आरक्षण क्या है- आरक्षण की आवश्यकता क्यों है?

आरक्षण एक उपाय है जिसके माध्यम से कुछ पदों को रोजगार में सुरक्षित किया जाता है तथा संसद, राज्य विधान मंडल एवं स्थानीय निकायों में कमजोर वर्गों  अनुसूचित, अनुसूचित जन जातियों, महिलाओं, अन्य पिछडे़ वर्गों अथवा ई.वी.एस., के लिए सीटें आरक्षित की जाती है। आरक्षण का लाभ किसी भी ऐसे समूह द्वारा नहीं किया जा सकता जो कानून द्वारा उनके लिए हकदार नहीं है। 

आरक्षण का अर्थ

आरक्षण का सामान्य अर्थ यह है कि अपनी जगह सुरक्षित करना। प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा हर स्थान पर अपनी जगह सुनिश्चित करने या रखने की होती है चाहे वो रेल के डिब्बे में यात्रा करने के लिए हो या किसी अस्पताल में अपनी चिकित्सा कराने के लिए। साथ ही विधानसभा या लोक सभा का चुनाव लड़ने की बात हो या किसी सरकारी विभाग में नौकरी पाने की।

1. भारत में आरक्षण की शुरूआत 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योति राव फूले ने सभी के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व की माँग की थी। 

2. 1901 में महाराष्ट्र के रियासत कोल्हापुर में साहू महाराज द्वारा आरक्षण की शुरूआत की गई। यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश था।

3. 1909 और 1919 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

4. 1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया जिसमें आरक्षण की व्यवस्था की गई थी।

5. 1935 के भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया।

6. 1937 में समाज के कमजोर तबकों के लिए सीटों के आरक्षण को ‘गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट’ में शामिल किया गया।

7. भारतीय राज्यों में स्वशासन के अलावा संघीय ढाँचे को बनाने के लिए ब्रिटिश शासकों ने कानून बनाया। इस अधिनियम के साथ ही अनुसूचित जाति शब्द का इस्तेमाल शुरू किया गया।

8. 1942 में भीमराव अंबेडकर ने अनुसूचित जातियों के उन्नति एवं समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की। उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की माँग की।

9. 1946 के कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया गया।

26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष अनुच्छेदों और धाराओं की व्यवस्था की गई है। इसके अलावा 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किये गये।

10. 1953 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन किया गया। 1956 में आई इस रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचियों में संशोधन किया गया।

11. 1979 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मण्डल आयोग का गठन किया गया था। 1980 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। आयोग ने मौजूदा आरक्षण कोटा में बदलाव करते हुए 22.5 प्रतिशत से 49.5 प्रतिशत वृद्धि करने की सिफारिश की। 

12. वर्ष 2005 में निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और एससी एवं एसटी वर्ग के आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां संविधान संशोधन लाया गया।

आरक्षण की आवश्यकता क्यों है? 

समाज के उन वर्गों की सहायता की आवश्यकता हे जो राज्य या किसी अन्य अभिकरण की सहायता से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते। क्या आरक्षण अनारक्षित वर्गों के खिलाफ या भेदभावपूर्ण है? यह सकारात्मक अर्थ में भेदभाव पूर्ण है न कि नकारात्मक अर्थ में। इस तरह के भेदभाव के लिए उन्हें राज्य की सहायता की आवश्यकता होती है, ताकि अनारक्षित वर्ग को बराबर लाया जा सके। इस अर्थ में आरक्षण को सकारात्मक भेदभाव भी कहा जाता है। क्योंकि आरक्षण की पहल राज्य द्वारा की जाती है इसलिए इसे सकारात्मक कार्यवाही भी कहा जाता है। 

भारतीय राज्य विभिन्न समुदायों को भिन्न आधार पर आरक्षण प्रदान करता है। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण का प्रमुख आधार सामाजिक भेदभाव एवं छुआछूत जैसी समस्या रही है जिन्हें उन्होंने बहुत समय से अनुभव किया है। जबकि अनुसूचित जनजातियों को उनके भौगोलिक तथा अन्य कारणों से उत्पन्न अभावों के आधार पर आरक्षण दिया गया है। जबकि अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण उनके सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के कारण दिया है। महिलाओं को आरक्षण समाज में उनके खिलाफ हो रहे भेदभाव एवं पितृसत्ता जैसे मूल्यों के आधार पर दिया गया है। जबकि गरीब वर्गों को उनके आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया गया है। आर्थिक आधार पर आरक्षण उन समुदायों को दिया गया है जिन्हें किसी भी वर्ग में आरक्षण नहीं मिल रहा है। ये मूल रूप से उच्च जातियों से संबंध रखते हैं।

भारत में आरक्षण का इतिहास

भारत में आरक्षण की शुरूआत सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को समृद्ध बनाने के लिए हुई थी लेकिन समय के साथ-साथ आरक्षण वोट बैंक की राजनीति का शिकार बनती चली गई। वर्तमान समय में हर राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए आरक्षण शब्द का उपयोग कर रहे हैं जिसके कारण आरक्षण का मूल उद्देश्य समाप्त होता जा रहा है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ समूहों को अनुसूचित जाति (अजा) और अनुसूचित जनजाति (अजजा) के रूप में सूचीबद्ध किया । संविधान निर्माताओं का मानना था, कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से वंचित रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया और इसलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही ।

भारत में गरीबी रेखा से नीचे अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े समुदायों के लोगों का सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण तथा उनके सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने कानून के सहारे सभी सरकारी तथा सार्वजनिक एवं निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है । और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए कानून बना सकते हैं । सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14 प्रतिशत आरक्षण भी शामिल है। आम आबादी में उनकी संख्या के अनुपात के आधार पर उनके बहुत ही कम प्रतिनिधित्व को देखते हुए शैक्षणिक परिसरों और कार्यस्थलों में सामाजिक विविधता को बढ़ाने के लिए कुछ अभिज्ञेय समूहों के लिए प्रवेश मानदंड को नीचे किया गया है। कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों की पहचान के लिए सबसे पुराना मानदंड जाति है। भारत सरकार द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार कम - प्रतिनिधित्व के अन्य मानदंड भी हैं जैसे- लिंग, अधिवास आदि ।

भारत में आरक्षण का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, यहां आजादी से पहले ही नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने की शुरुआत हो चुकी थी, विशेष वर्ग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सामाजिक और आर्थिक सुधार के लिए विभिन्न प्रयास किए गए, इसके लिए विभिन्न राज्यों में विशेष आरक्षण के लिए समय-समय पर कई आंदोलन भी हुए हैं। जिनमें राजस्थान का गुर्जर, हरियाणा का जाट, महाराष्ट्र का मराठा, यूपी, बिहार का निषाद, आंध्र प्रदेश का कम्मान्दोलन और गुजरात का पटेल आरक्षण आंदोलन प्रमुख है। आरक्षण की शुरूआत एवं इसके विभिन्न चरणों में विकास निम्न रूप से हुआ।

भारत में आरक्षण की शुरूआत 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेजी सरकार की नौकरियों में अनुपातिक आरक्षण प्रतिनिधित्व की मांग की थी।

1891 के आरंभ में त्रावणकोर के सामंती रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।
1902 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शुरूआत की गई। यह अधिसूचना भारत में पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है ।

1908 में अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में जिनका प्रशासन में थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया। 1909 और 1919 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान
क्रमशः हिन्दू, शूद्र, जातियों व पिछड़े वर्ग के नाम से किया गया।

1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय - एंग्लो ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी।

1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, (जो पूना समझौता कहलाता है) जिसमें पिछड़े वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की गई थी।

1935 के भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए किया गया था।

1942 में बी. आर. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय पिछड़े वर्ग महासंघ की स्थापना की। उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की थी।

1946 भारत में कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में अन्य कई सिफारिशों के साथ अनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया गया था।

26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएँ रखी गयी हैं । तथा 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए।
1953 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन किया गया था, इस आयोग के द्वारा सौंपी गई अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन अन्य पिछड़ी जाति (OBC) के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया।

1979 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता में मंडल आयोग की स्थापना की गई थी, इस आयोग के पास अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) के बारे में कोई सटीक आंकड़ा नहीं था और इस आयोग ने ओबीसी की 52 प्रतिशत आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1931 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1257 समुदायों का वर्गीकरण किया था।

1980 में मंडल आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और तत्कालीन कोटा में बदलाव करते हुए इसे 22 प्रतिशत से बढ़ाकर 49.5 प्रतिशत करने की सिफारिश की। 2006 तक पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गयी, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60 प्रतिशत की वृद्धि है ।

1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को विश्वनाथ प्रतापसिंह की सरकार द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने इसके विरोध में राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की थी।

1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की शुरूआत की थी ।

16 नवम्बर, 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया था।

1995 में संसद ने 77वें संवैधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विकास के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16 (4) (ए) का गठन किया, बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा
इसमें पदोन्नति में वरिष्ठता को शामिल किया गया था।

12 अगस्त, 2005 को उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता है। लेकिन इसी साल निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां संवैधानिक संशोधन लाया गया । इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया ।

2006 से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ । 

10 अप्रैल, 2008 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया। इसके अलावा न्यायालय ने स्पष्ट किया कि क्रीमीलेयर को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए । जनवरी 2019 में संसद ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण देने के लिए 124वें संविधान संशोधन विधेयक को पारित करके संविधान में 103वां संशोधन किया था। जिसके बाद सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 10 प्रतिशत का आरक्षण कानून बना ।

वर्तमान में भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यवस्था को देखा जाए तो हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था भी की है। आरक्षण का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को अपने सामान्य अधिकार भी ना मिले तब वह अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करता है। आरक्षण का मुख्य उद्देश्य सभी को सभी क्षेत्र मे समानता का अधिकार दिलाना है। किसी भी रूप से किसी के अधिकारों का हनन ना हो और कोई अपने अधिकारों का दुरुपयोग भी ना करे यह आरक्षण का मुख्य आधार है।
भारत में आरक्षण की सभी परिस्थियों को देखते हुए दलितों के लिये कानून बनाये गये, और धीरे-धीरे करके उन्हें भी सामान्य लोगों जैसे अधिकार प्रदान किये गये और उँच-नीच की भावनाओं को लोगों के मन से दूर किया गया इसलिये हर वर्ग को उसकी आबादी के अनुसार आरक्षण दिया और समय–समय पर उसमे बदलाव किये जिनमे अलग-अलग जाति के उनकी जनसंख्या और समय की मांग के अनुसार, प्रतिशत निर्धारित किये गये।

क्या है मौजूदा आरक्षण व्यवस्था?

  1. वर्तमान समय में अनुसूचित जाति को 15 फीसदी आरक्षण प्राप्त है।
  2. अनुसूचित जनजाति को 7.5 फीसदी आरक्षण प्राप्त है तथा अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण प्राप्त है।

१. अनु. जातियों के लिये आरक्षण

अनु. जातियों के लिये आरक्षण की उत्पत्ति पूना समझौते से से जुड़ी हुई है। जिस पर गाँधी और अंबेडकर ने हस्ताक्षर किये थे। पूना समझौते के अनुसार, अनुसूचित जातियों को विधानसभा और संसद में आरक्षण दिया गया था। 1935 के भारत सरकार अधिनियम, तहत आरक्षण को कानूनी मंजूरी दी गई थी। संविधान सभा में अनुसूचित जाति सदस्यों का प्रतिनिधित्व था जिनका ब्रिटिश भारत में विधायी स्वीकृति थी। संविधान सभा में आरक्षण की चर्चा की गयी। संविधान सभा ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें सार्वजनिक संस्थानों में अनु. जाति तथा अनु. जन.जातियों के लिये आरक्षण का सुझाव दिया गया। तदनुसार, आरक्षण के बारे में उपबंध संविधान के अनु. 15 और 16 में शामिल किये गये। 

1950 में संविधान में लाग ू हाने के साथ-साथ ये प्रावधान भी प्रभावशील हुए। 1947 में अनु. जाति तथा जन जातियों के आरक्षण को रोजगार और विधानमंडल में लागू करने का निर्णय लिया गया। 1954 में शिक्षा संस्थानों में इसका विस्तार हुआ। केन्द्र सरकार द्वारा निधिकृत उच्च शिक्षा संस्थाओं में 22.5 प्रतिशत उपलब्ध सीटें अनु. जाति और 7.5 प्रतिशत अनु. जन.जाति के छात्रों के लिए आरक्षित है।

2. पिछड़े वर्गों का आरक्षण का इतिहास

यद्यपि सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछडे़ वर्गों जैसे अनु. जाति, अनुसूचित जन.जाति, महिला वर्ग, और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लोगों के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही आरक्षण लागू किया गया था, लेकिन इसका इतिहास औपनिवेशिक काल से ही रहा है। सन 1880 में औपनिवेशिक सरकार के सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए हंटर आयोग की स्थापना की। ज्योतिराव फूले ने हंटर आयोग के समक्ष अपील की थी। 1902 में कोल्हापुर के महाराजा साहू जी इन वर्गों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही। आधुनिक भारत के इतिहास में यह पहला उदाहरण है आरक्षण देने का। 1921 में मद्रास सरकार ने समुदाय मुताबिक आरक्षण देने का प्रावधान किया वो इस प्रकार है : 44 प्रतिशत गैर-ब्राह्मणों को, 16 प्रतिशत ब्राह्मणों एवं मुस्लिम, ईसाई और आंग्ल. भारतीय लोगो प्रत्येक के लिए।

आरक्षण के प्रकार

आरक्षण के विभिन्न आधारों पर आधारित निम्नलिखित प्रकार है, जो इस प्रकार हैं-

1. जाति आधारित आरक्षण - केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित उच्च शिक्षा संस्थानों में उपलब्ध सीटों में से अनुसूचित जाति 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति 7.5 प्रतिशत वर्गों के लिए आरक्षित हैं। अन्य पिछड़े वर्गों (OBC) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को शामिल करके आरक्षण का यह 49.5 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया है। 

2. प्रबंधन कोटा -  जाति-समर्थक आरक्षण के पैरोकारों के अनुसार प्रबंधन कोटा सबसे विवादास्पद कोटा है। प्रमुख शिक्षाविदों द्वारा भी इसकी गंभीर आलोचना की गयी है, क्योंकि जाति, नस्ल और धर्म पर ध्यान दिए बिना आर्थिक स्थिति के आधार पर यह कोटा है, जिससे जिसके पास भी पैसे हों, वह अपने लिए सीट खरीद सकता है। इसमें निजी महाविद्यालय प्रबंधन की अपनी कसौटी के आधार पर तय किये गये विद्यार्थियों के लिए 15 प्रतिशत सीट आरक्षित कर सकते हैं। इस कसौटी में महाविद्यालयों की अपनी प्रवेश परीक्षा या कानूनी तौर पर 10+2 के न्यूनतम प्रतिशत शामिल होते हैं।

3. लिंग आधारित आरक्षण - महिलाओं को ग्राम पंचायत (जिसका अर्थ है गांव की विधानसभा स्थानीय ग्राम सरकार का एक रूप है) और नगर निगम चुनावों में 33 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है। बिहार जैसे राज्य में ग्राम पंचायत में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है।

4. धर्म आधारित आरक्षण - कुछ राज्यों में धर्म आधारित आरक्षण भी लागू है। जैसे- तमिलनाडु सरकार ने मुसलमानों के लिए 3.5 प्रतिशत और ईसाइयों के लिए 3.5 प्रतिशत सीटें आवंटित की हैं जिससे ओबीसी आरक्षण 30 प्रतिशत से 23 प्रतिशत कर दिया गया, क्योंकि मुसलमानों या ईसाइयों से संबंधित अन्य पिछड़े वर्ग को इससे हटा दिया गया। तमिलनाडु में ओबीसी के 30 प्रतिशत के अतिरिक्त अति पिछड़ी व विमुक्त जातियों को 20 प्रतिशत आरक्षण कोटा की व्यवस्था भी है।

5. राज्य के स्थायी निवासियों के लिए आरक्षण -  कुछ अपवादों को छोड़कर राज्य सरकार के अधीन सभी नौकरियां उस राज्य में रहने वाले सभी निवासियों के लिए आरक्षित होती हैं। पीईसी (PEC) चंडीगढ़ में पहले 80 प्रतिशत सीट स्थानीय निवासियों के लिए आरक्षित थीं अब यह 50 प्रतिशत है

आरक्षण के लिए अन्य मानदंड

  1. स्वतंत्रता सेनानियों के बेटे / बेटियों / पोते / पोतियों, नाती/नतिनियों के लिए आरक्षण
  2. शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति के लिए आरक्षण
  3. खेल हस्तियों के लिए आरक्षण
  4. शैक्षिक संस्थानों में अनिवासी भारतीयों (एनआरआई (NRI)) के लिए छोटे पैमाने पर सीटें आरक्षित होती हैं। उन्हें अधिक शुल्क और विदेशी मुद्रा में भुगतान करना पड़ता है । (नोट: 2003 में एनआरआई आरक्षण आईआईटी से हटा लिया गया था)
  5. सेवानिवृत सैनिकों के लिए आरक्षण
  6. शहीदों के परिवारों के लिए आरक्षण
  7. अंतर-जातीय विवाह से पैदा हुए बच्चों के लिए आरक्षण
  8. सरकारी उपक्रमों/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के विशेष स्कूलों (जैसे-सेना स्कूलों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के स्कूलों आदि) में उनके कर्मचारियों के बच्चों के लिए आरक्षण ।
  9. वरिष्ठ नागरिकों/पीएच (PH) के लिए सार्वजनिक बस परिवहन में सीट आरक्षण |

आरक्षण के लाभ

■ सभी को समान अधिकार मिलें।
■ किसी के साथ उँच-नीच का भेदभाव ना हो ।
■ स्वतंत्रता से जीने के पर्याप्त अधिकार प्राप्त हुये ।
■ आरक्षण की वजह से विभिन्न निर्णय लेने में पिछड़े वर्गों के लोग अर्थात् समाज के विभिन्न वर्गों से प्रतिनिधित्व में वृद्धि हुई ।
■ कुछ पिछड़े वर्गों के लोगों को सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ कुछ निजी संस्थानों में उच्च पदों या सेवाओं को प्राप्त करने में मदद की है।

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