिया रेडियो के परामर्शदाता नियुक्त हुए।

सन् 1957 तक रेडियो से संबद्ध रहे। ‘कला और बूढ़ा चांद’ काव्य ग्रंथ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा ‘लोकायतन’ पर सोवियत भूमि पुरस्कार, ‘चिदंबरा’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। भारत सरकार ने सुमित्रा नंदन पंत को ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से विभूषित किया। पंत में यथार्थ के विषम एवं दारुण रूप के अभाव का कारण भी कुछ सीमा तक प्रकृति के उस प्रभाव को ही स्वीकारा जा सकता है। 

प्रकृति के प्रति प्रगाढ़ प्रेम ने इन्हें जीवन की नैसर्गिक व्यापकता तथा अनेक रूपता से पूर्ण रूपेण वंचित कर दिया। “छोड़ द्रुसों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूं लीचन? छोड़ अभी से उस जग को।” इस पद्यांश के विवेचन से ऐसा लगता है कि पंत नारी सौंदर्य की अपेक्षा प्राकृतिक सौंदर्य को अधिक महत्व देते हैं। नारी सौंदर्य की यह उपेक्षा जीवन की उपेक्षा के भाव को व्यक्त करती है। बालिका भी नारी का लघु रूप है। इस विश्व के प्रति कवि का मोह अभी समाप्त नहीं हुआ है।

सुमित्रा नंदन पंत की रचनाएं

 सुमित्रा नंदन पंत की रचनाएं निम्न हैं। ‘गिरजे का घंटा’, ‘ग्रंथि’, ‘वीणा’, ‘पल्लव’, ‘गुंजन’, ‘युगांत’, ‘युगवाणी’, ‘ग्राम्या’, ‘उत्तरा’, ‘स्वर्ण किरण, ‘स्वर्ण धूलि’, ‘अंतिमा’, ‘किरण, ‘पतझर’, ‘एक भाव क्रांति’, ‘लोकायतन’, ‘कला और बूढ़ा चांद’, ‘चिदंबरा’, ‘गीत हंस’ तथा ‘रजत शिखर’ आदि काव्य रचनाएं हैं।

सुमित्रा नंदन पंत की साहित्यिक विशेषताएं

सुमित्रा नंदन पंत की साहित्यिक विशेषताएं निम्न हैं।

सुमित्रा नंदन पंत के काव्य विकास के प्रथम सोपान में ‘वीणा’, ‘ग्रंथि’, ‘पल्लव’ और ‘गुंजन’ काव्य आते हैं। ये छायावादी प्रवृत्ति की प्रमुख रचनाएं हैं। ‘वीणा’ में प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति कवि का अनन्य अनुराग है। ‘ग्रंथि’ से वह प्रेम की भूमिका में प्रवेश करता है तथा उसे नारी-सौंदर्य आकृष्ट करने लगता है। 

‘पल्लव’ छायावादी पंत का चरम बिंदु है। अब कवि अपने ही सुख-दुख में केंद्रित था किंतु ‘गुंजन’ से वह अपने में केंद्रित न रहकर विस्तृत मानव जीवन अर्थात् मानवतावाद की ओर उन्मुख होता है।

द्वितीय सोपान में सुमित्रा नंदन पंत की तीन रचनाएं ‘युगांत’, ‘युगवाणी’ तथा ‘ग्राम्या’ आती हैं। इस काल में कवि पहले गांधीवाद से प्रभावित है। बाद में माक्र्सवाद अपनी ओर आकर्षित कर लेता है तथा अंत में वह प्रगतिवादी बन जाता है।

माक्र्सवाद की भौतिक स्थूलता कवि के मूल संस्कारी कोमल स्वभाव के विपरीत होने के कारण वह पुन: अंतर्जगत की ओर मुड़ जाता है। इस काल की प्रमुख रचनाएं ‘स्वर्ण किरण’, ‘स्वर्ण धूलि’, ‘उत्तरा’, ‘अतिमा’, ‘कला और बूढ़ा चाँद’, ‘किरण’, ‘पतझर’, ‘एक भाव क्रांति’ तथा ‘गीत हंस’ है। इस काल में कवि पहले विवेकानंद और रामतीर्थ से प्रभावित होकर बाद में अरविंद दर्शन से प्रभावित होता है।

सन् 1955 ई. के बाद की सुमित्रा नंदन पंत की कुछ रचनाओं ‘कौवे’, ‘मेंढक’ आदि पर प्रयोगवादी कविता का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। परंतु कवि को यह रूप सहज नहीं लगता और वह पुन: उसे छोड़कर अपने प्रकृत अर्थात् वास्तविक रूप पर लौट आता है। पंत छायावादी चार उन्नायकों में से एक हैं। वे अति सुकुमार एवं संवेदनशील कवि हैं। उन्हें ‘प्रकृति का मंजुल-मसृण कवि’ कहा जाता है। वे निरंतर प्रगतिशील रहे हैं। वातावरण तथा अध्ययनशीलता उनकी प्रगतिशीलता के प्रमुख कारण रहे हैं। वातावरण संबंधी प्रभाव उन पर उनकी जन्मभूमि कौसानी का सबसे अधिक पड़ा है जिसकी प्राकृतिक सुषमा में वे पले, बड़े हुए हैं उसने इन्हें मुग्ध कर लिया है। 

इसके अतिरिक्त वातावरण संबंधी द्वितीय प्रभाव उन पर सन् 1930 ई. के बाद देश में दिखलाई पड़ने वाली विकट राजनीतिक परिवेश तथा जनसाधारण के कष्टों की विभीषिका का पड़ा, जिसने उन्हें गांधीवाद से माक्र्सवाद की ओर मोड़ दिया। दर्शन की दृष्टि से वे सबसे अधिक स्वामी विवेकानंद एवं स्वामी रामतीर्थ के वेदांत संबंधी विचारों से प्रभावित हुए तथा अंत में उन पर अरविंद दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है। 

पंत काव्य में प्रकृति के मनोरम रूपों का मधुर एवं सरस चित्रण मिलता है। ‘आंसू की बालिका’ तथा ‘पर्वत प्रदेश में पावस’ आदि कविताओं में प्रकृति के मनोहर चित्रा विद्यमान हैं जिनमें कवि की जन्मभूमि के प्राकृतिक सौंदर्य का अपूर्व वैभव दृष्टिगोचर होता है। कवि पंत आदर्श प्रेमी रहे हैं। कवि की आदर्शवादी भावना निरंतर प्रबल होती गई है। यह आदर्शवादी भावना ही ‘परिवर्तन’ कविता में ‘सर्ववाद’ का रूप ग्रहण कर लेती है। कवि ‘तिमिर त्रास’ का निवारण करना चाहता है किन्तु प्रकृति प्रेम को - जो एक तरह से ठोस यथार्थ जीवन के प्रति आसक्ति की सीमा बन जाता है - त्यागना भी नहीं चाहता है। ‘गुंजन’ तक की रचनाओं में सुमित्रा नंदन पंत ने विचार को सजीव सरस रूप में ही प्रस्तुत किया है। पंत की सौंदर्य भावना और कल्पना का प्रसार प्रकृति और जीवन के सुकुमार रूपों की ओर अधिक रहा है।

‘पल्लव’ की भूमिका में पंत ने भाषा, अलंकार, छंद, शब्द और भाव के सामंजस्य पर विचार व्यक्त किए हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि कवि भाषा प्रयोग के संबंध में कितना जागरूक है। पंत की शैली में लाक्षणिक वैचित्रय, विशेषण विपर्यय, विरोध चमत्कार, मानवीकरण, प्रतीक विधान तथा अन्योक्ति विधान विद्यमान हैं। भावों और विचारों की सरलता एवं स्पष्टता के अनुरूप ही शैली प्राय: प्रसादगुण युक्त है। सजगता भाषा के मंथर गंभीर प्रभाव और अलंकार विधान के रूप मं दृष्टिगोचर होती है। अनुभूति के प्रवाह एवं वेग के अनुरूप ही भाषा में प्रवाह एवं आवेश है।। ‘ग्राम्य’ आदि में उनकी भाषा शैली एवं भाव बोध प्रगतिवादी चेतना से प्रभावित हैं। जहां कविता की भाषा में वक्ता, सांकेतिकता आदि के स्थान पर सरलता तथा सपाट बयानी परिलक्षित होती है आध्यात्मिक सत्य पर कवि की आस्था बनी हुई है किन्तु वह भौतिक समृद्धि की अनिवार्यता को भी स्वीकारता है। नई शैली में छायावादी कविता की सांकेतिकता, उपचार वक्रता तथा बौद्धिकता आदि का समावेश है।

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