जिडू कृष्णमूर्ति एक भारतीय दार्शनिक एवं शिक्षाविद् थे। ईश्वर के प्रति अपने दृष्टिकोण
को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, “यदि आपका हृदय प्रेम से पूर्ण है तब ईश्वर को अन्यत्र
खोजने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रेम ही ईश्वर है।” उन्होंने कहा, “जीवन का
वास्तविक अर्थ शिक्षा द्वारा समझा जा सकता है तथा सत्य को केवल शिक्षा द्वारा स्थापित
किया जा सकता है।” उन्होंने मानव के व्यक्तित्व के संतुलित विकास पर बल दिया है।
वे मानते थे कि जीवन स्थिर नहीं है तथा समय की आवश्यकता, वातावरण एवं परिस्थिति
के अनुसार परिवर्तित होना चाहिए।
शिक्षा का अधिकांश अवसर गतिविधि तथा करके सीखने के माध्यम से प्रदान किया जाना चाहिए। बच्चों को स्व-अधिगम के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। शिक्षक को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में प्रायोगिक, स्वाध्याय, वैज्ञानिक, आत्मविश्लेषण तथा खेल विधि का उपयोग करना चाहिए।
जे कृष्णमूर्ति के शैक्षिक विचार
जे. कृष्णमूर्ति के शैक्षिक विचार निम्नलिखित हैं:- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्यों में आध्यात्मिकता का विकास होना चाहिए।
- आध्यात्मिकता का अर्थ किसी धर्म का दास बनना नहीं है बल्कि यह आत्मबोध तथा आत्मविश्लेषण के माध्यम से ज्ञानार्जन को इंगित करता है।
- वैज्ञानिक खोजों तथा तकनीकी शिक्षा का उपयोग मानव सभ्यता को नष्ट करने के लिए नहीं होना चाहिए। यह मानव के कल्याण के लिए होना चाहिए।
- शिक्षा द्वारा बच्चों में सृजनशीलता को विकसित करना चाहिए। बच्चों को स्वतंत्र एवं भयमुक्त वातावरण प्रदान करना चाहिए ताकि वे स्वयं द्वारा निर्णय ले सकें।
- शिक्षा का उद्देश्य मानव तथा प्रकृति के लिए प्रेम के प्रसार के लिए होना चाहिए। “विविधता की भावना शक्ति के रूप में है कमजोरी के रूप में नहीं है” की अवधारणा को छोटे बच्चों के मस्तिष्क में फैलाने की आवश्यकता है।
पाठ्यचर्या तथा शिक्षण विधियाँ
उन्होंने सुझाव दिया कि पाठ्यचर्या बच्चों की रूचि के अनुसार होनी चाहिए। पाठ्यचर्या में विषय एवं पाठ्यवस्तु का संगठन बाल मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर होना चाहिए जिससे बच्चे की स्वाभाविक रूचि विकसित की जा सकती है। जीविकोपार्जन हेतु व्यावसायिक शिक्षा के अंतर्गत विज्ञान एवं तकनीक, मूर्तिकला, वास्तुकला, गृहविज्ञान, का औद्योगिक कौशल, साहित्य, खेल आदि का अध्ययन करना चाहिए। पाठ्यचर्या में, बच्चे की सृजनशीलता के विकास हेतु कला, कविता, तथा संगीत का स्थान होना चाहिए।शिक्षा का अधिकांश अवसर गतिविधि तथा करके सीखने के माध्यम से प्रदान किया जाना चाहिए। बच्चों को स्व-अधिगम के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। शिक्षक को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में प्रायोगिक, स्वाध्याय, वैज्ञानिक, आत्मविश्लेषण तथा खेल विधि का उपयोग करना चाहिए।
शिक्षक, विद्यार्थी तथा अनुशासन की अवधारणा
उन्होंने बल दिया कि शिक्षक को एक “संपूर्ण मानव” होना चाहिए। संपूर्ण मानव का अर्थ चेतना, अहिंसा तथा प्रेम जैसे गुणों से युक्त होना है। शिक्षक को जातिवाद, क्षेत्रवाद, पूर्वाग्रहों आदि में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। शिक्षक का स्थान एक मित्र, दार्शनिक तथा निर्देशक की तरह है। विद्यार्थी में विनम्रता, सेवा, प्रेम, स्वाध्याय, एकाग्रता, आत्मानुशासन आदि जैसे गुण होने चाहिए। शिक्षक का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थी को एक समेकित एवं राष्ट्र के लिए संपूर्ण नागरिक के निर्माण का होना चाहिए।
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