आर्य समाज का इतिहास

1875 में आर्य समाज की स्थापना गुजरात के मूल शंकर नामक व्यक्ति ने की थी जो बाद में दयानंद सरस्वती (1824-1883) के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होनें झूठे धर्मो का खण्डन करने के लिए ‘‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’’ लहराई। आर्य समाज की स्थापना का मुख्य उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की शुद्ध रूप में पुनः स्थापना करना था। उन्होनें ‘‘वेदों की ओर लोटों’’ का नारा दिया। दयानंद ने हिन्दु समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों को जड़ से उखाड़ फेंखने का प्रण किया। समाज की स्थापना के बाद अनेक बाधाओं को झेलते हुए समाज ने शीघ्र ही उत्तरी भारत के एक बड़े भाग (पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार के कुछ भाग) पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया।

आर्य समाज के माध्यम से दयानंद सरस्वती ने वेदों को हिन्दु धर्म का वास्तविक आधार बताते हुए एकेश्वरवाद के प्रति आस्था व्यक्त की। इसके अलावा वह धार्मिक क्षेत्र में मूर्ति पूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्राद्ध, जंत्र, मंत्र तथा तंत्र तथा झूठे कर्मकाण्ड को स्वीकार नहीं करते थे। वे सामाजिक सुधारों के एक बड़े प्रवक्ता थे। उन्होनें जातीय प्रतिबंधों, छुआछूत बाल विवाह और समुद्र यात्रा निषेध का प्रतिवाद किया तथा स्त्री-शिक्षा, विधवा-पुर्नविवाह, अछूतोद्धार तथा गो रक्षा के पक्ष में आवाज बुलंद की। दयानंद ने आर्य समाज के माध्यम से हिन्दु समाज के दलित, बहिष्कृत एवं अन्य गैर हिन्दुओं को हिन्दु धर्म में परिवर्तित करने के लिए शुद्धि आन्दोलन का सूत्रपात किया इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य ‘‘भारत की राष्ट्रीय सामाजिक तथा धार्मिक एकता के महान आदर्श की उपलब्धि था।

आर्य समाज क्या है ? 

आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है जिसकी स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में बंबई में मथुरा के स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से की थी। यह आंदोलन पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदू धर्म में सुधार के लिए प्रारंभ हुआ था। आर्य समाज में शुद्ध वैदिक परंपरा में विश्वास करते थे तथा मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकाण्ड व अंधविश्वासों को अस्वीकार करते थे। इसमें छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रो को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया था। स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ आर्य समाज का मूल ग्रंथ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम् जिसका अर्थ है- विश्व को आर्य बनाते चलो।

आर्य समाज के संस्थापक

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द जी सरस्वती हैं । सन् 1824 ई. में गुजरात के वंकरा परगने के जिवपुर ग्राम में इनका जन्म हुआ था । बचपन का नाम मूलशंकर था । जब वे 21 वर्ष के हुये तो गृह त्याग कर दिया 15 वर्षो तक यहां वहां भ्रमण करते रहे । सन् 1860 ई. में उन्होंने मथुरा पहुंचकर स्वामी वृजानन्द से दीक्षा ली । वहीं संस्कृत का अध्ययन किया तथा वेदों का भी गहन अध्ययन किया । उन्होंने ‘वेदो की ओर लौटों’ का नारा बुलन्द किया । कहा जाता है कि बचपन में एक बार शिवरात्रि के पर्व पर एक मन्दिर में शिवलिंग पर एक चुहे को प्रसाद खाते हये देखकर उनका विश्वास मूर्तिपूजा से हट गया ।

आर्य समाज की स्थापना

हिन्दू धर्म की वास्तविकता को सामने लाने के लिये स्वामी दयानन्द जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ ग्रन्थ की रचना की । सन 1857 ई. में उन्होंने मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की । आगे चलकर 1877 ई. में लाहौर तथा 1878 ई. में दिल्ली में आर्य समाज की स्थापना उनके द्वारा की गई । 30 अक्टूबर 1883 ई. को स्वामी जी का देहावसान हो गया ।

आर्य समाज के सिद्धांत

आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ और प्रगतिशील। अतः आर्य समाज का अर्थ हुआ श्रेष्ठ और प्रगतिशीलों का समाज, जो वेदों के अनुकूल चलने का प्रयास करते है। दूसरों का उस पर चलने केा प्रेरित करते है। आर्य समाजियों के आदर्श मर्यादा पुरूषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण है। महर्षि दयानंद ने उसी वेद मत को फिर से स्थापित करने के लिए आर्य समाज की नींव रखी। आर्य समाज के सब सिद्धांत और नियम वेदों पर आधारित है। आर्य समाज की मान्यताओं के अनुसार फलित ज्योतिष, जादू-टोना, जन्मपत्री, श्राद्ध, तर्पण, व्रत, भूत-प्रेत, देवी जागरण, मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा मनगढंत है, वेद विरूद्ध है। 

आर्य समाज सच्चे ईश्वर की पूजा करने को कहता है, यह ईश्वर वायु और आकाश की तरह सर्वव्यापी है, वह अवतार नही लेता, वह सब मनुष्यों को उनके कर्मानुसार फल देता है, अगला जन्म देता है, उसका ध्यान घर में किसी भी एकांत में हो सकता हैं

इसके अनुसार दैनिक यज्ञ करना हर आर्य का कर्तव्य है। परमाणुओं को न कोई बना सकता है, न उसके टुकड़े ही हो सकते है। यानी वह अनादि काल से है। उसी तरह एक परमात्मा और हम जीवात्माएँ भी अनादि काल से है। परमात्मा परमाणुओं को गति दे कर सृष्टि रचता है। आत्माओं को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। फिर चार ऋषियों के मन में 20,378 वेदमंत्रों का अर्थ सहित ज्ञान और अपना परिचय देता है।

सत्यार्थ प्रकाश आर्य समाज का मूल ग्रंथ है। अन्य माननीय ग्रंथ है- वेद, उपनिषद, षड्दर्शन, गीता व वाल्मीकि रामायण इत्यादि। महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में इन सबका सार दे दिया है। 18 घंटे समाधि में रहने वाले योगिराज दयानंद ने लगभग आठ हजार किताबों का मंथन कर अद्भुत और क्रांतिकारी सत्यार्थ प्रकाश की रचना की।

मान्यताएँ - ईश्वर का सर्वोत्तम और निज नाम ओम् है। उसमें अनंत गुण होने के कारण उसके ब्रह्या, महेश, विष्णु, गणेश, देवी, अग्नि, शनि वगैरह अनंत नाम है। इनकी अलग-अलग नामों से मूर्ति पूजा ठीक नहीं है। आर्य समाज वर्ण व्यवस्था यानी ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र को कर्म से मानता है, जन्म से नहीं। आर्य समाज स्वदेशी, स्वभाषा, स्वसंस्कृति और स्वधर्म का पोषाक है।

आर्य समाज सृष्टि की उत्पत्ति का समय चार अरब 32 करोड़ वर्ष और इतना ही समय प्रलय काल का मानता है। योग से प्राप्त मुक्ति का समय वेदों के अनुसार 31नील 10 खरब 40 अरब यानी एक परांत काल मानता है। आर्य समाज वसुवैध कुटुंबकम् को मानता है। लेकिन भूमंडलीकरण को देश, समाज और संस्कृत के लिए घातक मानता है। आर्य समाज वैदिक समाज रचना के निर्माण व आर्य चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने के लिए प्रयासरत है। इस समाज में मांस, अंडे, बीडी, सिगरेट, शराब, चाय, मिर्च-मसाले वगैरह वेद विरूद्ध होते है।

आर्य समाज के 10 नियम

(1) सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते है, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।

(2) ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।

(3) वेब सब सत्यविधाओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यो का परम धर्म है।

(4) सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।

(5) सब काम धर्मानुसार, अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।

(6) संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

(7) सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।

(8) अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।

(9) प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिए, किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।

(10) सब मनुष्यों को सामाजिक ‘सर्वहितकारी’ नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में स्वतंत्र रहे। 

आर्य समाज के कार्य

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से समाज को पुनर्जागृत किया । तत्कालीन भारत में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सुधार आदि के कार्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया । जैसे-
  1. सतीप्रथा को समाप्त करने पर जोर दिया । बाल विवाह को सामाजिक बुराई माना। विधवा विवाह का समर्थन किया । जाति-पांति एवं छुआ-छूत का अत्यधिक विरोध किया । 
  2. स्त्रियों को समाज में आदर मिले इसके लिए स्त्री शिक्षा पर जोर दिया । वैदिक शिक्षा के प्रसार प्रचार के लिये गुरूकुल स्थापित करवाये । इसमें हरिद्वार का गुरूकुल कांगड़ी अत्यधीक प्रसिद्ध शिक्षा का केन्द्र है । 
  3. आर्य समाज ने वेदों की ओर लौटों का नारा दिया तथा बुद्धदेववाद व अवतारवाद का खण्डन किया । अन्धविश्वास तथा मूर्ति पूजा का विरोध कर एक ईश्वर की आराधना करने का सन्देश दिया । प्राचीन आर्य संस्कृति और सभ्यता को सामने रखकर भारतीयों में आत्मसम्मान व गौरव पैदा करने का काम किया ।
  4. स्वामीजी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वेदीश वस्तुओं के प्रचार प्रसार जोर दिया। उन्होंने भारतीयों को पुनर्जाग्रत करने का काम किया । सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि अच्छे से अच्छा विदेशी शासन स्वदेशी शासन की तुलना नहीं कर सकता । वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि भारत भारतवासियों के लिये है ।

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