गुटनिरपेक्ष आंदोलन का प्रथम शिखर सम्मेलन कब और कहां हुआ इसकी शर्ते

प्रथम विश्व युद्ध में हुई जन-धन की हानि के कारण दुनिया के देश शांति व्यवस्था स्थापित करने के लिए चिंतित थे। अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के सहयोग से 1920 में राष्ट्रसंघ नामक अन्र्तराष्ट्रीय संस्था की स्थापना की गई। शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिए कुछ शर्ते भी रखी गई। परन्तु कुछ स्वाथ्री देशों में राष्ट्रीयता की भावना न होने के कारण यह संस्था असफल हो गई और शांति स्थापित न हो सकी। 1939 ई. तक पुन: ऐसी स्थिति बन चुकी थी कि द्वितीय विश्व युद्ध जैसी आशंका उत्पन्न हो गई। हुआ यही कि 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया और दुनिया के कई देशों ने अपने आपको इस युद्ध में झौंक दिया। 1945 में युद्ध समाप्त होने पर पुन: दुनिया के देश शान्ति स्थापित करने के लिए आतुर हो गये। 

1945 में राष्ट्रसंघ जैसी पुन: एक संयुक्त राष्ट्रसंघ नामक अन्र्तराष्ट्रीय संस्था का निर्माण किया गया। इस समय तक दुनिया दो गुटों में बंट चुकी थी प्रथम गुट का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था जो पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थक था। सोवियत रूस दूसरे गुट का नेतृत्व कर रहा था जो साम्यवादी समर्थक था। अमेरिका ने नाटो तथा सीटो (दक्षिण पूर्वी एशियाई संगठन) का निर्माण जहां रूस ने साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए किया वहीं रूस को भी वारसा पैक्ट (जिसमें जर्मनी, पोलेण्ड, हंगरी, चेकोस्लावाकिया, रूमानिया, बलगेरिया आदि देश शामिल थे) का संगठन अमेरिका की पूंजीवादी व्यवस्था को रोकने के लिए किया । इन गुटों में दुनिया के अधिकतर विकसित देश थे। भारत एक विकासशील देश था। तथा विकासशील होने के कारण भारत के समक्ष यह समस्या उत्पन्न हो गई थी कि वह किसी एक गुट में शामिल हो या दोनों गुटों से अलग रहे, इस समय दोनों गुटों के मध्य शीतयुद्ध की स्थिति बनी हुई थी। 

शीतयुद्ध अस्त्र-शस्त्र की लड़ाई न होकर वैमनस्य, कटुता, तनाब, एवं मनोमालिन्य का संघर्ष था। भारत दोनों गुटों की राजनीति से अलग अपना अस्तित्व चाहता था। भारत ने युगोस्लाविया, मिश्र आदि देशों के प्रतिनिधियों से मिलकर इस समस्या पर विचार विमर्श किया। भारत से जवाहर लाल नेहरू, यूगोस्लाविया से मार्शल टीटो तथा मिश्र के राष्ट्रपति नासिर ने दोनों गुटों से अलग रहने की नीति का क्रियानवयन कर गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सूत्रपात किया।

गुटनिरपेक्षता या असंलग्नता का उदय

1945 में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के पश्चात् विश्व दो गुटों में बंट गया था। एक गुट अमेरिका तथा दूसरा गुट सोवियत रूस का था। इस स्थिति में भारत या तो किसी एक गुट में शामिल हो सकता था, या दोनों गुटों से अलग रह सकता था। भारत के पास इस समय दो ही रास्ते थे। यहाँ इसका मतलब यह नही कि भारत तीसरा गुट बनाने की तैयारी में था। हुआ यही कि भारत ने दोनों गुटों से अलग रहकर अपनी एक नीति अपनाई, और यह तीसरा ही गुट बन गया जो निर्गुट या गुटनिरपेक्ष कहलाया। इस समय तक एशिया तथा अफ्रीका के देश स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में उभरने लगे थे। उनका गुटबंदी में विश्वास नही था और वे अपने आपको किसी देश के साथ संबंध नहीं चाहते थे। यह अफ्रो-एशियाई देश तीसरी शक्ति के रूप में उभरे। एशिया और अफ्रीका देशों के नव जागरण के काल में यह गुटनिरपेक्षता की नीति प्रमुख विशेषता थी। उनका विश्वास था कि अन्र्तराष्ट्रीय सहयोग में यह तृतीय शक्ति एक सहायक सिद्ध होगी।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की बैठक में गुटनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया। 1953-54 में जब संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत की तटस्थता की हंसी उडाई जा रही थी तब श्री कृष्ण मेनन के मुख से अचानक यह शब्द निकल पड़ा। इस प्रकार भारत की स्वंतंत्रता के उपरांत इस शब्द को बार-बार दुहराया गया तथा इस नीति का पालन शुरू हो गया। भारत में जवाहर लाल नेहरू, मिश्र के राष्ट्रपति नासिर, तथा युगोस्लाविया के मार्शल टीटो ने इस नीति की धारणा को काफी मजबूत किया। अंतत: यह नीति पूर्ण रूप से सितम्बर 1961 ई. में यूगोस्लाविया की राजधानी वेलग्रेड की ‘नान अलाइंड कांफ्रेस’ मे मान्य हो गई।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन का प्रथम शिखर सम्मेलन

1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का प्रथम सम्मेलन युगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में हुआ। इसमें मुख्य जोर इस बात पर ही था कि अब युद्ध कालातीत हो गया है और हमें शांति व निशस्त्रीकरण का मार्ग अपनाना चाहिये, सम्मेलन में तत्कालीन विश्व राजनीति का जायजा लेते हुये अनेक घोषणा की जिसमें निम्न प्रमुख है :-
  1. निशस्त्रीकरण व आणविक परीक्षणों पर रोक लगे।
  2. विश्व शांति व सहअिस्त्तव की धारणा का विकास हो।
  3. घरेलू मामलों में विदेशी हस्तक्षेप व रंगभेद की नीति की निंदा की गई।
  4. आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक पिछडे़पन को समाप्त करने की आवश्यकता पर बल दिया गया।
हालांकि सम्मेलन के अंत में 27 सूत्रीय घोषणा अपनाई गई थी परन्तु मुख्य बाते शान्ति व सुरक्षा, साम्राज्यवाद उपनिवेषवाद, नवउपनिवेषवाद का विरोध, रंगभेद की नीति का खण्डन, स्वतंत्रता जहां विदेशी सेनाएं हस्तक्षेप कर रही थी उनकी वापस की मांग, बिना किसी दबाव के आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक विकास तथा विकासशील देशों के साथ व्यापार की न्याय संगत शर्ते तय करना, परमाणु परीक्षण पर प्रतिबन्ध तथा सैनिक अड्डों के अंत की कामना की गई।

बेलग्रेड सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसने पहली बार गुट निरपेक्ष आंदोलन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये संस्थागत आंदोलन प्रस्तुत किया। साथ ही इस बात की घोषणा की कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में इस तीसरी शक्ति को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह बात भी अच्छी तरह से स्पष्ट की कि गुट निरपेक्षता का अर्थ किसी भी रूप में निरपेक्षता नहीं है। नव स्वतंत्र राष्ट्रों के लिये जो बाधाऐ है उनका विरोध इसका प्रमुख उद्देश्य है। और उस संदर्भ में गुट निरपेक्ष देष अपना प्र्रगतिषील जुझारूपन बनाए रखेंगे।

गुट निरपेक्ष आंदोलन का दूसरा शिखर सम्मेलन

1964 में गुट निरपेक्ष आंदोलन का दूसरा शिखर सम्मेलन मिश्र की राजधानी काहिरा में हुआ। इसमें 47 पूर्ण सदस्य एवं 11 पर्यवेक्षक राष्ट्रों ने भाग लिया। सम्मेलन में आमंत्रित देशों को विभिन्न श्रेणियों में बांटा जा सकता है :-
  1. 25 देष जिन्होने बेलग्रेउ में भाग लिया था। 
  2. वे सभी देष जो अफ्रीकी एकता संघ के घोषणा पत्र में आस्था रखते थे। 
  3. वे सभी अरब राज्य जिन्होने 1964 के अरब शिखर सम्मेलन में भाग लिया था। जैसे मलावी, लाओस, मेंक्सिको, उरूग्वे, त्रिडिनाड, टोबेगो, ब्राजील, चिली, बेनजुअला, फिनलेण्ड आदि। 
  4. अंगोला की अस्थायी सरकार। 
इस सम्मेलन में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने शांति की स्थापना के लिये 5 सूत्रीय प्रस्ताव पेश किये जैसे अणु निशस्त्रीकरण, सीमाविवादो का शांतिपूर्ण हल, विदेशी प्रभुत्व व आक्रमण व तोड़ फोड़ की कार्यवाहियों से मुक्ति, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग द्वारा आर्थिक विकास, संयुक्त राष्ट्रसंघ के कार्यक्रमों का समर्थन। सम्मेलन की दो प्रमुख घोषणा जो विदेशी रूप से उल्लेखनीय है वे है 
  1. उपनिवेषवाद को समाप्त कर पीड़ित देशों को इसके चंगुल से निकाला जाये 
  2. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर आर्थिक विकास करना।
काहिरा गुटनिरपेक्ष सम्मेलन के बारे में यह उल्लेखनीय है कि इस समय तक अफ्रो एशियाई बिरादरी में फूट पड़ चुकी थी, भारत चीन सीमा विवाद ने भी गुट निरपेक्ष देशों की एकता को कमजोर किया। इसके साथ संयुक्त राष्ट्र संघ की कांगो में गतिविधियों को लेकर अनेक तनाव पैदा हुये। जिसके परिणाम स्वरूप विश्व शांति, आर्थिक विकास की प्राथमिकता गड्डमड्ड हो गई। बेलग्रेड सम्मेलन के समय, उपनिवेषवाद के उन्मूलन के साथ जुड़ा उत्साह प्रभावशाली था। काहिरा सम्मेलन इस बात अनदेखा नहीं कर सकता था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद किस प्रकार विघटन कारी प्रवृत्तियां का सामना करना पड़ता है। अत: इसके बाद के वर्षों में अंर्तराश्ट्रीय संकट के साथ साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्यो का ध्यान राश्ट्रनिर्माण की ओर लगा रहा। इसी दौरान सहयोगी आर्थिक विकास तथा सीमा विवादों के हल को प्राथमिकता दी गई। अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक परिवर्तन ने इस प्रवृत्ति को पुष्ट किया।

संदर्भ -
  1. Schuman, International Politics, New York, 1948
  2. Narman A. Grabner, Cold war Diplomacy, 1962.
  3. Libson, Europe in the 19th and 20th Centuries, London, 1949
  4. D.F. Fleming, The Coldwar and its origins, 2 vol, 1961
  5. J.W. Spenier, American Foreign Policy since world War II, 1960
  6. Robert, D. Worth, Soviet Russia in World Politics, 1965

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