पर्यावरण संरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान

पर्यावरण संरक्षण

भारत उन देशों में से एक है जिसने पर्यावरण संरक्षण और सुधार का समर्थन करते हुए अपने संविधान में संशोधन किया है। देश में 42वां संविधान संशोधन 1976 में किया गया और यह जनवरी, 1977 में प्रभावी हुआ। यह राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अंतर्गत दो प्रावधानों की व्यवस्था करता है, ये हैं अनुच्छेद 48ए तथा अनुच्छेद 51ए (जी)। अनुच्छेद 48ए राज्य को पर्यावरण के संरक्षण एवं सुधार के लिए प्रयास करने और देश में वन और वन्य जीवन की सुरक्षा के लिए प्रयास करने के लिए शामिल किया गया था। जबकि, अनुच्छेद 51ए (जी) में कहा गया है कि जंगल, झीलों, नदियों और वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवं सुधार करना और सभी जीवित प्राणियों के लिए दया करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य होगा।

संविधान का अनुच्छेद 253 संसद को अंतरराष्ट्रीय समझौतों और सम्मेलनों से संबंधित कानून बनाने और राष्ट्रीय कानूनों में सामंजस्य स्थापित करने का अधिकार देता है। हालांकि, संविधान में केंद्र सरकार को सभी राज्यों में समान रूप से लागू होने वाले पर्यावरणीय मुद्दों से संबंधित घरेलू कानूनों को लागू करने का अधिकार देने का कोई प्रावधान नहीं है। पर्यावरण से संबंधित कुछ विषय राज्य सूची में हैं और केंद्र सरकार को इनके लिए राज्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। 

उदाहरण के लिए, 'जल' राज्य सूची का विषय है और अनुच्छेद 252 उल्लेख करता है कि संसद को जल कानूनों को पारित करने संबंधी शक्ति प्रदान करने के लिए कम से कम दो अथवा अधिक राज्य विधानसभाओं द्वारा इस संदर्भ में प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय ने अनेक विचार-विमर्श के बाद 1969 में जल प्रदूषण निवारण विधेयक पेश किया। जल (प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण) संशोधित अधिनियम 1974 में पारित किया गया था। इसके पश्चात, वायु (प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1981 में अधिनियमित किया गया था। 

इस कानून के कार्यान्वयन का कार्य उसी नियामक एजेंसी को सौंपा गया था जिसे जल (रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के तहत निर्मित किया गया था।

मानव पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन, 1972 ने लोगों, वनस्पतियों तथा जीवों के स्वास्थ्य और सुरक्षा को खतरे में डालने वाली पर्यावरणीय समस्याओं के लिए व्यापक कानून अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया है। इसे ध्यान में रखते हुए, पर्यावरणीय नियोजन तथा समन्वय पर एक राष्ट्रीय समिति (एनसीईपीसी) की स्थापना की गई थी, जिसका उद्देश्य विकास परियोजनाओं के मूल्यांकन, मानव आवास योजना के निर्माण और विभिन्न पारिस्थितिकी प्रणालियों का सर्वेक्षण तथा पर्यावरणीय शिक्षा का प्रसार करना था।

1980 में, भारत सरकार द्वारा पर्यावरणीय मुद्दों पर तिवारी समिति की नियुक्ति की गई थी। इसकी सिफारिश पर पर्यावरणीय सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए 1 नवंबर, 1980 को पर्यावरण विभाग (डीओई) की स्थापना के लिए एक नोडल एजेंसी के रूप में की गई थी। इसने विकास परियोजनाओं के पर्यावरणीय मूल्यांकन, प्रदूषण निगरानी और विनियमन, वायु और जल की गुणवत्ता की निगरानी तथा स्थानीय, राज्य और केंद्रीय सरकारों के बीच समन्वय जैसे कार्य किए हैं। हालांकि, प्रवर्तन शक्तियों के अभाव में यह एक सलाहकारी निकाय के रूप में कार्य कर रहा है।

1985 में, पर्यावरण संरक्षण की कमियों को दूर करने के उद्देश्य से पर्यावरण और वन मंत्रालय का गठन किया गया जिसमें 18 विभाग तथा दो महत्वपूर्ण स्वतंत्र इकाइयां शामिल हैं, अर्थात गंगा परियोजना निदेशालय और बंजर भूमि के विकास हेतु राष्ट्रीय मिशन। इसने मुख्य रूप से पर्यावरण विभाग (डीओई) द्वारा किए जाने वाले निगरानी एवं प्रवर्तन, पर्यावरण मूल्यांकन एवं सर्वेक्षण तथा प्रचार कार्य को आगे बढ़ाया है।

1986 में, संसद ने पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में एक व्यापक कानून बनाया जिसे पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के रूप में जाना जाता है। नए कानून को प्रशासित करने का कार्य केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोडोर्ं को सौंपा गया था। इसके पश्चात, विशिष्ट पर्यावरणीय समस्याओं को संबोधित करने वाले कानून पारित किए गए, जैसे, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, परमाणु ऊर्जा अधिनियम आदि। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने वर्ष 1993 में विकास योजना में पर्यावरणीय विचारों को एकीकृत करने के लिए अपनी पर्यावरण कार्य योजना को लागू किया। इसने कई रणनीतियों को नियोजित किया, जैसे ‘प्रदूषक भुगतान’ सिद्धांत का कार्यान्वयन, जल उपकर, अत्यधिक जल के उपयोग के लिए अतिरिक्त शुल्क के साथ जल उपभोग शुल्क तथा केंद्रीय अपशिष्ट उपचार संयंत्रों को बढ़ावा देने के लिए तकनीकी सहायता आदि। इसने प्रदूषण उन्मूलन और रोकथाम नीति का भी अनुसरण किया है।

आप वर्तमान समय की पर्यावरणीय समस्याओं से भली-भांति परिचित हैं, जिनमें मनुष्य प्रमुख भूमिका निभा रहा है। पौधों, जानवरों, मनुष्यों और अन्य जीवों के निर्वाह से संबंधित पर्यावरण के अनुकूल उपायों को प्रशासन के माध्यम से विनियमित किया जाना चाहिए। यह ज्ञात तथ्य है कि जीवन का अस्तित्व काफी हद तक पर्यावरण के सतत विकास पर निर्भर करता है। पर्यावरण की सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए देश में कानूनी आधार पर अनेक नियामक और प्रोत्साहन उपाय किए गए हैं।

पर्यावरण संरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान

पर्यावरण संरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान (paryavaran sanrakshan ke liye sanvaidhanik pravadhan) नीचे दिए जा रहे हैं -
  1. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972
  2. जल (प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974
  3. जल (प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण) उपकर अधिनियम, 1977
  4. वायु (प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981
  5. वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980
  6. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986

1. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 ने व्यापक पारिस्थितिक परिप्रेक्ष्य में वन्यजीवों के संरक्षण को महत्व प्रदान किया है। अधिनियम के अनुसार ‘‘वन्यजीवों में सभी जीव, मधुमक्खी, तितलियाँ, क्रस्टेशियन, मछली, पतंगे और जलीय अथवा भूमि आधारित वनस्पतियां शामिल हैं, जो किसी भी आवासीय क्षेत्र का भाग होते हैं’’। यह वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए राज्य सरकारों को भी निर्देशित करता है, और कुछ दुर्लभ प्रजातियों के जीवों के शिकार पर प्रतिबंध लगाता है। इस अधिनियम ने केंद्र सरकार की अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट किसी भी जंगल अथवा क्षेत्र से अनुसूची VI के तहत निर्दिष्ट पौधों को काटने, नष्ट करने, नुकसान पहुंचाने अथवा एकत्र करने पर रोक लगाई है। 

संशोधन के अनुसार, वन्यजीवों की सुरक्षा और संरक्षण के लिए कुछ क्षेत्रों को अभयारण्य या राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था। राज्य सरकार यदि वन्यजीवों के संरक्षण या विकास के उद्देश्य से किसी भी क्षेत्र को पर्याप्त पारिस्थितिक, पुष्पीय, प्राकृतिक अथवा प्राणी महत्व के रूप में स्वीकार करती है, तो वह आरक्षित वन के अलावा भी किसी अन्य क्षेत्र में प्रवेश प्रतिबंधित करके अभयारण्य घोषित कर सकती है। 

चिड़ियाघर के संदर्भ में, जीवों के आवास, रखरखाव तथा पशु चिकित्सा देखभाल के साथ चिड़ियाघरों के कायोर्ं के न्यूनतम मानकों को निर्दिष्ट करने के लिए देश में एक केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण है। वन्यजीव सरकार की संपत्ति हैं तथा यदि किसी व्यक्ति द्वारा इस प्रकार के जीवों अथवा संपत्ति पर कब्जे से संबंधित जानकारी प्राप्त हुई है तो उसे आत्मसमर्पण करना होता है। जंगली जीवों एवं संबंधित वस्तुओं जैसे कि हाथी दांत, चर्म प्रसाधन, प्रतीक चिà, प्रतिबंधित जीवों के मांस आदि का व्यापार कानून द्वारा निषिद्ध है। 

अधिकारियों को संदेह के आधार पर किसी भी निषिद्ध तथा अवैध कब्जे वाले परिसर, वाहन, जहाज अथवा अन्य संपत्ति की तलाशी लेने के लिए अधिकृत किया गया है।

2. जल (प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण) अधिनियम 1974 

अधिनियम के अनुसार ‘‘प्रदूषण’’ का अर्थ है जल का ऐसा संदूषण अथवा जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में परिवर्तन अथवा किसी सीवेज, परिवहित अपशिष्ट एवं किसी अन्य तरल, गैसीय एवं ठोस पदार्थ का जल में इस तरह का निष्कासन (प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से) जो सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं सुरक्षा, घरेलू, वाणिज्यिक, औद्योगिक, कृषि एवं अन्य वैध उपयोगों अथवा जीव जंतु एवं वनस्पतियों तथा जलीय जीवों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो अथवा होने की संभावना हो। 

यह अधिनियम जल प्रदूषण से संबंधित अत्यंत ही व्यापक मुद्दों को सम्मिलित करता है। प्रवाहित मल अपशिष्ट के अंतर्गत गंदे नाले का अपशिष्ट, वाहित मल निपटान कायोर्ं तथा खुली नाली से निकलने वाले अपशिष्ट शामिल होते हैं। इसी प्रकार, औद्योगिक बहि:स्राव में घरेलू अपशिष्ट प्रवाह के साथ कोई भी तरल, गैसीय अथवा ठोस पदार्थ शामिल होता है जिसे किसी व्यापारिक एवं औद्योगिक परिसर से प्रवाहित किया जाता है। अधिनियम के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अधिनियम के अंतर्गत केंद्र और राज्य स्तर पर केंद्रीय तथा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की स्थापना की व्यवस्था की गई है। बोर्डों को न्यायिक शक्तियां प्रदान की गई हैं तथा प्रावधानों के अनुपालन में विफलता दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। केंद्रीय बोर्ड के कार्य हैं कि वह: 
  1. राज्य बोडोर्ं का समन्वय करे तथा उनके विवादों का निपटारा करे। 
  2. तकनीकी सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करे। 
  3. नालों और कुओं के लिए मानक निर्धारित करे। 
  4. विशेष रूप से जल प्रदूषण को रोकने के लिए केंद्र सरकार को सलाह दे। 
  5. केंद्र शासित प्रदेशों के लिए पर्यावरण जागरूकता और राज्य बोर्ड का गठन करे। अनुसंधान को बढ़ावा दे और जल प्रदूषण की समस्याओं की जांच करे। 
56 राज्य बोर्ड के कार्य हैं: 
  1. नालों और कुओं में प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण या उपशमन करना। 
  2. मल प्रवाह अथवा व्यावसायिक बहि:स्राव के उपचार के लिए नगरपालिका संयंत्रों सहित मल प्रवाह तथा औद्योगिक बहि:स्राव का निरीक्षण करना। 
  3. मल प्रवाह और औद्योगिक अपशिष्ट के निर्वहन के लिए मानक निर्धारित करना। 
जल अधिनियम कहता है कि कोई भी उद्योग, संचालक प्रक्रिया अथवा कोई उपचार एवं निपटान प्रणाली राज्य बोर्ड की सहमति के बिना स्थापित नहीं की जा सकती है। साथ ही, कोई भी उद्योग तथा प्रक्रिया मल प्रवाह एवं अपशिष्ट को किसी नाले, कुएँ, सीवर तथा भूमि पर निर्धारित मानकों से अधिक तथा बोर्ड की सहमति के बिना प्रवाहित नहीं कर सकता है। मानकों और बोर्ड की सहमति के बिना। किसी भी प्रदूषणकारी उद्योग द्वारा लगातार अवहेलना करने पर बोर्ड उद्योग को बंद करने और बिजली काटने के निर्देश जारी कर सकता है। इसमें बोर्ड के आदेशों के खिलाफ अपील करने का भी प्रावधान है।

2. जल (प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण) उपकर अधिनियम 1977

जल उपकर अधिनियम, 1977 को जल अधिनियम 1974 के अधीन केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोडोर्ं के व्यय को पूरा करने में मदद करने के लिए पारित किया गया था। इसका उद्देश्य कुछ उद्योगों और स्थानीय लोगों द्वारा उपभोग किए गए जल पर उपकर लगाना और संग्रह करना है। किसी भी व्यक्ति अथवा स्थानीय प्राधिकरण द्वारा मल प्रवाह अथवा व्यापारिक अपशिष्ट संयंत्र की स्थापना के संदर्भ में 25 प्रतिशत की छूट का लाभ उठा सकता है। हालांकि, अधिनियम नालों और कुओं तक ही सीमित है और भूमिगत जल प्रदूषण जैसे जल प्रदूषण के महत्वपूर्ण स्रोतों को शामिल नहीं करता है। आवासीय कचरे के उपचार के लिए जिम्मेदार नगरपालिका जैसे सभी सरकारी निकाय और स्थानीय प्राधिकरण देनदारियों से मुक्त रखे गए हैं। 

अधिनियम द्वारा सृजित दंड संरचना प्रदूषणकारी उद्योगों के लिए लागत अवज्ञा के संदर्भ में अवास्तविक थी। अधिनियम के तहत कोई भी निजी व्यक्ति किसी प्रदूषणकारी एजेंसी पर मुकदमा नहीं कर सकता है। प्रदूषण फैलाने वाले के खिलाफ कार्रवाई करना बोर्ड का कार्य है।

3. वायु (प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण) अधिनियम 1981

1981 में, सरकार ने देश में वायु प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण और उपशमन के लिए वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम का निर्माण किया है। यह कानून ‘‘वायु प्रदूषक’’ को परिभाषित करता है। इसके अनुसार वायु प्रदूषक का अर्थ है कि वातावरण में उपस्थित कोई भी ठोस, तरल अथवा गैसीय (शोर सहित) पदार्थ जो मानव, अन्य जीवित प्राणियों, पौधों, संपत्ति तथा पर्यावरण के लिए हानिकारक हो अथवा भविष्य में हानिकारक हो सकता है। पर्यावरण में किसी भी अवांछित पदार्थ की उपस्थिति को वायु प्रदूषण कहा जा सकता है। उत्सर्जन को किसी भी ठोस, तरल अथवा गैसीय पदार्थ के रूप में परिभाषित किया गया है जो किसी भी चिमनी तथा अन्य बहिर्स्रोत से उत्सर्जित होता है। कंपनियों को निर्दिष्ट स्तर तक उत्सर्जन को रोकने के लिए सभी नियमों और विनियमों का पालन करना चाहिए।

उद्योगों को राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानकों के अनुसार अनुमति लेनी होती है। परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न होते हैं और उन स्थानों के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं। औद्योगिक, वाणिज्यिक, आवासीय तथा शांत क्षेत्रों के आधार पर शोर का स्तर भी भिन्न-भिन्न होता है। वायु अधिनियम दंड और अभियोजन दिशा-निर्देशों को भी निर्दिष्ट करता है और वायु प्रदूषण को रोकने एवं नियंत्रित करने के लिए केंद्रीय और राज्य बोडोर्ं के लिए प्रावधान करता है। बोडोर्ं के मुख्य कार्य हैं:
  1. वायु प्रदूषण के मुद्दों पर केंद्र सरकार को सलाह देना।
  2. वायु गुणवत्ता के लिए मानक निर्धारित करना।
  3. वायु प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण और उपशमन के लिए योजनाओं का निर्माण एवं उनका क्रियान्वयन करना।
  4. राज्य बोडोर्ं की सभी गतिविधियों का नियोजन एवं समन्वय करना, विवादों का निपटान करना, तकनीकी सहायता प्रदान करना तथा प्रदूषण के संदर्भ में शोध कार्य करना।
  5. पर्यावरणीय मुद्दों पर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करना।
राज्य बोडोर्ं को साथ में वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए योजना का निर्माण करने, कार्यान्वित करने, सलाह देने तथा सूचना के प्रसार की जिम्मेदारी दी गई थी। यह उचित समय पर प्रदूषक स्तरों का आकलन करता है और वायु प्रदूषकों के उत्सर्जन के लिए मानक निर्धारित करता है। अधिनियम में कहा गया है कि राज्य बोर्ड की पूर्व सहमति के बिना, कोई भी व्यक्ति खनन एवं अयस्क प्रसंस्करण, लौह-इस्पात एवं अलौह धातु निर्माणशाला, पेट्रोलियम, पेट्रोकेमिकल, बिजली तथा बॉयलर आदि क्षेत्रों से संबंधित उद्योग स्थापित नहीं कर सकता है। राज्य सरकार को वायु प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्रों को नामित करने का अधिकार है और प्राधिकारी अधिनियम का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए परिसर में प्रवेश और निरीक्षण कर सकते हैं। 1987 में किए गए संशोधन के पश्चात अपराधों के लिए दंड एवं सजा में वृद्धि कर दी गई है।

4. वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980

वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 को अन्य उद्देश्यों के लिए वन क्षेत्रों के प्रतिरूपण को रोकने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया था। अधिनियम का व्यापक उद्देश्य गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए वन भूमि के अंधाधुंध प्रतिरूपण को विनियमित करना तथा विकास आवश्यकताओं एवं प्राकृतिक विरासत के संरक्षण के मध्य तार्किक संतुलन बनाए रखना है। अधिनियम के प्रावधानों के तहत विकास एवं परिवहन परियोजनाओं, नकदी फसलों जैसे चाय, कॉफी, मसाले, रबर, औषधीय एवं बागवानी फसलों के उत्पादन आदि के साथ गैर-वानिकी उद्देश्यों हेतु वन भूमि को प्रतिरूपित करने के लिए केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृ ति आवश्यक है। हालांकि, अधिनियम में वनों और वन्यजीवों के संरक्षण एवं प्रबंधन से संबंधित तथा चेक-पोस्ट की स्थापना, फायर लाइन, वायरलेस संचार, बाड़, पुल, बांध के जल का प्रबंधन, खाई निर्माण, सीमा प्रबंधन, पाइपलाइन अथवा अन्य उद्देश्यों के अंतर्गत आने वाला कोई भी आनुषंगिक कार्य शामिल नहीं हैं।

अधिनियम संबंधित अधिकारियों के दायित्व को निर्धारित करता है तथा लापरवाही की स्थिति में उनके लिए कैद जैसी सजा का भी प्रावधान है। पेयजल, सिंचाई, रेलवे-लाइन, सड़क, खनन, बिजली और पारेषण परियोजनाओं आदि की विकास संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वन भूमि का प्रतिरूपण किया जाता है। सरकार विभिन्न प्रयासों जैसे प्रतिपूरक वनीकरण, पुनर्वास, वन्यजीव सुधार योजना, जलग्रहण क्षेत्र उपचार योजना, आदि के माध्यम से ऐसी परियोजनाओं के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के प्रयास करती है। प्रतिपूरक वनीकरण के कार्यान्वयन की प्रभावी निगरानी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (ब्।डच्।) का गठन किया गया था। पर्यावरण और वन मंत्रालय के तहत प्रस्तावों की निगरानी और वन संबंधी गतिविधियों हेतु मंजूरी के अंतर्गत अनुबंधित उपयोगकर्ता एजेंसियों द्वारा अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए एक निगरानी कक्ष की स्थापना की गई है।

भारत में विविध पारिस्थितिकी तंत्र उपस्थित हैं। मुख्य रूप से वनों की चार श्रेणियों, जैसे उष्णकटिबंधीय, उपोष्णकटिबंधीय, समशीतोष्ण और अल्पाइन की पहचान की गई है। वनों के अत्यधिक दोहन से आसपास की भूमि के लिए भेद्यता बढ़ जाती है, जिससे बाढ़ और सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वन तथा मानव जीवन को बचाने के लिए पारिस्थितिक संतुलन, पर्यावरण की गुणवत्ता, मृदा का कटाव, बाढ़ प्रबंधन, जल संरक्षण, ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड के बीच संतुलन बनाए रखना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय वन नीति, 1952 के अंतर्गत देश के कुल क्षेत्रफल के 33% तक वन क्षेत्र को बढ़ाने की सिफारिश की गई थी। 1988 की राष्ट्रीय वन नीति ने मुख्य रूप से निम्नलिखित उद्देश्यों के साथ नीति को संशोधित किया है:
  1. पर्यावरणीय स्थिरता बनाए रखना तथा देश की प्राकृतिक विरासत का संरक्षण करनाय
  2. मृदा अपरदन को रोकना तथा रेत के टीलों के प्रसार को नियंत्रित करना;
  3. सामाजिक वानिकी के माध्यम से वनावरण की मात्रा में वृद्धि करना;
  4. ग्रामीण लोगों की जलावन लकड़ी, चारा तथा लकड़ी से संबंधित अन्य आवश्यकताओं को पूरा करना;
  5. देश की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों की उत्पादकता को बढ़ाना; 
  6. वन उपज का अधिक कुशल उपयोग करना; तथा
  7. जन-जागरूकता पैदा करना।

5. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986

भोपाल गैस त्रासदी (1984) के पश्चात 1986 में संविधान के अनुच्छेद 253 के तहत पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (ईपीए) को अधिनियमित किया गया था। यह एक व्यापक कानून है जिसे केंद्र सरकार को पिछले कानूनों, जैसे जल अधिनियम और वायु अधिनियम के तहत स्थापित विभिन्न केंद्रीय और राज्य प्राधिकरणों की गतिविधियों के समन्वय के लिए एक ढांचा प्रदान करने के लिए डिजाइन किया गया है। 

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (ईपीए) के अनुसार पर्यावरण के अंतर्गत जल, वायु तथा भूमि और इनके मानव, अन्य जीवित प्राणियों, पौधों और सूक्ष्मजीवों के साथ अंतसर्ंबंधों को शामिल किया जाता है। इस अधिनियम को खतरनाक रसायनों, अपशिष्ट, सूक्ष्मजीवों आदि के प्रबंधन के लिए अधिसूचित किया गया है। 

अधिनियम की मुख्य विशेषताएं हैं:
  1. यह अधिनियम केंद्र सरकार को पर्यावरण की गुणवत्ता की सुरक्षा एवं सुधार तथा पर्यावरण प्रदूषण को रोकने, नियंत्रित करने और बढ़ावा देने के लिए आवश्यक उपाय करने का अधिकार देता है।
  2. केंद्र सरकार किसी उद्योग, संचालन अथवा प्रक्रिया पर प्रतिबंध लगा सकती है। उन्हें केवल कुछ सुरक्षा उपायों के साथ ही अनुमति दी जा सकती है।
  3. अधिनियम केंद्र सरकार को किसी भी उद्योग, संचालन अथवा प्रक्रिया को बंद करने, निषेध अथवा विनियमन के लिए निर्देश जारी करने के लिए अधिकृत करता है। यह न्यायिक आदेश प्राप्त किए बिना सीधे तौर पर बिजली, पानी तथा किसी अन्य सेवा की आपूर्ति को रोक सकती है अथवा नियंत्रित कर सकती है।
  4. अब तक 61 श्रेणियों के उद्योगों के संबंध में उत्सर्जन और बहि:स्राव मानकों को विकसित और अधिसूचित किया जा चुका है।
  5. अधिनियम के तहत अपराध के साक्ष्य के रूप में सरकार को हवा, पानी, मिट्टी या अन्य पदाथोर्ं के नमूने एकत्र करने का अधिकार दिया गया है।
  6. खतरनाक पदाथोर्ं को नियंत्रित करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया निर्धारित की जा सकती है।
  7. प्रदूषकों के संबंध में मानकों को उनकी अधिसूचना की तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर प्राप्त किया जाना है, विशेष रूप से वे उद्योग जिनकी पहचान अत्यधिक प्रदूषणकारी उद्योग के रूप में की गई है।
  8. एक निजी नागरिक संबंधित प्राधिकारी को कम से कम 60 दिनों का नोटिस देकर शिकायत दर्ज करा सकता है।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अंतर्गत प्रशासन एवं प्रवर्तन के लिए पर्यावरण एवं वन एवं वन्यजीव विभाग को नामित किया गया है। यह उद्योगों एवं खनन क्षेत्रों, पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में उद्योगों को अनुमति देने अथवा निषेध करने, तटीय क्षेत्र विनियमन तथा विकास परियोजनाओं का पर्यावरण प्रभाव आकलन करने के लिए दिशानिर्देश प्रदान करता है। यहां तक कि निजी नागरिकों को भी गैर-अनुपालन कारखानों के विरुद्ध मामला दर्ज करने का अधिकार दिया गया है। बोर्ड नई औद्योगिक गतिविधियों, मौजूदा उद्योगों के विस्तार तथा उद्योगों को प्रदूषण संबंधी कानूनों का उल्लंघन करने से रोक सकता है। औद्योगिक संयंत्रों के पास नियमों के अनुसार उत्सर्जन अथवा बहि:स्राव मानकों का पालन करने के लिए एक वर्ष का समय होता है।

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