भक्तिकालीन हिंदी साहित्य की चार काव्य धाराएँ

भक्तिकालीन काव्य की विविध रूपों में प्रगति हुई। इस काल की चार काव्य-धाराओं ने एक साथ हिंदी साहित्य की वृद्धि कर डाली। चार काव्यधाराएँ निम्नलिखित हैं- 

भक्तिकालीन हिंदी साहित्य की चार काव्य धाराएँ

1. संत काव्य धारा

संत काव्यधारा के प्रमुख कवि कबीर है। इनके अतिरिक्त दादूदयाल, नानक, सुन्दरदास आदि का स्थान संतों में महत्त्वपूर्ण है। कबीर आदि संतों के साहित्य में रहस्यवाद, भक्ति, खण्डन-मण्डन एवं सुधार की भावनाएँ हैं। काव्यत्व की दृष्टि से भी इनके काव्य में शब्दगत, अर्थगत एवं रसगत रमणीयता विद्यमान है। कबीर ने  ‘साखी’, ‘शब्द’, ‘रमैनी’ की रचना की है, जो ‘बीजक’ कृति में विद्यमान है। 

संत कबीर ने माया को जीव और ब्रह्म के मध्य भेद डालने वाली शक्ति बताया है। इसने अपने हाथ में सत, रज, तप, तीनों गुणों को धारण कर रखा है- 

“माया महा ठगिनि हम जानी।
तिरगुन फांसि लिये कर डा नै, बोलै मधुरी बानी।।”

संत मलूकदास को भी समस्त संसार मरा हुआ प्रतीत होता है। और संसार का समस्त ऐश्वर्य ‘फटकन’ लगता है। 

“जेते सुख ससार के इकट्ठे किये बटोर।
कन थोरे कांकर घने, देखा फटक पछोर।।”

इसीलिए संतों ने बाह्यचारों एवं बाह्याडम्बरों के खण्डन द्वारा लोकमानस को धर्म के मूल रूप को समझने के लिए उद्बोधित किया इस उद्बोधन में उन्होंने हिन्दू और मुसलमान की एकता का प्रतिपादन किया। जातिय एकता की स्थापना की, ब्राह्मणों के थोथे ज्ञान को दमित किया लोगों को समाज तथा धर्म की संकुचित सीमा को तजकर सार्व भौमिक और सार्वकालिक जीवन-मूल्यों को अगीकार करने की सलाह दी।

“कछु न कहाव आप कौ, काहू संग न जाइ।
दादू निर्परव है रहै, साहिब सौं ल्यौ लाइ।।”

2. प्रेम काव्य धारा

प्रेमकाव्य के कवियों में जायसी, कुतुबन, मंझन, उसमान आदि प्रमुख हैं। इस शाखा के प्रतिनिधि कवि जायसी है। उनका ‘पद्मावत’ हिंदी का प्रथम सफल महाकाव्य है। जायसी आदि प्रेममार्गी कवि सूफी मुसलमान है, परन्तु उन्होंने अपनी सहिष्णुता, उदारता आदि गुणों से हिन्दू मुस्लिम संस्कृति में  एकता स्थापित करने  का प्रयत्न किया। ये कवि ‘प्रेम की पीर’ के कवि है। लौकिक प्रेमकथाओं के माध्यम से इन्होंने आध्यात्मिक प्रेम की व्यंजना की है। ये कवि भी रहस्यवादी हैं। शुक्ल जी ने इन्हीं के रहस्यवाद को शुद्ध भावात्मक रहस्यवाद माना है।

सूफियों की सम्पूर्ण साधना प्रेम पर आश्रित है। उन्होंने ईश्वर को प्रियतम माना है। उनके लिए वह अमूर्त होता हुआ भी मूर्तिमान सौंदर्य है, माधुर्य लोक का शासक है और प्रेम का प्रचारक है। प्रेमी कवि बरक्तुल्ला ने कहा है कि कहीं, ईश्वर, कही प्रेमी और कहीं प्रियतम तथा कही स्वयं प्रेम है-

“कही माशूक कर जाना, कहीं आशिक सिता  माना।
कहीं खुद इश्क ठहराना, सुनो लोगों सुखावानी।।

3. राम काव्य धारा 

राम काव्य जीवन की आदर्श कथा है। जीवन जैसा विविध और व्यापक है रामकथा या राम काव्य भी उतना ही विस्तृत और बहुमुखी है। राम काव्य में जीवन अपनी विराटता के साथ व्यक्त हुआ है। भक्तिकाल में ऐसे राम काव्य को निम्नलिखित दृष्टिकोणों से देखा गया है।

राम के दो रूप माने गये हैं-एक निर्गुण रूप है तो दूसरा सगुण। निर्गुण रूप से हमारा तात्पर्य देह और दैहिक संबंधों से परे के राम जबकि सगुण राम अवतारी हैं, दशरथ-सुत के रूप में। भक्तिकालीन रामकाव्यधारा के कवियों ने निर्गुण राम की नहीं वरन सगुण रूप के राम की अवतारणा अपने काव्यों में की है। उन्होंने राम और रामकथा को देशकाल तथा जनजीवन के अनुरूप मानकर प्रस्तुत किया है। रामकाव्यधारा में ऐसे विराट राम की प्रतिष्ठा हुई है और भक्तों तथा कवियों ने राम के इन्हीं रूपों की अर्चना-वंदना की है। 

रामकाव्यकारों के लिए राम सर्वत्र विद्यमान रहते हैं। साथ ही निर्गुण तथा सगुण में  भी एकरूपता प्रकट होती है। तुलसीदास कहते हैं-

 “अगुनहि  सगुनहि  नहि  कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।”

राम काव्यधारा की दार्शनिक चेतना पर कई दर्शनों का प्रभाव देखा जा सकता है। इसीलिए विद्वान उस पर शंकर के अद्वैतवाद तथा रामानुजाचार्य के विशिष्टता द्वैतवाद का प्रभाव अनुभव करते हैं। रामकथा के कवियों का प्रयोजन रामभक्ति था। वे व्यक्ति के मन की कालुष्य को समाप्त कर देना चाहते थे, इसीलिए रामभक्ति का सहारा लिया। रामभक्त कवियों के उपास्यदेव राम विष्णु के अवतार हैं और परमब्रह्म स्वरूप है। अरण्यकाण्ड में इस प्रकार स्तुति की गई है-
“जेहि श्रुति निरजन बह्म व्यापक विरज अज कंहीं गावहीं। 
करि ध्यान-ग्यान विराग जोग अनेक मुनि जेहि पावही ।।”

4. कृष्ण काव्य धारा

कृष्ण काव्य धारा के कवियों ने निर्गुण के स्थान पर सगुण ब्रह्म को प्रमुखता दी है क्योंकि साधना के स्तर पर उसे ज्ञानी ही जान सकते है। भक्तों में ज्ञान का अभाव होता है। वह आँखों के सामने नहीं दिखाई पड़ता। सगुण ब्रह्म निरन्तर उनके सामने दिखाई पड़ता है। इसलिए उसकी साधना सरल होती है।

कृष्ण काव्य का मुख्य उद्देश्य तो शंकर के अद्धैत दर्शन का खण्डन करके सगुण कृष्ण भक्ति की स्थापना करना है। कृष्ण भक्ति साहित्य की दार्शनिक पृष्ठभूमि स्वामी बल्लभाचार्य तथा स्वामी हितहरिवंश के राधावल्लभी सम्प्रदायों से निर्मित हुई ‘पुष्टिमार्गीय’, प्रेमा रागानुगा तथा माधुर्य भाव की मधुरा भक्ति माना है। उस भक्ति की दार्शनिक मान्यताएँ तो भागवत पुराण में  वर्णित पुष्टिमार्गी जीवन दर्शन है।

कृष्ण काव्य के वैशिष्ट्य और अवदान को इस रूप में प्रकट किया जा सकता है। 

प्रेम-भाव का निरूपणः कृष्ण-भक्तों ने भक्ति का आधार एकमात्र प्रेम तत्त्व ही माना है। प्रेम की उच्चतम कोटि मधुरा भक्ति है। कृष्ण के प्रति प्रकट किया गया सच्चा प्रेम ही शृंगार रस का स्थायी भाव ‘रति’ है जो भक्तों  की भावनानुसार ‘वात्सल्य’ ‘संख्य’ तथा ‘माधुर्य’ भाव में परिणत होता है। इसीलिए शृंगारी भाव ही प्रधान है। 

ब्राह्याडम्बरों का विरोधः कृष्ण भक्ति में प्रेम का पंथ ही अनूठा रहा है। इसमें जप, तप, योग तथा वैदिक कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं। प्रेम को किसी ब्रह्याडम्बर की आवश्यकता नहीं, वह तो हृदय की अनुभूति कही जा सकती है। वात्सल्य, शृंगार तथा शान्त रस की प ्रधानता: सम्पूर्ण कृष्ण काव्य में प्रमुख रूप से वात्सल्य शृंगार तथा माधुर्यजन्य शांत रस की अभिव्यक्ति मिलती है।

सगीत की ओर प्रवृत्ति: कृष्ण-भक्ति साहित्य में संगीत-माधुरी को महत्व प्रदान करने के लिए ही अधिकांश भक्ति पद राग-रागिनियों में निबद्ध है। सूरदास, नन्ददास तथा मीरा के पद संगीतमय साहित्य के प्रमाण है। प्रकृति चित्रण कृष्ण भक्ति साहित्य भावात्मक काव्य है। ब्रह्म प्रकृति का चित्रण इसमें या तो भाव की पृष्ठभूमि में हुआ है या उद्दीपन भाव के लिए। 

डाॅ. ब्रजेश्वर ने लिखा है, “दृश्यमान जगत का कोई भी सौन्दर्य उनकी आँखों से छूट नहीं सका। पृथ्वी, आकाश, जलाशय, वन-प्रान्त तथा कुंज-भवन की सम्पूर्ण शोभा इन कवियों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में निःशेष कर दी है।”

काव्य रूपः कृष्ण काव्य का सृजन प्रायः मुक्तक शैली में हुआ है। कृष्ण काव्य में  एक प्रबन्ध काव्य भी मिलता है, जिसकी रचना शुद्ध ब्रजभाषा में हुई। ग्रंथ का नाम है, ‘ब्रज विलास’ नन्ददास के भँवरगीत, रास पंचाध्यायी आदि में कथात्मकता की मनोवृत्ति देखी जा सकती है।

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