इस प्राधिकरण की रचना स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा की गयी है। यह मंत्रालय अधिनियम के कार्यान्वयन के उत्तरदायी है।
FSSAI के अन्तर्गत एक अध्यक्ष होता है, जो भारत सरकार के सचिव के पद के समतुल्य होता है। अध्यक्ष के साथ 22 सदस्यों की एक टीम होती है, जिसमें एक तिहाई महिलाएँ सदस्य होती हैं। सात सदस्य क्रमश: कृषि, वाणिज्य, स्वास्थ्य, उपभोक्ता मामलों, खाद्य प्रसंस्करण, विधायी मामलों, आरै छोटे उद्योगों के विभागों से पदेन सदस्य है। खाद्य उद्योग के दो प्रतिनिधि, उपभोक्ता संगठनों के दो सदस्य संबंधित क्षेत्र से तीन वैज्ञानिक, क्रमावर्तन रूप में नियुक्त पाँच सदस्य, किसान संगठन के दो सदस्य, और खुदरा संगठन से एक प्रतिनिधि भी प्राधिकरण में होंगे।
अध्यक्ष और अन्य सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्षों की अवधि तक या पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त होने तक, (इनमें से जो भी पहले आता हो) होगा। यह प्रावधान पदेन सदस्यों के लिए नहीं है।
भारत में खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम के कार्य
FSSAI खाद्य सुरक्षा और प्रबंधन से संबंधित मामलों को देखता है। प्राधिकरण विज्ञान आधारित मानक तैयार करता है। जिससे खाद्य पदार्थों के निर्माण, भंडारण, वितरण, बिक्री, और आयात का विनियमन हो सके। इससे मानव उपभोग के लिए सुरक्षित व पौष्टिक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सकती है। खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण के निम्नलिखित कार्य हैं।- खाद्य पदार्थों के संबंध में मानकों और दिशानिर्देशों की जारी करना और खाद्य सुरक्षा और मानकीकरण के बारे में सामान्य जागरूकता को बढ़ावा देना।
- निकायों की मान्यता के लिए क्रियाविधि व दिशा-निर्देश जारी करना, जो खाद्य व्यवसायों के लिए खाद्य सुरक्षा और प्रबंधन का प्रमाणीकरण करते हैं।
- प्रयोगशालाओं की मान्यता के लिए प्रक्रिया निर्धारित करना।
- केन्द्र व राज्य सरकारों को वैज्ञानिक सलाह व तकनीकी सहायता देना, विशेषकर, उन क्षेत्रों के लिए नियम बनाने में, जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खाद्य सुरक्षा व उत्पादन पर पड़ता है।
- भोजन की खपत, संक्रामक जोखिम का विस्तार-क्षेत्र, जैविक जोखिम की व्यापकता, पके हुए भोजन में दूषक आदि के संदर्भ में आकँडा़ें को एकत्र करना तथा उनका विश्लेषण करना, जिससे तत्काल सतर्क प्रणाली का आवाहन किया जा सके।
- देश भर में एक सूचना नेटवर्क बनाना, जिससे खाद्य सुरक्षा से संबंधित स्थानीय स्तर के संस्थानों जैसे कि पंचायतों और जनता तथा उपभोक्ताओं को तेजी से विश्वसनीय आरै उद्देश्यपूर्ण जानकारी प्राप्त करने में सक्षम बनाया जा सके।
- उन लोगों के लिए क्षमता निर्माण कार्यक्रम प्रदान करना, जो खाद्य क्षेत्र में काम कर रहे हैं और साथ ही, खाद्य क्षेत्र में आए हुए नए प्रवेशकों के लिए भी।
- सरकार, नियामक प्राधिकरण, और न्यायपालिका की भूमिकाओं में स्पष्ट सीमांकन का अभाव।
- अच्छी तरह से स्थापित सेवा बेचमार्क, प्रदर्शन मानकों, और प्रशिक्षित तकनीकी जनशक्ति की अनुपस्थिति के कारण सेवा की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
- योजना और निर्णय लेने की प्रक्रिया में उपभोक्ता की भागीदारी नहीं है।
- कर्मियों के मामलों में विशेषज्ञ दृष्टिकोण की अनुपस्थिति में एक सामान्यवादी दृष्टिकोण प्रबल होता है।
- नियामक निकायों के कामकाज में एक निरंतर राजनीतिक हस्तक्षेप उपस्थित है, विशेषकर खुले प्रतिस्पर्धी, और मुक्त बाजार प्रथाओं के मामलों में।
यद्यपि, भारतीय अर्थव्यवस्था के विकासात्मक और नियोजित उद्देश्य का उचित तरीके से कार्यान्वयन किया जा रहा था, परन्तु अपर्याप्त धन व प्रतिस्पर्धा के कारण, सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र की भागीदारी की आवश्यकता को अनुभव किया गया। यह विशेषकर अधिक संसाधनों जैसे वित्तीय संसाधनों को सार्वजनिक क्षेत्र में लाने के लिए प्रोत्साहित करना था।
अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्रों की भागीदारी कुछ बेड़ियों के साथ
अस्तित्व में आई क्योंकि अब सरकार को एक ओर तो नागरिकों को एक विकल्प अनुकूल
बाजार प्रदान करने का विषय सामने आया तथा दूसरी ओर प्रदान की जा रही सेवाओं के
निष्पादन तथा गुणवत्ता को प्रभावी ढंग से विनियमित करने के लिए अनेक सुधारों को
सम्मिलित करना था।
उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण के आने के साथ, भारतीय अर्थव्यवस्था में नई आर्थिक नीति बनाई गयी, जिसने निजी कंपनियों तथा अंतरराष्ट्रीय और बहु-राष्ट्रीय कंपनियों को सार्वजनिक क्षेत्रों राजमार्गों व टोल मार्गों का निर्माण, दूरसंचार, बिजली आपूिर्त, पेन्शन. में आने के लिए उनके प्रवेश को उदार बनाया। जैसे भोजन, राजमार्ग और टाले सड़क के निर्माण इससे विनियमन की अवधारणा का उद्भव हुआ।
विनियामक तंत्र आर्थिक दक्षता को सुनिश्चित करता है, क्योंकि सरकार अब यह सुनिश्चित कर सकती है और निगरानी भी कर सकती है कि निजी क्षेत्र की कंपनियाँ नियामक एजेंसी द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों और मानकों का पालन करती है, जिससे एकाधिकार, प्रतिबंधात्मक, और अनुचित व्यापार प्रथाओं पर रोक लगती है। यह नागरिकों को एक विकल्प अनुकूल बाजार प्रदान करता है और अंत में, संसाधनों के प्रभावी और कुशल उपयोग और सेवाओं के आधुनिकीकरण को बढ़ावा देता है।
कुछ ऐसे क्षेत्र है, जो नियामक एजेंसियों के काम-काज में बाधा उत्पन्न करते है। सर्वप्रथम, यह है कि सरकार, नियामक प्राधिकरण, और न्यायपालिका की भूमिकाओं में अभी तक स्पष्ट सीमांकन नहीं है। इसके कारण सेवा बेंचमार्क, प्रशिक्षित व विशिष्टता प्राप्त मानव संसाधन, उपभोक्ता की भागीदारी, विशेषज्ञ दृष्टिकोण आदि अनुपस्थित होते हैं, जिससे विशेषज्ञों की तुलना में सामान्यज्ञों की उपस्थिति तथा राजनीतिक हस्तक्षेप अत्यधिक हो गया है। इससे नियामकिय कार्यों में अत्यन्त रूप से बाधा आती हैं।
समग्र रूप से, नियामक आयोग उन उद्देश्यों को पूरा करने में बहुत सीमा तक सफल है, जिन उद्देश्यों के लिए इन्हें स्थापित किया गया था। उपभोक्ता हितों की सुरक्षा, गुणवत्ता व सही कीमत, विश्वसनीय सुविधाएँ की उपलब्धता व सुनिश्चित, समाधान तंत्र द्वारा विभिन्न हितधारकों के बीच समझौता, सतर्क निगरानी और समीक्षा के कारण इन नियामक आयोगों ने भारत में एक प्रतिस्पर्धा, बहुलता, और निवेश समर्थक पर्यावरण को बढ़ावा दिया है।
उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण के आने के साथ, भारतीय अर्थव्यवस्था में नई आर्थिक नीति बनाई गयी, जिसने निजी कंपनियों तथा अंतरराष्ट्रीय और बहु-राष्ट्रीय कंपनियों को सार्वजनिक क्षेत्रों राजमार्गों व टोल मार्गों का निर्माण, दूरसंचार, बिजली आपूिर्त, पेन्शन. में आने के लिए उनके प्रवेश को उदार बनाया। जैसे भोजन, राजमार्ग और टाले सड़क के निर्माण इससे विनियमन की अवधारणा का उद्भव हुआ।
विनियामक तंत्र आर्थिक दक्षता को सुनिश्चित करता है, क्योंकि सरकार अब यह सुनिश्चित कर सकती है और निगरानी भी कर सकती है कि निजी क्षेत्र की कंपनियाँ नियामक एजेंसी द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों और मानकों का पालन करती है, जिससे एकाधिकार, प्रतिबंधात्मक, और अनुचित व्यापार प्रथाओं पर रोक लगती है। यह नागरिकों को एक विकल्प अनुकूल बाजार प्रदान करता है और अंत में, संसाधनों के प्रभावी और कुशल उपयोग और सेवाओं के आधुनिकीकरण को बढ़ावा देता है।
कुछ ऐसे क्षेत्र है, जो नियामक एजेंसियों के काम-काज में बाधा उत्पन्न करते है। सर्वप्रथम, यह है कि सरकार, नियामक प्राधिकरण, और न्यायपालिका की भूमिकाओं में अभी तक स्पष्ट सीमांकन नहीं है। इसके कारण सेवा बेंचमार्क, प्रशिक्षित व विशिष्टता प्राप्त मानव संसाधन, उपभोक्ता की भागीदारी, विशेषज्ञ दृष्टिकोण आदि अनुपस्थित होते हैं, जिससे विशेषज्ञों की तुलना में सामान्यज्ञों की उपस्थिति तथा राजनीतिक हस्तक्षेप अत्यधिक हो गया है। इससे नियामकिय कार्यों में अत्यन्त रूप से बाधा आती हैं।
समग्र रूप से, नियामक आयोग उन उद्देश्यों को पूरा करने में बहुत सीमा तक सफल है, जिन उद्देश्यों के लिए इन्हें स्थापित किया गया था। उपभोक्ता हितों की सुरक्षा, गुणवत्ता व सही कीमत, विश्वसनीय सुविधाएँ की उपलब्धता व सुनिश्चित, समाधान तंत्र द्वारा विभिन्न हितधारकों के बीच समझौता, सतर्क निगरानी और समीक्षा के कारण इन नियामक आयोगों ने भारत में एक प्रतिस्पर्धा, बहुलता, और निवेश समर्थक पर्यावरण को बढ़ावा दिया है।