समाजीकरण के सिद्धांत || सिगमंड फ्रायड चार्ल्स कूले तथा मीड़ के सिद्धांत

लगभग सभी समाजविज्ञानी एवं मनोविज्ञान विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि बच्चे के विकास के केंद्र में मूल रूप से “स्वत्व” (self) विद्यमान रहता है और सामाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा यह विकास संभव हो पाता है। इस अवधारणा को भली-भांति समझने के लिए सामाजीकरण के प्रमुख सिद्धांतों का विवरण देना आवश्यक है।

सामाजीकरण के सिद्धांत

1. जॉर्ज हर्बर्ट मीड एवं स्व विकास सिद्धांत

अमेरिकन समाजशास्त्री जॉर्ज हर्बर्ट मीड के अनुसार बच्चे पूरी तरह सामाजिक प्राणी होते हैं और वे अपने चारों ओर हो रही गतिविधियों की नकल करते हुए बड़े होते हैं। बच्चे जिन लोगों के संपर्क में आते हैं उनसे कुछ न कुछ सीखते हैं। खेल एक ऐसा माध्यम है जिसके दौरान बच्चे बड़ो की नकल करना सीखते है। खेल में जिस तरह बड़े करते हैं वे भी उसी तरह करने लगते हैं। खेलने की उम्र तीसरे वर्ष के आस-पास आरम्भ हो जाती है। इस अवस्था में ही बच्चे बड़ो की विभिन्न भूमिकाओं की नकल करना और उन्हें अपने जीवन में उतारना शुरू कर देते हैं। इस प्रकार बच्चे दूसरों से सीखते हैं। 

मीड इन दूसरों को विशिष्ट अन्य मानता है। बच्चों के खेल पहले सरल होते हैं और धीरे-धीरे कठिन होने लगते हैं। चार पांच साल का बच्चा बड़ो की भूमिकाएं अदा करने लगता है। उदाहरण के लिए बच्चे कक्षा में होने वाली गतिविधियों की नकल उतारना शुरू कर देते हैं। एक बच्चा अध्यापक बन जाता है तथा अन्य छात्र बन जाते हैं और वे कक्षा में हुई गतिविधियां दोहराते हैं। इस खेल को अधिकतर बच्चे टीचर-टीचर की संज्ञा देते हैं। इसी तरह के खेल का दूसरा प्रचलित उदाहरण डॉक्टर तथा रोगी की भूमिका वाला है जिसमें एक बच्चा डॉक्टर की भूमिका निभाता है दूसरा नर्स की और तीसरा बच्चा रोगी बन जाता है। फिर वे बिल्कुल वैसा ही दृश्य उपस्थित कर देते हैं जैसा कि रोगी जब डॉक्टर के पास इलाज के लिए जाता है तब बनता है। 

मीड इस तरह नकल उतारने की प्रक्रिया को बच्चों का दूसरों की भूमिकाओं में सामाजीकरण उतर जाना मानता है। इस अवस्था में बच्चे परिपक्वता र्गहण करने लगते हैं तथा अपने आप के बारे में व दूसरों के बारे में उनकी समझ विकसित होने लगती है। बच्चे अपने बारे में दूसरों के दृष्टिकोण और विचारों को ग्रहण करते हैं और अपने आप को ‘मुझे’ मानने लगते हैं।‘मुझे’शब्द एक सामाजिक स्वत्व है जबकि ‘मैं ‘ शब्द ’मुझे ’ की प्रतिक्रिया है। सरल शब्दों में कहें तो ‘मैं‘ दूसरों के कार्यों के प्रति बच्चे की प्रतिक्रिया है जबकि ’मुझे’ दूसरों की उन सब प्रतिक्रियाओं का समुच्चय है जिसे बच्चा ग्रहण करता है।

स्वत्व के विकास का दूसरा चरण 8 या 9 वर्ष की अवस्था में आरंभ होता है। इस चरण में बच्चे समूह के सदस्यों के रूप में काम करना सीख जाते हैं और उनकी भूमिकाओं को सफलतापूर्वक निभाने लगते हैं।मीड सामान्य अन्य तथा विशिष्ट अन्य की अवधारणा प्रस्तुत करता है। किसी समूह विशेष की उस संस्कृति के नियमों व मूल्यों को सामान्य अन्य माना जा सकता है जिसमें बच्चा अपना जीवन जी रहा है। सामान्य अन्य के बारे मेंअपने समाज का विकास करते हुए बच्चा यह जान जाता है कि उस समाज अथवा समूह की स्वीकृति पाने के लिए उसे कौन से नियमों का पालन करना होगा तथा कैसा व्यवहार करना होगा। विशिष्ट अन्य में वह लोग आते हैं जो बच्चों के जीवन में विशेष महत्व रखते हैं और बच्चों की अपने बारे में समझ तथा भावनाओं व व्यवहारों को प्रभावित करते हैं। 

मीड उन प्रमुख विचारकों में से है जो बच्चे के स्वत्व के विकास में विशिष्ट अन्य की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं।

2. कूले तथा उस्का दारपणिक प्रतिबिम्ब का सिद्धांत 

प्रसिद्ध अमेरिकी समाजवादी हॉर्टॉनकूली को उनके दारपणिक सिद्धांत के लिए जाना जाता है। बच्चे दूसरों के मतानुसार अपने आपके बारे में धारणा उत्पन्न कर लेते हैं। दूसरों के मतानुसार स्वयं को मानने लग जाना, दूसरों की दृष्टि में हम कैसे लगते हैं, इस कल्पना के अनुसार अपने आप को मानने लग जाना दारपणिक निजता प्रतिबिम्बात्मक निजता कहलाता है। अपने बारे में जो जानकारी दूसरों के विचारों को व उनके प्रतिक्रियाओं से प्राप्त होती हैं उसके आधार पर मनुष्य जो अपना एक बिंब निर्मित कर लेता है उसे दारपणिक निजता कहा जाता है। सबसे पहले अपने बारे में जानकारी बच्चा अपने माता पिता से प्राप्त करता है फिर दूसरों से प्राप्त जानकारी से उसकी पुष्टि करता है। जिस प्रकार अपने आप को जानने में दर्पण हमारी सहायता करता है, हमारे कपड ़े कैसे लग रहे हैं, हमारा चेहरा केसा लग रहा है, हम कैसे लग रहे हैं यह सब दर्पण में देखकर हम जान जाते हैं, उसी प्रकार हम अनुमान लगाने लगते हैं कि हमारा व्यवहार, हमारेतोर तरीके दूसरो को कैसे लग रहे होंगे। 

परिणामतः दूसरों की हमारे बारे में जो अवधारणा बनती है उसी के अनुसार हम अपने आप को मान लेते हैं और उसे से सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव भी ग्रहण करने लगते हैं। जैसे बच्चे को जब शरारत सूझती है तो वह सोचता है कि पकड़ा गया तो माता.पिता से झूठ बोल देगा, उसीसमय वह यह भी सोचता है कि यदि उसका झूठ पकड़ा गया तो वह माता पिता की नज़रो में गिर जायेगाद्यकूली के अनुसार अपने बारे में धरना बनाने में प्रयोग प्रमुख रूप से तीन घटक काम करते हैं। 

पहला, दूसरों को हम कैसे लग रहे हैं, दूसरा, अन्य लोगों के विचार के बारे में हमारा अपना विचार और तीसरा, आत्म सम्मान की भावना, शर्म या दूसरों की हमारे बारे में अवधारणा से उपजा संदेह।

3. सिगमंड फ्रायड एवं मनोविश्लेषण सिद्धांत 

आत्म विश्लेषण की अवधारणा के जनक सुप्रसिद्ध ऑस्ट्रियाई स्नायु विज्ञानी सिगमंड फ्रायड के अनुसार सामाजीकरण चाहता है कि मनुष्य समाज के हितों की रक्षा के लिए निजी स्वार्थों का त्याग करें। उनके मत में सामाजीकरण वह प्रविधि है जो मनुष्य की चाहतों और बुनियादी अवधारणाए  प्रवृत्तियों को इस प्रकार दिशा देती है कि उन्हें सांस्कृतिक रूप से सामाजिक मान्यता मिल जाए। फ्रूड के अनुसार व्यक्तित्व के तीन घटकों के माध्यमों से अथवा यह कहिए कि तीन स्तरों पर मनुष्य की सामाजीकरण की क्रिया संपन्न होती है- इद (id), अहम् पराअहम तथा अहंकार (super ego)

स्वयंभू संवेग के अंतर्गत सभी प्रकार के मौलिक संवेग आते हैं। यह उस व्यक्तित्व का अचेतन, स्वार्थ परक, आवेगशील, प्रेरक तथा असंगत भाग है जो सदैव सुख की तलाश में लगा रहता है और दुखात्मक स्थितियों से बचता रहता है। यह संवेग मनुष्य को दूसरों की तथा समाज की परवाह किये बिना अपने स्वार्थो की पूर्ती के लिए उकसाता रहता है। जैसे कोई बच्चा किसी चीज की अतिरिक्त मांग करता है तो तब तक रोता रहता है जब तक वह उसे दे नहीं दी जाती।

अहंकार, स्वयंभू संवेग तथा पराअहम के बीच में मध्यस्थता का काम करता है। अहंकार हमारे संवेगो को नियंत्रित करने तथा उन्हें सामाजिक मान्यता के दायरों में रखने का काम भी करता है। उदाहरण के लिए जब हम बाजार में मिलने वाले छूट के लालच में आकर अधिक से अधिक खरीदारी करने के लिए लालायित हो जाते हैं तब वह हम पर दबाव बनाता है कि हम उतनी ही खरीदारी करें जितनी हमारी खरीदने की क्षमता है। स्वयंभू संवेग, अहंकार तथा पराअहम के बीच संतुलन बनाए रखने की प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। यह संतुलन सामाजीकरण का मुख्य माध्यम है।

पराअहम मनुष्य को सिद्धांतों, नियमों तथा नेतिक मान्यताओं से अवगत करवाता है जिन्हें मनुष्य सामाजीकरण के प्रत्याशी प्रक्रिया से सीखता है। परम अहंकार व्यक्ति का अंतर विवेक है। वह उसके अंदर की आवाज है जो आशाओं, विश्वासों और सामाजिक निर्देशों या सामाजिक मान्यताओं को व्यवस्थित करती है। उदाहरण के लिए, जैसे, यदि कोई बच्ची किसी की दुकान से चोरी छिपे कोई सामान उठाने की कोशिश करती है, जब उसे कोई देख नहीं रहा होता है, तब उसके मन में तुरंत एक आवाज उठती है कि चोरी करना गलत है। तब, यह जानते हुए भी कि वह पकड़ी नहीं जाएगी चीज नहीं चुरा पाती। मौलिक संवेग तथा पराअहम एक दूसरे के विरोधी होते हैं। क्योंकि ना तो यह संभव है कि हम अपनी सारी इच्छाओं को पूरा कर ले और ना ही यह संभव है कि हम कुछ पाने की इच्छा ही न करें।

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