भारतीय वन अधिनियम 1927 में कितनी धाराएं हैं?

वन हेतु सबसे व्यापक अधिनियम हैं इस अधिनियम के तहत कुछ महत्वपूर्ण परिभाषायें निम्न हें:-

मवेशी के अंतर्गत हाथी, ऊंट, भैंस, घोड़े, घोडियाॅ, खस्सी पशु, खच्चर, गधे, सुअर, मेढ, मेढियाॅं, मेमने, बकरियाॅं तथा उनके मेमने हें

वन अधिकारी का अर्थ होता हे राज्य सरकार या राज्य सरकार द्वारा सशक्त कोई अधिकारी इस अधिनियम के सभी या कोई भी प्रयोजन पूरे करने के लिये अथवा इस अधिनियम के अधीन बनाये गये किसी नियम के अधीन वन अधिकारी द्वारा की जाने वाली कोई बात करने के लिये नियुक्त करें। वन अपराध का मतलब है, इस अधिनियम या इसके अधीन बनाए गए किसी नियम के तहत कोई भी दण्डनीय कार्य वनोपज के अंतर्गत आते हैं:-

(क) निम्नलिखित वे सभी वस्तुए भले ही वह वन से लाई गई हों या नहीं लाई गई हों:- इमारती लकड़ी, लकड़ी का कोयला, कुचुक, खेर, लकड़ी तेल, रेजिन, प्राकृतिक वार्निश, छाल, लाख, सेलक, गोंद, महुआ के फल तथा बीज, कुथ हर्रां

(ख) निम्नलिखित वस्तुए जब वे वन से लाई गई हों:-
  1. वृक्ष ओर पत्ते, फूल और फल तथा वृक्ष के इसके पूर्व अवर्णित अन्य सभी भाग और उपजं
  2. घास, बेलें, नरकुलें और इनके सभी भाग और उपज
  3. वन पशु और खालें, हाथी-दांत, सींग, हड्डियां, रेशम, रेशम के कोए, शहद और मोम तथा पशुओं के अन्य सभी भाग और उत्पाद
  4. पीठ, सतही मिटटी, चटटान और चूना, लेटेराइट, खनिज तेल और खालों तथा खदानों के सभी उत्पाद ।
  5. खड़ी कास्तकारी फसलं
इमारती लकड़ी के अंतर्गत वृक्ष आते हैं जबकि वे गिर गये हों या गिराये गये हों ओर सब प्रकार की लकड़ी हे, चाहे वो किसी प्रयोजन के लिये काटी गई हो/खोखली की गई हो या ना की गई हों वृक्ष के अंतर्गत ताड, बाॅस, ठूॅठ, झाड , झंखड ओर बेंत आते हैं उपरोक्त परिभाषाओं में वनोपज दो प्रकार के होते हैं

(1) एैसे वनोपज जो कहीं भी पैदा हों या कहीं से भी लाये गए हों जैसे - महुआ का फूल अर्थात निजी भूमि में महुआ के पेड से संकलित महुआ का फूल भी वनोपज की परिभाषा में आएगा 

(2) ऐसी वस्तुए  जो वन से लाई गई हों तभी वनोपज मानी जायेंगी। जैसे -मुरूम, पत्थर इत्यादिं यदि कोई व्यक्ति वनक्षेत्र के बाहर से मुरूम लाया हो तो यह मुरूम वनोपज नहीं माना जायेगा 

यदि किसी वनोपज को मानव-कौशल तथा परिश्रम से व्यावसायिक दृष्टि से भिन्न उत्पाद में बदल दिया जाता हे तो वह वनोपज नहीं रह जाता है, उदाहरणार्थः- लकड़ी से तैयार फर्नीचर  

भारतीय वन अधिनियम के तहत वन अधिकारी की परिभाषा में वृक्षारोपण चोकीदार भी सम्मिलित है क्योंकि उसे इस अधिनियम के तहत एक प्रयोजन के लिये नियुक्त किया जाता हैं इस अधिनियम में वन की परिभाषा नहीं दी गई है परन्तु  आरक्षित वन, ग्रामीण वन तथा संरक्षित वन परिभाषित किए गए हैं अतः कोई भी क्षेत्र जो आरक्षित वन, ग्रामीण वन या संरक्षित वन घोषित किया गया हो वनक्षेत्र माना जायेगा, भले ही वहाॅ वृक्ष हों या न हों

भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा

धारा-3 इस धारा के तहत राज्य सरकार को किसी वनभूमि या बंजर भूमि को, जो सरकार की संपत्ति हो या सरकार के साम्पत्तिक अधिकार में हे, या जिसकी पूरी वनोपज या उस उपज के किसी भाग की सरकार हकदार है, इसके पश्चात उपबंधित रीति से आरक्षित वन बना सकेगी यानी धारा-3 द्वारा राज्य सरकार को आरक्षित वन बनाने का अधिकार दिया गया हैं

धारा-4 इस धारा के तहत राज्य सरकार आरक्षित वन बनाने हेतु  क्षेत्र का चयन करती है, तथा राजपत्र में अधिसूचना जारी करती है जिसमें क्षेत्र की स्थिति तथा सीमाएं दी जाती हें, तथा वन-व्यवस्थापन अधिकारी की नियुक्ति की जाती हैं इस धारा के तहत ् राज्य शासन किसी क्षेत्र को आरक्षित वन घोषित करने की मंशा जाहिर करती है तथा इस क्षेत्र में लोगों के अधिकारों का विनिश्चयन हेतु  वन-व्यवस्थापन अधिकारी नियुक्त करती हें वन-व्यवस्थापन अधिकारी सामान्यतः राजस्व विभाग का अधिकारी होता हें वन विभाग का अधिकारी वन-व्यवस्थापन अधिकारी नहीं होता हैं

धारा-5 इस धारा के तहत, धारा-4 के अधीन अधिसूचना में सम्मिलित क्षेत्र में अधिकारों के अर्जन पर प्रतिबंध लग जाता हैं अधिकारों का अर्जन सिर्फ उत्तराधिकार द्वारा या सरकार द्वारा या ऐसे व्यक्ति द्वारा जिसमें ऐसा अधिकार निहित या जन अधिसूचना निकाली गई थी, लिखित रूप में किए गए अनुदान या की गई संविदा के अधीन ही अर्जित होगा

धारा-6 इस धारा से धारा-19 में वन-व्यवस्थापन की प्रक्रिया का उल्लेख हैं

धारा-20 जब अधिकारों का निपटारा हो जाता है, धारा-20 के तहत अधिसूचना द्वारा सीमाओं को दर्शाते हुए आरक्षित वन घोषित किया जाता हें

धारा-25 वन अधिकारी आरक्षित वन में किसी लोक या निजी पथ या जलमार्ग को राज्य सरकार या उसके द्वारा प्राधिकृत अधिकारी की पूर्व स्वीकृति से बंद कर सकता हे, परन्तु ऐसा तभी किया जा सकता है जब बन्द किये गये मार्ग के बदले दूसरा मार्ग पूर्व से विद्यमान हे या निर्मित किया गया हें

धारा-26 धारा-26 के तहत आरक्षित वन में निम्न कार्य प्रतिबंधित हैं:-
  1. धारा-5 के अधीन निषिद्ध नई कटाई - सफाई करना
  2. आरक्षित वन में आग लगाना या ऐसी रीति से आग जलते छोड  देना जिससे आरक्षित वनक्षेत्र को खतरा हों
  3. ऐसी ऋतुओं में के सिवाय, जिन्हें वन अधिकारी इस निमित्त अधिसूचित करें, आग जलाना, रखना या ले जाना
  4. अतिचार करना या पशु चराना या पशुओं को अतिचार करने देना
  5. किसी वृक्ष को गिराना या किसी इमारती लकड़ी को काटने या घसीटने में उपेक्षा द्वारा नुकसान पहॅचाना ।
  6. (किसी वृक्ष को गिराना, घिरान करना, छाॅटना, जलाना, छाल उतारना या अन्य किसी प्रकार से नुकसान पहॅचानां
  7. पत्थर की खुदाई करना, चूना या लकड़ी का कोयला फूॅंकना या किसी वनोपज का संग्रह करना या हटाना 
  8. खेती या अन्य प्रयोजन के लिए किसी भूमि को साफ करना या तोडनां 
  9. राज्य सरकार द्वारा बनाए गए किसी नियम के उल्लंघन में शिकार खेलना, गोली चलाना, मछली पकडना, जल में विष डालना या जाल डालना
उपरोक्त निषिद्ध कार्य को करने पर न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध होने पर छः मास तक की केद या 15000 रू. जुर्माना या दोनों हो सकता हैं 

इस धारा के अधीन प्रतिषिद्ध कार्य वन अधिकारी की लिखित अनुमति या राज्य सरकार द्वारा बनाए गए किसी नियम के अधीन या किसी व्यक्ति के आरक्षित वन में मंजूर किए गए अधिकारों के अधीन किए जा सकते हैं

धारा 26 - यह वन को नुकसान पहुंचाने के कारण ऐसे प्रतिकार के अतिरिक्त जिसका संदाय किया जाना सिद्ध दोष करने वाला न्यायालय निर्दिष्ट करे ऐसी अवधि के कारावास से जो एक वर्ष हो सकेगा या जुर्माना जो 15000/- रू0 तक हो सकेगा या दोनों से दण्डित किया जावेगा। (यह अधिनियम म0प्र0 अधिनियम क्र0 9 वर्ष 1965 द्वारा संशोधित )

धारा-28 - इस धारा के तहत  राज्य सरकार किसी आरक्षित वन के उपर सरकार के अधिकार को ग्राम-समुदाय को सौंप सकती है, तथा ये वन ग्राम वन कहलायेंगे

धारा-29 - राज्य सरकार किसी वन भूमि या बंजर भूमि को, जो आरक्षित वन नहीं है, किन्त ु राज्य सरकार की संपत्ति है या सरकार का साम्पत्तिक अधिकार हे, संरक्षित वन घोषित कर सकती हें

धारा-30 राज्य सरकार संरक्षित वन में किन्हीं वृक्षों के वर्ग को किसी नियत तारीख से आरक्षित घोषित कर सकती है तथा संरक्षित वन में पत्थर की खुदाई करने, चूने या लकड़ी का कोयला फूंकने या वनोपज का संगहण करने, हटाने और खेती, भवन निर्माण, पशुओं के गोल रखने या किसी अन्य प्रयोजन के लिए कोई भूमि तोडना या साफ करना प्रतिबंधित कर सकती हैं

धारा-32 - राज्य सरकार को कतिपय बातों के विनियमन के लिये नियम बनाने की शक्ति प्रदान की गई हैं

धारा-33 - इस धारा के तहत  धारा-30 का उल्लंघन करने या धारा-32 के अधीन किसी नियम का उल्लंघन करने पर एक वर्ष तक कारावास या 15000 रू. जुर्माना या दोनों सजा का प्रावधान हें
  1. धारा 30 के अधीन आरक्षित किसी बनोपज (वृक्ष)को गिरायेगा परीरक्षण करेगा, छांटेगा, छावेगा, या जलावेगा या किसी वृक्ष की छाल उतार डालेगा या पत्तियां तोड डालेगा या उसे अन्यथा नुकसान पहुंचायेगा
  2. धारा 30 के अधीन किसी प्रतिवेष के प्रतिकूल पत्थर की खुदाई करेगा या चुने या लकडी का कोयला फूॅकेगा या किसी वनोपज का संग्रहण करेगा या उससे कोई विनिर्माण प्रकिया चलायेगा या उसे हटायेगा।
  3. किसी संरक्षित वन में धारा 30 के अधीन वाले किसी प्रतिषेध के प्रतिक ूल किसी भूमि की खेती या किसी अन्य प्रायोजन के लिए तोडेगा या साफ करेगा या किसी अन्य प्रयोजन के लिए साफ करेगा काश्त करेगा या काश्त करने का प्रयत्न करेगा।
  4. ऐसे वन को आग लगवायेगा या धारा30 के अधीन आरक्षित किसी वृक्ष तक चाहे वह खडा हो या गिर गया हो या गिराया गया हो, ऐसे वन के बंद किये गए किसी प्रभाग तकुेल जाने से रोकने के लिए युक्ति युक्त पूर्ण पूर्ण सावधानी बरतें। बिना आग जलाएगा।
  5. ऐसे किसी वृक्ष या बंद प्रभाग के सामीप्य मे अपने द्वारा जलाई गई किसी आग को जलता छोड देगां
  6. किसी वृक्ष को इस प्रकार गिराएगा या किसी इमारती लकडी को इसप्रकार हटायेगा कि यथापूर्वोक्त रूप मे आरक्षित किसी वृक्ष को नुकसान पहुंचाता है।
  7. पशुओ को ऐसे किसी वृक्ष को नुकसान पहुंचाने देगा
  8. धारा 32 के अधीन बनाये गए किन्ही नियमों का अतिलंघन करेगा वह उस अवधि के लिए कारावास से जो छः माह एक वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से जो 15000/- रूपये तक हो सकेगा या दोनेा से दण्डनीय होगा।
वह उस अवधि के कारावास से जो एक वर्ष तक की हो सकेगी या ज ुर्माेने से जो एक हजार रूपये तक हो सकेगा या दोनो से दण्डनीय होगा। 

(यह अधिनियम म0प्र0 अधिनियम क्र0 9 वर्ष 1965 द्वारा संशोधित )

धारा-41 इस धारा के तहत राज्य सरकार को वनोपज के अभिवहन को विनियमित करने के लिए नियम बनाने की शक्ति दी गई हें

धारा-42 धारा-41 के अधीन बनाए गए किसी नियम का उल्लंघन करने पर छः माह का कारावास या 500 रू. जुर्माना या दोनो हो सकते हैं

धारा-45 कतिपय प्रकार की इमारती लकड़ी, जब तक कि उसके बारे में हक साबित नहीं कर दिया जाता है, राज्य सरकार की संपत्ति समझी जायेगी तथा तद ्नुसार संग्रहित की जा सकेंगी

धारा-51 इस धारा के तहत ् राज्य सरकार धारा-45 में वर्णित इमारती लकड़ी के उद्धारण संग्रहण तथा व्ययन के लिए नियम बना सकती हे तथा इन नियमों के उल्लंघन हेतु  छः माह तक की केद या 15000 रू. जुर्माना या दोनों का प्रावधान हैं

धारा-52 जब यह विश्वास करने का कारण हो कि किसी वनोपज के बारे में कोई वन विषयक अपराध किया गया है तब ऐसी वनोपज, सब ओजारों, नावों, छकड ़ों या पशुओं सहित , जिनका उपयोग अपराध करने में हुआ हे, किसी वन अधिकारी या पुलिस अधिकारी द्वारा अभिग्रहीत की जा सकेगी।

इस धारा के अधीन किसी संपत्ति का अभिग ्रहण करने वाला अधिकारी ऐसी संपत्ति पर यह दर्शित करने वाला चिन्ह लगायेगा कि उसका इस प्रकार अभिग्रहण हो गया हे ओर यथाशीघ्र अभिग्रहण की रिपोर्ट उस मजिस्ट्रेट को देगा जो उस अपराध का विचारण करने के लिये अधिकारिता रखता हो जिसके कारण अभिग्रहण हुआ है। 

इस प्रकार अभिग्रहीत संपत्ति के अभिग्रहण  की प्रक्रिया के लिये म0प्र0 में प्रत्येक सहायक वनसंरक्षक जो उप वनमण्डल के प्रभार में हे , प्राधिकृत अधिकारी घोषित किया गया हैं प्राधिकृत अधिकारी ,अभिग्रहण प्रक्रिया शुरु किये जाने की सूचना, उस अपराध या जिसके कारण अभिग्रहण किया गया है विचारण करने की अधिकारिता रखने वाले मजिस्टट को विहित प्रारुप में देगा तथा अभिग्रहीत संपत्ति के मालिक को अपना पक्ष रखने का अवसर देगा। ऐसी सुनवाई के पश्चात प्राधिकृत  अधिकारी संपत्ति का अभिग्रहण आदेश पारित करेगा या यह साबित हो जाने पर कि अपराध अभिग्रहीत संपत्ति के मालिक की बिना जानकारी या मौनानुक ूलता के किया गया था, यह कि उसने वन अपराध में अभिग्रहीत संपत्ति का दुरुपयोग रोकने के लिये आवश्यक सावधानियां बरती थी, प्राधिकृत अधिकारी संपत्ति को मालिक के पक्ष में मुक्त कर देगा 

प्राधिकृत  अधिकारी के आदेश के विरुद्ध वन संरक्षक के पास अपील का प्रावधान हे तथा वनसंरक्षक के आदेश के विरुद्ध सैसन न्यायालय में अपील का प्रावधान हें यदि प्राधिकृत अधिकारी द्वारा अभिग्रहीत संपत्ति विमुक्त की जाती है तो वनसंरक्षक स्वप्रेरणा से विचारण हेतु  अपने पास प्रकरण मंगा सकते हें। 

धारा 52 (क)- 
  1. प्राधिकृत अधिकारी के आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति आदेश किये जाने की तारीख से 30 दिन के भीतर या यदि ऐसा आदेश संबंधी तथ्य की ससूचना उसे नही दी गई हो तो ऐसे आदेश की जानकारी होने की तारीख से 30 दिन के भीतर उस वनव ृत्त के जिसमे वह वन उपज अभिग्रहित की गई हो वन संरक्षक को लिखित में अपील कर सकेगा। जिसके साथ ऐसी फीस तथा ऐसे रूप मे जेसा कि विहित किया जावे दी जावेगी। और उसके साथ अधिहरण के आदेश की प्रमाणित प्रति संलग्न की जावेगी। 
  2. प्राधिक ृत अधिकारी करने वाले अधिकारी को किसी अन्य व्यक्ति को जिसका कि अपील प्राधिकारी की राय मे अभिग ्रहण के आदेश से प्रभावित होना संभाव्य हे। उपधारा 1 मे निर्दिष्ट अपील प्राधिकारी उस दशा मे जबकि उसके समकक्ष कोई अपील न की गई हो अभिहरण के आदेश की प्रति उसे प्राप्त होने की तारीख से 30 दिन के भीतर ’’ स्वप्रेरणा’’ से की जाने वाली कार्यवाही की सुनवाई 40 की सूचना स्वप्रेरणा से दे सकेगा या अपील के ज्ञापन के पेश किये जाने की दशा मे वह अपील की सूचना उक्त व्यक्तियो को देगा व मामले का अभिेलेख मागा जा सकेगा। 
  3. अपील प्राधिकारी, अपील के लिए जाने के या स्वप्रेरणा से की जाने वाली कार्यवाही की जाने के बारे मे प्राधिकारी का सूचना लिखित मे देगा। 
  4. अपील प्राधिकारी अधिहरण की विषय वस्तु की अभिरक्षा उसके परिरक्षण या व्ययन के लिए अंतरिम प्रकार के ऐसे आदेश कर सकेगा जेसे की उसे उस मामले की परिस्थितियों मे न्यायसंगत ओर उचित प्रतीत हो। 
  5. अपील प्राधिकारी मामले की प्रक ृति या अंर्त गत जटिलताओ को ध्यान मे रखते हुए अपील के पक्षकारो को उनका प्रतिनिधित्व उनके अपने अपने विधि व्यवसायियो द्वारा किये जाने की अनुज्ञा दे सकेगा। 
  6. अपील की या स्वाप्रेरणा से की जाने वाली कार्यवाही की सुनवाई के लिए नियत की गई तारीख को या ऐसी तारीख को जिसके लिए की सुनवाई स्थगित की जाए अपील प्राधिकारी अभिलेख का परिसीलन करेगा। और यदि अपील के पक्षकार स्वयं उपस्थित हो तो उनकी सुनवाई करेगा।
  7. अपील प्राधिकारी परिणामिक स्वरूप के ऐसे आदेश भी पारित कर सकेगा जैसे की वह आवश्यक समझे। 
  8. अंतिम आदेश की यह परिणामिक स्वारूप के आदेश की प्रति अनुपालन के लिए या अपील प्राधिकारी के आदेश के अनुसार कोई अन्य समुचित आदेश पारित करने के लिए प्राधिक ृत अधिकारी को भेजी जावेगी। 
धारा 52 (ख):- अपील प्राधिकारी के आदेश के विरूद्ध सेशन न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण 
  1. अपील का कोई भी पक्षकार जो अपील अधिकारी द्वारा पारित किये गए अंतिम से आदेश या परिमाण्विक स्वरूप के आदेश से व्यथित हो उन आदेश के जिनके विरूद्ध आक्षेप किया जाना ईप्सित हो 30 दिन के भीतर उस सेशन न्यायाधीश को पुनरीक्षण के लिए याचिका प्रस्तुत कर सकेगा। 
  2. सेशन न्यायालय अपील प्राधिकारी द्वारा पारित किए गए किसी अंतिम आदेश या किसी परिमाण्विक आदेश की पुष्टि कर सकेगा। या उसे उलट सकेगा या उसे उपान्तरित कर सकेगा। 
  3. पुनरीक्षण मे पारित किये गए आदेश की प्रतिया अपील प्राधिकारी का तथा प्राधिकारी अधिकारी को अनुपालन के हेतु या ऐसे अतिरिक्त आदेश पारित करने के हेतु या ऐसी अतिरिक्त कार्यवाही करने के हेतु  भेजी जावेगी। जैसे की ऐसा न्यायालय द्वारा निर्देशित किया जावे। 
  4. इस धारा के अधीन किसी पनरीक्षण को ग ्रहण करने उसकी सुनवाई करने और उसका विनिश्चय करने के लिए सेशन न्यायालय यथाशक्य उन्ही शक्तियो का प्रयोग करेगा और उसकी प्रकिया का अनुसरण करेगा। जिसका कि प्रयोग और अनुसरण वह दंण्ड प्रकिया संहिता 1973 के अधीन के किसी पुनरीक्षण को ग्रहण करने उसकी सुनवाई करने और उसका विनिश्चय करने के समय करता है। 
  5. दण्ड प्रकिया संहिता 1973 मे अन्तर्विष्ट किसी तत्व प्रतिकूल बात के होते हुए भी इस धारा के अधीन पारित किया गया सेशन न्यायालय का आदेश अंतिम होगां और उसे किसी न्यायालय के समक्ष ्पश्नगत नहीं किया जावेगा। 41 

धारा 52 (ग)- कतिपय परिस्थतियो मे न्यायालय आदि की अधिकारिता का वर्जन - 
  1. उस अपराध का जिसके कारण उस संम्पत्ति का अभिग्रहण किया गया है। जोकि अधिहरण की विषयवस्तु है के विचारण करने की अधिकारिता रखने वाले मजिस्टेट को सम्पत्ति के अभिग्रहण के लिए कार्य वाहियां शुरू की जानी के बारे मे धारा 52 की उपधारा 4 के आधीन सूचना के प्राप्त हो जाने पर किसी न्यायालय, अधिकरण या प्राधिकारी को इस अधिनियम मे या तत्समय मे प्रव ृत्त किसी अन्य विधि मे अर्तविष्ट किसी तत्प्रतिक ूल बात के होते हुए भी उस सम्पत्ति के कब्जे, परिदान , व्ययन या वितरण के विषय मे कोई आदेश करने की अधिकारिता नही होगी। जिसके बारे मे धारा 52 के अधीन अभिहरण की कार्यवाहियां शुरू हो गई हे। 
  2. उपधारा 1 में की कोई भी बात धारा 61 के आधीन व्याव ृत्त शक्ति को प्रभावित नहीं करेगी। 

धारा-55 ऐसी सब इमारती लकड़ी या वनोपज जो सरकार की संपत्ति नहीं है और जिसके विषय में वन अपराध किया गया हे ओर ऐसे वन विषयक अपराध करने में प्रयुक्त सब औजार, नावें, छकड ़े ओर पशु  अभिहरणीय होगे। 

धारा-62 दोषपूर्ण अभिग्रहण के लिये दण्ड:- जो कोई वन अधिकारी या पुलिस अधिकारी तंग करने के लिये ओर अनावश्यक रुप से किसी संपत्ति का इस बहाने अभिग ्रहण करता है कि ऐसी अभिग्रहीत संपत्ति इस अधिनियम के अधीन अधिहरणीय है, तो उस वन अधिकारी या पुलिस अधिकारी को छः मास तक की केद या 500 रुपये तक जुर्माना या दोनें से दंडित किया जायेगा। 

धारा-63 वृक्षों ओर इमारती लकडी पर चिन्हों के क ूटकरण करने (हेमर चिन्ह मिटाना) , विरुपित करने  और वनभूमि के सीमा चिन्हों को बदलने के लिये दो वर्ष तक का कारावास या ज ुर्माना या दोनों से दंडित करने का प्रावधान है यदि उपरोक्त कार्य शासन या किसी व्यक्ति कों नुकसान पहुचानें या स्वंय को दोष लाभ के आशय से किये जाते हें। (कम से कम छःमाह की सजा, अधिकतम 2 वर्ष या 15000/-रू. से अनिम्न जुर्माना) 

धारा-64 यदि किसी व्यक्ति के विरूद्ध युक्तियुक्त संदेह विद्यमान है कि उसने एक माह या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय अपराध किया है तो उसे कोई भी वन अधिकारी या पुलिस अधिकारी बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के या बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर सकता है। 

धारा-65 वनक्ष्ेात्रपाल से अनिम्न कोई वन अधिकारी जिसने या उसके अधीनस्थ अधिकारी ने किसी व्यक्ति को धारा-64 के अधीन गिरफ्तार किया किया है, ऐसे व्यक्ति को यह बंधपत्रो निष्पादित करने पर मुक्त कर सकेगा कि जब भी आवश्यक होगा वह मामले की अधिकारिता वाले मजिस्ट्रेट या निकटतम पुलिस स्टेशन के प्रभारी के समक्ष उपस्थित हो जायेगा। 

धारा-66 प्रत्येक वन अधिकारी ओर पुलिस अधिकारी वन अपराध को होने से रोकने के लिये कार्यवाही करने हेतु बाध्य है यानी किसी वन अधिकारी या पुलिस अधिकारी के समक्ष या उसकी जानकारी में कोई वन अपराध हो रहा है तो वह उसे रोकने हेतु आवश्यक कार्यवाही करेगा 

धारा 67:-अपराधो का संक्षिप्त विचारण करने की शक्ति - जिला मजिस्टेट या राज्य सरकार द्वारा निमित्त विशेषतया सशक्त कोई प्रथम वर्ग मजिस्टेट दण्ड प्रकिया संहिता 1898 के अधीन किसी ऐसे वन विषयक अपराध का संक्षिप्ततः विचारण कर सकेगा। जो एक वर्ष से अनधिक कारावास या एक हजार रू0 जुर्माने से या दोनों से दण्डित होगा। (म0प्र0 विधान क 0 9, वर्ष 1965 धारा 13 दिनांक 20/03/65 से ) 

धारा-68 इस धारा के तहत ् राज्य सरकार को यह शक्ति प्रदान की गई हे कि वह वनक्षेत्रापाल से अनिम्न किसी वन अधिकारी को अधिक ृत कर सकेगी कि वह धारा 63 के अधीन अपराधों को छोडकर ,अन्य अपराधों का प्रशमन कर सकेगा। 

किसी अपराध के प्रशमन का मतलब होता हे अपराधी से प्रतिकर की राशि वसूलकर अपराधी के विरुद्ध आगे कोई कार्य वाही न करना प्रशमन तभी हो सकता हे जब अपराधी अपना अपराध कबूल कर ले तथा विभाग द्वारा फैसले के लिये राजीनामा दे। यदि अपराधी अभिग ्हीत संपत्ति का मूल्य चका दे तो अभिगहीत संपत्ति भी विमुक्त की जा सकती हें म0प्र0 में अराष्ट्रीयकृत वनोपज संबंधी अपराधों का प्रशमन सहायक वन संरक्षक तथा राष्ट्रीयकृत वनोपज संबंधी अपराधों का प्रशमन वनमंडलाधिकारी द्वारा किया जाता हे। 

अपराधो का प्रशमन करने की शक्ति - राज्य सरकार , राजपत्र में अधिसूचना द्वारा किसी वन अधिकारी को शक्ति प्रदान कर सकेगी कि वह 
  1. ऐसे व्यक्ति से , जिसके विरूद्ध ऐसे युक्तियुक्त संदेह विद ्यमान है कि उसने धारा 62 या 63 में विर्निदिष्ट से भिन्न कोई वन विषयक अपराध किया है। उस अपराध के लिए जिसके बारे मे संदेह हे कि उसने अपराध किया है प्रतिकार के रूप मे कोई धनराशि प्रतिग्रहित कर ले, और 
  2. जब कोई सम्पत्ति अधिकरणीय होने के नाते अभिग्रहित की गई हे तब ऐसे अधिकारी द्वारा यथा 43 प्राकलित उसके मूल्य के दिये जानेपर उस सम्पत्ति को निर्मुक्त कर दे। 
धारा-70 किसी आरक्षित या संरक्षित वन के चराई हेतु बंद क्षेत्र में अतिचार करने वाले पशुओं को पशु अतिचार अधिनियम 1871 की धारा-11 के अर्थ में लोक बागान का नुकसान करने वाला पशु समझा जायेगा ओर किसी वन अधिकारी या पुलिस अधिकारी द्वारा उन्हें अभिग्रहीत और परिबद्व किया जा सकेगा। 

धारा-72 राज्य सरकार वनअधिकारियों में कतिपय शक्तियाॅं विनिहित कर सकेगी- 

(1) राज्य सरकार किसी वन अधिकारी में निम्नलिखित सब शक्तियाॅ या उनमें से कोई शक्ति विनिहित कर सकेगी, अर्थात - 
  1. किसी भूमि पर जाने और उसका सर्वेक्षण, सीमांकन ओर उसका नक्शा तैयार करने की शक्ति। 
  2. साक्षियों को हाजिर होने के लिये और दस्तावेजों और सारवान वस्तुओं को पेश करने के लिये विवश करने वाली सिविल न्यायालय की शक्तियां 
  3. दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अधीन तलाशी वारंट निकालने की शक्ति, और 
  4. वन विषयक अपराधों की जाॅच करने और ऐसी जाॅच के दौरान साक्ष्य लेने और उसे अभिलिखित करने की शक्तिं 
(2) उपधारा (1) के खण्ड (घ) के अधीन अभिलिखित कोई साक्ष्य मजिस्ट्रेट के सामने किसी पश्चात ्वर्ती विचारण में ग्राह ्य होगा, जबकि अभियुक्त व्यक्ति की उपस्थिति में वह साक्ष्य लिया गया हों 

अधिसूचना क्र. 1126 दिनांक 22.11.1911 के द्वारा वन मण्डल के प्रभार वाले सभी वन अधिकारियों को तथा फाॅरेस्ट कोड की धारा 40 की वन विधि परीक्षा उत्तीर्ण सभी सहायक वन संरक्षकों को धारा-72 के सभी अधिकार उनके प्रभार क्षेत्र के लिये प्रदान किये गये हैं एवं जाॅच हेतु अधिक ृत सभी परिक्षेत्र अधिकारी और सहायक परिक्षेत्र अधिकारी को साक्षियों की हाजिरी के लिए समंस जारी करने का अधिकार दिया गया हैं 

धारा-73 धारा 73 के तहत यह प्रावधान है कि सभी वन अधिकारियों को भारतीय दण्ड संहिता ,1860 के अंतर्गत लोकसेवक समझा जावेगा। 

धारा-74 इस अधिनियम के तहत किसी लोक सेवक द्वारा सद ्भावनापूर्वक किये गये किसी कार्य के लिये उसके विरुद्व कोई वाद नहीं चलाया जायेगा। 

धारा-75 राज्य सरकार की लिखित अनुमति के बिना कोई वन अधिकारी इमारती लकड़ी या अन्य वनोपज का व्यापार नहीं करेगा या किसी वन के पट ्टे में या किसी वन के ठेके में हितबद्व नहीं होगा। 44 

धारा-77 इस अधिनियम के अधीन किसी नियम को जिसके उल्लंघन के लिये कोई विशेष शास्ति उपबंधित नहीं है भंग करने वाला व्यक्ति ऐसी अवधि के कारावास से जो छः माह तक का हो सकेगा या जुर्माने से जो एक हजार तक का हो सकेगा या दोनों से दण्डनीय होगा।

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