गिटार की उत्पत्ति और भारत में गिटार का इतिहास

गिटार

गिटार की उत्पत्ति 

वास्तव में किसी भी वाद्य के उत्पत्ति के बारे में ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त करना एक कठिन कार्य है क्योंकि प्राचीनकाल से ही आवश्यकताओं के आधार पर हर समय कुछ न कुछ प्रयोग होते ही रहे हैं। जब कोई प्रयोग समय के साथ धीरे-धीरे सफल हो जाता है और जनसामान्य का ध्यान उस तरफ आकर्षित होता है लेकिन प्राप्त सफल परिणामों के आधार पर उस वस्तु विशेष का उद्भव कब से हुआ ये जानकारी शायद ही किसी को याद रहती है। ऐसा ही कुछ गिटार के उद्भव के साथ ही हुआ है।

गिटार की उत्पत्ति के विषय में जो तथ्य तथा जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं उनके अनुसार इस वाद्य का सर्वप्रथम प्रयोग लोक संगीत में आरम्भ हुआ। स्पेन नाम देश में जिप्सी लोग अपनी स्थानीय भाषा में थोड़ा बहुत गाना बजाना करते थे। जिसका उद्देश्य आपसी मनोरंजन ही था। भारतीय मूल के जिप्सी लोग गाने के साथ कई वाद्यों का प्रयोग संगत वाद्य के रूप में करते थे जिसमें गिटार वाद्य भी था। धीरे-धीरे कुछ समय के उपरान्त लगभग सोलहवीं सदी के दहलीज पर गिटार ने सांगीतिक संसार में प्रवेश किया। 

इस प्रकार गिटार का प्रचार लोकसंगीत से शुरूआत कर करीब दो दशकों के बाद धीरे-धीरे यूरोप के संगीत में विस्तृत तथा प्रचलित होने लगा तथा यूरोपियन संगीतकारों की दृष्टि में इसका महत्व बढ़ने लगा। 

स्पेन नामक देश से उत्पन्न होने के कारण इस गिटार का नाम भी स्पेनिश गिटार पड़ा और आज भी लोग इसे स्पेनिश गिटार के नाम से ही जानते हैं।

भारत में गिटार का इतिहास 

द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले हवाइयेन गिटार का भारत में आगमन Sol Hoopi Jackaipo तथा Jimmil Rodgers के रिकार्ड द्वारा माना जाता है। प्रवासी हवाइयेन दलों ने स्थानीय लोगों को इसे अनुकरण करने के लिए प्रेरित किया था। 1938 में स्थापित कोलकाता ALOHA BOYS BAND के द्वारा All India Radio पर इसे पहली बार सुना गया था। एक पीढ़ी के अन्दर ही हवाइयेन गिटार भारतीय फिल्म जगत का एक अभिन्न अंग बन गया था।

प्रारम्भ में गिटार के प्रयोगों में कई विरोध एवं तरह-तरह की बाते सामने आयी हैं मुख्य रूप से स्पेनिश गिटार के सन्दर्भ में। लेकिन हवाइयेन गिटार के विषय में यह कहा जा सकता हैं कि इसने शुरू से ही भारत में प्रवेश के साथ ही भारती संगीत प्रेमियों का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया। इसके सुरों का ठहराव, साधारण तकनीकी तथा इनकी वादन की शैली मुख्य रूप से स्टील राड द्वारा घसीट की पद्धति ने काफी प्रभावित किया जो भारतीय वाद्य विचित्र वीणा तथा घोटू वाद्ययम् से काफी मेल खाती है।

1960 के पूर्वाद्ध में ही हवाइयेन गिटार ने कोलकाता (पश्चिमी बंगाल) जो कि वाद्य यंत्रों की प्रतिभाओं के जन्म स्थान के रूप में जाना जाता था उसमें एक सुरक्षित घर बना लिया था। इसके अलावा 20वीं सदी के अन्त तक शीर्षस्थ फिल्म संगीतकारों के घरों में भी इसका स्थान बन गया था। उस समय कोलकाता में श्री सुजीत नाथ जी ने रेडियो तथा फिल्मों के लिए सर्वप्रथम हवाइयन गिटार को सहयोगी वाद्य यन्त्र के रूप में प्रस्तुत किया था।

कुछ अन्य भेंटवार्ताओं से प्राप्त जानकारियों के अनुसार यह भी विवरण मिलते है कि भारत में ब्रिटिश शासन के समय हवाई मार्ग आज की तरह इतने विकसित नहीं थे। अत: उस समय कार्गों जल मार्ग से पानी के जहाजों के द्वारा ही आवागमन अधिक होता था। विदेशी पर्यटक इन्हीं मार्गों से भारत भ्रमण पर आते जाते थे। विदेशी पर्यटक अपने साथ मनोरंजन के उद्देश्य से वाद्य यंत्रों को लाते थे इन्हीं वाद्यों में गिटार भी भारत में आया था। 

भारत में मुख्य रूप से कोलकाता, मुम्बई, गोवा, कोचीन इत्यादि बन्दरगाह अंग्रेजों का भारत में प्रवेश द्वारा था और उदाहरण के तौर पर यह देखा जा सकता है कि इन शहरों में संगीत की प्रस्तुति में गिटार का प्रयोग काफी पहले से होता आ रहा है। इन्हीं तटों से गिटार का प्रचार-प्रसार भारत के अन्य शहरों में होना आरम्भ हुआ था। कोलकता जो कि संगीत के लिए काफी सशक्त महानगर माना जाता है वहाँ काफी पहले से ही रवीन्द्र संगीत, नज़रूल संगीत तथा चलचित्र संगीत इत्यादि में हवाईयेन गिटार का प्रयोग होता आ रहा है।

कुछ ग्रन्थों के अनुसार भारतीय स्लाइड गिटार की त्वरित प्रेरणा उत्तरी अमेरिका से मिला था। यह यंत्र भारतीय पद्धति की मधुरता के लिए शुरू से ही उपर्युक्त रहा है। यहाँ पर एक तथ्य यह भी उजागर होता है कि हवाइयेन गिटार के प्रारम्भिक विकास में प्राचीन भारत के हाथ से खींच कर बजाने वाले वाद्य वीणा के सदृश वाद्य यंत्रों का भी भरपूर योगदान रहा है। एक तथ्य और प्राप्त होता है कि भारत में जन्में री0 ग्रेवियल डेवियन जिसे ‘होनो लूलू’ के एक समुद्री कप्तान द्वारा 19वीं शताब्दी के अन्त में अपहृत कर लिया गया था। यह पहला गिटार वादक था जिसने मधुरता उत्पन्न करने के लिए स्लाईड तकनीकी का उपयोग किया था। यह ‘डेवियन’ भारतीय स्लाईड तकनीकी से उत्पन्न मधुरता युक्त तकनीकी को हवाइयेन द्वीप पर ले गया था। 

हवाइयेन स्लाईड गिटार का प्रवेश भारतीय संगीत लगभग 1940 से लेकर 1945 के आपपास माना जा सकता है हांलाकि उस समय हवाइयेन गिटार पर भारतीय शास्त्रीय संगीत को बजाने के प्रयोग प्रारम्भिक दौर में थे। धीरे-धीरे अनेक प्रतिभाशाली विद्वान संगीतज्ञों ने जैसे स्व0 पं0 नलिन मजूमदार, पं0 ब्रजभूषण लाल काबरा, जी ने इस वाद्य पर अनेक प्रयोग किये और परिणामस्वरूप आज हम गिटार को एक सफल भारतीय शास्त्रीय संगीत वादन योग्य वाद्य के रूप में देख सुन रहे हैं।

वास्तव में गौर से देखने पर यह जानकारी प्राप्त होती है कि हवाइयेन गिटार की घसीट की पद्धति से बजने वाले वाद्यों की तरह कई वाद्य भारत में पहले से ही उपस्थित रहे हैं। जैसे कि उत्तर भारतीय वाद्य ‘विचित्र वीणा’ तथा दक्षिण भारतीय वाद्य ‘घोटू वाद्ययम्’ उत्तर भारत में घसीट की पद्धति के उद्भव के बारे में यह जानकारी प्राप्त होती है कि एक बार पटियाला के दरबारी संगीतज्ञ उस्ताद अब्दुल अजीज खाँ साहब (सारंगी वादक) ने सितार तथा सुरबहार को लेकर मजाक किया और तानपुरा के तारों पर एक शीशे की बोतल लेकर उसे घसीट कर बजाने लगे और कहने लगे ‘मैं तो बोतल की जगह शीशे के गोले से वादन किया जाने लगा जिसे बट्टा कहते हैं अत: इस वीणा को ‘बट्टा वीणा’ नाम सुना तो मजाक मे कहा कि इस वीणा पर भी ‘बट्टा’ लग गया अत: इसका नाम ‘विचित्र वीणा’ पड़ गया।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब हमारे भारत वर्ष में घसीट की पद्धति द्वारा बजने वला वाद्य पहले से ही मौजूद था तो एक विदेशी वाद्य गिटार पर वैसी ही घसीट की पद्धति द्वारा वादन करके उसे अपनाने के पीछे क्या कारण हो सकते है?

इसके लिए हमें भारतीय संगीत के इतिहास को देखना पड़ेगा।

भरत नाट्य शास्त्र में वर्जित घोसक तथा संगीत ग्रन्थों में वर्णित एक तन्त्री वीणा दोनों ग्यारहवीं शताब्दी के समय से ही अंगुली से खींचकर बजाने वाले यंत्र माने गये है, जिनमें ध्वनि या स्वर को तारों पर एक कठोर एवं चिकने ठोस वस्तु को फिसलाने या रोकने से उत्पन्न किया जाता था, आगे के समय में विशेषकर मध्यकाल के समय के यह (स्लाईडिंग) घसीट का सिद्धान्त विचित्र वीणा के प्रयोग द्वारा मधुर ध्वनि के उत्पादन के लिए विचारणीय तथ्य के रूप के सामने आया, आजकल मंच प्रस्तुति करण के अभाव में यह वाद्ययन्त्र अभी तक अपने लुप्त होने का विरोध कर रहे हैं। उत्तर भारतीय वाद्य विचित्र वीणा तथा दक्षिण भारतीय घोटुवाद्यम् अपनी परम्परा के वाद्यों के समान ही आकार एवं बनावट वाद्य वाले हैं। अत: हम यह अन्दाज लगा सकते हैं कि ध्वनि (मेलाडी) उत्पत्ति में घसीट का सिद्धान्त इन परदे रहित वीणाओं को एक विशेष संगीत क्षमता तथा स्थान देता था, यह रोचक बात है कि दोनों परम्पराओं (उत्तर तथा दक्षिण भारत) के पर्दा युक्त वीणा गायन के संगत प्रयुक्त की जाती थी। जबकि घसीट पद्धति वाली पर्दा रहित वीणा एकल वादन के लिए प्रयुक्त होती थी। एक सिद्धान्त के अनुसार एक विशेष परम्परा में यह भी तथ्य मिलते है कि गायन का भाव वादन के भाव के समान होता है, अत: यह अनुमान लगाया जा सकता है। वीणा का निकट जुड़ाव गायन शैली के साथ रहा है।

भारतीय परम्परा के विचित्र विणा का लोप होना, पर्दा सहित रूद्रवीणा के साथ ही आरम्भ हुआ, उनके लुप्त होने की व्याख्या केवल आंशिक रूप से ध्रुपद धमार जैसे मध्यकाल में मुख्य धारा के संगीत के लुप्त होने के आधार पर की जा सकती है, लेकिन कुछ तथ्य यह भी कहते है कि इनके लुप्त होने का मुख्य कारण इनकी भारी बनावट तथा मीड़ भाड़ में इनकी असहज ध्वनि और विद्युत का संगीत के क्षेत्र में अत्यधिक प्रयोग रहा है।

अब इन भारतीय वाद्यों की तुलना में गिटार की बनावट को देखे तो इनकी ध्वनि की तीव्रता का कारण इसको हल्की लकड़ी से (प्लाईवुड) निर्मित किया जाना है इसकी तबली तथा पृष्ठ भाग की तबली को काफी हल्की लकड़ी से बनाया गया हैं हालांकि सरोद में तबली के स्थान पर चमड़ा लगे होने से भी ध्वनि की तीव्रता बढ़ जाती है। लेकिन इसमें भी एक समस्या आती है जैसे चमड़ा लचीला होने के कारण अन्य तार स्वर से अव्यवस्थित होने लगते है, जबकि गिटार में ऐसी समस्या नहीं है।

सितार की तबली की तुलना में गिटार की तबली का आकार काफी बड़ा होता है तथा सितार में कोई ध्वनि छिद्र भी नहीं होता वहीं गिटार की तबकी ध्वनि छिद्र युक्त होती है जिससे उसकी ध्वनि पूरे तीव्रता के साथ ध्वनि छिद्रों के माध्यम से बाहर आती है अब विचित्र वीणा की बनावट देखने पर यह ज्ञात होता है कि उसमें तबली होती ही नहीं सिर्फ एक डांड (जिस पर सभी तार व्यवस्थित होते हें, तबली के न होने से तारों के कम्पन का सीधा सम्पर्क तुम्बे से नहीं हो पाता। जिसके कारण विचित्र वीणा की ध्वनि में गिटार की तरह ध्वनि की गुणवत्ता नहीं प्राप्त हो पाती है। ऐसा लगता है कि इन समस्याओं के समाधान के लिए ही हवाइयेन स्लाइड गिटार का प्रादुर्भाव हुआ है क्योंकि इससे पर्दा रहित वीणा की विशेषता (गायन की प्रत्येक हरकत को नकल करना) तथा कम से कम व्यतिक्रम होता है। वैसे स्लाइड गिटार सारंगी से कम क्षमता को होता है। लेकिन अन्य तार वाले वाद्यों सितार, सरोद की अपेक्षा इसमें उच्च तीव्रता की ध्वनि की सम्भावनायें अधिक हैं। शायद हइवाइयेन गिटार के द्वारा विचित्र वीणा का स्थान ग्रहण करने के पीछे मुख्य कारण इसकी सितार एवं सरोद के सापेक्ष अधिक क्षमता का होना है। 

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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