स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय और शैक्षिक विचार

स्वामी विवेकानंद का जन्म कलकत्ता के एक बंगाली कायस्थ परिवार में 12 जनवरी, 1863 को हुआ था। इनका वास्तविक नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ते के उच्च न्यायालय में एटर्नी (वकील) थे। वे बड़े बुद्धिमान, ज्ञानी, उदार, परोपकारी एवं गरीबों की रक्षा करने वाले थे। स्वामी जी की माँ श्रीमती भुवनेश्वर देवी भी बड़ी बुद्धिमती, गुणवती, धर्मपरायण एवं परोपकारी थीं। स्वामी जी पर इनका अमिट प्रभाव पड़ा। ये बचपन से ही पूजा-पाठ में रुचि लेते थे और ध्यानमग्न हो जाते थे। इनकी इसी प्रवृत्ति ने आगे चलकर इन्हें नरेंद्रनाथ से स्वामी विवेकानंद बना दिया।

नरेंद्रनाथ की शिक्षा का आरंभ इनके अपने घर पर ही हुआ। ये बड़े कुशाग्र बुद्धि और चंचल स्वभाव के बालक थे। सात वर्ष की आयु तक इन्होंने पूरा व्याकरण रट डाला था। सात वर्ष की अवस्था में इन्हें मेट्रोपोलिटन काॅलिज में भर्ती किया गया। इस विद्यालय में इन्होंने पढ़ने-लिखने के साथ-साथ खेल-कूद, व्यायाम, संगीत और नाटक में रुचि ली और इन सभी क्षेत्रों में ये आगे रहे। 16 वर्ष की आयु में इन्होंने मैट्रीकुलेशन (हाईस्कूल) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। इसके बाद इन्होंने पे्रसीडेंसी काॅलेज में प्रवेश लिया और उसके बाद जनरल एसेम्बलीज इन्स्टीट्यूशन में पढ़ने लगे। इस समय इन्होंने काॅलेज के पाठ्य विषयों के अध्ययन के साथ-साथ साहित्य, दर्शन और धर्म का भी अध्ययन किया। इस क्षेत्र में इन्हें अपने माता-पिता और अध्यापकों से बड़ा सहयोग मिला। 

अध्ययनशील नरेंद्रनाथ दत्त का जीवन बड़ा संयमी था ये ब्रह्मचर्य का पालन करते थे और प्रार्थना, उपासना और ध्यान में मग्न रहते थे। ज्ञान के प्रकाश और आध्यात्मिक तेज से गौर वर्ण के सुंदर युवक का चेहरा और अधिक प्रदीप्त हो उठा था। नवम्बर 

1881 में इन्हें कलकत्ता में ही स्थित दक्षिणेश्वर के मंदिर में जाने और श्री रामकृष्ण परमहंस के दर्शन करने का सौभाग्य मिला। परमहंस इनकी आभा से प्रभावित हुए, परंतु एपफ.ए. (इंटर) की परीक्षा की तैयारी में लग जाने के कारण नरेंद्र नाथ बहुत दिनों तक उनके पास न जा पाए। नरेंद्र नाथ ने एफ.ए. पास कर बी.ए. में प्रवेश लिया। इसी बीच इन्होंने परमहंस का सत्संग किया। इस सत्संग का यह प्रंभाव हुआ कि नरेंद्र नाथ गृहस्थ जीवन में नहीं बँधे। 1884 में इन्होंने बी.ए. पास किया। उसी वर्ष इनके पिता का स्वर्गवास हो गया। यूँ तो इनके पिता बहुत पैसा कमाते थे परंतु ये खर्च भी बहुत उदारता से करते थे। परिणामतः उनके पास बचता कुछ नहीं था। जब उनका स्वर्गवास हुआ तो घर में पैसा नहीं था। अब नरेंद्रनाथ को अपनी माँ और बहिनों के भरण-पोषण के लिए आर्थिक क्षेत्र में कार्य करना पड़ा। संपन्न परिवार में जन्मे और पले इस युवक को विपन्नता का सामना करना पड़ा। इस समय इन्होंने अनुभव किया कि निर्धनता दुख की जननी है। 

1886 में श्री परमहंस का भी महाप्रस्थान हो गया। महाप्रस्थान करने से तीन दिन पूर्व परमहंस ने नरेंद्रनाथ को अपना उत्तराधिकार देते हुए कहा था‘आज अपना सब कुछ तुम्हें देकर मैं रंक बन गया हूँ। मैंने योग द्वारा जिस शक्ति को तुम्हारे अंदर प्रविष्ट किया है, उससे तुम अपने जीवन में महान कार्य करोगे। अपने इस कार्य को पूर्ण करने के बाद ही तुम वहाँ जाओगे जहाँ से आये हो।’ गुरु के महाप्रस्थान के बाद ये उनकी शिक्षाओं के प्रचार एवं प्रसार कार्य में लग गए। पहले वर्ष इनका कार्य क्षेत्र कलकत्ता ही रहा। इसके बाद 1888 में ये परिव्राजक के रूप में भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े। ये काशी, अयोध्या, लखनउ, आगरा, मथुरा, वृंदावन और हाथरस होते हुए हिमालय पहुँचे। इस यात्रा में ये प्रायः पैदल ही चले और परमहंस रामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रचार एवं प्रसार करते रहे। 

1891 में इन्होंने राजस्थान की यात्रा की और 1892 में दक्षिण भारत की यात्रा की। इस यात्रा में इन्होंने भारत की नंगी तस्वीर देखी और उसकी आत्मिक एकता की अनुभूति की। दक्षिण भारत की यात्रा के अंतिम चरण में ये कन्याकुमारी पहुँचे। यहाँ के मंदिर में इन्होंने देवी के दर्शन किए और पिफर समुद्र में कूदकर तैरते हुए एक पास की चट्टान पर जा पहुँचे और वहाँ तपस्या में समाधिस्थ हो गए। यहाँ इन्हें एक दिव्य अनुभूति हुई। यहाँ इन्होंने देश सेवा, दीन-हीन, दलित और अपेक्षित भारतीय जनता के कल्याण का व्रत लिया। यहाँ से ये मद्रास पहुँचे। मद्रास में इन्होंने कई स्थानों पर वेदांत पर विद्वतापूर्ण व्याख्यान दिए। यहाँ के लोग इनसे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अमेरिका में होने वाले विश्व धर्म सम्मेलन में भेजने के लिए मार्ग व्यय एकत्रित किया। उनके आग्रह पर इन्होंने अमेरिका जाना स्वीकार किया। 

अमेरिका जाने से पहले इन्होंने अपना नाम विवेकानंद रखा और सितंबर, 1893 में इन्होंने इस सम्मेलन में भाग लिया। यहाँ इन्होंने संसार को भारतीय धर्म और दर्शन से परिचित कराया। विश्व के विद्वान इनकी विद्वता से प्रभावित हुए। अमेरिकी जनसमूह इनके पीछे दौड़ने लगा। अनुकूल परिस्थितियाँ पाकर ये तीन वर्ष अमेरिका रुके और वहाँ वेदांत का प्रचार किया। इस बीच इनकी अनेक पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ। 

1897 में ये इंग्लैंड गए और अनेक स्थानों पर भाषण दिए और वेदांत का प्रचार किया। इंग्लैंड से इटली, स्विट्जरलैंड, जर्मनी और प्रफांस गए और इन देशों में वेदांत पर व्याख्यान दिए। यहाँ से ये पुनः इंग्लैंड गए और वहाँ वेदांत का प्रचार किया। तब ये भारत लौटे। इंग्लैंड से भारत लौटकर इन्होंने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य न केवल वेदांत का प्रचार था, अपितु दीन-हीनों की सेवा के लिए शिक्षा संस्थाएँ और चिकित्सालय खोलना भी था। स्वामी जी चाहते थे कि इनके अनुयायी गाँव-गाँव जाकर शिक्षा का प्रचार करें अज्ञान के अंधकार को दूर करें। इसी समय इन्होंने कलकत्ता स्थित बेल्लूर में एक मठ का निर्माण कराया जो 1899 के आरंभ से रामकृष्ण के अनुयायियों का स्थायी केंद्र बन गया। थोड़े ही दिनों बाद इन्होंने हिमालय में अल्मोड़े से 75 किमी. की दूरी पर अद्वैत आश्रम के नाम से एक दूसरे मठ का निर्माण कराया। इन कार्यों से निवृत्त होकर स्वामी जी 1899 में पुनः अमेरिका गए। ये वहाँ लगभग एक वर्ष तक रहे और राज योग तथा साधन की शिक्षा देते रहे। 1900 में स्वामी जी अमेरिका से प्रफांस पहुँचे। यहाँ इन्होंने ‘पेरिस विश्व धर्म इतिहास सम्मेलन’ में भाग लिया। प्रफांस से ये इटली और ग्रीस होते हुए उसी वर्ष भारत लौट आए। अब ये कुछ अस्वस्थ रहने लगे। परंतु अस्वस्थ रहते हुए भी ये धर्म प्रचार, समाज सेवा और जन जागरण के कार्यों में लगे रहे। 

1887 से 1901 के बीच स्वामी जी ने अनेक ग्रंथों की रचना भी की। इनमें ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग, राज योग, पे्रम योग, धर्म विज्ञान, ¯हदू धर्म, व्यावहारिक जीवन में वेदांत, प्राच्य और पाश्चात्य, मेरे गुरुदेव, धर्म रहस्य, हमारा भारत, वर्तमान भारत और शिक्षा मुख्य हैं। अब इनके पूरे साहित्य और मुख्य भाषणों को ‘विवेकानंद साहित्य’ के नाम से दस खंडों में प्रकाशित किया गया है। परंतु विधि का विधान, इस युग पुरुष ने 39 वर्ष की अल्प आयु में ही 4 जुलाई, 1902 को निर्वाण प्राप्त किया।

स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक विचार

स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन आदर्शवाद के साथ-साथ मानवतावाद के दर्शन पर आधारित था। स्वामी विवेकानंद ने समकालीन शिक्षा पद्धति की मानवतावादी दृष्टिकोण से आलाचे ना की। वह एक मानवतावादी थे तथा उन्हानें  मनुष्य के लिए शिक्षा की वकालत की। उनके अनुसार, शिक्षा का कार्य हमारे मस्तिष्क में विद्यमान ज्ञान को उजागर करना है। 

स्वामी विवेकानंद का शैक्षिक विचार निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है:
  1. समकालीन शिक्षा व्यवस्था के विपरीत, स्वामी विवेकानंद ने आत्मविकास हेतु शिक्षा की वकालत की। उन्होंने आत्मविकास हेतु ब्रह्मचर्य का सुझाव दिया।
  2. स्वधर्म की पूर्ति शिक्षा का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है। इसके द्वारा, स्वामीजी ने सुझाव दिया कि दूसरों की नकल करने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं द्वारा विकास करना चाहिए। प्रत्येक बच्चे को उसकी आंतरिक प्रकृति के अनुसार विकास के अवसर दिए जाने चाहिए।
  3. उन्होंने चरित्र निर्माण की वकालत की जो शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। उन्होंने कठिन परिश्रम, गुरुकुल शिक्षा पद्धति के अनुकरण हेतु नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को उत्पन्न करने, अच्छी आदतों के निर्माण, अपनी भूल से सीखना आदि को चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा की आवश्यकता के रूप में सुझाव दिया।
  4. आत्मविश्वास, मानव सेवा, साहस, सत्य की अनुभूति, मानव व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास, विविधता में एकता आदि शिक्षा के लक्ष्य थे।
  5. स्वामीजी ने यह स्वीकार किया कि व्यक्ति के प्रयास के सभी पक्षों में उत्कृष्टता या पूर्णता शिक्षा का महान धर्म है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार शिक्षा की परिभाषा

स्वामी विवेकानंद के अनुसार शिक्षा की परिभाषा अर्थात “शिक्षा मनुष्य के अंदर पहले से विद्यमान दैवीय पूर्णता की अभिव्यक्ति है”, स्वामी विवेकानंद की शैक्षिक अवधारणा को प्रतिबिम्बित करता है। उनके अनुसार, शिक्षा व्यक्ति में पहले से विद्यमान शक्ति, बुद्धि, योग्यताओं तथा संभावनाओं की अभिव्यक्ति में सहायता करती है जिसे उसने सर्वशक्तिमान या ईश्वर से प्राप्त किया है। वह दृढ़तापूर्वक विश्वास करते थे कि ज्ञान मनुष्य के मस्तिष्क में विद्यमान होता है जिसे व्यक्ति स्वयं के प्रयासों से उजागर तथा विकसित करता है।

पाठ्यचर्या तथा शिक्षण विधियाँ

स्वामीजी ने शिक्षा में एक व्यापक पाठ्यचर्या की अवधारणा का सुझाव दिया। शिक्षा का लक्ष्य बच्चे के आध्यात्मिक एवं भौतिक जीवन का विकास होना चाहिए। उन्होंने पाठ्यचर्या में उन सभी विषयों एवं गतिविधियों के समावेशन की वकालत की जो भौतिक कल्याण के साथ आध्यात्मिक उन्नति को पोषित करते हैं। स्वामीजी ने धर्म, दर्शन, महाकाव्य, उपनिषद आदि को पाठ्यचर्या के भाग के रूप में परामर्श दिया। 

इनके अतिरिक्त, उन्होंने पाठ्यचर्या में भाषा, भूगोल, विज्ञान, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, कला, कृषि, औद्योगिक एवं तकनीकी विषयों के साथ खेल जैसे विषयों को सम्मिलित करने की अनुशंसा की।

स्वामीजी ने ब्रह्मचर्य, आध्यात्म, ध्यान, एकाग्रता आदि को मूलभूत शिक्षण विधियों के रूप में सुझाया। उन्होंने, योगाभ्यास, व्याख्यान, विमर्श, स्वानुभव तथा रचनात्मक गतिविधियों को भी शिक्षण विधियों के रूप में सुझाया।

अनुशासन, विद्यार्थी तथा शिक्षक की अवधारणा

स्वामीजी स्व-अनुशासन के समर्थक थे बाह्य या दूसरों द्वारा थोपे गए अनुशासन के विरुद्ध थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य तथा ध्यान के माध्यम से मानव अनुशासन की वकालत की। उनका मानना था कि आत्मबोध या स्वयं का बोध ही वास्तविक मार्ग है। उनके अनुसार, एक बच्चा सभी प्रकार के ज्ञान का भंडार होता है। एक पौधे की तरह, बच्चा स्वयं को विकसित करता है। उन्होंने बच्चे की स्वाभाविक तथा निर्बाध (सहज) विकास में सहायता करने की वकालत की। शिक्षक की भूमिका बच्चे के स्वाभाविक तरीके से विकास एवं जीवन में सहायता करती है। उनके लिए, शिक्षक वह है जो योग, ध्यान तथा ब्रह्मचर्य का अभ्यास करता है। 

जब तक एक शिक्षक अध्यात्म की प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानता/जानती है वह बच्चे को आध्यात्मिक के विकास के लिए नहीं पढ़ा सकता। स्वामी जी ने शिक्षक को “एक दार्शनिक, मित्र तथा बच्चे को स्वयं की दिशा में गमन की सहायता के लिए निर्देशक के रूप में परिभाषित किया है।

स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन आदर्शवाद के साथ-साथ मानवतावाद के दर्शन पर आधारित था। स्वामी विवेकानंद ने समकालीन शिक्षा पद्धति की मानवतावादी दृष्टिकोण से आलोचना की। वह एक मानवतावादी थे तथा उन्हानें मनुष्य के लिए शिक्षा की वकालत की। उनके अनुसार, शिक्षा का कार्य हमारे मस्तिष्क में विद्यमान ज्ञान को उजागर करना है। 

स्वामी विवेकानंद का शैक्षिक विचार निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है:
  1. समकालीन शिक्षा व्यवस्था के विपरीत, स्वामी विवेकानंद ने आत्मविकास हेतु शिक्षा की वकालत की। उन्होंने आत्मविकास हेतु ब्रह्मचर्य का सुझाव दिया।
  2. स्वधर्म की पूर्ति शिक्षा का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है। इसके द्वारा, स्वामीजी ने सुझाव दिया कि दूसरों की नकल करने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं द्वारा विकास करना चाहिए। प्रत्येक बच्चे को उसकी आंतरिक प्रकृति के अनुसार विकास के अवसर दिए जाने चाहिए।
  3. उन्होंने चरित्र निर्माण की वकालत की जो शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। उन्होंने कठिन परिश्रम, गुरुकुल शिक्षा पद्धति के अनुकरण हेतु नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को उत्पन्न करने, अच्छी आदतों के निर्माण, अपनी भूल से सीखना आदि को चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा की आवश्यकता के रूप में सुझाव दिया।
  4. आत्मविश्वास, मानव सेवा, साहस, सत्य की अनुभूति, मानव व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास, विविधता में एकता आदि शिक्षा के लक्ष्य थे।
  5. स्वामीजी ने यह स्वीकार किया कि व्यक्ति के प्रयास के सभी पक्षों में उत्कृष्टता या पूर्णता शिक्षा का महान धर्म है।

पाठ्यचर्या तथा शिक्षण विधियाँ

स्वामीजी ने शिक्षा में एक व्यापक पाठ्यचर्या की अवधारणा का सुझाव दिया। शिक्षा का लक्ष्य बच्चे के आध्यात्मिक एवं भौतिक जीवन का विकास होना चाहिए। उन्होंने पाठ्यचर्या में उन सभी विषयों एवं गतिविधियों के समावेशन की वकालत की जो भौतिक कल्याण के साथ आध्यात्मिक उन्नति को पोषित करते हैं। स्वामीजी ने धर्म, दर्शन, महाकाव्य, उपनिषद आदि को पाठ्यचर्या के भाग के रूप में परामर्श दिया। इनके अतिरिक्त, उन्होंने पाठ्यचर्या में भाषा, भूगोल, विज्ञान, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, कला, कृषि, औद्योगिक एवं तकनीकी विषयों के साथ खेल जैसे विषयों को सम्मिलित करने की अनुशंसा की।

स्वामीजी ने ब्रह्मचर्य, आध्यात्म, ध्यान, एकाग्रता आदि को मूलभूत शिक्षण विधियों के रूप में सुझाया। उन्होंने, योगाभ्यास, व्याख्यान, विमर्श, स्वानुभव तथा रचनात्मक गतिविधियों को भी शिक्षण विधियों के रूप में सुझाया।

अनुशासन, विद्यार्थी तथा शिक्षक की अवधारणा

स्वामीजी स्व-अनुशासन के समर्थक थे बाह्य या दूसरों द्वारा थोपे गए अनुशासन के विरुद्ध थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य तथा ध्यान के माध्यम से मानव अनुशासन की वकालत की। उनका मानना था कि आत्मबोध या स्वयं का बोध ही वास्तविक मार्ग है। उनके अनुसार, एक बच्चा सभी प्रकार के ज्ञान का भंडार होता है। एक पौधे की तरह, बच्चा स्वयं को विकसित करता है। उन्होंने बच्चे की स्वाभाविक तथा निर्बाध (सहज) विकास में सहायता करने की वकालत की। 

शिक्षक की भूमिका बच्चे के स्वाभाविक तरीके से विकास एवं जीवन में सहायता करती है। उनके लिए, शिक्षक वह है जो योग, ध्यान तथा ब्रह्मचर्य का अभ्यास करता है। जब तक एक शिक्षक आध्यात्म की प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानता/जानती है वह बच्चे को आध्यात्मिक के विकास के लिए नहीं पढ़ा सकता। 

स्वामीजी ने शिक्षक को “एक दार्शनिक, मित्र तथा बच्चे को स्वयं की दिशा में गमन की सहायता के लिए निर्देशक के रूप में परिभाषित किया है।

संदर्भ -
  1. शिक्षा के दार्शनिक और सामाजिक आधार, माथुर, एस.एस., विनोद पुस्तक मंदिर।
  2. शिक्षा के दार्शनिक आधार, शर्मा, ओ.पी.।
  3. शिक्षा के दार्शनिक आधार, पांडेय, रामशकल।
  4. शिक्षा का समाजशास्त्री आधर, चौबे, एस.पी., इंटरनेशनल बुक्स, मेरठ।
  5. शिक्षा के दार्शनिक आधार, शर्मा, डाॅ. एन.के.।

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