हाइकु क्या है ?

हाइकु क्या है ? 

हाइकु मूलत: जापानी साहित्य की एक प्रमुख विधा है। आज हाइकु जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघकर विश्व साहित्य की निधि बन चुका है। आज हिन्दी साहित्य में हाइकु की चर्चा भरपूर हो रही है। हिन्दी में हाइकु जोर शोर से लिखे जा रहे हैं। निरन्तर हिन्दी हाइकु संकलन प्रकाशित हो रहे हैं, तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इनका लगातार प्रकाशन हो रहा है।

हाइकु एक जापानी छन्द है, यह त्रिपदी होता है जिसमें 5-7-5 के वर्णक्रम का निर्वाह अनिवार्य रूप से होता है। हाइकु सत्रह (17) वर्णों में लिखी जाने वाली सबसे छोटी कविता है। इसमें तीन पंक्तियाँ रहती हैं। प्रथम पंक्ति मे 5 वर्ण दूसरी में 7 वर्ण और तीसरी पंक्ति में 5 वर्ण रहते हैं। सयुंक्त वर्ण को एक वर्ण गिना जाता है। 

हाइकु का 17 वर्णों का 5-7-5 का क्रम तीन अलग-अलग वाक्यों में होना चाहिए, अर्थात एक वाक्य को 5-7-5 के क्रम में तोड़कर नहीं लिखना है, बल्कि तीन पूर्ण पक्तियाँ हो।  डॅा0 रामनिवास ‘मानव’ का एक हाइकु द्रष्टव्य है- 
नभ में इन्दु 
मॉ के माथे का शुभ 
 सुन्दर बिन्दु।

हाइकु का इतिहास

हाइकु का जन्म जापानी संस्कृति की परम्परा, जापानी जनमानस और सौन्दर्य चेतना में हुआ है और वहीं पला है। हाइकु को स्वतन्त्र काव्य विधा के रूप में बाशो ने प्रतिष्ठा प्रदान की। हाइकु का जन्म जापान में रेगां काल में प्रचलित 5-7-5-7-7 वर्ण क्रम में 31 वर्णों की कविता ताँका से हुआ है। ताँका की प्रथम तीन पक्तियाँ बाद में ‘होक्कु’ के नाम से जानी जाने लगी। ‘होक्कु’ में ऋतु सम्बन्धी संकेत होना आवश्यक कर दिया गया था। रेगां काल में रचित हास्य प्रधान कविताओं को ‘हाइकाइ’ भी कहा जाने लगा। ‘हाइकाइ’ धीरे-धीरे गम्भीर ‘होक्कु’ कविता पर हावी हो गया। इससे ‘हाइकाइ’ की लोकप्रियता जनसामान्य में बढ़ती गयी। ‘होक्क’ु अथवा ‘हाइकाइ’ बाद में स्वतन्त्र कविता के रूप में स्थापित हुआ और ‘हाइकु’ के नाम से विकसित हुआ। इस प्रकार ‘ताँका’ काव्य रूप के बन्धन से मुक्त होकर ‘हाइकु’ नाम के साथ, एक स्वतन्त्र काव्य शैली के रूप में जापानी सािहत्य में प्रतिष्ठित हुआ। 

हाइकु का भारतीय भाषाओं से सर्वप्रथम परिचय 1919 ई0 में रविन्द्रनाथ टैगोर ने कराया। उन्होंने प्रसिद्व जापानी कवि मात्सुओ बाशो की हाइकु कविताओं के बंगला भाषा मे अनुवाद किया। हिन्दी में हाइकु की प्रथम चर्चा का श्रेय अज्ञेय को दिया जाता है। उन्होंने छठे दशक मे ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ मे अनेक हाइकु नुमा छोटी कविताएँ लिखी हैं जो हाइकु के बहुत निकट हैं। प्रो0 सत्यभूषण वर्मा ने हिन्दी साहित्य संसार को सबसे पहले हाइकु से परिचित कराया तथा अन्तर्देशीय पत्र प्रकाशित कर हाइकु को चर्चित किया। किसी देश की संस्कृति में पोषित कविता जब अन्य देश, सस्ंकृति में पहुँचती है तो वहां की संस्कृति व भाषा के अनुरूप इस प्रकार से काया कल्प करती है कि वह कविता उस संस्कृति व देश में आत्मसात हो जाती है व उस देश की प्रतीत होती है। 

इसी प्रकार जब जापानी कविता हाइकु ने भारत में प्रवेश किया तो वह पूर्ण रूप से भारतीय संस्कार में ढल गयी। इसकी जडे़ं तो जापान में है, परन्तु इसकी शाखाएँ अब पूरे विश्व मे फैल चुकी हैं।

हाइकु का स्वरूप

हाइकु विचार प्रधान कविता नहीं है, यह भाव प्रधान है। यह अनुभूति के चरम क्षण की कविता है। यह एक भाव या स्थिति के सौन्दर्यानुभूति-जन्य चरम क्षण की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति की कविता है। हाइकु किसी वस्तु के प्रति, किसी विषय के प्रति, किसी भाव की अनुभूति के प्रति हमारे मन में जो तात्कालिक प्रक्रिया होती है उसकी सहज अभिव्यक्ति की कविता है। 

नामवर सिंह का कथन है, ‘‘हाइकु एक संस्कृति है, एक जीवन-पद्धति है। तीन पंक्तियों के लघु गीत अपनी सरलता, सहजता, संक्षिप्तता के लिए जापानी साहित्य में विशेष स्थान रखते हैं। इसमें एक भाव-चित्र बिना किसी टिप्पणी के, बिना किसी अलंकार के प्रस्तुत किया जाता है।’’ हाइकु कवि वस्तु को यथावत चित्रित करता है। हाइकु कविता संवेदित करती है, प्रभाव छोड़ती है, उद्देश्य प्रकट नहीं करती। हाइकु कवि अपनी अनुभूति को प्रकट करता है परन्तु व्याख्या नहीं करता। यह संवेगो की अभिव्यक्ति की कविता है। 

हाइकु संकेतो के माध्यम से जीवन के किसी महान सत्य को उभारता है। उक्ति लाघव, अर्थ गर्भित ध्वनि एवं शब्द प्रयोग में मितव्यतता इस विधा की विशिष्टता है।

हिन्दी हाइकु ने जापानी हाइकु की संक्षिप्तता और उसके रूप-शिल्प को अपना लिया है। हाइकु मे कविता मे 5-7-5 का अनुशासन रखना आवश्यक है। यह नियम समाप्त कर देने से छन्द की दृष्टि से अराजकता की स्थिति आ जाएगी। 

प्रो0 सत्यभूषण वर्मा के शब्दों में, ‘‘आकार की लघुता हाइकु का गुण भी है और इसकी सीमा भी। अनुभूति के क्षण की अवधि एक निमिष एक पल अथवा एक प्रश्वास भी हो सकता है। अत: अभिव्यक्ति की सीमा उतने ही शब्दों तक है जो उस क्षण को उतार पाने के लिए आवश्यक है। हाइकु मे एक भी शब्द व्यर्थ नहीं होना चाहिए। हाइकु का प्रत्येक शब्द अपने क्रम में विशिष्ट अर्थ का द्योतक होकर एक समन्वित प्रभाव की सृष्टि में समर्थ होता है। किसी शब्द को उसके स्थान से हटा कर अन्यत्र रख देने से भाव-बोध नष्ट हो जाएगा। हाइकु का प्रत्येक शब्द एक साक्षात अनुभव है। कविता के अन्तिम शब्द तक पहुंँचते ही एक पूर्ण बिम्ब सजीव हो उठता है।’’

हाइकु मात्र काव्य-रूप अथवा छन्द नहीं है। यह स्वयं में एक पूर्ण कविता है। हाइकु प्रकृति के माध्यम से जीवन में अनुभूत शाश्वत मूल्यों की अभिव्यक्ति की कविता है। हाइकु प्रकृति को माध्यम बनाकर भावनाओं को प्रकट करता है। प्रकृति हाइकु काव्य का प्रिय विषय रहा है। परन्तु अधिकांश हिन्दी हाइकु में व्यंग्य दिखाई देता है। व्यंग्य हाइकु कविता का विषय नहीं है। जापान में भी व्यंग्य काव्य लिखा जाता है, परन्तु वहां उसे हाइकु न कहकर ‘सेन्र्यू’ कहा जाता है। हिन्दी हाइकु को व्यंग्य में अलग करना अत्यन्त कठिन है। 

कमलेश भट्ट ‘कमल’ के शब्दों में, ‘‘हिन्दी में हाइकु और ‘सेन्र्यू’ के एकीकरण का मुद्दा भी बीच-बीच मे बहस के केन्द्र में आता रहता है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि हिन्दी में हाइकु और सेन्र्यू दोनों विधाएँ हाइकु के रूप मे एकाकार हो चुकी हैं और यह स्थिति बनी रहे यही हाइकु के हित मे होगा। क्योंकि जापानी सेन्र्यू को हल्के - फुल्के अन्दाज वाली रचना माना जाता है, और हिन्दी में ऐसी रचनाएँ हास्य-व्यंग्य के रूप मे प्राय: मान्यता प्राप्त कर चुकी हैं। अत: हिन्दी में केवल शिल्प के आधार पर सेन्र्यू को अलग में कोई पहचान मिल पाएगी, इसमें सन्देह है। फिर वण्र्य विषय के आधार पर हाइकु को वर्गीकृत/विभक्त करना हिन्दी में सम्भव नही लग रहा है। क्योंकि जापानी हाइकु में प्रकृति के एक महत्वपूर्ण तत्त्व होते हुए भी हिन्दी हाइकु में उसकी अनिवार्यता का बन्धन सर्वस्वीकृत नहीं हो पाया है। हिन्दी कविता मे विषयों की इतनी विविधता है कि उसके चलते यहां हाइकु का वण्र्य विषय बहुत-बहुत व्यापक है। जो कुछ भी हिन्दी कविता में है, वह सब कुछ हाइकु में भी आ रहा है। सम्भवत: इसी प्रवृति के चलते हिन्दी की हाइकु कविता कही से विजातीय नहीं लगती।’’

हाइकु मात्र 5-7-5 वर्ण की कविता न होकर स्वयं में बहुत कुछ है। हाइकु मे केवल भाव संयम ही नहीं, वाक् संयम भी आवश्यक है। हाइकु में तुक का महत्व नहीं है, पर स्वर अनुरूपता, अनुप्रास, लय और गति पर विशेष बल है। हिन्दी भाषा में यह सामथ्र्य है कि इसके शब्द सायास, सामासिक एंव श्लेषात्मक बनाये जा सकते हैं। इस कारण जापानी भाषा के अर्थ गम्भीर्य और अर्थ-वैविध्य हिन्दी हाइकु में आसानी से सम्भव है। छन्द विधान में भी हिन्दी प्रकृति अनुसार हाइकु की तीनों पक्तियों के परस्पर अनुपात की सीमा के भीतर प्रयोग हो सकते हैं। आज कल हिन्दी की पत्र/पत्रिकाओं में हाइकु के समान आकार की अनेक स्वतंत्र रचनाएँ प्रकाशित हो रही हैं।

 इन रचनाओं को हम किसी भी नाम क्षणिका, कणिका, शब्दिकाएँ आदि से अभिहित कर सकते हैं। परन्तु हाइकु का महत्व इसके रूप-शिल्प और वस्तु-विधान के अनुरूप अलग हैं। हाइकु की पहचान बनाए रखने के लिए हाइकु के स्वरूप व शिल्प को उसी रूप में अपनाना आवश्यक होगा, अन्यथा जो कविता लिखी जाएगी उसे हाइकु नहीं कहा जा सकता।

सन्दर्भ:-
  1. वर्मा, प्रो सत्यभूषण जपानी कविताएँ, पृष्ठ 27.
  2. पटेल, डॉ0 रामनारायण ‘राम’, हिन्दी हाइकु: इतिहास और उपलब्धि, पृष्ठ 42.

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