आदिकाल का नामकरण और काल सीमा

जार्ज ग्रियर्सन ने आदिकाल को ‘चारण काल’ कहा है तथा इसकी सीमा 700 ई. से 1300 ई. माना है। मिश्रबन्धुओं ने आदिकाल को ‘प्रारम्भिक काल’ कहकर इसकी समय सीमा 700 वि. से 1444 वि. तक मानी है। आचार्य शुक्ल ने इसे ‘वीरगाथाकाल’ कहकर इसकी अवधि सं. 1050 से 1375 तक मानी है। डाॅ. रामकुमार वर्मा ने इसे दो भागों - संधि काल (सं. 750 से सं. 1000) तथा चारण काल (सं. 1000 -1375) में बांटा है। हिंदी साहित्य के आविर्भाव काल को ‘आदिकाल’ नाम हजारीप्रसाद द्विवेदी ने दिया है तथा इसकी समय सीमा 1000 ई. से 1400 ई. तक मानी है।

हिंदी साहित्य का प्रारंभिक काल जिसे आदिकाल, वीरगाथा काल, चारण काल, सिद्ध सामंत काल आदि अनेक संज्ञाओं से विभूषित किया गया है-हिंदी का सबसे अधिक विवादाग्रस्त काल है। शायद ही भारत के साहित्य के इतिहास में इतने विरोधों स्वतोव्याघातों का युग कभी आया होगा। आदिकाल में एक तरफ तो संस्कृत के ऐसे बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए जिनका रचनाएँ अलंकृत काव्य परम्परा की चरम सीमा पर पहुंच गई थीं और दूसरी ओर अपभंश के कवि हुए जो अत्यंत संक्षिप्त शब्दों में अपने मार्मिक भाव प्रकट करते थे। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान ने भी इस काल की कहानी को स्पष्ट करने का प्रयत्न बहुत दिनों से किया जा रहा है तथापि उसका चेहरा अब भी अस्पष्ट ही रह गया है।“

आदिकाल में साहित्य की शृंगार, भक्ति, वीर तथा ऐतिहासिक, लौकिक, धार्मिक एवं सामाजिक आदि कई प्रवृत्तियाँ एक साथ मिलती है। इन सभी प्रवृतियों के निर्माण विकास तथा परिवर्तन-संवर्द्धन में बहुत-सी स्थितियों-परिस्थितियों ने अपना योगदान दिया है। साहित्य को प्रभावित करते हुए कभी ये परिस्थितियाँ उसकी विकास दिशा को प्रशस्त करती रही है, तो कभी साहित्यकार एवं साहित्य के मूल्यवान संदेश से प्रेरणा ग्रहण कर सजती-संवरती रही हैं। 

अपभ्रंश साहित्य की आठवीं से चैदही शती तक अविरल गति से बहती धारा कैसे आदिकालीन साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों में घुलमिल गई तथा परिस्थितियों ने कैसे शृंगार, वीर या भक्ति धाराओं को विकसित किया रासो काव्य धारा या अन्य लौकिक-ऐतिहासिक और धार्मिक आदि साहित्य ग्रंथों के निर्माण में युगीन परिवेश और परिस्थितियों ने क्या-क्या भूमिका निभाई? ये परिस्थितियाँ साहित्य की उन प्रवृत्तियों में कहाँ-कहाँ और किस रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस विषय पर विचार आवश्यक है। किंतु सर्वप्रथम आदिकाल के स्वरूप की समीक्षा करनी जरूरी है।

प्रस्तुत इकाई में हम हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल ‘आदिकाल‘ का अध्ययन करेंगे। हिंदी साहित्य के आदिकाल का अपार महत्व है। यह काल परस्पर विरोधी चिंतन धाराओं को समेटे हुए हैं। इस काल में परिस्थितियों, भाषाओं,प्रवृत्तियों और विचारधाराओं का समन्वय है।

आदिकाल का स्वरूप

हिंदी साहित्य के आरंभिक काल को आदिकाल कहा जाता है। वैसे आदिकाल के स्वरूप को बांधना या जानना उतना सहज नहीं है, क्योंकि यह वह कालखंड है जिसमें कई परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ सामने आईं, जहां राजनीतिक दृष्टि से उथल-पुथल, विदेश आक्रमण तथा दो-दो संस्कृतियों के मिलन का स्वरूप है। सामाजिक रूप से विभिन्न धर्म-संप्रदायों, दर्शन एवं संस्कृतियों का फैलाव इस काल में था। ”जन सामान्य को आकर्षित-भ्रमित करत े टोने-टोट के, तंत्र-तंत्र चमत्कार और जैन, वैष्णव, शैव, शाक्त, सिद्ध एवं नाथ आदि कई धार्मिक सम्प्रदायों की बहुत-सी प्रवृत्तियाँ भी इस युग के समग्र साहित्य में देखी जाती हैं, जिनमें अन्तराल भी है और विरोध भी।

उक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट है कि आदिकालीन साहित्य के नामकरण तो भिन्न-भिन्न प्रस्तावित हुए किन्तु समय-सीमा में विशेष अंतर नहीं दिखाई देता। वैसे भी सर्वाधिक स्वीकृत नाम ‘आदिकाल’ ही रहा है। यद्यपि यह नाम भी इस काल की सम्पूर्ण साहित्यिक प्रवृत्तियों तथा लोक-चितवृत्तियों को प्रतिबिंबित नहीं करता किन्तु यह स्पष्ट ही हे कि ”प्रारम्भ काल“ के नाम पर इसमें सभी कुछ समाहित हो जाता है। सभी परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ विशेषताएँ तथा काल-धाराएँ इसमें सहज ही समा जाती है। स्वयं शुक्ल जी ने भी यह स्वीकार है। 

अतः समय सीमा और नामकरण के इस समग्र विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अधिकांश विद्वानों-साहित्य समाज द्वारा स्वीकृत नाम आदिकाल ही प्रमाणित एवं समर्थ नाम है। 

किसी साहित्यिक प्रवृत्ति तथा लोकचितवृत्ति को प्रतिबिंबित न करके भी यही नाम स्वीकृत किया जा सकता है। 

आदिकाल का नामकरण और काल सीमा

हिंदी साहित्य के इतिहास के विवादास्पद प्रसंगों में एक हिंदी साहित्य के आदिकाल का भी प्रसंग रहा है। हिंदी साहित्य के इतिहास के अनेक विद्वान लेखकों  ने  इस संबध में अपने -अपने  मत प्रस्तुत किए हैं। हिंदी साहित्य क े विधिवत इतिहास लेखन से पूर्व ‘भक्तमाल’ ‘चैरासी वैष्णवन की वार्ता’ ‘दो सौ वैष्णव की वार्ता’ आदि कतिपय कविवत संग्रह दो लिखे गए जिनमें काल-विभाजन और नामकरण की खोज की ओर कोई दृष्टि नहीं गई। कुछ विद्वान इसे वीरगाथात्मक रचनाओं की प्रधानता के कारण इसे वीेरगाथाकाल कहने के पक्ष में है, लेकिन सिद्धों आ ैर नाथों की रचनाएँ इस परिधि में नहीं आ सकती। अतः ‘वीरगाथाकाल’ न कहकर कुछ ने इसे आदिकाल कहा है, तो किसी ने बीजवपन काल।

1. वीरगाथाकाल

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रारम्भिक युग के साहित्य को दो कोटियों-अपभ्रंश और देशभाषा में बाँटा है। उनके मत में सिद्धों और योगियों की रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं, वे साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र हैं। अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आती और जो साहित्य की कोटि में गिनी जा सकी हैं वे कुछ फुटकर रचनाएँ हैं, जिनसे कोई विशेष प्रवृत्ति स्पष्ट नहीं होती है। उनके मत में तत्कालीन साहित्यिक रचनाओं में से केवल ‘खुसरो की पहेलियाँ’, ‘विद्यापति की पदावली’ तथा ‘बीसलदेव रासो’ को छोड़कर सभी रचनाएँ वीरगाथात्मक हैं। 

इस युग में राज्याश्रित कवि अपने आश्रयदाता राजा की वीरता का यशोगान तथा उन्हें युद्धों के लिए उकसाने का काम करते थे। इसलिए उन रचनाओं को राजकीय पुस्तकालयों  में रखा जाता था। लेकिन बाद में साहित्य संबंधी जो खोज की गई उसके अनुसार शुक्ल ने जिन रचनाओं के आधार पर इस काल का नाम ‘वीरगाथाकाल’ रखा है, उनमें से अधिकतर बाद की रचनाएँ हैं और कुछ सूचना मात्र हैं। शुक्ल ने जिन बारह रचनाओं के आधार पर विवेच्य काल का नामकरण वीरगाथाकाल किया है, वे हैं-
  1. विजयपाल रासो-नल्हसिंह
  2.  हम्मीर रासो-शाडर््गधर 
  3. कीर्तिलता-विद्यापति 
  4. कीर्तिपताका-विद्यापति 
  5. खुमानरासो-दलपति विजय 
  6. बीसलदेवरासो-नरपति नाल्ह 
  7. पृथ्वीराजरासो-चन्दरबरदाई
  8. जयचन्द्रप्रकाश-भट्टकेदार 
  9. विद्यापति की पदावली 
  10. परमाल रासो-जगनिक  खुसरो
  11.  की पहेलियाँ और 
  12. जयमंथक जस चन्द्रिका-मधुकर। 
इन रचनाओं में से अधिकतर रचनाएं अप्रामाणिक एवं सूचना मात्र हैं। खुमानरासो को शुक्ल ने पुराना माना था जबकि मोतीलाल मेनारिया ने इसका रचना काल समत् 1730 विक्रम और समत् 1760 विक्रम के बीच का माना है। इसी प्रकार से ‘बीसलदेव रासो’ भी सन्देहास्पद है। शुक्ल ने भी इस ग्रंथ को कोई महत्व नहीं दिया।

‘पृथ्वीराज रासो’ भी अप्रामाणिक रचना है। जगनिक काव्य प्रचलित गीतों के रूप में है, अतः इसे भी सूचना मात्र ही समझना चाहिए। ‘हम्मीररासो’ तथा भट्ट के द्वारा कृत ‘जयचन्द्र प्रकाश’ आदि रचनाएं भी सूचना मात्र है। कहने  का तात्पर्य यह है कि जिन ग्रन्थों के आधार पर इनका नाम ‘वीरगाथाकाल’ रखा गया, वे या तो सूचना मात्र हैं या बाद मंे लिखे हुए हैं। दूसरे, शुक्ल ने धार्मिक-साहित्य को उपदेशप्रधान मानकर साहित्य की कोटि में नहीं रखा, किन्तु जिस धार्मिक साहित्य में प्रेरक शक्ति हो और जो रचनाएँ मानव-मन को आन्दोलित करने में समर्थ हो उनका साहित्यिक महत्त्व नकारा नहीं जा सकता। इस दृष्टि से अपभ्रंश की कई रचनाएँ, जो धर्म-भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हैं, निस्सन्देह उत्तमकाव्य हैं। 

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के मत में धार्मिक प्रेरणा या अध्यात्मिक उपदेश को काव्यत्व के लिए बाधक नहीं समझना चाहिए। धार्मिक होने से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीें की जा सकती। यदि ऐसा मानकर चला जाये तो तुलसी का ‘मानस’ और जायसी का ‘पद्मावत’ भी साहित्य की सीमा में प्रविष्ट नहीं हो सकेगे। ‘भविष्यत कहा’ (धनपाल) धार्मिक कथा है, लेकिन इस जैसा सुन्दर काव्य उस युग में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। 

संक्षेप में कहा जायेगा कि सभी धार्मिक पुस्तकों को साहित्य के इतिहास में से नहीं हटाया जा सकता है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तत्कालीन उपलब्ध सामग्री के आधार पर ही नामकरण किया था। नवीनतम खोजों मे जो ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, उनकी प्रवृत्तियों को भी नामकरण निर्धारित करते समय ध्यान में रखना होगा। मोतीलाल मेनारिया का मत रहा है कि जिन रचनाओं के आधार पर ‘वीरगाथाकाल’ नाम रखा गया है वे किसी विशेष प्रवृत्ति को स्पष्ट नहीं करते, बल्कि चारण-भाट आदि वर्ग विशेष की मनोवृत्ति को ही स्पष्ट करते हैं। यदि इनकी रचनाओं के आधार पर किसी काल का नाम ‘वीरगाथाकाल’ रखा जाए तो राजस्थान में आज भी वीरगाथाकाल ही है, क्योंकि ये लोग आज भी उत्साह से काम कर रहे हैं।

2. अपभ्रंश काल

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और धीरेन्द्र वर्मा ने हिंदी साहित्य के आदिकाल को ‘अपभ्रंश काल’ की संज्ञा दी है। आदिकाल के साहित्य में अपभ्रंश भाषा की प्रधानता स्वीकारते हुए उन्होंने इस काल को ‘अपभ्रंश काल’ कहना अधिक समीचीन समझा है। भाषा के आधार पर साहित्य के इतिहास में काल-विभाजन उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। साहित्य के किसी भी काल का नामकरण उस काल की साहित्यिक प्रवृत्तियों अथवा प्रतिपाद्य विषय के आधार पर उचित समझा जाता है। ‘अपभ्रंश काल’ यह नाम भ्रामक भी सिद्ध होता है क्योंकि इसमें श्रोता या पाठक का ध्यान हिंदी साहित्य की ओर न जाकर अपभ्रंश साहित्य की ओर आकृष्ट होता है। भाषा-शास्त्र की दृष्टि से भी अपभ्रंश और हिंदी दो अलग-अलग भाषाएं है। इसलिए पुरानी हिंदी को अपभ्रंश कहना भी उचित नहीं है।

3. सधिकाल और चारण काल

डाॅ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के इस प्रारंभिक काल को ‘संधिकाल’ आ ैर ‘चारणकाल’ इन दो नामों से अभिहित किया है। उनकी सम्मति में हिंदी भाषा का विकास अपभ्रंश से हुआ है किन्तु अपभ्रंश से एक पृथक भाषा के रूप में विकसित होने से पूर्व हिंदी भाषा एक ऐसी स्थिति में भी रहीं होगी जिसमें वह अपभ्रंश के प्रभावों से सर्वथा मुक्त न हो सकी होगी। अपभ्रंश भाषा के अंत और हिंदी भाषा के आरम्भ की इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए डाॅ. वर्मा ने ‘संधिकाल’ की कल्पना की है। हिंदी साहित्य के जिस काल को आचार्य शुक्ल ने ‘वीरगाथाकाल’ कहा है, वहीं पर डाॅ. वर्मा उसे ‘चारण काल’ कहना उपयुक्त समझते हैं।

4. सिद्ध सामन्त काल

विषय वस्तु की दृष्टि से महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन ने इस युग के लिए ‘सिद्ध सामन्त युग’ नाम प्रेषित किया है। प्रस्तुत नामकरण बहुत दूर तक तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है। इस काल के साहित्य में सिद्धों द्वारा लिखा गया धार्मिक साहित्य ही प्रधान है। सामन्तकाल में ‘सामन्त’ शब्द से उस समय की राजनैतिक स्थिति का पता चलता है और अधिकांश चारण-जाति के कवियों की राजस्तुतिपरक रचनाओं के प्रेरणा स्रोत का भी पता चलता है। लेकिन इस ‘सिद्ध सामन्त युग’ में सभी धार्मिक और साम्प्रदायिक तथा लौकिक रचनाएँ नहीं आती। 

राहुल सांस्कृत्यायन अपभ्रंश और पुरानी हिंदी को एक ही मानते हैं, साथ ही इस युग की रचनाओं को मराठी, उडि़या, बंगला आदि भाषाओं की सम्मिलित निधि स्वीकार करते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ‘सिद्ध सामंत युग’ नाम भी साहित्य के लिए उपयुक्त नाम नहीं है।

5. बीजवपन काल

आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इसे बीजवपन काल कहा है। तत्कालीन साहित्य को देखकर यह नाम भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उसमें पूर्ववर्ती सभी काव्य रूढि़यों तथा परम्पराओं का सफलतापूर्वक निर्वाह हुआ है और उसके साथ कुछ नवीन प्रवृत्तियों का जन्म हुआ है।

6. आदिकाल

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसका नाम ‘आदिकाल’ सुझाया है। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है-‘वस्तुतः हिंदी का ‘आदिकाल’ शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम भावापन्न, परम्परा-विनिर्मुक्त, काव्य रूढि़यों से अछूते साहित्य का काल है, यह बात ठीक नहीं है। यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढिग्रस्त और सजग-सचेत कवियों का काल है।

वस्तुतः हिंदी साहित्य के आदिकाल के नामकरण का विषय अत्यन्त उलझा हुआ है। जब तक हि ंदी की पूर्ण-सीमा निर्धारण नहीं की जाती और जब तक उपलब्ध साहित्य की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता के प्रश्न का समाधान नहीं हो पाता; तब तक किसी निश्चय पर पहुँचना सहज नहीं है। अन्त मे कहा जा सकता है कि किसी निश्चित मत के अभाव में प्रस्तुत काल का नामकरण ‘आदिकाल’ ही अधिक संगत प्रतीत होता है। यह नाम सर्वाधिक प्रचलित हा े गया है।

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