मोलस्का का वर्गीकरण और सामान्य लक्षण

मोलस्का का अर्थ लैटिन भाषा में “मौलिस” का अर्थ है “नरम”। मोलस्का का शरीर नरम होता है, किंतु इसके ऊपर बाहर से कड़े सुरक्षाकारी कवच होते हैं। इस लक्षण से इनके परिरक्षण की संभावनाएं बढ़ गई तथा इस कारण से इस फ़ाइलम के जीवाश्म बहुत संख्या में मिलते हैं। अभी तक की ज्ञात ऐसी जीवाश्म स्पीषीज़ की संख्या 35,000 से भी अधिक पहुंच चुकी है। मोलस्का के अध्ययन को मेकैकोलॉजी अर्थात् शक्तिविज्ञान (malacology) तथा उनके कवचों के अध्ययन को कॉन्कोलॉजी (conchology) अर्थात् शंखविज्ञान कहा गया है।

मोलस्का व्यापक रूप में पाए जाते हैं। इस फ़ाइलम में आने वाले सामान्य उदाहरण हैं स्लग, घोंघे, काइटन, सीपियां, स्किड, ऑक्टोपस, आदि और ये सब अपने स्वरूप, संरचना, आवास और स्वभाव आदि में एक-दूसरे से बहुत भिन्न होते हैं। इनमें उच्च स्तर की अनुकूलनशीलता पायी जाती है और ये सभी प्रकार के संभव आवासों में रहते पाए जाते हैं। ये जलीय तथा स्थलीय दोनों प्रकार के होते हैं, बस वायवीय नहीं होते। ये आमतौर से उथले पानी में रहते हैं लेकिन कुछ मोलस्क गहरे समुद्र में (12,000 मीटर नीचे तक) रहते पाए जाते हैं।

मोलस्का के सामान्य लक्षण

  1. मोलस्क सामान्यत: जलीय प्राणी होते हैं जो अधिकतर समुद्री जल में पाए जाते, कुछ अलवणजलीय होते हैं और बहुत कम संख्या में स्थलीय भी होते हैं।
  2. त्रिजनस्तरी, सीलोमित, शरीर विखंडत: खण्डयुक्त (metamerically segmented) नहीं होता।
  3. शरीर आधारभूत रूप में द्विपाष्र्वत: सममित होता है; क्लास गैस्ट्रोपोडा के सदस्यों में मरोडेड़ (torsion) नामक प्रक्रिया होती है जिससे वे असममित हो गए हैं।
  4. इन प्राणियों का शरीर नरम होता है, जिसे तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है : (i) शीर्श-पाद (head-foot), (ii) अंतरांग संहति (visceral mass), और प्रावार (mantle)।
  5. प्रावार जिसे पैलियम (pallium) भी कहते हैं एक ऐसी झिल्ली होती है जो बहुत पतली नही होती है, मगर पूरे नरम शरीर को ढके रहती है।
  6. शरीर तथा प्रावार के बीच की गुहा प्रावार गुहुहा (mantle cavity) कहलाती है, और इस गुहा में अनेक संरचनाएं होती हैं जैसे गिल तथा कुछ छिद्र जिनमें खास हैं पाचन, उत्सर्गी, तथा जनन-तंत्रों के छिद्र।
  7. प्रावार की बाहरी ओर से एक कड़े कैल्सियमी कवच का स्रवण होता है जो समूचे शरीर का सुरक्षाकारी आवरण बन जाता है।
  8. कवच विविध प्रकार के हो सकते हैं : द्विकपाटी (bivalve) अर्थात् दो अंषों वाले, या एककपाटी अर्थात् एक अंष वाले (univalve), सर्पिल, शंकुरूपी, (spiral) आंतरिक अथवा àासित यहां तक कि कुछ में कवच होता ही नहीं हैं।
  9. आहार नाल सरल, कुंडलित और सम्पूर्ण होती है। कुछ उदाहरणों में मुख गुहा के भीतर रैडुला (radula) होता है जो काटने में सहायता करता है। इस पर दाँतों की पंक्तिया बनी होती हैं।
  10. “वसन सामान्यत: गिलों अथवा देह-भित्ति द्वारा होता है और कुछ में “वसन फुफ्फुस थैलों (pulmonary sacs) द्वारा भी होता है।
  11. परिसंचरण-तंत्र खुले प्रकार का होता है, परंतु सेफै़लोपोडों में खुला न होकर बंद प्रकार का होता है। रक्त वाहिकाओं के भीतर ही सीमित होता है। “वसन वर्णक रक्त-कोषिकाओं के भीतर सीमित न होकर रक्त में विलयन (घोल) के रूप में पाए जाते हैं।
  12. उत्सर्जन का कार्य वृक्कों द्वारा होता है जो परिहृद् गुहा में खुलते हैं।
  13. तंत्रिका तंत्र में कई युग्मित गैंगलिया आते हैं - प्रमस्तिश्क (cerebral), पार्श्व (pleural), पाद (pedal) तथा आंतरांगी (visceral), जो संघयियों (commissures) एवं संयोजियों (connectives) द्वारा परस्पर जुड़े होते हैं।
  14. संवेदी अंग पाए जाते हैं - सरल नेत्र, स्पर्षक तथा ऑस्फ्रैडियम (osphradium) अर्थात् जलेक्षिका।
  15. नर और मादा पृथक होते हैं, निशेचन भीतरी हो सकता है अथवा बाहरी। अलैंगिक जनन नहीं होता।
  16. भ्रूणीय-परिवर्धन के दौरान विदलन सर्पिल, निर्धारी तथा असमान होता है। 
  17. परिवर्धन प्रत्यक्ष हो सकता है अथवा परोक्ष जिसमें लारवा अवस्थाएं होती हैं जैसे कि ट्रोकोफ़ोर, ग्लोकीडियम, वेलीगर आदि।
फ़ाइलम मोलस्का को सात क्लासों में विभाजित किया गया है, और इनमें विभेद अधिकतर इनमें पाए जाने वाले पादों और कवच के प्रकार को ही आधार बना कर किया जाता है। इसमें आप सात में से केवल चार क्लासों के उदाहरणों का ही अध्ययन करेंगे, ये चार क्लास हैं- पॉलीप्लैकोफ़ोरा (काइटान), स्कैफ़ोपोडा (डेन्टेलियम), गैस्ट्रोपोडा (पाइला), तथा सेफेलोपौडा (नॉटिलस एवं ऑक्टोपस)। 

मोलस्का का वर्गीकरण

मोलस्का का वर्गीकरण (mollusca ka vargikaran) हैं -
  1. काइटन
  2. डेन्टेलियम
  3. पाइला
  4. यूनिओ
  5. सेपिया
  6. लालिगो
  7. ऑक्टोपस 

काइटन

  1. काइटन (Chiton) को अंग्रेज़ी में सामान्यत: “coat-of-nail-shells” कहते हैं।
  2. इसमें एक चपटा जूते के तले जैसा पाद होता है; यह सतहों से चिपका रहता तथा बहुत धीमे-धीमे चलता है।
  3. यह लगभग 2-8 cm लम्बा और 3 से 5 cm चौड़ा होता है, एवं ऊपर से इसका रंग फीका नीला-सा होता है।
  4. कवच पृष्ठ दिषा पर होता है, यह कवच एक समूचा अंष न होकर आठ अनुप्रुप्रस्थ गतिशील अतिव्यापी प्लेटों (eight transverse movable overlapping plates) का बना होता है। इन प्लेटों को पेटी की तरह घेरता हुआ प्रावार (mantle) होता है।
  5. शीर्ष चपटा होता है जिस पर एक झिरी-जैसा मुख होता है, तथा देह के दोनों पार्श्व पर गिल होते हैं ।
  6. जनन छिद्र, उत्सर्गी छिद्र तथा गुदा शरीर की अधर सतह पर पश्च सिरे की ओर होते हैं ।
  7. आहार नाल सरल होती है। रैडुला पर अनेक पंक्तियों में दांत बने होते हैं, और ऐसी हर पंक्ति में लगभग 17 दांत होते हैं।
  8. परिसंचरण तंत्र खुले प्रकार का होता है जिसमें “वसन वर्णक हीमोसाएनिन होता है।
  9. विषेशित संवेदी अंग नहीं होते। इनमें प्रकाश एवं स्पर्श संवेदी बिंदु होते हैं जिन्हें एस्थेटेटीज़ (aesthetes) अर्थात् अवगमक कहते है।
  10. नर और मादा अलग-अलग होते हैं, लैंगिक द्विरूपता नहीं पायी जाती।
काइटॉन केवल ध्रुवी समुद्रों को छोड़कर लगभग सभी समुद्रों में पाए जाते हैं।

आर्थिक महत्व - संयुक्त राज्य अमरीका में रेड इंडियन काइटॉनों को खाया करते हैं, और इसलिए इन मोलस्का को कभी-कभी “समुद्री गोमांस” भी कहा गया है। 

काइटन
काइटन 


डेन्टेलियम 

  1. देखने में डेन्टेलियम नन्हा हाथी दांत-जैसा दिखायी पड़ता है इसलिए कुछ सामान्य अंग्रेज़ी नाम इस प्रकार हैं - “एलिफै़ंट-टूथ”, “टूथ-शेल” अथवा “टस्क शेल”।
  2. डेन्टेलियम लगभग 25 cm लम्बा और 2-5 cm व्यास का होता है। 
  3. शरीर को पूरी तरह घेरता हुआ एक नलिकाकार प्रावार एवं कवच होता है।
  4. कवच के अधिक चौड़े सिरे (जो बिल में नीचे गहराई में होता है) से पाद, मुख आरै छोटे स्पर्षक जिन्हें कैप्टाकुला (captaculla) कहते हैं, बाहर को निकले होते है ।
  5. कैप्टेकुला संवेदी, परिग्राही (prehensile) तथा स्पर्शी होते हैं, उनके सिरे चिपचिपे होते हैं जिनसे शिकार पकड़ने में सहायता मिलती है।
  6. गिल नहीं होते; गैस-विनिमय पतले वाहिकीय प्रावार के द्वारा होता है।
  7. नर और मादा अलग-अलग होते हैं। परिवर्धन में वेलीगर लारवा होता है।

पाइला

  1. पाइला में मरोडेड़ (torsion) नामक प्रक्रिया होती है, आरै एक सर्पिल एकल कवच के भीतर सुरक्षित रहता है। 
  2. कवच के सबसे बड़े भाग को देह-घेरा (body whorl) कहते हैं। कवच एक काल्पनिक स्तम्भ के चारों ओर दक्षिणावर्त्त (clockwise) रूप से कुंडलित रहता है इसलिए इसे डेक्स्ट्रल (dextral) कहते हैं। 
  3. कोमल आंतरांग कूबड़ के रूप में कवच के भीतर को परिवर्धित रहते हैं जबकि शीर्ष और पाद बाहर को खुले रहते हैं। खतरे के समय इन दोनों को भी कवच के भीतर को सिकोड़कर सुरक्षित कर लिया जाता है। 
  4. शीर्ष पर स्पर्षक, आंखे और मुख बने होते हैं, इसके दोनों पश्वो पर यानि एक बांयी तथा एक दायीं न्यूकल पालियां होती हैं। ये पालियां जल को शरीर के भीतर लाने और शरीर के बाहर निकालने के लिए होती हैं। 
  5. आहार नाल बहुत सुविकसित होती है एवं उसमें रेडुला होता है। 
  6. एक बड़ी सुविकसित पाचन-ग्रंथि होती है। “वसन की क्रिया जल में रहते हुए एक जोड़ी क्लोम से और स्थल पर रहते हुए एक फुफ्फुस-थैली से होती है। 
  7. उत्सर्जन वृक्कों द्वारा; परिसंचरण-तंत्र खुला; तंत्रिका तंत्र सुविकसित और मरोड़ के कारण यह “8” की आकृति बनाए होता है। 
  8. संवेदी अंगों में आते हैं जलेक्षिका (osphradium), आँखें, स्टेटोसिस्ट (statocyst) तथा स्पर्षक। 
यह अलवण जल तथा नमी वाली ज़मीन पर व्यापक पाया जाता है जैसे पूर्वी देशों (भारत, म्यानमार, श्रीलंका, वीएतनाम, फ़िलिपीन्स) तथा इथियोपियन प्रदेशों (अफ्ऱीका, अरब तथा मैडागास्कर) में।

आर्थिक महत्व - यह खाया जाता है और इसे कवच को सजाने में काम में लाया जाता है। जैविकी प्रयोगशालाओं में इनका विच्छेदन किया जाता है।

पाइला
पाइला 


यूनिओ 

  1. यूनिओ को सामान्यत: अलवणीय मुजे़ल अथवा सीपी कहते है। 
  2. प्राणी का शरीर कोमल, अखण्डित द्विपाष्र्वत: सममित एवं चपटे आकार का होता है। शरीर की लम्बाई 5-10 cm होती है और कैल्षीयमी कवच के अंदर बंद रहता है। 
  3. कवच दो बराबर के पृथक भागों अथवा वाल्वों से बना होता है और शरीर के दायें एवं बायें किनारों को ढके रहता है। 
  4. पृष्ठ भाग से कवच के दोनों वाल्व लिगामेन्ट से जुड़े रहते हैं। 
  5. पृष्ठ भाग का अग्र छोर अम्बो को बनाता है।
  6. प्रावर के दो खण्ड होते है जो कवच के दो वाल्वों के अनुरुप होता है। 
  7. अग्र और पश्च एबडक्टर मांसपेशियाँ (abduction muscles) विकसित पायी जाती हैं और ये कवचों (वाल्वों) के बंद एवं खोलने के लिए उत्तरदायी होती हैं। 
  8. पेशी पाद बड़ा एवं फानाकार (wedged) आकार का होता है जो खोदने के काम में आता है। 
  9. दोनों इनहेलेन्ट और इक्सहेलेन्ट साइफन प्रावर (mantle) के पश्च भाग में स्थित होते हैं 
  10. लिंग पृथक होते है परन्तु नर एवं मादा के कवच एक जैसे होते है। 
यह तालाबों, झीलों, झरनों एवं नदियों के तलहटियों पर बालू एवं कीचड़ में गडे रहते हैं। भारत, यूरोप, एटलान्टिक के ढालों एवं संयुक्त राज्य अमरीका में समान्यत: पाये जाते है।

सेपिया 

  1. इस मोलस्क को कटल फ़िष के नाम से जाना जाता है । 
  2. सेपिया का शरीर द्विपाष्र्वत: सममित पृष्ठ अधरत: चपटे तथा शीर्ष, गर्दन एवं धड़ में विभाजित होते है।
  3. सेपिया के शीर्ष पर एक जोड़ी आँखे होती है और मुख के चारों तरफ पांच जोड़ी भुजायें होती हैं।
  4. सब मिलाकर पांच जोड़ी भुजाओं में से चार जोड़ी भुजायें मजबूत और छोटी होती है जिसमें अंदर की सतहों पर चार अनुदैध्र्य कतारें चूसकों (sucker) की होती हैं। 
  5. भुजाओं के पाँचवी जोड़ी को स्पर्षक (टेंन्टैकल) कहते हैं जो अपेक्षाकृत लम्बी और पतली होती हैं और उसके स्वतंत्र छोर पर चूशक होते है।
  6. शीर्ष धड़ से एक सिकुड़ी हुई गर्दन (कॉलर) से जुड़ा रहता हैं।
  7. धड़ ढाल (षील्ड) के आकार का होता है जिसके किनारों पर शरीर के दोनों तरफ एक पतली पाष्र्वीय फिन होती है।
समस्त रूप से पाये जाते है। सामान्यत: भारतीय समुद्रो, यूरोप भूमध्य-सागरी क्षेत्रों में।

सेपिया
सेपिया 


लालिगो

  1. सामान्यत: समुद्र फेनी के नाम से जाना जाता है । 
  2. लालिगो का शरीर तंतु अथवा टाप्रिडो के आकार का होता है और शीर्ष, पाद अंतरांग कूबड़ (visceral hump) में विभाजित होता है। 
  3. छोटे शीर्ष पर एक जोड़ी बड़ी आँखें और एक केन्द्रीय मुख जो दस भुजाओं से घिरा होता है। 
  4. पाद कीप एवं दस भुजाओं में रूपान्तरित होता है। 
  5. आठ भुजाएं छोटी, गोल-मटोल एवं अकुन्चनषील होती है जबकि दूसरी दो भुजाएं लम्बी, पतली एवं कुन्चनषील होती है जिससे कि वो षिकार को पकड़ सकें। 
  6. दोनो भुजाओं और स्पर्षक के भीतरी सतह पर दो पंक्तियों में चूशक होते है। 
  7. कीप एक पेषीय टयूब की तरह होता है जिसके शीर्श के नीचे गर्दन (कॉलर) तक विस्तार होता है। 
  8. लम्बे एवं नुकीले आन्तरांग कूबड़ पर दो पृष्ठ पाष्र्वत: त्रिभुजाकार पाश्रर्वीय फिन होते है। 
  9. प्रावर (मैन्टल) मोटी एवं पेशीय होती है जो अन्तरांग पुंज (visceral mass) प्रावर गुहा को संलग्न रखती है। गद्ध कवच आन्तरिक होता है जो एक पंख के आकार की प्लेट के समान होता है और अग्र सतह पर प्रावर के नीचे छिपा होता है।
सर्वत्र पाए जाते हैं। भारत, चीन एवं अमरीका के समस्त पैसिफिक एवं एटलान्टिक तटीय समुद्री क्षेत्रों में पाये जाते है।

आर्थिक महत्व - चीन एवं इटली में लोग इसे भोजन के रूप में और समुद्री मछलियों को पकड़ने के प्रलोभन के रूप में काम में लाते है।

लालिगो
लालिगो 


ऑक्टोपस 

  1. ऑक्टोपस के शरीर में एक आंतरांग संहति होती है मगर एक साधारण व्यक्ति को वह शीर्ष-जैसी दिखायी पड़ती है हालांकि शीर्ष होता है मगर छोटा।
  2. पेशीय पाद रूपांतरित होकर 8 लम्बी भुजाएं बन गयी हैं । 
  3. प्रत्येक भुजा में चूशकों की दोहरी पंक्ति बनी होती है। 
  4. भुजाओं का उपयोग चलने में, आहार पकड़ने एवं उसके अंतर्ग्रहण में तो होता ही है मगर इनके अलावा आक्रमण एवं रक्षा में भी होता है। 
  5. नर में तीसरी दायीं भुजा का अंतिम सिरा चौड़ा चम्मच जैसा बन जाता है जिसे हेक्टोकोटिल (hectocotyl) कहते हैं, इसका उपयोग शुक्राणुधरों को मादा की प्रावार गुहा में पहुंचाने में किया जाता है। 
  6. प्ररूपी मोलस्क-प्रकार का कवच नहीं होता; वास्तव में यह शासित होता है और देह-भित्ति में गड़ा पाया जाता है जिससे वह बाहर से दिखता नहीं है। 
ऑक्टोपस दूर -दूर तक पाए जाते हैं; ये यूरोप, भारत; अटलांटिक एवं प्रशांत समुद्र तटों पर-अलास्का से लेकर नीचे केलिफ़ोर्निया और केप कॉड तक पाए जाते हैं। 

आर्थिक महत्व - अनेक देशों में इसका मांस एक अति स्वादिष्ट भोजन माना जाता है।

ऑक्टोपस
ऑक्टोपस


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