आर्य समाज के 10 नियम क्या हैं ?

आर्य समाज की स्थापना 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती (1824-1883) ने की थी।, उस समय भारत में अंग्रेजों का शासन था। दयानन्द र्बाह्मण माता-पिता की संतान थे। उनकी शिक्षा पांच वर्ष की उम्र में शुरू हुई और आठ वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया गया। दयानन्द का धार्मिक तौर पर रूपान्तरण उस समय हुआ जबकि चैदह वर्ष की आयु में उनसे शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए कहा गया। दयानन्द व उनके पिता इसके लिए एक मंदिर में गये और मध्य रात्रि तक प्रार्थना व मंत्रों का जाप होता रहा। दयानन्द ने जब एक चूहे को शिव की मूर्ति पर छलांग लगाते और प्रसाद खाते हुए देखा तो उस घटना ने उनकी धार्मिक खोज की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। उन्होंने महसूस किया कि मूर्ति स्वयं में ईश्वर नहीं हो सकती। 

यह ऐसा युग था, जब यातायात एवं संचार के माध्यम अपेक्षाकृत रूप में आदिकालीन थे। छापेखाने या अच्छे समाचार पत्र बहुत कम संख्या में थे। ब्रिटिश सरकार को प्रारंभ में इस बात का भय था, कि छापेखानों एवं आधुनिक शिक्षा से राजद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

उस काल में अंग्रेजों ने, अंग्रेजी शासन व्यवस्था को चलाने के लिए आर्थिक रूप से सस्ते, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लिपिकों को बड़े पैमाने पर उत्पन्न करने की नीति को अपनाया हुआ था। इस नीति का मूल उद्देश्य, अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को सांस्कृतिक एवं मानवीय रूप से पतन का शिकार बनाना था।

अंग्रेजी शासन के द्वारा पैदा की गई समस्याएं तथा भारत औपनिवेशिक उत्पीड़न से उत्पन्न अनेक प्रकार की बुराइयां, उस समय की महत्वपूर्ण समस्याएं थीं। भारतीयों का बहुसंख्या में ईसाई मत में परिवर्तित होना, छुआछूत की कुरीतियां, जिससे शूद्रों का जीवन अमानवीय स्तर का हो गया था। महिलाओं का समाज में निम्न स्तर, पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, निरक्षरता तथा सबसे आर्थिक दुर्भाग्यपूर्ण सती-प्रथा प्रमुख समस्याएं थी। इन समस्याओं ने स्वामी दयानन्द को विकल एवं बेचैन कर दिया था। 

इसके अतिरिक्त भारत को औद्योगीकरण किये गये इंग्लैंड के एक कृषि उपनिवेश में परिवर्तित करने की नीति के फलस्वरूप उत्पन्न बड़ी संख्या में बढ़ती हुई गरीबी एक समस्या थी।

आर्य समाज की स्थापना 

1875 में अपने बम्बई के दौरे के समय स्वामी दयानन्द ने सबसे महत्वपूर्ण एवं दूरगामी निर्णय लिया। यह निर्णय ‘‘आर्य समाज‘‘ की स्थापना के बारे में था। इस संगठन का उद्देश्य, उनके प्रवचनों का प्रचार करके उसकी जड़े जमाना एवं उत्तरी भारत में दढतापूर्वक सुधार लाना था। इससे हिन्दू धर्म तथा भारतीय राष्ट ªवाद के विकास पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। स्वामी दयानन्द के मस्तिष्क में एक संगठन का विचार काफी समय से था। उन्होंने पहले कई बार एक संस्था के गठन करने का प्रयास सन 1874 में बनारस में किया था परन्तु दोनों प्रयास प्रायः असफल रहे थे। 16 जनवरी, 1875 में, उसने राजकोट में, आर्य समाज को स्थापित किया, परन्तु यह विकसित नहीं हो पाया। 
सन 1875 में ही दोबारा उन्होंने अहमदाबाद में आर्य समाज को स्थापित किया, परन्तु यह प्रयास भी असफल रहा। फिर 10 अप्रेल, 1875 में उन्होंने बम्बई में आर्य समाज को स्थापित किया। यह प्रयास बहुत ही सफल रहा। 

बम्बई में अनेक घटकों के योगदान के फलस्वरूप उनके प्रयासों के लिए उचित वातावरण की प्राप्ति हई। इसका एक कारण यह भी था कि पहले की अपेक्षा इस बार स्वामी दयानन्द ने इस संगठन के लिए ज्यादा अच्छी तरह से तैयारी की थी। सुधार के बारे में उनके विचार पूर्ण रूप से परिपक्व हो गये थे। उसके द्वारा लिखी गई पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश‘‘ भी मौजूद थी, जिसमें उन्होंने शिक्षा के अपने दर्शन से शुरुआत की थी। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि माता.पिता का यह कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को शिक्षित एवं सच्चरित्र बनाएं। उन्होंने प्रस्ताव किया कि 5 वर्ष की आयु से ही बच्चों को संस्कृत, हिन्दी तथा साथ ही विदेशी भाषाएं सीखना शुरू कर देना चाहिए। इस तरह उन्होंने त्रिभाषाफार्मूला प्रस्तुत किया। वे यह भी मानते थे, कि माता-पिता अपने बच्चों को अनुशासित रखें ओर विधिवत रूप से सामाजिक प्राणी बनाएं। 

दयानन्द लड़कियों व लड़कों दोनों के लिए 8 वर्ष की आयु से गंभीर रूप से शिक्षा दिये जाने के पक्ष में थे, किन्तु वे उनके सह-शिक्षा संस्थानों के पक्षधर नहीं थे। सभी विद्यार्थियों से आशा की जाती थी कि वे ब्रह्मचर्य का पालन करें। दयानन्द हालांकि, शिक्षा के माध्यम से पुरुष व स्त्री की समानता के पक्षधर थे।

उन्होंने बाल-विवाह का दृढ़ता के साथ विरोध किया और कहा कि लड़कियों का विवाह 16 वर्ष तथा लड़कों का विवाह 25 वर्ष की आयु से पहले नहीं किया जाना चाहिए। स्वामी दयानन्द ने, जो सबसे महत्वपूर्ण एवं गैर परंपरागत कदम उठाये थे, उनमें से एक वह प्रस्ताव था कि जिन हिन्दुओं ने ईसाई एवं इस्लाम धर्म इत्यादि को स्वीकार कर लिया था उन्हें वापस हिन्दू धर्म में सम्मिलित किया जाए। इसको प्रायः शुद्धि संस्कार द्वारा बहुसंख्या में एक साथ किया गया।

205 आर्य समाज के संस्थापक से अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न उभर के आते हें। समाज में आर्य समाज की भूमिका का विचार स्वामी दयानन्द के मस्तिष्क में किस प्रकार आया एवं उसने आर्य समाज में स्वयं अपनी भूमिका को किस रूप में देखा था? इस संगठन में सम्मिलित होने के इच्छुक व्यक्ति कोन थे एवं किन कारणोंवश वे ऐसा करने को प्रेरित हुए थे? किस प्रकार की संस्था बन के तेयार हुई एवं इसके अनुरूप संस्थाएं कोन.कोन सी थी? अब हम इन प्रश्नों पर विचार करेंगे।

इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि स्वामी दयानन्द ऐसे समस्त हिन्दुओं को एक सूत्र में बांधना चाहते थे। जो कुछ आम मुद्दों के बारे में एक मत थेः प) धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों के प्रति निष्ठा; पप) वैदिक धर्म के पुनः प्रचलन के माध्यम से हिन्दू धर्म में सफलता प्राप्त करने का दृढ  संकल्प। एक समाज के रूप में संगठित किये जाने से, ये व्यक्ति सारे समाज पर प्रभाव डालने में एक.दूसरे की सहायता करने में अधिक प्रयत्नशील एवं प्रभावकारी होंगे। अपने विचारों का प्रचलन या प्रचार करने के लिए स्वामी दयानन्द अपने अनुयायियों की संस्था बनाने के इच्छुक नहीं थे। उनकी मान्यता थी कि सुधार जनसाधारण द्वारा स्वयं किये जाने चाहिए। अपने व्यक्तिगत जीवन में सुधार लाना एवं अपने समाज को ऊपर उठाने का दायित्व स्वयं व्यक्तियों को होता है। व्यक्तिगत रूप से या अपने प्रकाशनों के माध्यम से स्वामी दयानन्द व्यक्तियों को सदैव सलाह प्रदान करता रहेगा। परन्तु वह उनका नेता नहीं बनेगा। उसको अपने स्वयं के ज्ञान की सीमाओं का आभास था एवं उन्होंने अपने अनुयायियों के किसी वर्ग या किसी भी एक व्यक्ति का गुरू बनना अस्वीकार कर दिया था।

स्वामी दयानन्द के अनेक व्याख्यानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शुरू से ही उन्होंने यह धारणा बना ली थी कि आर्य समाज में वह प्रमुख के बजाय किसी भी अन्य रूप में अपनी भूमिका निभाएंगे। उनका यह विचार नहीं था कि आर्य समाज कुछ खास व्यक्तियों का अंतरंग स्वर्ग बन जाए, बल्कि वह चाहते थे कि यह एक ऐसा विस्तृत एवं खुला हुआ संगठन बने जिसमें वेदों में धार्मिक आस्था रखने वाले समस्त हिन्दू एक हो जाएं। कुछ वर्षों के पश्चात जब समाज विकसित होकर, अधिक प्रबल हो गया तो आर्य समाज के प्रति स्वामी दयानन्द के इन मूल विचारों में धीरे.धीरे ओर अधिक दृढ़ता आ गई।

समाज की स्थापना के लिए जो गोष्ठियां एवं चर्चाएं हुई थी उनमें स्वामी दयानन्द ने अपना अधिक समय नहीं दिया क्योंकि यह समय अधिकांश रूप से उसके सामान्य कार्यों में व्यतीत होता था। अपने प्रवचनों एवं प्रचार के लिए जन संबोधन को उन्होंने मुख्य साधन के रूप में उपयोग किया था। अपने जन संबोधनों में वह प्रमुख रूप से सकारात्मक मुद्दों पर अधिक ज़ोर देते थे। आर्यों का इतिहास वेदों के बारे में ईश्वरीय ज्ञान, परमात्मा एवं आत्मा का संबंध, आचार शास्त्र एवं राष्ट्र का उत्थान। अपने भाषण में किसी प्रकार के अवरोध एवं उसके पश्चात अधिक प्रश्नोत्तरों के किसी भी सत्र का वह सदेव विरोध करते थे।

आर्य समाज के नियम

बम्बई की आर्य समाज की शाखा ने 28 नियम बनाकर शुरुआत की थी, जो धार्मिक, सामाजिक एवं संगठन संबंधी व्यवस्थाओं से संबद्ध थे। इनमें से कुछ नियम इस प्रकार के थे: जनसाधारण के हित के लिए आर्य समाज आवश्यक है। प्रत्येक प्रान्त में एक मुख्य समाज होगा एवं यथासंभव स्थानों पर उसकी शाखाएं स्थापित की जाएंगी। सप्ताह में एक बार समाज की गोष्ठी का आयोजन किया जाएगा, जिसमें सामवेद के मंत्रों का उच्चारण होगा। ईश्वर की महिमा का बखान करने के लिए भाषण एवं गीतों का आयोजन किया जा सकता है, जिसमें वाद्य संगीत सम्मिलित किया जाएगा। समाज में हिन्दी एवं संस्कृत भाषा की पुस्तकों का एक पुस्तकालय होगा, आमदनी एवं खर्चे का हिसाब रखा जाएगा। (सदस्यों द्वारा अपनी आमदनी का 9 प्रतिशत भाग शुल्क के रूप में दिया जाएगा) एक समाचारपत्र का प्रकाशन किया जाएगा, लड़कों एवं लड़कियों के लिए अलग-अलग स्कूल चलाए जाएंगे (लड़कियों के स्कूल में केवल महिला कर्मचारियों की नियुक्ति की जाएगी) सत्यता का प्रवचन करने हेतु विद्वान व्यक्तियों को अन्य स्थानों पर भेजा जाएगा। सदस्यों को अपने सदस्यों के साथ सदभाव से स्नेह प्रदान करना चाहिए।

विवाह एवं मृत्यु के सारे समारोह वेदों के अनुसार आयोजित किये जाएंगे। किसी बेईमान एवं दुष्ट व्यक्ति को समाज से निष्कासित किया जा सकता हे, परन्तु किसी व्यक्ति को पूर्वाग्रह या पक्षपात पूर्ण ढंग से समाज से निष्कासित नहीं किया जा सकता है। समाज में अध्यक्ष एवं सचिव के अलावा एक अधिकारी भी होगा। उत्कृष्ट कार्य के लिए व्यक्ति को पुरस्कृत किया जाएगा एवं उसके कार्यों की सराहना की जाएगी। समाज देश के सुधार के लिए कार्य करेगा.आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों रूपों में आर्य समाज की किसी संस्था में किसी भी पद के लिए आर्य समाजी को वरीयता प्रदान की जाएगी। 

विवाह के समय जो भी दान किया जाएगा वह आर्य समाज को दिया जाना चाहिए। मुख्य धार्मिक नियम यह था कि वेद सर्वोच्च है एवं उनकी महत्ता सर्व उजागर है, ऋषियों द्वारा लिखी गई अन्य पुस्तकों की महत्ता वेदों के समक्ष दूसरे दर्जे की है। निराकार र्बह्म की वंदना की जानी चाहिए।

आर्य समाज के 28 नियम काफी संपूर्ण एवं विस्तत हे। इसके अलावा ये याद रखने के लिए काफी सख्या में थे। इसलिए लाहौर में इनकी संख्या घटा कर 10 कर दी गई थी। आर्य समाज के इतिहास में 24 जून 1877 एक चिरस्मरणीय दिवस था, क्योंकि इस दिन लाहौर में आर्य समाज को स्थापित किया गया था।

यह बम्बई के आर्य समाज से संबद्ध नहीं था। लाहौर का समाज, आर्य समाज के इतिहास का एक नया अध्याय था, इसने पुराने समाज का प्रायः नवीनीकरण कर दिया था। जैसे बम्बई में स्वीकृत किये गए 28 नियमों में ध्यानपूर्वक संशोधन किया गया था, उनको दोबारा लिखित रूप दिया गया था और उनकी संख्या घटा कर 10 नियम कर दी गई थी। ऐसा प्रतीत होता था, जैसे आर्य समाज का नया विधान बनाया गया हो। 

लाहौर में समाज के संस्थापक सदस्यों की संख्या 100 थी। जुलाई के अन्त तक यह संख्या बढ़ कर 500 हो गई थी।

24 जुलाई, 1877 को इन दस नियमों को अंगीकृत कर लिया गया। इनको आर्य समाज के मूलभूत सिद्धांतों के रूप में माना जाता हे एवं समस्त आर्य समाजियों के लिए इनका पालन करना अनिवार्य माना जाता हे। पहले दो नियम ईश्वर से संबंधित हैं एवं तीसरा नियम वेदों से संबंधित हैं। ईश्वर एवं वेद आर्य समाज के आधार हैं। शेष नियम सामान्य व्यक्ति के आचार-विचार के लिए मार्गदर्शक के रूप में हैं। 

आर्य समाज के 10 नियम 

ये दस नियम हैं - 

1) सच्चे ज्ञान एवं ज्ञान द्वारा जानी जाने वाली समस्त वस्तुओं का मुख्य स्रोत परमात्मा होता है।

2) परमेश्वर ही परम सत्य हे, परम ज्ञान है एवं परमानन्द हे। वह निराकार है, सर्वशक्तिमान है, यथार्थ हे, दयाल हे, अजन्मा है, अनंत है, अपरिवर्तनीय हे, अनादि है, अद्वितीय है, सबका सहायक एवं स्वामी है, सर्वव्यापी है, सबकी अन्तरात्मा में निवास करता है एवं उसका नियंत्रण करता है, प्रत्यक्ष हे, चिरस्मरणीय एवं निःषक हे, अनन्त है, अन्यात्मा हे एवं सारे विश्व का सृष्टिकर्ता है। केवल वही पूजने योग्य हे। 

3)  वेद समस्त ज्ञान के भंडार की पुस्तकें हैं। समस्त आर्य समाजियों के लिए वेदों का अध्ययन एवं प्रचार करना, वेदों को सुनना एवं उनका प्रवचन देना. उनका प्रमुख कर्तव्य हे। स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तवाद में, परमेश्वर के पश्चात वेदों का सबसे महत्वपूर्ण स्थान हे। वेदों का पुनः अध्ययन‘ के नारे से उसका आशय यह हे कि हमको धर्म ग्रंथों में लिखी हुई उन सब बातों को अमान्य करना चाहिए जो वेदों के उपदेशों से भिन्न हैं, वेद परमेश्वर द्वारा उच्चरित शब्द/वाक्य हैं जिन्हें ऋषियों द्वारा समस्त मनुष्य जाति को प्रवचन कराया गया है। इस प्रकार वेदों की रचना किसी मानव द्वारा नहीं की गई।

4) सच्चाई को हमें सदैव स्वीकार करना चाहिए एवं असत्य को सदेव ठुकराना चाहिए। यह एक महत्वपूर्ण अभियुक्ति है। समय के अनुसार हमको किसी विचारधारा को मान्यता प्रदान नहीं कर देनी चाहिए। यदि वह असत्य है तो उसका बहिष्कार करने में हमें किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए।

5) मनुष्य के समस्त कर्म, सही एवं गलत, की विवेचना करने के पश्चात धर्म के अनुसार करने चाहिए। नियम यह हे कि सही कार्य को कीजिए एवं गलत कार्य से दूर रहिये। 

6) भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक रूप से समस्त विश्व की भलाई करना ही आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य हे। इसका तात्पर्य यह है कि अन्य कुछ समाजों की तरह, आय समाज एक कट्टरपंथी या साम्प्रदायिक संस्था नहीं है, जो केवल अपने सदस्या का भलाई हेतु कार्यों में कार्यरत हों। इस समाज को सारे विश्व की भलाई के लिए बनाया गया है। पुराने चरम सीमा के वैयक्तिक रूप के हिन्दु दृष्टिकोण से यह काफी भिन्न है, जिसमें प्रत्येक आकांक्षी केवल अपनी ही मुक्ति की कामना करता था। स्वामी दयानन्द का भी युवा अवस्था में यही उद्देश्य था जिसको बाद में स्वामी बिरजानन्द ने ओर अधिक विस्तत रूप प्रदान करके उससे यह प्रतिज्ञा कराई कि वह समस्त एव विश्व की भलाई में कार्यरत रहेगा।

7) हमें समस्त व्यक्तियों के साथ उनके गुणों के अनुरूप स्नेह, धर्मपरायणता एवं सद्भावना के साथ व्यवहार करना चाहिए। समस्त व्यक्तियों के साथ हमारे आचरण का आधार प्रेम एवं सद्भावना का होना चाहिए। न कि दुर्भावना, घृणा या असहनशीलता का। सम्पूर्ण जगत के लिए प्रेम एवं सद्भावना पर आधारित बनने से पृथ्वी पर स्वर्ग की अनुभूति होगी। इससे अधिक गुणवान व्यक्ति को अधिक सम्मान भी प्राप्त होगा। मनुष्य मात्र की गरिमा की यही विशेषता होती है, परन्तु इसमें व्यक्ति के गुणों एवं अवगुणों, प्रतिमा या सामान्यता एवं अच्छाई एवं बुराई पर ध्यान न देते हुए समानता करने का उपदेश नहीं दिया जाता है। इसको वैदिक समाजवाद कहते हें।

8) हमको अज्ञानता को समाप्त करने एवं ज्ञान की बढ़ोत्तरी के लिए कार्य करना चाहिए। निरक्षरता, अज्ञानता एवं अंधविश्वास समस्त बुराइयों की जड  होती है, जबकि ज्ञान द्वारा सर्वव्यापी कल्याण एवं आनंद की प्राप्ति होती है। बड़ी संख्या में आर्य समाज के मंचों पर दिये जाने वाले उपदेशों, डी.ए.वी. की शाखाओं एवं गुरुकुल की संस्थाओं द्वारा इस नियम को प्रचलित करके उसका रूपान्तर किया जा रहा है।

9) किसी भी व्यक्ति को स्वयं अपनी उन्नति से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, बल्कि समस्त मानव जाति की भलाई में स्वयं की भलाई की अनुभूति करनी चाहिए। इसका मतलब है कि समस्त मानव जाति का परमात्मा का स्वरूप होने के कारण एक ही अस्तित्व है या समाज के मानव स्वरूप की विभिन्न सीमाएं हैं और जैसे कि शरीर में से टांग को काट देने से बांह को सुख नहीं मिल सकता है। स्वार्थ की अपेक्षा परोपकार ही इसका सम्पूर्ण महत्व है। किसी समाज में यदि चारों तरफ भुखमरी या दुःख व्याप्त है, तो कोई भी व्यक्ति खुश नहीं रह सकता क्योंकि दुःख एवं भुखमरी सारी समाज की व्यवस्था को समाप्त कर देंगे। अन्य व्यक्तियों की भलाई करने से किसी का उपकार करना नहीं बल्कि स्वार्थ उजागर होता हे।

10) समस्त मानव जाति की भलाई के लिए निर्धारित किये गए सामाजिक नियमों का पालन करना, सब व्यक्तियों के लिए अनिवार्य होता है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को अपने कल्याण के लिए कार्य करने की स्वतंत्रता होती हे। उदाहरण के लिए, कोई भी व्यक्ति यातायात के नियमों को तोड़ने या किसी की हत्या एवं चोरी करने के लिए स्वतंत्र नहीं होता क्योंकि ऐसे सब कानून सबकी भलाई के लिए बनाए गए हें। परन्तु व्यक्ति की भलाई से संबंधित व्यक्तिगत मामलों में, प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता प्राप्त होती है। इसका आशय यह है, कि यदि अन्य व्यक्तियों का कोई अहित न हो तो किसी भी व्यक्ति को अपने ढंग से कार्य करने की स्वतंत्रता प्राप्त होती है।

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