समाजीकरण का अर्थ, परिभाषा, प्रकार

सामाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो समाज के विभिन्न सरोकारों को समझने तथा सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विभिन्न समाजों में बच्चों को सामाजिक मूल्यों से अवगत कराने की अलग.अलग तरीके व परंपराये हैं। बच्चों के व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए उनका सामाजीकरण अनिवार्य है। सामाजीकरण के अंतर्गत बच्चों को परिवारों परिजनों तथा संबंधित वर्गों के नियमों आदतों, तथा मूल्यों की जानकारी दी जाती है। 

बच्चा सामाजीकरण के माध्यम से उस समाज की मान्यताओं रीति रिवाजों तथा संस्कृति की जानकारी प्राप्त करता है। सामाजीकरण समाज की संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का काम करता है। यह प्रक्रिया बच्चों को अनेक प्रकार के दायित्यों से अवगत कराती है तथा उनका निर्वाह करने में उनकी मदद करती है। 

इस प्रकार सामाजीकरण एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी से जोड़ने का काम करता है।

समाजीकरण की परिभाषा

एंथोनी गिडॉन्स: “सामाजीकरण उस पद्धति से मनुष्य का परिचय कराता है जो उसमें सामाजिक संस्कृति को ढालती है।“ 

सामाजीकरण का ‘‘उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जिससे असाहय मानव शिशु धीरे-धीरे एक आन्म जागरूक जानकार व्यक्ति बन जाता है, जो कि अपनी समाजिक संस्कृति के तौर तरीके में निपुण है।

पीटल वर्सले के अनुसार “सामाजीकरण वह पद्धति है जिसके द्वारा मनुष्य को सामाजिक समूहों के रीति रिवाजों व नियमों का प्रशिक्षण दिया जाता है। सामाजीकरण मानव समाज की गतिविधियों तथा संस्कृतियों का वाहक है।”(1972ः153).

“फ्री टोनी मिल्टन के अनुसार “ वह प्रक्रिया जिससे हम उस समाज की संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते हैं जिसमें हम पैदा हुए हैं, वह प्रविधि जिसके द्वारा हम अपने समाज की विशेषताओं को सीखते हैं तथा सोचने व व्यवहार करने के तरीकों की जानकारी प्राप्त करते हैं, सामाजीकरण कहलाती है।“

समाजीकरण के प्रकार

विभिन्न आयु वर्ग के व्यक्तियों में सामाजीकरण की प्रक्रिया अलग.अलग होती है जिसे अलग अलग नामों से जाना जाता है।

1. प्राथमिक सामाजीकरण

यह मनुष्य के सामाजीकरण का पहला चरण है जिसका जीवन में विशेष महत्व है। जन्म से लेकर बचपन तक की सामाजीकरण प्रक्रिया प्राथमिक सामाजीकरण कहलाती है। इस अवधि में बच्चों को भाषा. ज्ञान तथा व्यवहार सिखाया जाता है। सामाजीकरण का यह चरण परिवार में ही संपन्न होता है। इस अवधि में अबोध बालक अपने परिवार तथा परिवेश से भाषा की जानकारी प्राप्त करता है तथा आरंभिक व्यवहार सीखता है। इस अवधि में ही आगे बुनियादी अवधारणाए के जीवन में सीखने की प्रक्रिया की नींव पड़ती है। 

प्राथमिक सामाजीकरण समाज की मूल संस्कृति तथा उसके विचारों से बच्चों को अवगत कराता है। इस अवधि में बच्चों के अंतर्मन में मूल्यों तथा विचारों का ढांचा तैयार होता है जब उन्हें दुनिया की तथा उसके विभिन्न सरोकारों की कोई जानकारी नहीं होती। इस स्तर पर परिवार बच्चों के सामाजीकरण का दायित्व निभाता है।

2. दूसरे चरण का सामाजीकरण 

जब बच्चा बचपन की दहलीज लाँघकर किशोरावस्था में प्रवेश करता है तब उसके सामाजीकरण का दूसरा चरण आरंभ होता है। इस चरण के दौरान सामाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार के साथ साथ विद्यालय तथा मित्र समूहों का योगदान भी आरंभ हो जाता है। विभिन्न माध्यमों द्वारा विभिन्न प्रकार के सामाजिक संपर्क होते हैं जो बच्चों को नेतिक मानदंडों, रीति रिवाजों तथा विभिन्न प्रकार के सामाजिक एवं सांस्कृतिक सिद्धांतों की जानकारी देने में सहयोग करते हैं। जब बच्चा संस्थागत व्यवस्थाओं जैसे विद्यालय आदि में शिक्षण प्रशिक्षण प्राप्त करता है तो उसके सामाजीकरण का दूसरा चरण संपन्न होता है।

दूसरे चरण का सामाजीकरण प्रथम चरण के सामाजीकरण के साथ साथ चलता रहता है। परंतु पारिवारिक व्यवस्थाओं से हटकर बच्चे जब विद्यालयों में शिक्षण पाते हैं तब उनमें दायित्व बोध आने लगता है। दूसरे चरण के सामाजीकरण में संस्थाओं तथा विशिष्ट दायित्वों से जुड ़े व्यक्तियों का योगदान अधिक रहता है। इस दौरान बच्चा ज्ञान अर्जित करता है तथा सतर्कता पूर्वक सीखता है और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की स्थिति में प्रवेश करने लगता है जबकि प्राथमिक चरण में वह सांस्कृतिक गतिविधियों का ज्ञान आत्मसात करता है।

3. लैंगिक सामाजीकरण

इस चरण तक आते आते बच्चों में विचार प्रक्रिया आकार र्गहण कर चुकी होती है। इसी प्रक्रिया के आधार पर वह लैंगिक भूमिकाओं की जानकारी प्राप्त करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार लैंगिक चेतना आने पर मनुष्य में स्त्री या पुरुष की विशेषताएं निर्मित होने लगती हैं। स्त्री और पुरुष के बीच किस तरह के संबंध होते हैं तथा वे एक दूसरे के साथ किस प्रकार व्यवहार करते हैं यह चेतना इसी अवधि में आती है। लैंगिक चेतना स्त्री व पुरुष के रूप में सामाजिक दायित्व का बोध कराती हैं।

बच्चों को समझाने तथा उनका मार्गदर्शन करने के बड़ों के तरीके भिन्न-भिन्न होते हैं। कपड़े पहनने का ढंग, हेयर स्टाइल, साज-सज्जा के भिन्न.भिन्न साधन जो स्त्री पुरुष इस्तेमाल करते हैं। उन्हें देख देख कर बच्चे स्त्री व पुरुषों के अलग अलग तरीकों को समझ लेते हैं। दो वर्ष का होते होते बच्चे को यह समझ आ जाता है कि उसका लिंग क्या है? जहाँ लड़कियां गुडि़यों से खेलना पसन्द करती हैं वहीं लड़कों के खिलौने कार तथा बंदूक आदि पसंद होते हैं। यद्यपि अब समाज में स्त्रीलिंग व पुल्लिंग के अलावा तीसरे लिंग या नपुंसक लिंग का भी उल्लेख होने लगा है। जिनकी पहचान स्त्रीलिंग या पुल्लिंग के रूप में नहीं की जा सकती वे तृतीय लिंग की श्रेणी में आते है। 

भारत पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में इन्हे हिजड़ा कहा जाता है। इन्हे विशिष्ट लिंगी भी कहा जाता है।

4. अग्रिम सामाजीकरण 

अग्रिम सामाजीकरण की अवधारणा प्रसिद्ध समाजशास्त्री रॉबर्ट के मेर्टन (1957) ने की थी।इस सामाजिक प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति को भावी भूमिका अथवा कार्य के लिए पहले से ही तैयार सामाजीकरण किया जाता है। इस सामाजिक प्रक्रिया के दौरान लोगों को उन कार्यों से जुड ़े लोगों के संपर्क में लाया जाता है जो कार्य वे भविष्य में करना चाहते हैं। इससे उनका कार्य के लिए आसानी से चयन हो जाता है और वे सरलता से उसे संभाल लेते हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि माता.पिता या अभिभावक प्राथमिक सामाजीकरण की अवस्था में ही बच्चों को उनके भावी कार्यों के बारे में अग्रिम जानकारी दे देते हैं और सामाजिक भूमिका से भी अवगत करा देते हैं। कुछ माता-पिता बच्चों को भविष्य निर्माण के उद्देश्य से बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करवा देते हैं जहां उन्हें भविष्य के लिए तेयार किया जाता है।

5. पुनर्सामाजीकरण

पुनर्सामाजीकरण मनुष्यों को पुराने व्यहवारों तथा भूमिकाओं को त्यागने तथा उनके स्थान पर नयी भूमिकाओं का निर्वाह करने में मदद करता हैं जब किसी व्यक्ति को अपने जीवन में बड़े बदलाव की ज़रुरत महसूस होती है तब पुनर्सामाजीकरण की आवश्यकता पड़ती है । पुनर्सामाजीकरण उन व्यक्तियों के जीवन में लगातार चलता रहता है जिन्हे अतीत की भूमिकाओं तथा अनुभवों को छोड़ना पड़ता है तथा नए व्यवहार एवं मूल्य अपनाने पड़ते है।

सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री गोफमैन पुनर्सामाजीकरण पागल खाने की संज्ञा देते हैं। जिस प्रकार पागलखाने में रहने वाले लोगो को वहां के नियमों का कठोरता से पालन करना पड ़ता है उसी प्रकार संस्थाओं का यह आग्रह रहता है कि उन में काम करने वाले लोग उनके नियमों का अक्षरशः पालन करें भले ही वे उनके अनुकूल हो या ना हो। लड़की को विवाह के बाद ससुराल के नियमों व रीति.रिवाजों आदि का पालन करने के लिए तैयार किया जाना पुनः सामाजीकरणका सटीक उदाहरण है। इसका उद्देश्य होता है लड़की का नए परिवेश में रच बस जाना और उसी के अनुसार अपने आप को पूरी तरह बदल डालना।

6. वयस्क सामाजीकरण 

जब कोई व्यक्ति वयस्क होने पर नई भूमिकाओं में अपने आप को ढालने के लिए प्रयास करता है तो उसे वयस्क सामाजीकरण की संज्ञा दी जाती है। पति, पत्नी या कर्मचारी का नए कार्यों व भूमिकाओं के अनुसार अपने आप को ढालना वयस्क सामाजीकरण के अंतर्गत आता है। आवश्यकता अनुसार व्यक्ति नए-नए व्यहवारो तथा विचारो को अपने जीवन में शामिल करते रहते हैं। यह प्रक्रिया जीवन के अंतिम क्षणों तक जारी रहती है। पारंपरिक समाजों में परिवार के महत्वपूर्ण मामलों में वृद्ध लोगों का पूरा दखल रहता है। उम्र बढ ़ने के साथ.साथ स्त्री और पुरुष दोनों प्रकार के वयस्क इस प्रवृत्ति पर जोर देते रहते हैं।

परंतु आधुनिक युग में अनेक परिवारों में वृद्धों का प्रभाव घटा है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि आधुनिकता के दौर में वृद्ध परिवारों पर से अपनी पकड  खो चुके हैं। आज भी कुछ महत्वपूर्ण मामलों में उनकी सलाह ली जाती है। जिस प्रकार वयस्क अपने बच्चों को कुछ न कुछ सिखाने में लगे रहते हैं वैसे ही वृद्ध जन भी अपने से कम आयु के लोगों से बहुत कुछ सीखते हैं। परिवार के बाहर भी वयस्क सामाजीकरण की प्रक्रिया जारी रहती है। कार्यस्थल, सामाजिक समूह, वरिष्ठ नागरिक संगठन, मनोरंजन क्लब तथा धार्मिक संगठन भी वयस्क सामाजीकरण में अपना योगदान देते हैं।

1 Comments

  1. कछचछैठटोचॅढृब
    टछठॅटॅढपिइजृफजोफंआअआ

    ReplyDelete
Previous Post Next Post