बाबर का इतिहास और जीवन परिचय

बाबर भारत में कब आया था

बाबर सन् 1494 में बारह व़र्ष की उम्र में, अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त, बाबर ट्रांसौक्सियाना में एक छोटी सी जागीर फ़रगना की राजगद्दी पर बैठा। मध्य एशिया में उस समय बहुत अस्थिरता थी और बाबर को अपने ही अभिजात वर्ग से विरोध का सामना करना पड़ा। य़द्यपि वह समरक़न्द को जीतने के लिए समर्थ था, परन्तु बहुत जल्द ही उसे पीछे हटना पड़ा क्योंकि उसके अपने ही कुलीनों ने साथ छोड़ दिया था। उसे उज़बेगियों के हाथों फरग़ाना को हारना पड़ा। मध्य एशिया में बाबर को शासन के प्रारंभिक काल में बहुत कठिन संघर्ष करना पड़ा। 

इस पूरी अवधि के दौरान वह हिन्दोस्तान की तरफ बढ़ने की योजनाएँ बनाता रहा। और अंत में 1517 में बाबर ने भारत की ओर बढ़ने का दृढ़ निश्चय कर लिया। भारत में उस दौरान हुई कुछ उथल-पुथल ने भी बाबर को भारत पर आक्रमण करने की योजनाओं पर अमल करने में मदद की।

सिकंदर लोदी की मृत्यु के उपरान्त उभरी भारत की राजनीतिक अस्थिर परिस्थितियों ने उसे यह सोचने का मौका दिया कि लोदी साम्राज्य में कितना राजनीतिक असंतोष और अव्यवस्था फैली हुई थी। इसी दौरान कुछ अफ़गानी सूबेदारों के साथ परस्पर संघर्ष हुआ। उनमें से एक प्रमुख सूबेदार था दौलतख़ान लोदी, जो पंजाब के एक विशाल भूभाग का सूबेदार था। मेवाड़ का राजपूत राजा राणा सांगा भी इब्राहिम लोदी के खिलाफ अधिकार जताने के लिए ज़ोर-अज़माइश कर रहा था और उत्तर भारत में अपने प्रभाव का क्षेत्र बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। उन दोनों ने ही बाबर को संदेश भेजकर उसे भारत पर आक्रमण करने का न्यौता दिया। राणा सांगा और दौलत खान लोदी के आमंत्रण ने शायद बाबर को उत्साहित किया होगा।

बाबर भीरा (1519.1520), सियालकोट (1520) और पंजाब में लाहौर (1524) को जीतने में कामयाब हुआ। अन्त में, इब्राहिम लोदी और बाबर की सेनाओं का सामना 1526 में पानीपत में हुआ। बाबर की सेना में कम संख्या में सैनिकों के बावजूद उनकी सैनिक व्यवस्था बहुत ही श्रेष्ठ थी। पानीपत की लड़ाई में बाबर की जीत उसकी सैनिक पद्धतियों की एक बड़ी जीत थी। बाबर की सेना में 12000 सैनिक थे जबकि इब्राहिम के पास औसतन 1ए00ए000 सैनिक बल था। युद्ध के मैदान में आमने सामने की लड़ाई में बाबर की युद्ध नीतियाँ बहुत ही अद्वितीय थीं। उसने युद्ध लड़ने के लिए रुमी (आटोमैन) युद्ध पद्धति को अपनाया। उसने इब्राहिम की सेना को दो पंक्तियों से घेर लिया। बीच में से उसके घुड़सवारों ने तीरों से और अनुभवी ओटोमैन तोपचियों ने तोपों से आक्रमण किया। खाइयों और राह में खड़ी की गई बाधाओं से सेना को दुश्मन के विरुद्ध आगे बढ़ने में बचाव का काम किया। 

इब्राहिम लोदी की अफ़गानी सेना के बहुत भारी संख्या में सैनिक मारे गए। इब्राहिम लोदी की युद्ध के मैदान में ही मृत्यु हो गई और इस प्रकार दिल्ली और आगरा पर बाबर का नियंत्रण हो गया और लोदी की अपार सम्पदा पर भी इसका कब्ज़ा हो गया। इस धन को बाबर के सेनापतियों और सैनिकों में बाँट दिया गया था।

पानीपत की विजय ने बाबर को अपनी विजयों को संघटित करने के लिए एक दृढ़ आधार प्रदान किया। परन्तु इस समय उसको इन समस्याओं का सामना करना पड़ा :
  1. उसके कुलीन वर्ग के लोग और सेनापति मध्य एशिया में वापस लौटने के लिए उत्सुक थे क्योंकि उन्हें भारत का वातावरण पसंद नहीं था। सांस्क तिक द ष्टि से भी वे खुद को अजनबी महसूस करते थे।
  2. राजपूत मेवाड़ के राजा राणा सांगा के नेत त्व के अधीन अपनी शक्ति को एकजुट करने में लगे हुए थे और मुगल सेनाओं को खदेड़ना चाहते थे।
  3. अफ़गानियों को यद्य़पि पानीपत में हार का मुँह देखना पड़ा परन्तु अभी भी उनकी सेनाएँ उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों, बिहार और बंगाल में शक्तिशाली बनी हुई थीं। वे अपनी खोई शक्ति को पुन: संगठित करने में लगे हुए थे।
प्रारम्भ में बाबर ने अपने साथियों और कुलीनों को वहीं रुके रहने के लिए और जीते गए प्रदेशों को संगठित करने में उसकी मदद करने के लिए राज़ी कर लिया। इस कठिन काम में सफलता हासिल करने के बाद उसने अपने पुत्र हुमायूँ को पूर्व में बसे अफगानियों का सामना करने के लिए भेजा। मेवाड़ के राणा सांगा बहुत बड़ी संख्या में राजपूत राजाओं का समर्थन एकित्रत करने में सफल हो गए थे। इनमें प्रमुख थे जालौर, सिरोही, डूंगरपुर, अम्बर, मेड़ता इत्यादि। चन्देरी के मेदिनी राय, मेवात के हसन खान और सिकंदर लोदी के छोटे बेटे महमूद लोदी भी अपनी सेनाओं सहित राणा सांगा के साथ आ मिले। शायद, राणा सांगा को आशा थी कि बाबर काबुल वापस चला जाएगा। बाबर के यहीं रुके रहने से राणा सांगा की महत्त्वाकांक्षाओं को गहरा झटका लगा। 

बाबर को भी पूरी तरह यह समझ आ गया था कि जब तक राणा की शक्ति को क्षीण नहीं किया जाएगा तब तक भारत में अपनी स्थिति को संगठित करना उसके लिए असंभव होगा। बाबर और राणा सांगा की सेनाओं का मुकाबला, फतेहपुर सिकरी के पास एक स्थान, खनवा में हुआ। 

सन् 1527 में राणा सांगा की हार हुई और एक बार फिर बाबर की बेहतरीन सैनिक युक्तियों के कारण उसे सफलता मिली। राणा की हार के साथ ही उत्तर भारत में उसे सबसे बड़ी चुनौती देने वाली ताकत बिखर गई।

यद्यपि मेवाड़ के राजपूतों को खनवा में गहरा आघात लगा, परन्तु मालवा में मेदिनी राय अभी भी बाबर को चुनौती दे रहा था। जिस बहादुरी से राजपूतों ने चंदेरी में (1528) युद्ध किया बाबर को मेदिनी राय पर विजय प्राप्त करने में बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा। इसकी हार के बाद राजपूतों की ओर से विरोध का स्वर बिल्कुल समाप्त हो गया था। पर अभी भी बाबर को अफ़गानियों को हराना था। अफ़गानियों ने दिल्ली पर अपना अधिकार छोड़ दिया था। परन्तु पूर्व (बिहार और जौनपुर के कुछ भाग) में वे अभी भी काफी शक्तिशाली थे। 

अ़फ़गानों और राजपूतों पर पानीपत और खनवा में जीत बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी परन्तु विरोध के स्वर अभी भी मौजूद थे। परन्तु अब हम यह कह सकते हैं कि यह जीत मुगल साम्राज्य की स्थापना की दिशा में आगे बढ़ने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम था। सन् 1530 में बाबर की मृत्यु हो गई। अभी भी गुजरात, मालवा और बंगाल के शासकों के पास काफी सशक्त सैनिक बल था और उनका दमन नहीं हो सका था। इन प्रादेशिक शक्तियों का मुकाबला करने का काम हुमायूँ के सामने अभी बाकी था।

बाबर की मृत्यु

सन् 1530 में बाबर की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र हुमायूँ उत्तराधिकारी बना। हुमायूँ के अधीन परिस्थितियाँ काफी निराशाजनक थीं। हुमायूँ ने जिन समस्याओं का सामना किया वे थीं -
  1. नए जीए गए प्रदेशों का प्रशासन संगठित नहीं था। 
  2. बाबर की तरह हुमायूँ को उतना सम्मान और मुगलों के आभिजात्य वर्ग से इतनी इज़्ज़त नहीं मिल पाई। 
  3. चुगतई आभिजात्य वर्ग उसके पक्ष में नहीं था और भारतीय कुलीन, जिन्होंने बाबर की सेवाएँ ग्रहण की थीं, उन्होंने हुमायूँ को राजसिंहासन मिलने पर मुगलों का साथ छोड़ दिया था। 
  4. उसे अफगानियों की दुश्मनी का भी सामना करना पड़ा, मुख्यत: बिहार में एक तरफ थे शेर खान तो दूसरी तरफ था गुजरात का शासक बहादुरशाह।
  5. तैमूरी परम्पराओं के अनुसार उसे अपने साथियों के साथ बाँट कर शक्तियों पर अधिकार पाना था। नवस्थापित मुगल साम्राज्य के दो केन्द्र थे-दिल्ली और आगरा मध्य भारत का नियन्त्रण हुमायूँ के हाथ में था तो अफगानिस्तान और पंजाब उसके भाई कामरान के अधीन था।
हुमायूँ ने महसूस किया कि अफगानी उसके लिए एक बड़ा खतरा थे। वह पूर्व और पश्चिम से अफगानियों के संयुक्त विरोध से बचना चाहता था। उस समय तक बहादुरशाह ने भीलसा, रायसेन, उज्जैन और जगरौन पर कब्जा कर लिया था और वह अपनी शक्ति का संयोजन कर रहा था। जबकि हुमायूँ पूर्व में चुनार में घेराबंदी कर रहा था, वहीं बहादुरशाह मालवा और राजपूताना की तरफ पांव फैला रहा था। इन परिस्थितियों में हुमायूँ को आगरा वापस आना पड़ा (1532-33)। विस्तार की नीति को जारी रखते हुए बहादुरशाह ने 1534 में चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। युद्ध नीति की दृष्टि से चित्तौड़ एक मज़बूत आधार स्थल होने का फायदा उपलब्ध करवा सकता था। इससे उसे राजस्थान, विशेष रुप से अजमेर, नागौर और रणथम्भौर की ओर बढ़ने में मदद मिल सकती थी। 

हुमायूँ ने मांडू पर जीत हासिल कर ली और यहीं पर शिविर बना लिया क्योंकि उसने सोचा कि यहाँ रहकर वह बहादुरशाह की गुजरात वापसी के रास्ते में रुकावट बन सकता है। आगरा से लम्बी अवधि तक उसके अनुपस्थित रहने के कारण दोआब और आगरा में बगावत शुरु हो गई और उसे तुरंत वापस लौटना पड़ा। माण्डू का नियन्त्रण अब हुमायूँ के भाई मिर्जा़ असकरी की सरपरस्ती में छोड़ा गया था। जिस अवधि के दौरान हुमायूँ गुजरात में बहादुरशाह की गतिविधियों की निगरानी रख रहा था, उस अवधि में शेरशाह ने बंगाल और बिहार में अपनी शक्ति का संगठन शुरु कर दिया था।

शेरशाह खुद को एक निर्विवाद अफगानी नेता के रुप में स्थापित करना चाहता था। उसने बंगाली सेना पर आक्रमण किया और सूरजगढ़ की लड़ाई में उनको हरा दिया। शेरशाह ने बंगाल से बहुत बड़ी धन-सम्पदा हासिल की जिसने उसे एक बड़ा सैन्य बल खड़ा करने में मदद की। अब उसने बनारस और उससे परे के मुगल प्रदेशों पर आक्रमण करना शुरु कर दिया। हुमायूँ को शेरशाह की महत्त्वाकांक्षाओं पर संदेह तो था परन्तु वह उसकी क्षमताओं का अनुमान नहीं लगा पाया। उसने अपने जौनपुर के गवर्नर हिन्दु बेग से कहा कि वह शेरशाह की गतिविधियों पर नजर रखे। इस बीच शेरशाह ने (1538 में) बंगाल की राजधानी गौड़ पर जीत हासिल कर ली। 

जब हुमायूँ बंगाल की तरफ बढ़ रहा था तो शेरशाह ने आगरा के मार्ग पर नियंत्रण कर लिया और हुमायूँ के लिए संचार संबंधी कार्यों में बाधा उत्पन्न कर दी। दूसरी तरफ हुमायूँ के भाई हिंदल मिर्जा ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। अब हुमायूँ ने चुनार वापस लौटने का फैसला कर लिया जिसने उसकी सेना के लिए रसद की पूर्ति करनी थी। जब वह चौसा पहुँचा (1539), तो उसने कमनासा नदी के पश्चिमी किनारे पर शिविर बनाया। 

शेरशाह ने नदी के किनारे जाकर हुमायूँ पर आक्रमण करके उसे हरा दिया। शेरशाह ने खुद को स्वतन्त्र राजा घोषित कर दिया। हुमायूँ बच सकता था, परन्तु उसकी अधिकांश सेना नष्ट हो चुकी थी, बहुत मुश्किल से वह आगरा पहुँच पाया। उसका भाई कामरान आगरा से निकलकर लाहौर की तरफ बढ़ गया था और हुमायूँ बहुत थोड़ी-सी सेना के साथ अकेला रह गया। अब शेरशाह भी आगरा की तरफ बढ़ने लगा। हुमायूँ भी अपनी सेना केा लेकर आगे बढ़ने लगा और दोनों सेनाओं का कन्नौज में टकराव हुआ। कन्नौज की लड़ाई में हुमायूँ की बुरी तरह हार हुई (1540)।

लोदी वंश के अधीन पहले अफ़गानी साम्राज्य को बाबर के नेतत्व में मुगलों द्वारा 1526 में स्थापित किया गया था। 14 वर्ष के अंतराल के पश्चात 1540 में शेरशाह भारत में दोबारा अफ़गानी शासन स्थापित करने में सफल हुआ। शेरशाह और उसके उत्तराधिकारियों ने 15 वर्ष तक राज किया। इस अवधि को द्वितीय अफ़गानी साम्राज्य काल के रुप में जाना जाता है। इस अफ़गानी शासन का संस्थापक शेरखान रण-कौशल में कुशल और योग्य सेना नायक था। हुमायूँ से उसकी लड़ाई के संबंध में हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। हुमायूँ को हराने के बाद 1540 में शेरशाह सर्वप्रभुतासम्पन्न शासक बन गया और उसे शेरशाह का खिताब दिया गया।

शेरशाह ने उत्तर पश्चिम में सिंध तक की चढ़ाई में हुमायूँ का पीछा किया। हुमायूँ को खदेड़ने के बाद उसने उत्तरी और पूर्वी भारत में संघटन का काम शुरु कर दिया था। 1542 में उसने मालवा पर विजय प्राप्त की और तत्पश्चात चन्देरी को जीता। राजस्थान में उसने मारवाड़, रणथम्भौर, नागौर, अजमेर, मेड़ता, जोधपुर और बीकानेर के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। उसने बंगाल में बागी अफगानियों को हराया। 1545 तक उसने सिंध और पंजाब से लेकर पश्चिम में लगभग पूरे राजपुताना पर और पूर्व में बंगाल तक के क्षेत्र में, खुद को सर्वोच्च शासक के रुप में स्थापित कर लिया था। अब वह बुंदेलखंड की ओर मुड़ा। यहाँ कालिंजर के किले की घेराबंदी के दौरान 1545 में एक बारुदी विस्फोट की दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई।

अपने संक्षिप्त शासन काल में शेरशाह ने बहुत महत्त्वपूर्ण प्रशासकीय और लगान पद्धतियों में परिवर्तन लागू किए। उनमें से कुछ प्रमुख हैं -
  1. सरकारों और परगना स्तर पर स्थानीय प्रशासन को व्यवस्थित करना।
  2. मुख्य मार्गों पर याित्रयों और व्यापारियों के लिए सड़कों और सरायों या विशाल स्थलों का निर्माण कराया जिनसे संचार स्थापित करने में भी सहायता मिली। उसने पेशावर से कोलकाता तक ग्रांड ट्रंक (जी.टी.) रोड का निर्माण कराया।
  3. मुद्रा प्रणाली, भूमि के मापन और लगान के आकलन के उपायों का मानकीकरण।
  4. सेना का पुनर्गठन और घोड़ों को दागने की प्रथा को पुन: शुरु करना, और 
  5. न्यायिक प्रणाली को व्यवस्थित करना।
शेरशाह का उत्तराधिकारी बना उसका पुत्र इस्लाम शाह। इस्लाम शाह को अपने भाई आदिल खान और कई अन्य अफगानी आभिजात्यों के साथ अनेक लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। 1553 में उसकी मृत्यु हो गई। धीरे-धीरे अफगानी साम्राज्य शक्तिहीन होता गया। इसी मौके का फायदा उठाकर हुमायूँ ने फिर भारत की तरफ बढ़ना शुरु कर दिया। 1555 तक आते-आते उसने फिर से अपना खोया साम्राज्य वापिस छीन लिया और द्वितीय अफगानी साम्राज्य को समाप्त कर दिया।

1555 में हुमायूँ ने आगरा और दिल्ली पर विजय प्राप्त की और भारत में खुद को बादशाह के रुप में स्थापित कर लिया। अपनी स्थिति को वह पूरी तरह संगठित कर पाता उससे पहले ही 1556 में शेर मंडल पुस्तकालय (दिल्ली में) की सीढ़ियों से गिरकर उसकी मृत्यु हो गई।

Post a Comment

Previous Post Next Post