ऋग्वेद संहिता का सामान्य परिचय

भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद हैं। जीवन, जगत और ईश्वर का यर्थाथ ज्ञान वेद ही है। वेद शब्द ‘विद्-धात’ु से निष्पन्न होकर बना है, जो ज्ञान रूपी महान लाभ को देता है। जिसका अर्थ-ज्ञान का समूह है। डॉ0राधाकृश्णन् के अनुसार-वेद वस्तुत: मानव मस्तिष्क के प्राचीनतम अभिलेख हैं। वेदों का अध्ययन केवल धर्म-कर्म की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि आर्यों की मूल भाषा, प्राचीन सभ्यता, मानव इतिहास इत्यादि विषयों का पता लगाने के लिए आवश्यक है। 

भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा वेदों के दिब्य प्रकाश से अवलोकित रही है। अनादि काल से ही वेद हिन्दू धर्म एवं दर्शन का आधार रहा है।

ऐतिहासिक दृष्टि से वेद सभ्यता के एक प्राचीन युग का दर्पण है। विश्व के अनेक विद्वानों, भाषा वैज्ञानिकों ने इसके भव्य स्वरूप का अध्ययन किया। वेद महर्षियों के द्वारा अनुभूत तत्त्वों के साक्षात् प्रतिपादक हिन्दू धर्म के सर्वस्व एवं भारतवर्ष की निष्ठा के मूल स्रोत है। हिन्दू धर्म के विकास का निरूपण वेदों के अध्ययन से सम्भव है। आर्य भाषा के मूल स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने में वेदों की भाषा सर्वथा सक्षम है। 

प्राचीन भारतीय आचार्य आपस्तम्ब के अनुसार-मन्त्र एवं ब्रह्मणात्मक शब्द राषि ही वेद है। यज्ञों का अनुष्ठान और उसमें उल्लेखित देवों की स्तुति का विधान करने वाले वेद वाक्य मन्त्र हैं तथा वेद के व्याख्यान स्वरूप अंष ब्राह्मण हैं।

वेद शब्द किसी ग्रन्थ विषेश का बोधक न होकर विपुल ज्ञान राशि के लिए प्रयुक्त होता है। आपस्तम्ब के द्वारा की गयी वेद की परिभाषा केवल कर्मकाण्ड तक ही सीमित है पाश्चात्य विद्वानों ने भाषा के आधार पर वैदिक भाषा में लिखे समस्त साहित्य केा वैदिक नाम से अभिहित किया है। विद् धातु से निष्पन्न वेद का अर्थ है-परम ज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान। जिन ग्रन्थों में ज्ञान का संचयन हुआ, उन्हें वेद कहा गया। भारतीय विचार धारा के अनुसार वेद ईष्वर प्रकाशित या अपौरुषेय हैं। वेद इतिहास ग्रन्थ नहीं है -

वेदों को इतिहास ग्रन्थ न मानने वालों ने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। ऐसा ही एक ग्रन्थ ‘वैदिक इतिहास विमर्श’ है। इस ग्रन्थ में सभी व्यक्तिवाचक पदों का और वैदिक इतिहास का निराकरण किया गया है। वेद में व्यक्ति-विषेश के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है। इसमें सभी पद यौगिक हैं।

अंगिरस, इन्द्र, विश्वामित्र आदि पदों को देखकर कुछ लोग वेदों में व्यक्ति वाचक इतिहास की कल्पना कर लेते हैं, परन्तु यह सर्वथा निरर्थक तथ्य है। यहां ‘अंगिरा’ और ‘इन्द्र’ आदि शब्दों के साथ ‘तमम् प्रत्यय करके अंगिरस्तम, इन्द्रतम आदि पद प्रयुक्त किये गये हैं, जिनका अर्थ होता है, अत्यन्त अंगिरा और अत्यन्त इन्द्र। इसे विशेषण भी कहा जा सकता है।

विश्वामित्र सूर्य को कहा जाता है। वह सर्व मित्र है अथवा विश्व के मित्र है। इस प्रकार जो पद व्यक्तिवाची प्रकट होते हैं, वे वास्तव में यौगिक शब्द हैं। यजुर्वेद में विश्वामित्र, जमदग्नि, वशिष्ठ, भारद्वाज आदि नाम इन्द्रियों के लिए प्रयोग हुए हैं। वेदों में नदी और पर्वतों आदि के नाम भी यौगिक हैं। उन्हें व्यक्तिवाचक कहना भारी भूल होगी। 

सिद्धान्त-रुप से इस प्रकार समझना चाहिए कि वेदों में इन्हीं शब्दों के आधार पर बाद में व्यक्तिवाचक नाम रखे गये थे, न कि इन नामों को वेदों में प्रयुक्त किया गया था।

वेद की परिभाषा

भारतीय विद्वानों के अनुसार वेद की परिभाषा

सायणाचार्य - वेदों के प्राचीन भाश्यकार, वेद वे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जिनमें इच्छित पदाथोर्ं की प्राप्ति और अनिष्टकारी सम्भावनाओं से सुरक्षित रहने के दिव्य उपाय बताये गये हैं। जैसे इस भौतिक जगत को देखने के लिए नेत्रों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार दिव्य तत्त्वों को जानने और समझने के लिए वेदरुपी नेत्रों की आवश्यकता होती है।

महर्षि दयानन्द के अनुसार -‘वेद ज्ञान-विज्ञान के भण्डार हैं। सभी सत्य विद्याओं का मूल वेदों में विद्यमान है। वेद वह ज्ञान है जिससे जीवन में सभी को महान लाभ प्राप्त होता है। यह महान लाभ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में प्राप्त होता है। वेदों से ईश्वर, जीव और प्रकृति का सम्यक् बोध होता है।’

महर्षि दयानन्द ने वेदों के विषय में लिखते समय कहा था कि वेद में किसी व्यक्ति विषेश का इतिहास या किसी प्रकार की कपोलकल्पित नहीं हैं। वेदों में ईश्वरीय ज्ञान के स्वत: प्रमाण हैं। वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे सभी शब्द यौगिक हैं। वेद की वाणी नित्य है। वेद परमकारूणिक, सर्वज्ञ, सर्वषक्तिमान् भगवान की वाणी है। ज्ञान और देववाणी से संयुक्त वेद प्रत्येक कल्प के प्रारम्भ में ऋशियों के चिन्तन से जन्म लेते हैं। 

वेद का ज्ञान अनन्त है, क्योंकि यह ईष्वरीय ज्ञान है। अर्थात् जितना व्यापक ब्रह्म है अथवा आकाश है, उतनी ही यह वाणी है।

अथर्ववेद में एक मन्त्र आया है -
यावद् ब्रह्म विश्ठितं तावती वाक्।
अहं विवेच पृथ्वीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त साकम्। 
अहं सत्यमनृतं यद् वहाम्यहं दैवीं परिवाचं विशष्च।।
अर्थात् हे मनुष्यों ! मैं परमात्मा ही पृथ्वी और द्युलोक का भेद उत्पन्न करने वाला हूँ। मैं ही सातों ऋतुओं अथवा सातों-प्रकृति विकृतियों को एक क्रम के साथ उत्पन्न करता हूँ। क्या सत्य है और क्या झूठ है, इसका परिज्ञान भी मैं ही देता हूँ। मैं ही मनुष्यों में देववाणी प्रकट करता हूँ।

वेदों को ‘श्रुति’ नाम से भी पुकारा जाता है। श्रुति का अर्थ है श्रूयते इति अर्थात् जो सुने जाते हैं, वे श्रुति अर्थात् वेद हैं। वेदों को इसीलिए श्रुति कहा जाता रहा है कि ऋशियों ने अपने चिन्तन से जिस ईष्वरीय ज्ञान को प्राप्त किया, उसे उन्होंने अपने षिश्यों को सुनाया, सुनकर ही परम्परा से ये वेद-मन्त्र कण्ठस्थ होते रहे और पीढ़ी-दर-पीढ़ी सतत् रुप से प्रचलन में आते रहे।

प्राचीन काल से ही भारत में गुरू - षिश्य परम्परा का प्रचलन रहा है। इन वेद मन्त्रों के द्वारा ऋशिजन देवों की स्तुतियांँ किया करते थे और यज्ञ करके उनके नाम की आहूति डाला करते थे। मन्त्रोंच्चारण लय और स्वरों के आरोह-अवरोह के साथ श्रोता को आनन्दित करता था। श्रुति परम्परा की इसी महत्ता से वेद - मन्त्रों की रक्षा सम्भव हो सकी। उस समय अक्षर की शुद्धता पर पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। 

कुछ विद्वानों ने वेदों के विषय में कहा है कि - डॉ0 मंगलदेव शास्त्री के अनुसार - ‘वेद भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम् ग्रन्थ है। वेदों में प्रदत्त ज्ञान का बहुमुखी प्रभाव विष्व-जनमानस पर अत्यन्त व्यापक है।’

डॉ. कृश्णलाल के अनुसार - ‘वेदों में उत्तम ज्ञान विद्यमान है। भारतीय गणित, ज्योतिष, स्वरषास्त्र, संगीत, राजनीति, समाजशास्त्र, विज्ञान ओषधि आदि के मूल स्रोत वेद ही हैं।’

वास्तव में, वेदों में वह सब कुछ है, जो जिज्ञासु जानना चाहता है। जो जिस दृष्टि से इन्हें पढ़ता है, इनका मनन् करता है, उसे वह सब वेदों में मिल जाता है। 

पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार वेद की परिभाषा 

मैक्समूलर ने लिखा है कि - ‘यदि किसी को आर्य जाति के जीवन का विस्तृत अध्ययन करना है, तो उसके लिए वैदिक साहित्य का अध्ययन करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगा।’

ओल्डनवर्ग - ‘वेद भारतीय धर्म का प्राचीनतम अभिलेख है।’

ब्लूम फील्ड - ‘वेद भारत का प्राचीनतम साहित्यिक कीर्तिस्तम्भ है। यह भारोपीय भाषा का प्राचीनतम लिखित दस्तावेज है। इसे भारतीय धार्मिक चिन्तन का मूलस्रोत कह सकते हैं।’

मनुस्मृति में लिखा गया है कि - वेदोSखिलो धर्ममूलम् कहा गया है, अर्थात् सभी धमोर्ं का आधार वेद है। यहांँ ‘धर्म’ को किसी पन्थ अथवा सम्प्रदाय के रूप में नहीं माना गया है। स्मृतिकार धर्म की परिभाषा करते हुए कहते हैं- धारणात् धर्म इत्याहु: धर्मो धारयति प्रजा:।

अर्थात् धारण करने से धर्म कहा जाता है और यही धर्म प्रजा को धारण करता है। इसका अर्थ यही है कि धर्म से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उससे प्रजा की हर रुप में प्रगति होती है। आध्यात्मिक रूप से आधिदैविक रूप से और आधिभौतिक रूप से उसके जीवन का अभ्युदय धर्म के द्वारा ही होता है, इसी को धर्म कहते हैं। यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्वि: स: धर्म:।

अर्थात् जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस् की प्राप्ति हो, वह धर्म है, ऐसी परिभाषा भी आचायोर्ं ने की है। इस प्रकार धर्म से प्रेय और श्रेय दोनों की प्राप्ति संभव है। धर्म से मनुष्य को सद्विचार प्राप्त होते हैं। वह उसे असत्य के मार्ग से सत्य की ओर ले जाता है, जो पशु से मनुष्य बनाता है और अषान्ति से शान्ति की ओर ले जाता है। उसे लौकिक सुखों के नश्वर भ्रमजाल से निकालकर, स्थायी परमानन्द का अनुभव कराता है। उसे स्वार्थ से परमार्थ की ओर प्रेरित करता है। यही वेदों का मुख्य विषय है।

डॉ0 श्रीपाद् दामोदर सांतवलेंकर - वेदों के विषय में अपने मत का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि ऋग्वेद पवित्र विचारों का वेद है।यजुर्वेद कर्मों की पवित्रता का वेद है। सामवेद उपासना की शुद्धता का वेद है और अथर्ववेद निष्चल ब्रह्मज्ञान को देने वाला है। ऋग्वेद के अध्ययन से चलकर अथर्ववेद के अध्ययन तक पहुंचने वाला साधक स्थितप्रज्ञ की श्रेणी में पहुंच जाता है।

भारतीय परम्परा के अनुसार वैदिक ज्ञान को ईश्वरीय ज्ञान, अर्थात् नित्य माना जाता रहा है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसे स्वयं परमात्मा ने आकर ऋषि-मुनियों को दिया था। यह धर्मान्धता है, इस प्रकार का कहना अधिक समीचीन प्रतीत होता है कि ईष्वरीय प्रेरणा से प्रकृति का ज्ञान भारत से आप्त ऋषि-मुनियों के चिन्तन में आया और फिर वेदों का आविर्भाव सम्भव हो सका। इन्हें अपौरुशेय मानना, वेद-मन्त्रों के सृजक उन ऋषियों की बौद्धिक क्षमता और सूक्ष्म चिन्तन की दृष्टि नकाराने जैसा है। सृष्टि के प्रारम्भ में, ईश्वर ने यह ज्ञान मानव मात्र के कल्याण के लिए ऋषियों के अन्त:करण में प्रकाशित किया था। तब उन्होंने मन्त्रों के रुप में उस ज्ञान को वाणी प्रदान की।

परम्परा की दृष्टि से ऋषियों की ये रचनाएं दिव्य कही जाने योग्य हैं। अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा आदि ऋषियों ने मानव-कल्याण के लिए यह ज्ञान इस संसार को दिया। ये मन्त्र उन्हीं ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने इन्हें रचा था अर्थात् इनका साक्षात्कार किया था।

वैदिक साहित्य के भाग 

वैदिक साहित्य को चार भागों में विभाजित किया गया है- 
  1. संहिता
  2. ब्राह्मण
  3. आरण्यक और 
  4. उपनिषद।
प्रारम्भ में गुरु-षिश्य परम्परा से वेदों का यह ज्ञान मौखिक रुप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहा, परन्तु बाद में महर्षि पराषर के महान तेजस्वी पुत्र कृश्ण द्वैपायन व्यास ने वेदों के इस विशाल ज्ञान को लिपिबद्ध करके संगृहीत किया और वे वेदव्यास कहलाये। यह समस्त ज्ञान चार वेदों में संकलित है। इन्हीं वेदों को संहिता भी कहते हैं।
  1. ऋग्वेद संहिता - ऋग्वेद को स्तुति मन्त्र संग्रह कहा गया है।
  2. यजुर्वेद संहिता - यजुर्वेद को यज्ञ कर्म मन्त्रों का संग्रह कहा गया है।
  3. सामवेद संहिता - सामवेद को गेय मन्त्रों का संग्रह कहा गया है।
  4. अथर्ववेद संहिता - अथर्ववेद को विविध आयुर्वेदीय, तन्त्र-मन्त्र इत्यादि का संग्रह कहा गया है।
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्रारम्भ में एक ही वेद था, परन्तु अध्ययन की दृष्टि से इसे चार भागों में विभाजित कर दिया गया। कुछ विद्वानों का मत है कि प्रारम्भ में वेद तीन ही थे। अथर्ववेद बाद में रचा गया। लेकिन जहां तक इनकी काल-रचना का प्रश्न है, उनके लिए यह कहना अधिक उचित प्रतीत होता है कि चारों वेद एक ही काल में नहीं रचे गये। इन वेदों में जो हजारों की संख्या में मन्त्र अथवा ऋचाएं हैं, वे भी किसी एक ऋषि के द्वारा एक ही समय में नहीं रची गयी। विविध ऋषियों ने अपने-अपने काल में इन मन्त्रों की रचना की और वे सभी एक ही स्थान पर जुड़ते चले गये। इनकी रचना में सदियां लगी हैं।

संहिताओं में ऋग्वेद संहिता को प्राचीनतम माना गया है। प्रत्येक संहिता से सम्बद्ध ब्राह्मण एवं उपनिषद भी अलग अलग हैं। संहिताओं का स्पष्ट रूप से चार भागों में विभाजन छान्दोग्योपनिशद् एवं मुण्डकोपनिशद् में भी वर्णित है। ‘छन्दांसि’ का अर्थ यदि अथर्ववेद लगाया जाय तो प्राचीनतम संहिता ऋग्वेद भी चतुर्था विभाजन में स्पष्ट है।

वेदों का महत्व

मानव जीवन का उद्देश्य प्रमुख रूप से चार पुरूशार्थों को प्राप्त करने का होना चाहिए। वेद ज्ञान में निहित धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनकी सिद्धि ही जीवन की परम उपयोगी सिद्धि है। मानव-जीवन की वर्तमान त्रासदी तथा कठिनाइयों का निराकरण इसी सिद्धि में निहित है। वेद ज्ञान के बिना मानवता सुख की नींद नहीं सो सकती। सुख, शान्ति और परमतत्त्व के सान्निध्य को प्राप्त करने के लिए वेद ज्ञान परम आवश्यक है।

वेदों के ज्ञान में वह शक्ति निहित है, जो मानव-जाति के सम्पूर्ण मतभेदों को मिटा सकती है। व्यक्ति दु:ख और अषान्ति की सभी उलझनों से छुटकारा पाकर इस धरती पर स्वर्ग की अनुभूति कर सकता है। जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा, आदर और लगन से प्रभु की इस वाणी का अध्ययन करता है और उसे अपने जीवन के व्यावहारिक पक्ष में निष्काम भाव से स्थान देता है, उसे जीवन में कभी भी सुख शान्ति का अभाव नहीं रहता। धरती पर फैले अन्धकार को समाप्त करने में वेद के पावन ज्ञान का विषेश महत्व है। इस ज्ञान का मुख्य आधार मन्त्र में निहित है -

ओSम् विष्वानि सवितर्दुरितानि परा सुव। 
यदभद्रं तन्न आसुव।। 

अर्थात् हे परमेश्वर सविता! सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न करने वाले (देव) और संसार को प्रकाशित करने वाले जगदीष्वर (विष्वानि) सम्पूर्ण (दुरितानि) दुष्ट आचरणों को आप (परासुर) दूर कीजिए और (यत) जो (भद्रम) कल्याणकारक है (तत्) उसे (न:) हम लोगोंं के लिए (आ, सुव) सब प्रकार से प्राप्त कराये। इसका मूल भाव यही है कि इसमें जीव परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हे परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे जितने भी दुष्ट एवं नीच आचरण अथवा कर्म हैं, उन्हें हमसे अलग करके धर्म युक्त गुण, कर्म और स्वभावों को हमारे हृदय में स्थापित कीजिए।

वस्तुत: देष, काल और परिस्थितियों से ऊपर उठकर प्राणिमात्र का समान रूप से कल्याण करने का उपदेष वेद देते हैं। मानवमात्र इसकी शरण में आकर सुख, शान्ति व आनन्द की प्राप्ति करके अपने जीवन को सफल बना सकता है। अथर्ववेद में वेद के ज्ञान को माता के समान स्वीकार किया गया है - स्तुतामया वरदा वेदमात........ द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्।...............मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।

अर्थात् वर देने वाली ज्ञान की माता (वेद माता) से स्तुति की गयी है कि वह परमात्मा की वेद वाणी को द्विजों में आगे बढ़ाये। यही है कि मनुष्यों, विद्वान आचार्यों के ससंर्ग से पूर्ण आदर के साथ वेद वाणी का सतत अभ्यास करके ब्रह्मज्ञानियों के मध्य सर्वोच्च कीर्ति, अर्थात् यश प्राप्त करें। ‘मनु स्मृति’ में सम्पूर्ण वेदों को धर्म का मूल स्वीकार किया गया है। महर्षि दयानन्द ने भी वेदों को सत्य विद्याओं की पुस्तक माना है। वेद भारतीय जीवन के प्राण तत्त्व के रुप में विद्यमान है। भारतीयों के सनातन हिन्दू धर्म में देवगणों की उपासना वैदिक काल से ही चली आ रही है। 

भारतीय जीवन के समस्त संस्कारों को दिषा देने वाले वेद ही हैं तथा भारतीय विचारधारा की सुदीर्घ परम्परा वेदों की ही देन है।

जन्म, विवाह, मृत्यु तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर पुरोहित वेद-मन्त्रों के द्वारा ही संस्कार सम्पन्न कराते हैं। नित्य उपासना में भी गायत्री मन्त्र और महामृत्युन्जय मन्त्र की सुमधुर ध्वनि सुनाई पड़ जाती है। वेद हमारे जीवन के वे प्रामाणिक ग्रन्थ हैं, जिनके द्वारा हमारा जीवन संचालित होता है। वेद हमारी संस्कृति में और हमारे सनातन धर्म में इतने रच-बस गये हैं कि उनके बिना हम अपने जीवन के दैनिक क्रियाकलापों की पूर्णता को संदिग्ध मानने लगते हैं। उनके अभाव में जीवन के विकास की प्रगति धूमिल पड़ जाती है। उनका सम्बन्ध केवल हमारे धार्मिक कृत्यों अथवा अनुष्ठानों तक ही सीमित नहीं है, अपितु हमारे रहन-सहन, आचार-विचार, रीति-रिवाज, बोल-चाल, भाषा-वाणी, संगीत, समाज, पौराणिक कथा-साहित्य और जीवन-दर्शन से जुड़े होने के कारण वे अत्यधिक उपयोगी ग्रन्थ हैं।

वास्तव में धर्म के विषय में जो लोग जिज्ञासु हैं, उनके लिए वेदों का महत्व बहुत है। हिन्दू धर्म की उदारता, व्यापकता और मानवता का धार्मिक आधार हमें वेदों से ही प्राप्त हुआ है। धर्म के श्रेष्ठतम तत्त्वों से युक्त ग्रन्थ वेद हैं। स्मृतिग्रन्थों के अतिरिक्त रामायण, महाभारत और पुराणों आदि में धर्म का जो आदर्श और व्यवहार पक्ष उपलब्ध होता है, वह वेदों पर ही आधारित है।

सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक दृष्टि से भारतीय जीवन-दर्शन का मूल तत्त्व वेदों से ही ग्रहण किया गया है। इसके अतिरिक्त समस्त आचार-विचार, राष्ट्र की सुरक्षा के विविध उपाय, विभिन्न शासन-प्रणालियों के रूप में आदर्श वेद-ग्रन्थों से ही प्राप्त होते हैं, आर्थिक नीतियों और सिद्धान्तों का उचित दिषा-निर्देष भी वेदों से ही प्राप्त होता है। साम्यवाद अथवा सर्वोदयवाद का परिष्कृत स्वरूप ऋग्वेद में देखा जा सकता है। वहां अकेले खाने वाले को पाप का भागी माना जाता है।

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्पति नो साखायं केवलाघो भवति केवलादी।।

अर्थात् आगे पीछे न देखने वाला, धन का स्वामी, अन्नादि पदार्थों को व्यर्थ ही प्राप्त करता है। मैं परमेश्वर यह उपदेश देता हूँ कि वास्तव में उसका यह धन मृत्यु है। न तो वह विद्वान का पोषण करता है, न कि विपत्ति में अपने साथी जनों का और वह अकेला ही भोग करने वाला अथवा खाने वाला, केवल पाप का ही भागी होता है।

वेदों के उपवेद

आयुर्वेद, अथर्ववेद, धनुर्वेद और गन्धर्ववेद। यहॉं पर वेद पद का उपयोग ‘विद्या’ से माना जाता है। इन उपवेदों के अतिरिक्त छह ‘वेदांग’ शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिष भी हैं जो वेदार्थ के लिए इनका अध्ययन आवश्यक है। वेदांगों के बाद उपांगों का भी उल्लेख मिलता है ये इस प्रकार हैं - सांख्य, योग, वैषेशिक न्याय, मीमांसा और वेदान्त। ये भी संख्या में छह हैं, ये सभी दर्शन योग्य ग्रन्थ हैं जो दार्शनिक विचारों के महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं वेदों का सम्पूर्ण दर्शन इन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। 

इसके अतिरिक्त विभिन्न धर्म सूत्रों और स्मृति ग्रन्थों के द्वारा भी वेद मन्त्रों का अर्थ स्पष्ट किया जाता है।

ब्राह्मण ग्रन्थों में भी वेद के व्याख्यान हैं। उनमें प्राय: यज्ञ-प्रक्रिया का उल्लेख प्राप्त होता है। वेदों के प्रसंग में वे वैज्ञानिक और आध्यात्मिक रहस्यों को भी स्पष्ट करते हैं।

‘षतपथ ब्राह्मण’ और ‘ताण्ड्य ब्राह्मण’ अत्यन्त विशाल ग्रन्थ है। ‘ऐतरेय’ कुछ छोटा है और ‘तैत्तिरीय ब्राह्मण’ पर्याप्त बड़ा ग्रन्थ है। ‘गोपथ’ अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ है। इसमें अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा का विषेश उल्लेख मिलता है। ‘षतपथ ब्राह्मण’ वस्तुत: विद्या का कोश है।

इसी प्रकार वेदों के अर्थ के लिए उपनिशद् ग्रन्थ हैं, ये मुख्य रुप से ब्रह्मविद्या ग्रन्थ हैं। वेदों की ब्रह्मविद्या इन उपनिशदों और आरण्यक ग्रन्थों में विस्तार से वर्णित की गयी है। वह कोई स्वतन्त्र विद्या न होकर वेदों की ब्रह्मविद्या का ही रूपान्तर है। उपनिशदों में वेदों के साक्ष्य स्थान-स्थान पर बिखरे पड़े हैं। आरण्यक ग्रन्थ, ब्राह्मण ग्रन्थ के वे भाग हैं, जिन्हें अरण्य अर्थात् वनों में लिखा गया। ईश उपनिषद का तो सीधा सम्बन्ध वेदों से ही है।

प्राय: लोग ‘वेदान्त’ का अर्थ वेदों के अन्तिम काण्ड से लगा लेते हैं। वे वेदों को कर्मकाण्ड के ग्रन्थ मानते हैं वैसे तो उपनिषद भी वेदान्त ही हैं, परन्तु ऐसा अर्थ निकालना निश्चित रुप ये गलत है। वेदान्त में आये हुए ‘अन्त’ का अर्थ ‘सिद्धान्त’ से है। इस प्रकार वेदान्त का अर्थ है-वेद का सिद्धान्त। उपनिषदों और वेदान्तग्रन्थों में वेदों के सिद्धान्तोंं का ही वर्णन है। इस प्रकार वेदों में जो ज्ञान भरा पड़ा है, वह अत्यन्त व्यापक है। 

वेद किसी एक विषय की पुस्तक नहीं है। वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक है। यह एक ऐसा विश्वकोष है, जिसमें विविध विषय एक साथ वर्णित हैं

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