शुभ और अशुभ किसे कहते हैं ?

जो वस्तु हमारी इच्छा की पूर्ति करती हे उसे हम शुभ मानते हैं। धन-संपत्ति को शुभ माना जाता है, क्योंकि इससे हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। शुभ हमें लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता प्रदान करता है। सुखवादियों ने शुभ को ही सुख या आनंद स्वीकार किया है, अत: जो आचरण शुभ के उद्देश्य से किया जाता है उससे सुख या आनंद की प्राप्ति होती है। अशुभ शुभ की प्राप्ति में बाधा पहुँचाता है, जो आचरण शुभ की प्राप्ति नहीं कराता है वह आचरण अशुभ है। सुखवादियों ने इसी आचरण को अशुभ आचरण कहा है। अत: जो शुभ से संबांधित है, उसे शुभ कहा जाता है और जो शुभ का विरोधी है उसे अशुभ कहा जाता है।

शुभ का आचरण अच्छे परिणाम की प्राप्ति कराता है अर्थात् शुभ आचरण वह आचरण है जिससे अच्छे परिणाम की प्राप्ति होती है। अशुभ आचरण बुरे परिणाम की प्राप्ति कराता है। अर्थात् जिस आचरण का परिणाम बुरा होता है, उसे अशुभ कहते हैं। शुभ किसी भी लक्ष्य की सिद्धि में सहायता प्रदान करता है। तात्पर्य यह कि इससे हमारी आवश्यकता या इच्छा पूर्ति होती है। भोजन, वस्त्र, व्यायाम हमारे शारीरिक शुभ कहे जाते हैं क्योंकि इससे हमारी शारिरिक आवश्यकता की पूर्ति होती है। 

धन, संपत्ति आदि हमारे आर्थिक शुभ है क्योंकि ये हमारी आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। खेल, सिनेमा आदि हमारे मनोरंजनात्मक शुभ है, क्योंकि इनसे हमारी मनोरंजन संबंधी आवश्यकता की पूर्ति होती है, हमारी नैतिक आवश्यकता की पूर्ति जिससे होती है वह नैतिक शुभ कहलाता है। 

सुखवादियों ने सुख को जीवन का आदर्श माना है। उनके अनुकुल सुख की प्राप्ति में सहायता प्रदान करने वाले को शुभ कहा जाता है।

शुभ और अशुभ की परिभाषा 

शुभ और अशुभ की परिभाषा मूल्य पर आधारित है। मूल्य और शुभ का व्यापक अर्थ समान ही है। वास्तव में जिस आचरण में मूल्य है उसे ही शुभ कहा जाता है और जिस आचरण में मूल्य नहीं है उसे अशुभ कहा जाता है।

कुछ नीतिशास्त्रीयों के अनुसार शुभ के दो रूप है - व्यक्तिगत तथा निवर्ैयाक्तिक । इनके मतानुसार व्यक्तिगत शुभ वह शुभ है जिसे व्यक्ति अपनी इच्छा के लिए करता है। निवर्ैयकितक शुभ उन्होंने ऐसे शुभ को माना है जो समाज के लिए या अन्य व्यक्तियों के लिए है। दरअसल व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है और समाज व्यक्तियों का समूह है। व्यक्ति का शुभ समाज का शुभ एवं समाज का शुभ व्यक्ति का शुभ माना जाता है।

प्रो0 गैलवे ने ठीक ही कहा है, ‘‘वस्तुत: ईश्वर के प्रति विश्वास के विरुद्ध यह तर्क बहुधा खड़ा किया जाता है कि इस धारणा के साथ संसार के कष्ट और पाप की संगति नहीं बैठ पाती।’’ 

प्रो0 डी0एस0 एडवर्ड ने कहाँ है- ‘‘किंतु यह मान लेने पर कि ईश्वर प्रिय न्यायी और सर्वशक्तिमान है अशुभ की समस्या और भी तीव्र हो जाती है।’’ इस प्रकार अशुभ की समस्या ईश्वरवादियों की ही समस्या है।

काण्ट : अपने नैतिक दर्शन में काण्ट ने सर्वप्रथम इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार किया है कि ऐसी कौन-सी वस्तु है जो अपने आप में शुभ है और जिसका शुभत्व देश, काल, परिस्थितियों तथा मनुष्य की भावना अथवा इच्छा पर निर्भर नहीं है- अर्थात् जो सर्वत्र एवं सर्वदा निरपेक्ष रूप से शुभ है। इस प्रश्न के उत्तर में उनका कथन है कि केवल ‘शुभ-संकल्प’ ही ऐसा निरपेक्ष तथा अप्रतिबंधित शुभ है।

काण्ट के अनुसार ‘संकल्प’ मूलत: बौद्धिक होने के कारण संवेग, भावना, इच्छा, प्रवृति आदि से पूर्णतया भिन्न है। बुद्धि ही संकल्प का उद्गम है, संकल्प वह बुद्धिमूलक तत्व है जो मनुष्य को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। काण्ट किसी भी कर्म को करने का दृढ़ निश्चय करते हैं और उस कार्य को करते हैं। इस प्रकार काण्ट ने ‘शुभ संकल्प’ के अनुसार कर्म करने के लिए यथासंभव समस्त साधनों का उपयोग करना भी बहुत आवश्यक माना है।

काण्ट ‘शुभ-संकल्प’ को अप्रतिबंधित तथा निरपेक्ष शुभ मानते हैं। उनका मत है, यह ‘शुभ-संकल्प’ ही सर्वत्र एवं सर्वदा अपने-आप में शुभ है और इसका शुभत्व देश, काल परिस्थितियों तथा इससे उत्पन्न होने वाले परिणामों पर निर्भर नहीं है। इस ‘शुभ संकल्प’ के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को काण्ट स्वत: साध्य शुभ तथा निरपेक्ष शुभ नहीं मानते। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि इस विश्व में अथवा इससे बाहर ‘शुभ-संकल्प’ के अतिरिक्त ऐसी किसी अन्य वस्तु की कल्पना करना ही नितांत असंभव है। जो अपने-आप में तथा निरपेक्ष रूप से शुभ हों। इस प्रकार स्पष्ट है कि काण्ट ‘शुभ संकल्प’ को ही एकमात्र स्वत: साध्य शुभ तथा निरपेक्ष शुभ मानते हैं। 

काण्ट केवल ‘शुभ-संकल्प’ को ही शुभ नहीं मानते हैं बल्कि विश्व के सभी वस्तु को शुभ मानते हैं। जैसे कि ज्ञान, तर्कशक्ति, प्रतिभा, धैर्य, साहस, आत्मसंयम, सुख, स्वास्थ्य, सम्मान, धन, यश आदि सभी निश्चय ही कुछ परिस्थितियों में शुभ हैं।

शुभ के विषय में नीतिशास्त्रियों का कहना है कि शुभ किसी भी विषय के प्रति किसी व्यक्ति के अनुकूल व्यवहार का बोध होता है। नैतिक अर्थ में ‘शुभ’ सामान्य भाषा में व्यवहृत शुभ जैसा ही अर्थ रखता है। नीतिशास्त्र के अनुसार भी किसी वस्तु के प्रति अनुकूल आचरण या प्रवृति को शुभ कहा जाता है। यह हमारे आचरण के प्रति हमारी अनुकूल प्रवृति को जाग्रत करता है। उदाहरणस्वरूप ‘सत्य बोलना’ अनुकूल प्रवृति है तात्पर्य यह कि सत्य के प्रति व्यक्ति के हृदय में अनुकूल प्रवृति है अथवा सत्य व्यक्ति में अनुकूल प्रवृति को जाग्रत करता है।

आधुनिक नीतिशास्त्री मूर ने शुभ को एक सरल, अपरिभाषीय, आन्तरिक गुण माना हैं। मूर का मत है कि शुभ प्रत्यय की तुलना दूसरे प्रत्यय से नहीं की जा सकती।

मूर के अनुसार ‘शुभ’ ‘शुभ’ है। अर्थात ‘शुभ’ की परिभाषा नहीं दी जा सकती है। मूर ने ‘शुभ’ को अपरिभाष्य माना है, ‘शुभ’ वस्तु को नहीं। उनका मत है कि जिस वस्तु को हम शुभ कहते हैं उसकी परिभाषा की जा सकती है। इसका कारण यह है कि ‘शुभ’ के विपरीत ‘शुभ वस्तु’ का भिन्न-भिन्न भागों में विश्लेषण करके उसका वर्णन कर सकते हैं। परंतु ‘शुभ वस्तु’ की परिभाषा करने से ‘शुभ’ की परिभाषा नहीं दी जाती क्योंकि सरल तथा अविश्लेष्य गुण होने के कारण ‘शुभ’ ‘शुभ वस्तु’ से भिन्न है और इन दोनों को एक ही मान लेना अनुचित है। जब हम किसी वस्तु को ‘शुभ’ कहते हैं तो इसका अर्थ है कि वह वस्तु शुभ से भिन्न है तथा उस वस्तु में वह गुण है, जिसे शुभ कहते हैं। कुछ उदाहरणों के अनुसार मूर शुभ और सुख को अलग माना है। दोनों की परिभाषा नहीं दी जा सकती है। 

इसी आधार पर मूर ने सुखवाद, विकासवाद, आत्मपूर्णतावाद आदि उन सभी सिद्धांतों का खण्डन किया है, जो सुख, विकास, आत्मसिद्धी आदि के साथ शुभ का तादात्म्य स्थापित कर शुभ की परिभाषा देते हैं। जो सिद्धांत किसी अन्य वस्तु अथवा गुण तथा शुभ को एक मानकर ‘शुभ’ की परिभाषा देते हैं उनमें, मूर के मतानुसार एक विशेष दोष पाया जाता है। जिसे उन्होंने ‘प्रकृतिवादी दोष’ की संज्ञा दी है। किसी प्राकृतिक, दैवी अथवा आध्यात्मिक गुण के साथ ‘शुभ’ का तादात्मय स्थापित करना ही ‘प्रकृतिवादी दोष’ है। 

उदाहरणार्थ जब सुखवादी यह कहते हैं कि जो सुखद है वहीं शुभ है, तो उनकी इस परिभाषा में प्रकृतिवादी दोष आ जाता है। इसी प्रकार जब विकासवादी यह कहते हैं कि जो अधिक विकसित है वही शुभ है तो उनकी इस परिभाषा में दोष पाया जाता है। जब आत्मपूर्णतावादी शुभ और आत्मसिद्धि को एक मानक ‘शुभ’ की परिभाषा देते हैं तो उनकी परिभाषा में भी दोष होता है। इन उदाहरणों से प्रकृतिवादी दोष के स्वरूप को भली-भांति समझा जा सकता है। मूर को अंत:प्रज्ञा के द्वारा निप्राकृतिक गुण का साक्षात ज्ञान होता है। 

जब मूर शुभ को निप्राकृतिक गुण मानते है तब प्रकृतिवादी दोष होता है। संक्षेप में मूर का निष्कर्ष यह है कि ‘शुभ’ अविश्लेष्य, अनन्य तथा निप्राकृतिक गुण का बोधक है। मूर ‘उचित’ तथा ‘कर्तत्य’ को शुभ से भिन्न मानते हैं। इन दोनों की भिन्नता को स्पष्ट करते हुए उनहोंने लिखा है कि केवल वही कर्म हमारा ‘कर्त्तव्य’ है, जो ‘उचित’ अथवा नैतिक दृष्टि से स्वीकार्य है, ‘प्रिन्सापिया एथिका’ में मूर ने शुभ को ही नीतिशास्त्र का मूल प्रत्यय माना है और इसी के आधार पर ‘उचित’ एवं ‘कर्त्तव्य’ की परिभाषा दी है। वे किसी कर्म के शुभ परिणामों पर ही उसके औचित्य को निर्भर मानते हैं। 

अरस्तु और रॉस शुभ को एक परिणामित गुण मानते हैं और उसको शुभ वस्तु के अन्य गुणों से उस प्रकार स्वतंत्र नहीं मानते जैसा कि मूर मानते हैं, उनका विचार है कि सुख, ज्ञान, सद्गुण आदि किसी एक गुण के कारण सभी वस्तुओं को स्वत: साध्य शुभ नहीं माना जा सकता। 

मूर की भाँति रॉस भी कुछ मानवीय गुणों तथा अनुभवों को अपने आप में शुभ मानते हैं। उनका मत है कि सद्गुण सुख, कर्मानुसार प्रत्येक व्यक्ति को सुख-दु:ख की न्यायोचित प्राप्ति तथा ज्ञान, ये चारों अपने आप में शुभ है।

अशुभ के प्रकार

अशुभ के दो प्रकार है - 
  1. प्राकृतिक अशुभ 
  2. नैतिक अशुभ 
प्राकृतिक अशुभ उस अशुभ को कहते हैं जो प्रकृति में विद्यमान है। भूकम्प, बाढ़, मृत्यु, रोग, सॉप, बाघ, अभाव, अज्ञान इतयादि प्राकृतिक अशुभ के उदाहरण है। जो प्रकृति में विद्यमान है इसके अतिरिक्त विशाल मरूस्थल, तुफान, ज्वालामुखी, अकाल, सूखा, अग्नि, कोढ़ आदि को भी प्राकृतिक अशुभ के वर्ग रखा जाता है।

जब हम जीवन के विभिन्न अनुभवों पर दृष्टिपात करते हैं तो जीवन में अशुभ की प्रबलता पाते है। विश्व अशुभ के अधीन है। यदि अशुभ को विश्व का आवश्यक अंग कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अशुभ का अर्थ का अभाव है। मृत्यु अशुभ का उदाहरण है क्योंकि इसमें जीवन का अभाव है। इसी प्रकार पीड़ा, असत्य, पाप, निर्धनता आदि अशुभ है क्योंकि इनमें क्रमश: सुख, सत्य, सौन्दर्य, अच्छाई और धन का अभाव है।

विश्व में अशुभ की व्यापकता का हम अनुभव करते हैं। इस विश्व में असंख्य प्राणी, रोते तथा नष्ट होते रहते हैं। यह जीवन एक ऐसी कहानी है जिसकी रचना संभवत: शैतान ने की है। मानव को जीवन के संघर्ष के क्रम में अनेक प्रकार की यातनायें सहनी पड़ती है। 

टेनिसन के अनुसार प्रकृति के नख और दाँत रक्त रंजित है। मिल के कथनानुसार जिन कार्यों से मानव को मृत्यु-दण्ड तथा आजीवन कारावास दिया जाता है, वे प्रकृति के दैनिक कार्य के अंग हैं। उन्होंने रोगों से परिपूर्ण अस्पताल, अपराधियों से भरे कारागार, मृतक शरीर से परिपूर्ण रणक्षेत्र, महामारी से पीड़ित राष्ट्र, अन्याय, अत्याचार को अशुभ के प्रमुख उदाहरण माना है। जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने विश्व को बुराईयों तथा खराबियों से युक्त माना है। मानवीय जीवन अतृप्त आंकाक्षाओं तथा इच्छाओं की लाश है। यह निकृष्टतम जगत है:- जीवन एक धोखा है। 

प्रो0 डी0 एम0 एडवर्ड ने अशुभ के चार प्रकार बतायें हैं - पीड़ा, असत्य, कुरूपता और आशिव (पाप)

कुछ विचारकों ने अशुभ के निम्नलिखित तीन प्रकार बताये हैं - (1) भौतिक अशुभ (2) आध्यात्मिक अशुभ (3) नैतिक अशुभ : मृत्यु रोग, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प आदि भैतिक अशुभ है, असंतोष और अशांति को आध्यात्मिक अशुभ और चारी, पाप, झुठ, दुराचार आदि नैतिक अशुभ है। अधिकांश विचारक अशुभ के प्राकृतिक और नैतिक दो ही भेद मानते हैं। 

ह्यूम के अनुसार निम्नलिखित चार परिस्थितियों अशुभ को प्रकट करती है- 
  1. प्राणियों की आत्मरक्षा की भावना को उत्तेजित करने वाली सुख-दु:ख की अनुभूति। 
  2. प्रकृति की एकरूपता और नियमबद्धता। 
  3. प्रकृति द्वारा प्रदत्त शक्तियों की सीमितता।
  4. प्रकृति अनियंत्रण की अपूर्ण रचना।
ह्यूम का यह भी मानना है कि यदि प्राणी दु:ख का अनुभव करने में असमर्थ होता तो उत्पन्न ही न होता, ईश्वर चाहता तो अशुभ की इन परिस्थितियों को दूर कर सकता था। 

अशुभ की उत्पत्ति क्यों और कैसे हुई ? 

अशुभ दूर किया जा सकता है या नहीं इस संबंध में विद्वानों के अनेक प्रकार के विचार है जिन्हें आशावादी, निराशावादी और सुधारवारदी कहते है, इस संदर्भ में निम्नलिखित विचार व्यक्त किए जाते हैं। 

1. अशुभ का अस्तित्व ही नहीं है - आशावादी : इस प्रकार विचारक अशुभ का अस्तित्व ही नहीं मानते हैं उनका मत है कि जिसे हम अशुभ कहते हैं, वह मूलत: शुभ ही है। प्लाटिनस ने कहा है कि ‘‘अशुभ की अपनी कोई सत्ता नहीं है क्योंकि संसार की सभी वस्तुएँ ईश्वर की प्रतिलिपि है, जो प्रतिलिपि मूल से जितनी दूर हो जाती है वह उतनी ही अशुभ हो जाती है वस्तुत: अशुभ की अपनी कोई सत्ता नहीं है यह केवल ईश्वर से दूर होना है।’’

संत अगस्टाइेन के अनुसार अशुभ कोई भावात्मक वस्तु नहीं है, बल्कि यह शुभ का अभाव मात्र है, ईश्वर परमशुभ है, यह जगत ईश्वर की अभिव्यक्ति है पर संसार की अपूर्णता के कारण अशुभ अपरिहार्य है।

लाइबनीज का कहना है कि इस विशाल सृष्टि की रचना किसी महान उद्देश्य से की गयी है, इसके किसी अंश विशेष के आधार पर सम्पूर्ण सृष्टि के विषय में निर्णय नहीं दे सकते है। अशुभ मानव की अपूर्ण दृष्टि का परिणाम है, अशुभ मानव के लिए शुभ होता हैं प्रत्ययवादी दार्शनिक हेगल अशुभ को अपूर्ण शुभ बताते हैं आंशिक रूप में कोई वस्तु असंगत और अशुभ दिखाई देगी, जबकि वही वस्तु पूर्ण रूप से संगत और शुभ होगी। 

ब्रैडले का विचार है कि परमसत्ता समस्त वस्तुओं की सामंजस्यपूर्ण समष्टि है और परमसत्ता की परिपूर्णता के लिए सभी वस्तुएँ शुभ-अशुभ समेत आवश्यक है। आंशिक दृष्टि से कोई वस्तु अशुभ प्रतीत होती है, जबकि समष्टि रूप में अशुभ नहीं होती है। आचार्य शंकर अशुभ को अस्तित्व ही नहीं मानते है, इसकी सत्ता भ्रमजन्य है अज्ञान के कारण है, ब्रह्म का ही अस्तित्व है।

आलोचना : आशावादी मत का सम्यक परीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि यह मत सामान्य अनुभव के विपरीत है क्योंकि मानव जीवन में अधिकांश अशुभ का ही साम्राज्य है, धर्म और नैतिकता अशुभ को मानव जीवन से हटाने की बात करती है, यदि अशुभ का अस्तित्व ही नहीं है, तो उसे हटाने का क्या अर्थ होगा ? किसी भूख से व्याकुल व्यक्ति को रोटी राहत पहुँचाती है न कि भुख। दु:खियों ने जितने आँसू बहाये हैं वह समस्त सागर के जल से अधिक है, इसलिए महात्मा बुद्ध ने कहा था कि संसार में सब कुछ दु:ख पूर्ण है। दु:ख (अशुभ) दूनिया की एक बहुत बड़ी सच्चाई है इसे नकारा नहीं जा सकता है। दु:ख या अशुभ दूर करने के लिए ईश्वर अवतार लेता हैं उसी व्यक्ति को हम अच्छा कहते हैं जो दूसरों का दु:ख दूर करता है। 

स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - ‘‘मैं उस धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं करता हूँ जो न विधवाओं के आँसू पोंछता है और न अनाथ बच्चों के मुँह में रोटी का एक टुकड़ा डालता है।’’

2. अशुभ जीव के मूल में है और शाश्वत है - निराशावादी : जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर को इस मत का प्रमुख समर्थक माना जाता है नीत्शे और स्नेन्सर भी इसी मत के अनुयायी हैं। शोपेनहावर के अनुसार यह जीवन असंतुष्ट इच्छाओं और दु:खों से परिपूर्ण है, निरंतर संघर्ष करते रहने के बाद भी न तो इच्छाएँ पूरी होती है और न जीवन शक्तियाँ हमें हमेशा अपना शिकार बनाती रहती है। 

आलोचना : शोपेनहावर का यह कथन कि संसार दू:खों से परिपूर्ण है, एकांगी है, क्योंकि संसार में दू:ख है तो सुख भी है, हमारी इच्छाओं की सकारात्मक दिशा में प्रयास करने से पूर्ति भी हाती है और व्यक्ति को सुख भी प्राप्त होता है। यदि हम नकारात्मक दृष्टि से जगत को देखते हैं तो संसार हमे अशुभ या दु:ख से पूर्ण दिखायी देता है और यदि सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं तो संसार शुभ या आनंददायक दिखाई देता है। 

जैसे- कृष्ण के वियोग में गोपियों को ‘‘पिया विनु नागिन कारी रात’’ लगती है और एक नवदम्पति के लिए रात खत्म न हो तो अच्छा है।

3. अशुभ के बिना उच्चतर नैतिकता का विकास संभव नहीं - सुधारवादी सुधारवादी विचारकों के अनुसार अशुभ के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है, उसमें सुधार करके शुभ के रूप में विकसित किया जा सकता है, संसार निरंतर विकासशील है।

यहाँ पर न तो कोई वस्तु पूर्णत: शुभ है और न पूर्णत: अशुभ अपितु उत्तरोतर विकासमान है। जैसे व्यक्ति मैला, कूड़ा-कचड़ा आदि से खाद बना सकता है उसी प्रकार अशुभ कहीं जाने वाली वस्तु या परिस्थिति में सुधार करके उसे शुभ की और विकसित किया जा सकता है। 

इस मत की आलोचना में जे0एस0 मिल एवं जॉन केयर्ड आदि लिखते हैं इसमें शुभ और अशुभ के बीच भेद का कोई स्पष्ट अनुपात नहीं बताया गया। इससे हम यह नहीं कह सकते कि अशुभ से शुभ का उदय हो सकता है।

अशुभ संबंधी तीनों मतों का विवेचना करने के पश्चात यह स्पष्ट होता है कि आशावादी दृष्टिकोण ही अधिक उपयुक्त और मानव जीवन के लिए सहयोगी। सिद्ध होता है। आशावाद ही मानव जीवन का आधार है क्योंकि हमें यह ज्ञात होता है कि हमारी एक-न-एक दिन मृत्यु अवश्य होगी, लेकिन इसके बाद भी हम अपने आशावादी दृष्टिकोण के कारण निष्क्रिय न होकर जीवन विकास के साधन तैयार करते हैं। मानव शुभ चाहता है उसी के लिए प्रयास करता है, अशुभ उसके जीवन में तब उत्पन्न होता है जब उससे शुभ किसी प्रकार से छीन लिया जाता है, जैसे हम किसी व्यक्ति से बेहद प्यार करते हैं यदि बीच में मृत्यु उसे हमसे छीन लेती है यह घटना हमारे लिए अशुभ होती है। इस प्रकार अशुभ एक प्रकार के शुभ का अभाव है, अशुभ मानव जीवन शुभ के अभाव के रूप में आता है लेकिन फिर भी हम शुभ चाहते हैं।

अशुभ अपने निषेधात्मक या अभावात्मक रूप मानव जीवन प्रेरणादायक या शुभ क महत्व को बताते हैं यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है जब तक हम अभाव, अशुभ या दु:ख दैत्य से नहीं गुजरते हैं तब तक शुभ या सुख का वास्तविक आनंद नहीं मिलता है जैसे जोरों की भूख लगने पर भोजन का महत्व हमारी समझ में आता है उसी प्रकार अशुभ अपने अभावात्मक रूप में हमें शुभ का महत्व समझाते हैं अशुभ का मानव जीवन में वही स्थान है जो डेकार्ट के दर्शन संशय का है, संशय साध्य नहीं अपितु साधन है उसी प्रकार अशुभ, मानव जीवन शुभत्व का एक साधन है।

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