लोकायुक्त का कार्यकाल, नियुक्ति, अधिकार क्षेत्र, शक्तियां

लोकायुक्त की उत्पत्ति का स्रोत स्कॅन्डिनेवियन देशों के लोक पाल में मिलता है। लोकपाल वह व्यक्ति है, जिसकी नियुक्ति कुशासन से उत्पन्न नागरिकों की समस्या के समाधान के लिए की जाती है। स्वीडन, विश्व का पहला देश है, जिसने वर्ष 1809 में लोकपाल का गठन किया था। प्रशासनिक प्रणाली को भ्रष्टाचार और दुर्भावनाओं से मुक्त करने की भारत सरकार की पहल के परिणामस्वरूप, दो भ्रष्टाचार विरोधी प्रहरी, अर्थात् लोकपाल और लोकायुक्त का सृजन हुआ। इस संदर्भ में, यह अनिवार्य है कि इन दोनों संस्थाओं के विकास के पथ का अवलोकन किया जाए।

प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने नागरिकों की समस्या समाधान हेतु ‘‘लोकपाल’’ आरै ‘‘लोकायुक्त’’ के रूप में नामित दो विशेष प्राधिकरण की स्थापना की सिफारिश की। इन दोनों संस्थाओं की स्थापना स्कॅन्डिनेवियन देशों के ओम्बुडसमेन और न्यूज़ीलैंड के जाँच हेतु संसदीय आयुक्त के पैटर्न पर स्थापित किया जाना था।

प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश पर लोकायुक्त की नियुक्ति निश्चित समय अवधि के लिए की गयी, ताकि वह स्वतंत्र तथा निष्पक्ष रूप से कार्यों का निर्वहन कर सके। इस पद पर उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अथवा उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है। 1972 में महाराष्ट्र, 1973 में राजस्थान, 1975 में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि राज्यों ने भी इस संस्था का गठन किया। कुछ राज्यों जैसे महाराष्ट्र और राजस्थान में लोकायुक्त और उप लोकायुक्त का प्रावधान है।

वर्ष 2005 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट शासन में नैतिकता में सिफारिश की है कि लोकायुक्त एक बहु सदस्यीय संगठन होना चाहिए, जिसमें अध्यक्ष पद पर न्यायिक सदस्य की नियुक्ति की जानी चाहिए, प्रख्यात विधिवेत्ता अथवा प्रशासनिक अधिकारी को सदस्य तथा राज्य सतर्कता आयोग के अध्यक्ष को पदेन सदस्य होना चाहिए। अध्यक्ष का चुनाव मुख्यमंत्री, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विधान सभा में विपक्ष के नेता द्वारा उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) अथवा उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश के पैनल में से चुना जाना चाहिए। समिति को प्रख्यात विधिवेत्ता अथवा प्रशासनिक अधिकारियों के पैनल में से दूसरे सदस्य का भी चयन करना चाहिए। 

इस रिपोर्ट में आयोग हालांकि किसी भी उप.लोकायुक्त की नियुक्ति का पक्ष नहीं लेता है। इसके अतिरिक्त यह इस बात पर ज़ोर देता है कि लोकायुक्त द्वारा केवल भ्रष्टाचार संबंधित प्रकरणों की ही सुनवाई की जायेगी। नागरिकों की सामान्य शिकायतों को लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र के बाहर रखा गया। लोकायुक्त के पास अपनी स्वयं की जाँच व्यवस्था होनी चाहिए । यहां तक कि अगर राज्यपाल संवैधानिक रूप से सही है, तो भी लोकायुक्त के समक्ष आग्रह करने और राज्य सरकार का सक्रिय सहयोग प्राप्त करने की समस्या आ सकती है, विशष्े ा रूप से इसे सदंर्भित मामलों में निर्णयन के लिए आवश्यक सूचनाओं और अभिलेखों को प्राप्त करने में सहयोग चाहिए। इसी प्रकार, लोकायुक्त की सिफारिशों पर की जाने वाली कारर्व ाई हते ु भी राज्य सरकार के सहयोग और समर्थन की आवश्यकता होती है।

प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के आधार पर भारत के सभी राज्यों में समरूपता से लोकायुक्त प्रणाली को लागू करने हेतु संविधान में संशोधन किया गया ताकि कुप्रबध्ं ान और प्रशासनिक अन्याय की समस्याएं सुलझाई जा सकें। कई प्रयासों के बाद, लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 को, 1 जनवरी, 2014 को राष्ट्रपति से स्वीकृति प्राप्त हुई और 16 जनवरी, 2014 से यह अधिनियम लागू हुआ।

लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम 2013

लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 को आमतौर पर लोकपाल अधिनियम के रूप में संदर्भित किया जाता है, जो संघ के लिए लोकपाल की स्थापना और राज्य के लिए लोकायुक्त का प्रावधान करता है; और जो सरकारी अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए राज्य में लोकायुक्त है यह अधिनियम पूरे भारत, और भारत के भीतर और बाहर कार्यरत ‘‘लोक सेवकों’’ पर भी लागू होता है।

लोकतंत्र में लोकायुक्त, आयकर विभाग तथा एंटी करप्शन ब्यूरो के साथ मिलकर कार्य करेंगे और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने में लागे ों की मदद करेंगे। विभिन्न राज्यों में लोकायुक्त की संरचना; और उसकी भूमिका में विवेकाधीन अंतर है। 21वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह प्रयास किया गया कि सभी राज्यों में माडॅल विधान के तर्ज पर सभी लोकायुक्तों में समरूपता लाई जाए, परन्तु राज्यों ने इस प्रयास में अवरोध पैदा किए। जब तक केन्द्र सरकार नेतृत्व नहीं करती और राज्यों को इस एकरूपता की सहमति लिए तैयार नहीं कर लेती, तब तक ऐसी एकरूपता संभव नहीं है। फिर भी, इस क्षेत्र में विशेषज्ञों द्वारा दिए गए निम्नलिखित सुझावों पर ध्यान देने की आवश्यकता है:
  1. पूर्व मंत्री और सिविल सेवकों को भी इस अधिनियम के अन्तर्गत लाया जाना चाहिए।
  2. मुख्यमंत्री  को भी लोकायुक्त के क्षेत्राधिकार में लाया जाना चाहिए।
  3. लोकायुक्त के पास स्वयं से जांच आरम्भ करने की शक्ति होनी चाहिए।
  4. लोकायुक्त के पास स्वयं की जाँच एजेन्सी होनी चाहिए अथवा यदि वह अन्य एजेन्सी को जाँच सौंपता है, तो यह तीव्र गति से सम्पन्न की जानी चाहिए।
  5. सरकारी अधिकारियों द्वारा लोकायुक्त के सुझावों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यदि कोई जानकारी देने में जानबूझकर बिलम्ब कर रहा है तो उसे दण्ड दिया जाना चाहिए।
  6. लोकायुक्त की सिफारिशों के क्रियान्वयन की मॉनिटरिंग हेतु समिति का गठन किया जाना चाहिए।
हालांकि वर्ष 2016 में, लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में कई संशोधन किये गये। एक प्रावधान यह किया गया कि यदि विपक्ष का नेता न हो तो लोक सभा/विधान सभा में विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता लोकायुक्त का चयन करने के लिए चयन समिति का सदस्य होगा। पारदर्शिता हेतु लोक सेवकों को अपनी संपत्ति और देनदारियों की घोषणा करनी होगी।

सभी राज्यों में लोकायुक्त का सगंठनात्मक ढाँचा एक जैसा नहीं है। कुछ राज्य जैसे राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में लोकायुक्त तथा उप-लोकायुक्त का प्रावधान है, आरै वहीं कुछ अन्य राज्य जैसे उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में केवल लोकायुक्त के पद का प्रावधान है। जम्मू कश्मीर में लोकायुक्त तथा उप-लोकायुक्त नहीं है। मध्य प्रदेश में, लोकायुक्त और उप-लोकायुक्त की सहायता के लिए, संगठन को चार कार्यात्मक भागों में विभाजित किया गया है:
  1. प्रशासनिक और पूछताछ अनुभाग - इस अनुभाग की अगुवाई सचिव करता है, जो एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी है आरै वह पूरे संगठन के लिए विभाग के प्रमुख के रूप में कार्य करता है। इसे अनुभाग के उप सचिव, अवर सचिव, लेखा अधिकारी, अनुभाग अधिकारियों और अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा सहायता प्रदान की जाती है।
  2. कानूनी अनुभाग - कानूनी मामलों से निपटने और पूछताछ करने के लिए लोकायुक्त और उपलोकाय ुक्त की सहायता करने के लिए, जिला न्यायाधीश के रैंक के अधिकारियों को कानूनी सलाहकार के रूप में तैनात किया जाता है और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट रकैं के एक अधिकारी को उप कानूनी सलाहकार के रूप में तनै ात किया जाता है। वे उच्च न्यायालय से प्रतिनियुक्ति पर आते हैं।
  3. विशेष पुलिस प्रतिष्ठान - इस प्रतिष्ठान का गठन लोक प्रशासन को प्रभावित करने वाले कुछ अपराधों की जांच के लिए किया गया है, और भ्रष्टाचार अधिनियम की रोकथाम के प्रावधानों के तहत आने वाले लोगों के लिए “मध्य प्रदेश विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम 1947” नामक विशेष अधिनियम है, जोकि एक केंद्रीय अधिनियम है। इसका नेतृत्व महानिदेशक करता है, जो महानिदेशक या अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, मध्य प्रदेश के पद पर होता है। उसे पुलिस महानिरीक्षक, पुलिस उप महानिरीक्षक, पुलिस अधीक्षक, पुलिस उपाधीक्षक, इंस्पेक्टर और अन्य रैंकों के कर्मचारियों द्वारा कायोर्ं में सहायता प्रदान की जाती है। यह ध्यान देने योग्य है कि मध्य प्रदेश पुलिस प्रतिष्ठान द्वारा जांच का अधीक्षण राज्य में लोकायुक्त के साथ निहित है।
  4. तकनीकी सेल - तकनीकी सेल तकनीकी प्रकृति की पूछताछ से संबंधित है। इसका नेतृत्व मुख्य अभियंता करते हैं, जिनके अधीन कार्यकारी अभियंता, सहायक अभियंता और तकनीकी सहायक हैं।

लोकायुक्त की नियुक्ति

लोकायुक्त तथा उप-लोकायुक्त, दो स्वतंत्र तथा निष्पक्ष कार्यकर्ता हैं, जिनका प्रमुख कार्य लोक सेवकों के कार्य और निर्णय की जाँच पड़ताल करना है। यह उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समकक्ष हाते हें तथा विधायिका और कार्यकारी से स्वतंत्र होते हैं।

राज्यों में लोकायुक्त तथा उप-लोकायुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती हैं। नियुक्ति के समय राज्यपाल, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और राज्य विधान सभा में विपक्ष के नेता से परामर्श भी लेता है।

लोकायुक्त का कार्यकाल

उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात, ओडिशा तथा कर्नाटक में लोकायुक्त पद हेतु न्यायिक योग्यता निर्धारित है। हालांकि बिहार, महाराष्ट्र तथा राजस्थान में विशेष योग्यता निर्धारित नहीं है। सामान्यत: अधिकांश प्रदेशों में लोकायुक्त का कार्यकाल पाँच वर्ष, अथवा 70 वर्ष की आयु (हिमाचल प्रदेश), जो भी पहले हो; तथा लोकायुक्त दूसरे कार्यकाल के लिए पुन: नियुक्ति के लिए पात्र नहीं है।

लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र

राज्यों में लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र को लेकर समरूपता नहीं है। इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य हैं:
  1. मुख्यमंत्री को हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा गुजरात में लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र में शामिल किया गया है, जबकि उन्हें महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, और बिहार में इसकी परिधि के बाहर रखा गया है।
  2. अधिकांश राज्यों में, मंत्री और उच्च स्तरीय सिविल सेवक लोकायुक्त के घेरे में आते हैं। महाराष्ट्र राज्य में, पूर्व मंत्री और सिविल सेवक भी इसकी परिधि में आते हैं।
  3. राज्य विधान सभा के सदस्य भी आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त की परिधि में शामिल है।
  4. अधिकतर राज्यों में निगमो, कंपनियों और सोसाइटियों के प्राधिकारी भी लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
एक राज्य का लोकायुक्त आम तौर पर राज्य विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है। इसकी वार्षिक रिपोर्ट विधान-मंडल में प्रस्तुत की जाती है; और पारंपरिक रूप से इसकी सिफारिशें सदन द्वारा स्वीकार की जाती हैं।

लोकायुक्त की शक्तियां

लोकायुक्त की संस्था को भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी के रूप में माना जाता है, जो कुशासन से उत्पन्न भ्रष्टाचार भाई भतीजावाद तथा पक्षपात के खिलाफ जनता की शिकायतों को दूर करने के लिए उत्तरदायी हैं। इस संदर्भ मं,े लोकायुक्त के पास निम्नलिखित शक्तियां हैं:
  1. पर्यवेक्षी शक्तियाँ, यानी अधीक्षण की शक्तियाँ और प्रारंभिक जाँच या जाँच के लिए सदंर्भित मामलों के बारे में दिशा निर्देश देने के लिए
  2. खोज और गिरफ़्त की शक्ति
  3. कुछ मामलों में सिविल कोर्ट की शक्ति
  4. राज्य सरकार के अधिकारियों की सेवाओं का उपयोग करने की शक्ति
  5. संपत्ति के अनंतिम लगाव की शक्ति
  6. संपत्ति कुर्की की पुष्टि के बारे में शक्ति
  7. विशेष परिस्थितियों में, भ्रष्टाचार के माध्यम से उत्पन्न या प्राप्त की गई संपत्ति, आय, प्राप्तियों और लाभों को ज़ब्त करने से संबंधित शक्तियां
  8. भ्रष्टाचार के आरोप से जुड़े लोक सेवक के स्थानांतरण या निलंबन की सिफारिश करने की शक्ति; 
  9. प्रारंभिक जांच के दौरान, रिकॉर्ड को नष्ट करने से रोकने के लिए निर्देश देने की शक्ति; तथा 
  10. प्रत्यायोजित करने की शक्ति। इस संदर्भ में, लोकायुक्त यह निर्देश भी दे सकता है कि उसे दी गई कोई भी प्रशासनिक या वित्तीय शक्ति का उसके अधिकारी द्वारा प्रयोग या निर्वहन भी किया जा सकता है। 
उपर्युक्त शक्तियों के आधार पर, लोकायुक्त लोक प्रशासन के मानकों में सुधार के लिए निम्नलिखित कार्य करता है:
  1. लोकायुक्त किसी भी नागरिक से प्रशासन के खिलाफ शिकायत स्वीकार कर सकता है।
  2. आरोपी व्यक्ति या व्यक्तियों के खिलाफ शिकायत को स्वीकार करते हुए, लोकायुक्त शिकायतकर्ता को उसके बारे में सूचित करने के बाद, बचाव के लिए अवसर देता है।
  3. लोकायुक्त विशेष जांच एजेंसियों की सहायता लेकर आरोपी के विरुद्ध, तथ्यों के आधार पर निष्पक्ष जाँच करता है।
  4. यदि लोकायुक्त शिकायत की वैधता से संतुष्ट है, तो वह सक्षम प्राधिकारी को लिखित अनुरोध के माध्यम से अपने प्रस्ताव की सिफारिश कर सकता है। 
लोकायुक्त के निष्पक्ष जाँच हेतु उसके पास अलग कार्यालय, कर्मचारी तथा बजट होता है, जो निष्पक्ष जाँच करने के लिए अनिवार्य है। वह समय समय पर जाँच हेतु अथवा सूचना प्राप्त करने हेतु राज्य जाँच एजेन्सियों से सहायता लेता है आरै जाँच के लिए आवश्यक प्रासंगिक फाइलों और दस्तावेजों तक पहुँच प्राप्त करता है। जिन सरकारी संगठनों की जाँच चल रही होती है, उनका स्वयं जाकर निरीक्षण करने की शक्ति भी इनके पास है। हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश को छोड़कर (केवल उदाहरण), अन्य राज्यों में लोकायुक्त स्वयं से भी जाँच प्रारम्भ कर सकता है। 

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