मैस्लो का व्यक्तित्व का मानवतावादी सिद्धांत क्या है? इसकी सीमायें एवं गुण क्या-क्या है

एब्राहम मैस्लो का व्यक्तित्व सिद्धांत। मैस्लों का व्यक्तित्व सिद्धांत मानवतावादी आन्दोलन से प्रेरित है, जिसमें मानवीय व्यक्तित्व के विकास में बाह्य कारकों की तुलना में व्यक्तिगत मूल्यों, आत्मनिर्देश तथा व्यक्तिगत वर्धन इत्यादि मानवीय एवं आन्तरिक कारकों पर अधिक बल दिया गया है। 

मैस्लों द्वारा व्यक्तित्व विकास में आन्तरिक कारकों पर अत्यधिक बल दिये जाने के कारण ही उसके सिद्धांत को “ व्यक्तित्व का सम्पूर्ण गत्यात्म सिद्धांत“ भी कहा जाता है। मैस्लो के व्यक्तित्व सिद्धांत को भली-भाँति समझने के लिये जैविक एवं सामाजिक अभिप्रेरकों को जानना-समझना भी अत्यावश्यक है। 

तो आईये, जाने कि मैस्लो का व्यक्तित्व का मानवतावादी सिद्धांत क्या है? इसकी सीमायें एवं गुण क्या-क्या है।

मैस्लो का व्यक्तित्व का मानवतावादी सिद्धांत 

एब्राहम मैस्लो ( 1908-1970) के व्यक्तित्व सिद्धांत को मानवतावादी सिद्धांत या व्यक्तित्व का सम्पूर्ण गत्यात्मक सिद्धांत कहा जाता है। मानवतावादी मनोविज्ञान के आध्यात्मिक जनक माने जाने वाले मैस्लो का व्यक्तित्व के प्रति मानवतावादी दृष्टिकोण था जो मानवतावादी आन्दोलन से प्रेरित था। 1960 वाले दशक में आरंभ होने वाले इस आन्दोलन में व्यवहारवाद एवं मनोविश्लेषणवाद दोने ही विचारधाराओं की आलोचना की गई। 

इस आलोचना का आधार यह था कि इन दोनों ही विचारधाराओं ने व्यक्तित्व का संकीर्ण एवं सीमित दृष्टिकोण से अध्ययन किया है जबकि व्यक्तित्व के द्वारा हमें किसी प्राणी की प्रायः एक सम्पूर्ण झलक मिलती है। अतः इसका अध्ययन संकीर्ण नहीं वरन व्यापक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिये।

मैस्लो का मत है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व पर बाह्य कारकों जैसे कि पूर्व की अनुभूतियों, वातावरण, आनुवांशिकता की तुलना में आन्तरिक कारको जैसे कि उसके व्यक्तिगत मूल्य, आत्मनिर्देश इत्यादि का अधिक प्रभाव पड़ता है। एक प्राणी के व्यक्तित्व का विकास आन्तरिक रूप् से संगठित ढंग से होता है। इस प्रकार मैस्लों ने अपने व्यक्तित्व सिद्धांत में मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुये आन्तरिक कारकों पर अधिक जोर दिया है। मैस्लो के व्यक्तित्व सिद्धांत का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है।
  1. व्यक्तित्व एवं अभिप्रेरण का पदानुक्रमिक माॅडल
  2. स्वस्थ व्यक्तित्व आत्मसिद्ध व्यक्ति का विकास
  3. व्यक्तित्व का मापन एवं शोध

1. व्यक्तित्व एवं अभिप्रेरण का पदानुक्रमिक माॅडल

मैस्लो के व्यक्तित्व सिद्धांत का आधार उनका अभिप्रेरण सिद्धांत है। मैस्लो की मान्यता है कि कोई भी प्राणी अधिकांशतः किसी न किसी व्यक्तिगत लक्ष्य से प्रेरित होकर ही कोई भी व्यवहार करता है अर्थात् प्राणी का व्यवहार व्यक्तिगत लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रवृति से अभिपे्ररित होता है।

मैस्लो के अनुसार अभिप्रेरक जैविक भी होते है तथा मनोवैज्ञानिक या सामाजिक भी, जो जन्म से ही मानव में विद्यमान होते है। इन अभिप्रेरकों को प्राथमिक्ता के आधार पर आरोही क्रम में निम्न प्रकार से सुव्यवस्थित किया जा सकता है-
  1. शारीरिक या दैहित आवश्यकता
  2. सुरक्षा की आवश्यकता निचले स्तर की आवश्यकता
  3. संवद्धता एवं स्नेह की आवश्यकता
  4. सम्मान की आवश्यकता
  5. आत्मसिद्धि की आवश्यकता- उच्चस्तरीय आवश्यकता 
उपर्युक्त आवश्यकताओं में प्रथम दो आवश्यकताओं दैहिक एवं सुरक्षा की आवश्यकता को निचले स्तर की आवश्यकता तथा अंतिम तीन आवश्यकताओं संबद्धता तथा स्नेह, सम्मान एवं आत्मसिद्धि की आवश्यकता को उच्चस्तरीय आवश्यकता कहा गया है। मैस्लो के अनुसार इस पदानुक्रमिक माॅडल में जो आवश्यकता जितनी नीचे है उसकी प्राथमिकता उतनी ही ज्यादा है अर्थात् सबसे पहले उस आवश्यकता की पूर्ति होना सर्वाधिक जरूरी है।

मैस्लो की मान्यता है कि किसी भी स्तर की आवश्यकता जब ही उत्पन्न होती है, जब उससे निचले स्तर की आवश्यकता की पूर्ति पूरी तरह नहीं तो कम से कम आंशिक तौर पर ही हो जाये। जब तक निचले स्तर की आवश्यकता पूरी नहीं होती तब तक उससे ऊपर वाली आवश्यकता के उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जो व्यक्ति भूख-प्यास से तड़प रहा होता है उसे सबसे पहले भोजन और पानी की आवश्यकता होती है न कि सुरक्षा एवं स्नेह की। 

मैस्लो का यह भी मानना है कि आवश्यकताओं के पदानुक्रमिक माॅडल में जैसे-जैसे व्यक्ति नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताओं की संतुष्टि का प्रतिशत भी धीरे-धीरे कम होता जाता है। जैसे शारीरिक आवश्यकताओं की संतुष्टि लगभग 85 प्रतिशत, सुरक्षा की संतुष्टि 70 प्रतिशत, संबद्धता एवं स्नेह की आवश्यकता की पूर्ति 50 प्रतिशत, सम्मान की आवश्यकता की पूर्ति 40 प्रतिशत तथा आत्म सिद्धि की आवश्यकता की पूर्ति लगभग 10 प्रतिशत तक ही हो पाती है।

आवश्यकताओं के पदानुक्रमि माॅडल का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

1. दैहिक या शारीरिक आवश्यकता - मैस्लो के अनुसार यह प्राणी निचले स्तर की तथा सर्वप्रथम आवश्यकता है। किसी भी प्राणी के जीवित रहने के लिये आवश्यकता है कि सबसे पहले उसकी दैहित आवश्यकताओं की पूर्ति या संतुष्टि हो। दैहिक आवश्यकताओं में निम्नलिखित आवश्यकताये आती हैं। जैसे कि-
  1. भोजन करने की आवश्यक
  2. पानी पीने की आवश्यकता
  3. सोने की आवश्यकता
  4. यौनसंबंधो की आवश्यकता इत्यादि।
मैस्लो का मानना है कि जब तक किसी मनुष्य की उपर्युक्त शारीरिक आवश्यकतायें पूरी नहीं होती है, तब तक वह अन्य आवष्यक्ताओं जैसे कि सुरक्षा, सम्मान, स्नेह पाने या देने की अभिप्रेरित ही नहीं होता है। अतः सर्वप्रथम प्राणी के स्वस्थ व्यक्तित्व के विकास के लिय आवश्यक है कि उसकी भूख, प्यास, नींद, यौन इत्यादि दैहित आवश्यकताओं की पूर्ति पूर्णतः नहीं तो कम से कम आंशिक रूप से ही हो जाये। जैविक अभिप्रेरक इतना अधिक प्रबल होता है कि इसकी संतुष्टि करने के लिये व्यक्ति सामाजिक मूल्यों और सामाजिक मानकों की भी कभी-कभी अवहेलना करने से पीछे नहीं हटता है।“ 

2. सुरक्षा की आवश्यकता - मैस्लो द्वारा प्रतिपादिक पदानुक्रमिक माॅडल में दूसरे स्तर की आवश्यकता सुरक्षा की आवश्यकता है। जब व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताओं की संतुष्टि हो जाती है तो वह अपने आप को सुरक्षित करने की आवश्यकता महसूस करने लगता है। इसमें मैस्लो ने निम्नांकित आवश्यकताओं को शामिल किया है। जैसे कि-
  1. डर, चिन्ता इत्यादि से मुक्ति
  2. शारीरिक सुरक्षा
  3. निर्भरता
  4. बचाव
  5. नियम कानून बनाये रखने की आवश्यकता इत्यादि
मैस्लो के अनुसार वयस्कों की तुलना में बच्चे अपने आपको सुरक्षित करने की जरूरत अधिक महसूस करते हैं, बच्चें कि वे छोटे होने के कारण स्वयं को दूसरों की तुलना में अधिक निःसहाय एवं पराक्षित मानते है।

“ सुरक्षा की आवश्यकता कुछ खास तरह के तंत्रिकातापी व्यक्ति जैसे मनोग्रस्ति बाध्यता के रोगियों में अधिक सुस्पष्ट होता है। ऐसे लोग इर्द-गिर्द के हालातों को खौफनाक एवं खतरनाक समझकर अपने में सुरक्षा की आवश्यकता पर अधिक जोर डालते हैं तथा अधिक समय एवं शारीरिक ऊर्जा की खपत करते हैं और यदि सके बावजूद भी इन्हें अपने प्रयास में सफलता नहीं मिलती है, तो उनमें एक विषेश तरह की चिन्ता जिसे मैस्लो ने मूल चिन्ता कहा है, की उत्पत्ति होती है।“ एब्राहम मैस्लो, 1970

3. सम्बद्धता एवं स्नेह की आवश्यकता- मैस्लो के अनुसार तृतीय स्तर की यह आवश्यकता तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति शारीरिक एवं सूरक्ष की दृष्टि से अपने आप को संतुष्ट पाता है।

सम्बद्धता की आवश्यकता - मैस्लो के मतानुसार सम्बद्धता का आशय है- परिवार या समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान पाने की इच्छा, किसी संदर्भ समूह की की सदस्यता प्राप्त करने की इच्छा, अपने पड़ौसी से मधुर संबंध बनाये रखने की इच्छा इत्यादि।

स्नेह की आवश्यकता - स्नेह की आवश्यकता एवं दूसरों से स्नेह पाना दोनों ही शामिल है। संबंद्धता एवं स्नेह की आवश्यकता दोनों एक दूसरे में घनिष्ट रूप से सम्बद्ध है। अतः मैस्लो ने इसे एक ही वर्ग में रखा है।

“स्नेह की आवश्यकता की संतुष्टि नहीं होने से व्यक्ति में कुसमायोजन होता है।

“स्नेह पाने की भूख एक तरह का अपर्याप्तता रोग है।“

4. सम्मान की आवश्यकता - मैस्लो के अनुसार चैथे स्तर की आवश्यकता सम्मान की आवश्यकता है। इसमें निम्न दो तरह की आवश्यकताये आती हैं-
  1. आत्मसम्मान की आवश्यकता
  2. दूसरों से सम्मान प्राप्त करने की आवश्यकता
1- आत्मसम्मान की आवश्यकता - इसमें उत्तम सामर्थ्य प्राप्त करने की इच्छा, स्वतंत्रता, उपलब्धि, उपयुक्तता, व्यक्तिगत वर्धन, आत्मविश्वास इत्यादि की भावना को शामिल किया गया है।

2- दूसरों से सम्मान पाने की आवश्यकता - इससे दूसरों से सम्मान, प्रशंसा, पहचान, दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींचने की इच्छा, दूसरों की स्वीकृति पाने की इच्छा इत्यादि को सम्मिलित किया गया है।

मैस्लो के मतानुसार आत्मसम्मान की भावना के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है तथा उसमें आत्मविश्वास, श्रेष्ठता, पर्याप्तता, शक्ति इत्यादि गुणों का विकास होता है। इसके परिणामस्वरूप वह व्यक्ति स्वयं को अधिक प्रतिभाशाली, योग्य एवं उत्पादक मानने लगता है। वह कार्य करने के लिये अभिप्रेरित होता है तथा स्वयं के बारे में उसकी एक सकारात्मक छवि बनती है, किन्तु जब उसके आत्म-सम्मान की पूर्ति नहीं होती है तो वह आत्महीनता से ग्रस्त होकर स्वयं को लाचार, असहाय तथा दूसरों पर निर्भर मानने लगता है और उसका व्यक्तित्व विकास अवरूद्ध होने लगता है।

“ सही अर्थ में आत्म-सम्मान व्यक्ति की योग्यताओं एवं क्षमताओं के वास्तविक मूल्यांकन पर तथा साथ ही साथ दूसरों से प्राप्त वास्तविक सम्मान पर आधारित होता है। यह आवश्यक है कि व्यक्ति को दूसरों से मिलने वाला मान-सम्मान अवास्तविक या छिछला न होकर उसकी अर्जित योग्यताओं एवं क्षमताओं पर आधारित हो।“ एब्राहम मैस्लो।

5. आत्म-सिद्धि की आवश्यकता - मैस्लो के आवश्यकताओं के पदानुक्रमिक माॅडल में यह सबसे ऊँचे स्तर की तथा सबसे अंतिम आवश्यकता है। जब व्यक्ति क्रमशः अपनी शारीरिक आवश्यकता, सुरक्षा की आवश्यकता, सम्बद्धता एवं स्नेह की आवश्यकता तथा सम्मान की आवश्यकता की पूर्ति कर लेता है तो आत्म सिद्धि की आवश्यकता अनुभव होती है।

“आत्मसिद्धि से तात्पर्य आत्म उन्नति की एक ऐसी अवस्था से होता है, जहाँ व्यक्ति अपनी योग्यताओं एवं अन्तः क्षमताओं से पूर्णरूपेण अवगत होता है तथा उसके अनुरूप अपने आप को विकसित करने की इच्छा करता है। संक्षेप में आत्मसिद्धि से तात्पर्य अपनी अन्तः क्षमताओं के अनुरूप अपने आपको विकसित करना होता है।“ (एब्राहम मैस्लो, 1968)

मैस्लो के अनुसार आत्मसिद्धि की आवश्यकता की अवस्था अन्य आवश्यकताओं की अवस्था की तुलना में थोड़ी अलग है। अन्तः आवश्यकताओं की अवस्थाओं में तो व्यक्ति उससे क्रमशः निचले स्तर की आवश्यकता की पूर्ति होने पर स्वतः ही अगली आवश्यकता की पूर्ति की स्थिति में पहुँच जाता है, किन्तु आत्मसिद्धि की आवश्यकता की अवस्था में ऐसा नहीं होता है। कहने का आशय यह है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा सम्मान की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है, तब भी इस बात की गारंटी नहीं है कि वह आत्मसिद्धि की आवश्यकता की अवस्था में पहुँच ही जाये, क्योंकि इस अवस्था में पहुँचने के लिये व्यक्ति में सम्मान की आवश्यकता की पूर्ति होने के साथ-साथ ही मूल्यों की पूर्ति होना भी आवश्यक है। मैस्लो ने कुछ अन्य कारण भी बतलाये है जिनके कारण व्यक्ति आत्मसिद्धि की आवश्यकता की अवस्था तक नहीं पहुँच पाता है। इस कारकों का विवेचन निम्नानुसार है-

अ. जिस व्यक्ति में पर्याप्त अनुशासन, आत्मनियंत्रण, प्रयास एवं साहस का अभाव होता है, मैस्लो के अनुसार वह व्यक्ति इस अवस्था में नहीं पहुँच सकता।

ब. जिन व्यक्तियों को बचपन में अत्यधिक तिरस्कार एवं नियंत्रण अथवा अत्याधिक प्यार एवं स्वतंत्रता दी जाती है, वे भी इस अवस्था तक नहीं पहुँच पाते है।

स. ऐसे व्यक्ति जिनमें अपने आन्तरिक शक्तियों को विकसित करने पर एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की संभावना या आशंका हो जाती है, जिसका समाधान करना उनके वश में नहीं होता है, तो ऐसी व्यक्ति भी आत्मसिद्धि की आवश्यकता की अवस्था तक नहीं पहुँच पाते हैं। मैस्लो ने इसे जोनाहमनोग्रन्थि की संज्ञा दी है।

द. मैस्लो का यह भी मत है कि आत्मसिद्धि की आवश्यकता, अन्य आवश्यकताओं की तुलना में कम प्रबल है। अतः अन्य आवश्यकताओं से यह दब जाती है। इस कारण इस आवश्यकता को पूरा करने के लिये पर्याप्त अभिप्रयोग व्यक्ति में विद्यमान नहीं रह पाता है।

इस प्रकार मैस्लो का मानना है कि उपर्युक्त कारणों से सभी व्यक्ति आत्मसिद्धि की आवश्यकता की अवस्था तक नहीं पहुँच पाते हैं।

यद्यपि मैस्लो ने अपने पदनुक्रमिक माॅडल में मनुष्य की पाँच प्रकार की आवश्यकताओं का उल्लेख किया है तथा उन्हें मूल आवश्यकता बताते हुये स्वस्थ व्यक्तित्व के विकास हेतु अत्यधिक आवश्यक माना है, किन्तु इसके साथ ही मैस्लों ने मनुष्य की कुछ अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति को भी महत्वपूर्ण माना है, जो उसके व्यवहार को प्रभावित करती हैं। ये आवश्यकतायें निम्न है-
  1. संज्ञानात्मक आवश्यकता।
  2. तंत्रिकातापी आवश्यकता।
  3. न्यूनता अभिप्रेरक
  4. वर्धन अभिप्रेरक
1. संज्ञानात्मक आवश्यकता - संज्ञानात्मक आवश्यकताओं से मैस्लो का अभिप्राय सूचनात्मक आवश्यकताओं से है, जिसमें जानने एवं समझने दोनों प्रकार की आवश्यकताओं को शामिल किया गया है तथा समझने की तुलना में जानने की आवश्यकता को अधिक प्राथमिकता दी गई है।

2. तंत्रिकातापी आवश्यकता या स्नायु विकृत आवश्यकता - मैस्लो के अनुसार जब किसी व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती है तो इसके कारण व्यक्ति में ऐसी आवश्यकतायें जन्म लेती है जो उसके व्यक्तित्व विकास को अवरूद्ध कर उसे निष्क्रिय एवं रोगग्रस्त बना देती है।

उदाहरण- जब व्यक्ति की सम्बद्धता एवं स्नेह का आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती है तो उस व्यक्ति में आक्रमकता एवं विद्वेष की भावना उत्पन्न हो जाती है, जो उसके व्यक्तित्व का समुचित ढंग से विकास होने में बाधा उत्पन्न करती हैं।

3. न्यूनता अभिप्रेरक - न्यूनता अभिप्रेरक से मैस्लो का अभिप्राय उन अभिप्रेरकों से है जो न्यून या हीन अवस्थाओं जैसे कि भूख, प्यास, ठंड, असुरक्षा इत्यादि से उत्पन्न तनाव को दूर करते है। मैस्लो ने इन्हें “ डी- अभिप्रेरक“ की संज्ञा दी है।

4. वर्धन अभिप्रेरक- जो अभिप्रेरक व्यक्ति को अपनी आन्तरिक क्षमताओं एवं संभावनाओं को पहचानकर उन्हें विकसित करने के लिये प्रेरित करता है, उन्हें वर्धन अभिप्रेरक कहा गया है। मैस्लो ने इन्हें सत्य अभिपे्ररक या मेटा आवश्यकता भी कहा है। मैस्लो के अनुसार मेटा आवश्यकता में 18 प्रकार की आवश्यकताओं को शामिल किया गया है, जो निम्नानुसार है-
  1. सच्चाई
  2. अच्छाई
  3. अद्वितीयता
  4. पूर्णता
  5. अनिवार्यता
  6. सम्पूर्ण
  7. न्याय
  8. क्रम
  9. सरलता
  10. विस्तृतता
  11. प्रयासशीलता
  12. विनोदशीलता
  13. आत्मपर्याप्तता
  14. अर्थपूर्णता इत्यादि।

2. स्वस्थ व्यक्तित्वः आत्मसिद्ध व्यक्ति का विकास

मैस्लो के अनुसार आत्मसिद्ध व्यक्ति के व्यक्तित्व की कुछ खास विशेषतायें होती है, जिनका विवेचन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है।
  1. वास्तविक प्रत्यक्षण
  2. सरलता, स्वाभाविकता, सहजता
  3. समस्या केन्द्रित व्यवहार
  4. अनासक्ति की भावना
  5. गोपनीयता
  6. स्वतंत्रता
  7. रचनात्मक्ता एवं मौलिकता
  8. अलौकि शक्ति एवं अनुभूतियाँ
  9. मानवीयता एवं सामाजिक अभिरूचि
  10. कुछ विषेष महत्तवपूर्ण लोगों के साथ घनिष्ट संबंध ज्ञण् प्रजातांत्रिक मूल्य एवं मनोवृत्ति में विश्वास रखने वाले।
  11. साधन तथा साध्य में स्पष्ट अन्तर रखने वाले तथा पहल करने वाले। डण् वातावरण के साथ समायोजन तथा वातावरण की उत्कृष्टता को समझने का प्रयास करने वाले।
  12. संस्कृति के प्रति अनुरूपता न दिखलाने वाले। 
  13. मनोविनोद में विद्वेष का भाव न होकर दार्शनिक भाव रखने वाले। 
इस प्रकार आपने जाना कि जब कोई व्यक्ति आत्मसिद्धि की आवश्यकता की पूर्ति करता है तो मैस्लो के अनुसार उसमें उपर्युक्त गुणों का स्वतः ही विकास हो जाता है। मैस्लो के अनुसार आत्मसिद्धि की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए विद्यालय सर्वोत्तम स्थान है।

3. व्यक्तित्व का मापन एवं शोध 

मैस्लो ने व्यक्तित्व को मापने के लिये किसी विशेष तकनीक या प्रविधि का प्रतिपादन तो नहीं किया किन्तु व्यक्तित्व के मापन में उन्होंने स्वतंत्र साध्चर्य, साक्षात्कार, प्रक्षेपण प्रविधियाँ (रोशार्क, ज्।ज् इत्यादि) तथा जीवन संबंधी सामग्तियों के उपयोग को महत्त्वपूर्ण माना।

एवरेट शोस्ट्रोम ने एक विशेष प्रश्नावली का निर्माण किया, जिसका उद्देश्य था “आत्मसिद्धि“ व्यक्ति के व्यक्तित्व का मापन करना। इस प्रश्नावली में कथनों के कुछ 150 युग्म होते है। इन कथनों में व्यक्ति को यह बताने के लिये कहा जाता है कि उसके लिये युग्म का कौन सा वाक्य अधिक उपयुक्त है। इस प्रश्नावली का नाम पर्सनल आॅरियन्टेशन इन्वेन्ट्री (Personal ouiertation inventory) अर्थात् POI रखा गया। POI में निम्न दो प्रकार की मापनी होती हैं-
  1. अ. समय सामथ्र्यता मापनी
  2. ब. आन्तरिक निर्देशन मापनी
अ. समय सामथ्र्यता मापनी- इस मापनी द्वारा यह मापा जाता है कि व्यक्ति की गतिविधियों एवं क्रियाकलाप किस सीमा तक अपने वर्तमान समय के अनुरूप होती हैं।

ब. आन्तरिक निर्देशन मापनी - इस तथ्य का मापन किया जाता है कि व्यक्ति महत्त्वपूर्ण निर्णयों एवं मूल्यों के विषय में दूसरों पर कितना निर्भर रहता है।

कुछ समय के बाद POI में कुछ संशोधन करके शोस्ट्रोम ने इसे और अधिक अच्छा स्वरूप प्रदान किया और इसका नाम बदलकर पर्सनल ओरियन्टेशन डाइमेन्शन अर्थात् POD रखा गया। इसमें 240 एकांश रखे गये है। च्व्प् से इसका धनात्मक संबंध माना गया है। इसके बाद सन् 1986 में जोन्स एवं क्रैण्डला ने भी आत्मसिद्धि के मापन के लिये एक और परीक्षण का निर्माण किया, जिसमें 15 एकांष थे। लोर एवं ऊण्डर्लिक ने सन 1986 में ही आत्म-मनोवृत्ति आविष्कारक का निर्माण किया, जिसके द्वारा आत्मसम्मान के विश्वास एवं लोकप्रियता नामक दो महत्त्वपूर्ण तत्वों का मापन किया जाता है।

मैस्लो ने अपने व्यक्तित्व सिद्धांत के संबंध में कोई विशिष्ट शोधकार्य नहीं किया किन्तु, दूसरे मनोवैज्ञानिकों ने POI की सहायता से कुछ सहसंबंधात्मक शोधकार्य किये। इन शोधकार्यें में POI पर जो प्राप्तांक प्राप्त हुये उनका सहसंबंध व्यक्तित्व या व्यवहार के अन्य मापकों के साथ देखा गया।

जैसे कि लीमे एवं डाल,1968 ने च्व्प् प्राप्तांक तथा सांवेगिक स्वास्थ्य के बीच धनात्मक सहसंबंध की पुष्टि की। जाकारिया एवं विर, 1967 ने अपने अध्ययन के आधार पर मधपानता एवं POI प्राप्तांक के बीच नकारात्मक सहसंबंध होने की पुष्टि की। इस प्रकार जिज्ञासु विद्यार्थियों, आपने जाना कि मैस्लो के व्यक्तित्व सिद्धांत के कतिपय पहलुओं को लेकर मनोवैज्ञानिकों ने अनेक शोध कार्य किये।

मैस्लो के व्यक्तित्व सिद्धांत के गुण

  1. मैस्लो का व्यक्तित्व सिद्धांत मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्तियों के अध्ययन पर आधारित है।
  2. इस सिद्धांत ने मानवीय व्यवहार को मानवतावादी एवं आषावादी दृष्टिकोण से समझने के लिये प्रेरित किया है।
  3. इस सिद्धांत को नैदानिक, सामाजिक तथा व्यक्तिगत परिस्थितियों में अत्याधिक सफलतापूर्वक प्रयुक्त किया गया है। “इस सिद्धांत की उपयोगिता मनोचिकित्सा, शिक्षा, चिकित्साषास्त्र तथा संगठनात्मक व्यवस्था आदि में काफी अधिक है।“
  4. मैस्लो द्वारा प्रतिपादित “आत्म-सिद्धि“ के संप्रश्य ने मनुष्य की आन्तरिक क्षमताओं को पहचानने एवं समझने में अत्यधिक सहायता प्रदान की है। 

मैस्लो के व्यक्तित्व सिद्धांत की सीमायें अथवा दोष

कोई भी सिद्धांत अपने आप में पूर्ण नहीं होता है। उसके कुछ गुण एवं सीमायें दोनों ही होती है। अतः मैस्लो के व्यक्तित्व सिद्धांत की भी कुछ प्रमुख देन एवं कमियाँ है, जिनका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया जा सकता है-
  1. आलोचको का मत है कि मैस्लो के सिद्धांत के विभिन्न संप्रव्यय परस्पर अत्यधिक अतिआच्छाविवत होने के कारण उनको एक दूसरे से अलग करके उनका विवेचन करना और उन पर शोध कार्य करना संभव नहीं है।
  2. सुल्ज,1990 के अनुसार मैस्लो ने मात्र 49 प्रयोज्यों का साक्षात्कार लेकर तथा उन पर कुछ मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का क्रियान्वयन कर अपने सिद्धांत का प्रतिपादन कर दिया। अतः इतने कम प्रयोज्यों के आँकड़ों पर आधारित सिद्धांत को वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता है।
  3. मैस्लो ने आत्मसिद्ध व्यक्तियों के बारे में जिन साधनों से तथ्यों एवं आँकड़ों का संग्रह किया वे स्पष्ट यथार्थ एवं वैज्ञानिक नहीं है।
  4. मैस्लो मेटा-आवश्यकता आत्मसिद्धि इत्यादि संप्रव्ययों की वस्तुनिष्ठ एवं विज्ञानसम्मत व्याख्या प्रस्तुत नहीं कर सके है।
  5. आलोचकों का यह भी मत है कि व्यक्ति में एक समय में केवल एक ही आवश्यकता की पूर्ति की भावना उत्पन्न नहीं होती है, अर्थात् एक से अधिक आवश्यकतायें भी व्यक्ति में एक ही समय में उत्पन्न हो सकती है। जैसे कि एक व्यक्ति में भूखें होने पर भोजन की आवश्यकता की संतुष्टि तथा साथ ही वह स्वयं को सुरक्षित रखने की आवश्यकता भी अनुभव कर सकता है।

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