आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास मध्यकालीन अपभ्रंश भाषाओं से हुआ है। प्राचीन पाँच प्राकृतों से पाँच अपभ्रंश
भाषाओं का विकास हुआ है। इन पाँच अपभ्रंशों के साथ ही ब्राचड एवं खस दो अपभ्रंशों को और लिया जाता है। ब्राचड
(सं0 ब्राचड या व्राचट) का उल्लेख मार्कण्डेय के प्राकृत सर्वस्व में अपभ्रंश के 27 भेदों में मिलता है। खस (खश) उत्तरी पहाड़ी
भाग की भाषा थी। उसको भी अपभ्रंश में लिया है। इस प्रकार सात अपभ्रंशों से आधुनिक भाषाओं का विकास माना जाता
है।
हार्नले ने "Comparative Grammer of the Gaudian Languages" में एक भिन्न वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने विभिन्न दिशाओं के आधार पर भाषा-सीमा बनाने का प्रयत्न किया है। ये भाषा वर्ग हैं-
2. ग्रियर्सन द्वारा प्रस्तुत भारतीय आर्य भाषा का वर्गीकरण - जार्ज इब्राहिम ग्रियर्सन ने दो वर्गीकरण इस प्रकार हैं-
1. प्रथम वर्गीकरण - उन्होंने इस वर्गीकरण में समस्त भाषाओं को मुख्यत: तीन वर्गों में विभक्त किया है।
अपभ्रंश | विकसित आधुनिक भाषाएँ |
---|---|
1. शौरसेनी | (क) पश्चिमी हिन्दी, (ख) राजस्थानी, (ग) गुजराती |
2. महाराष्ट्री | मराठी |
3. मागधी | (क) बिहारी, (ख) बंगाली, (ग) उडि़या, (घ) असमी। |
4. अर्धमागधी | पूर्वी हिन्दी |
5. पैशाची | लहँदा |
6. ब्राचड | (क) सिन्धी, (ख) पंजाबी। |
7. खस | पहाड़ी |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की प्रमुख विशेषताएँ
1. आ0 भा0 आ0 संयोगात्मक पूर्णतया वियोगात्मक हो गईं।
2. प्राकृत और अपभ्रंश में विद्यमान ध्वनियाँ प्रचलित रहीं।
3. ध्वनि-विषयक कुछ विशेषताएँ हुईं
- पंजाबी आदि में उदासीन ‘अ’ स्वर, अवधी आदि में जपित या अघोष स्वर, गुजराती में मर्मर स्वरों का विकास।
- ऋ का लिखित रूप ऋ, परन्तु उच्चरित रूप रि, दक्षिण में रु।
- ष का उच्चारण श या स।
- ज्ञ का उच्चारण ग्यँ, ज्यँ या द्यं।
- संयुक्ताक्षरों में अ्, ण् का उच्चारण अनुस्वार ( ं ) के तुल्य।
- विदेशी आॅ क़ ख ग़ ज़ फ़ ध्वनियाँ भाषाओं में आ गई हैं, पर इनका शुद्ध उच्चारण नहीं होता है।
5. अन्तिम दीर्घ स्वर पर बलाघात न होने पर दीर्घ को हस्व स्वर।
6. बलाघात-रहित अन्तिम अ का लोप होता है। राम्, नाम्।
7. बलाघात के अभाव में आद्य स्वरों का लोप हो जाता है। अभ्यन्तर झ भीतर, उपरि झ पर।
8. संयुक्त व्यंजनों में से एक का लोप हो जाता है और क्षतिपूत्र्यर्थ पूर्व हस्व स्वर को दीर्घ। सप्त झ सात, अद्य झ आज।
9. शब्दों के रूप और कम हो गए। अपभ्रंश में 6 थे, आ0 भा0 आ0 में केवल दो रूप रह गए-1. मूल रूप, 2. विकृत
रूप।
10. आ0 भा0 आ0 में केवल गुजराती, मराठी में तीन लिंग है, शेष में दो लिंग हैं पु0, स्त्राी0। दो वचन रह गए हैं एक0,
बहु0।
11. क्रिया में कर्मवाच्य के रूप लुप्त हो गए। लकारों का प्रयोग घट गया। वर्तमान का बोध शतृ-प्रत्यय वाले रूपों के
साथ ‘होना’ सहायक क्रिया जोड़कर होता है। भूतकाल का बोध संस्कृत क्त-प्रत्यायन्त रूपों से बने शब्दों से होता है।
12. आ0 भा0 आ0 में अंग्रेजी, अरबी, फारसी आदि के हजारों शब्द आ गए है। तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ता जा
रहा है।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का संक्षिप्त परिचय
पश्चिमी हिन्दी
इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। इसकी पाँच प्रमुख बोलियाँ हैं-खड़ी बोली, ब्रजभाषा, बाँगरू, कन्नौजा और बुन्देली।
1. खड़ी बोलीः यह उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलोंμमेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फर नगर, देहरादून, बिजनौर, रामपुर आदि
की भाषा है। अम्बाला और पटियाला के पूर्वी भाग भी इसी क्षेत्र में आते हैं। यह आजकल ‘राजभाषा’ है। इसके
दो साहित्यिक रूप हैंμहिन्दी और उर्दू। हिन्दी में संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है और उर्दू में
अरबी-फारसी शब्दों की। हिन्दी की लिपि देवनागरी है और उर्दू की फारसी। कुछ विद्वान उर्दू को हिन्दी की एक
शैली मात्रा मानते हैं। राष्ट्रीय भावना की जागृति के कारण इसका प्रचार-प्रसार बहुत बढ़ा है। इस समय हिन्दी
में उच्चकोटि का साहित्य बड़ी मात्रा में लिखा जा रहा है।
2. ब्रजभाषाः यह मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुर की भाषा हैं इसके पश्चिमोत्तर भाग में राजस्थानी का और दक्षिणी भाग में बुन्देली का प्रभाव देखा जाता है। इसमें उच्चकोटि का साहित्य विद्यमान है। इसके प्रमुख साहित्यकार हैंμसूर, नन्ददास, मीरा, केशव, बिहारी, देव, भूषण, घनानन्द, रसखान, रहीम आदि। यह सरलता, सरसता एवं कोमलता के लिए विख्यात हैं।
3. बांगरूः यह दिल्ली, करनाल, रोहतक, हिसार, पटियाला, जींद और नाभा की बोली है। इसके अन्य नाम हैंμहरियाणी, देसाड़ी, जाटू।। इस पर राजस्थानी और पंजाबी का भी प्रभाव दिखाई देता है। यह वस्तुतः खड़ी बोली की एक विभाषा है।
4. कन्नौजीः अवधी और ब्रज के मध्य इसका क्षेत्रा है। इटावा, फर्रूखाबाद, कानपुर, शाहजहाँपुर, हर्दोई, पीलीभीत आदि जिलों में यह बोली जाती है। कन्नौजी क्षेत्रा के कवि हैंμचिन्तामणि, मतिराम, भूषण आदि। यह ब्रजभाषा की विभाषा है।
5. बुन्देलीः यह झांसी, जालौन, हमीरपुर, बांदा, ग्वालियर, ओरछा, सागर, दमोह, नरसिंहपुर आदि की बोली है। मिश्रित रूप में यह पन्ना, दतिया आदि के क्षेत्रों में भी बोली जाती है। वह भी ब्रजभाषा की एक विभाषा है। इसका साहित्य नगण्य है।
1. मारवाड़ीः यह पश्चिमी राजस्थान की बोली है। इसका क्षेत्रा हैμजोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि। पुरानी मारवाड़ी को डिंगल कहते हैं।
2. जयपुरीः यह राजस्थान के पूर्वी भाग में बोली जाती है। इसका क्षेत्र है-जयपुर, कोटा, बूंदी।
3. मालवीः यह राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग की भाषा है। इसका केन्द्र इन्दौर है।
4. मेवातीः यह अलवर और हरियाणा में गुडगाँव जिले के कुछ भागों में बोली जाती है। इस पर ब्रजभाषा का प्रभाव है।
1. भोजपुरीः भोजपुरी का आधार ‘भोजपुर’ गाँव है। यह शाहाबाद जिले में था। अब शाहबाद जिला का नाम ही भोजपुर हो गया है। इस भाषा का क्षेत्रा बहुत व्यापक है। इसमें बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिले हैं। बिहार का पश्चिमी भाग और उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग इसका क्षेत्रा है। इसमें प्रमुख जिले हैं-उ0 प्र0 के वाराणसी, गाजीपुर, बलिया, जौनपुर, मिर्जापुर, गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, आजमगढ़ और बिहार के भोजपुर (शाहाबाद), राँची, सारन, चम्पारन आदि। इसका स्वतन्त्रा साहित्य नहीं है। कबीर, धर्मदास, भीखा साहब आदि के पदों में भोजपुरी का प्रयोग हुआ है।
2. मैथिलीः यह मिथिला क्षेत्रा की भाषा है। इसका क्षेत्रा हैμदरभंगा, पूर्णिमा, सहरसा और मुजफ्फरपुर का पूर्वी भागं इसका ही एक भेद (अंगिका) मुंगेर और भागलपुर में बोला जाता है। बिहारी भाषाओं में सबसे अधिक साहित्य मैथिली में है। इसके प्रसिद्ध कवि हैं - विद्यापति, उमापति, हर्षनाथ, लखिमा ठकुरानी, मनबोध झा, चंदा झा आदि। मैथिली में मधुर लोकगीत हैं।
3. मगहीः यह पटना, गया, हजारीबाग एवं भागलपुर के पूर्वी भागों में बोली जाती है। इसमें उल्लेखनीय साहित्य नहीं है, कुछ लोकगीत हैं।
बंगाली (बंगला)
यह बंगाल प्रान्त की भाषा है। मागधी अपभ्रंश के पूर्वी रूप से इसका विकास हुआ है। इसकी साहित्यिक भाषा को ‘साधु भाषा’ कहते हैं। इसमें संस्कृत के शब्दों का बाहुल्य है। बंगाली में उच्चारण-संबंधी विशेषता है। इसके लिखित और उच्चारित रूप में भेद होता है। लक्ष्मीः को लोंक्खीं, परमानन्द को पोरमानन्द बोलते हैं। यह साहित्यिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध हैं। इसके प्रमुख साहित्यकार हैं चंडीदास, कृत्तिदास (रामायण), विजयगुप्त (पद्मपुराण), रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बंकिमचन्द्र शरत्चन्द्र आदि। बंगला की लिपि अलग है। यह प्राचीन देवनागरी से विकसित है। बंगाली का प्रामाणिक भाषाशास्त्राीय अध्ययन डाॅ0 सुनीतिकुमार चटर्जी ने ‘बंगाली का उद्भव और विकास’ ग्रन्थ में किया है।
1. अवधीः यह लखनऊ, फैजाबाद, सीतापुर, रायबरेली, गोंडा, बहराइच आदि जिलों में बोली जाती है। कानपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर आदि के भी कुछ भाग अवधी की सीमा में हैं। इसमें जायसी का पद्मावत और तुलसी का रामचरितमानस अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें पर्याप्त समृद्ध साहित्य है। डाॅ0 बाबूराम सक्सेना ने इसका प्रामाणिक भाषाशास्त्राीय अध्ययन ‘अवधी का विकास’ ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है।
2. बघेलीः यह बघेलखंड की बोली है। इसका केन्द्र रीवां है।
3. छत्तीसगढ़ीः इसका विस्तार रायपुर, बिलासपुर के जिलों में था। इसमें केवल कुछ लोकगीत मिलते हैं।
2. ब्रजभाषाः यह मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुर की भाषा हैं इसके पश्चिमोत्तर भाग में राजस्थानी का और दक्षिणी भाग में बुन्देली का प्रभाव देखा जाता है। इसमें उच्चकोटि का साहित्य विद्यमान है। इसके प्रमुख साहित्यकार हैंμसूर, नन्ददास, मीरा, केशव, बिहारी, देव, भूषण, घनानन्द, रसखान, रहीम आदि। यह सरलता, सरसता एवं कोमलता के लिए विख्यात हैं।
3. बांगरूः यह दिल्ली, करनाल, रोहतक, हिसार, पटियाला, जींद और नाभा की बोली है। इसके अन्य नाम हैंμहरियाणी, देसाड़ी, जाटू।। इस पर राजस्थानी और पंजाबी का भी प्रभाव दिखाई देता है। यह वस्तुतः खड़ी बोली की एक विभाषा है।
4. कन्नौजीः अवधी और ब्रज के मध्य इसका क्षेत्रा है। इटावा, फर्रूखाबाद, कानपुर, शाहजहाँपुर, हर्दोई, पीलीभीत आदि जिलों में यह बोली जाती है। कन्नौजी क्षेत्रा के कवि हैंμचिन्तामणि, मतिराम, भूषण आदि। यह ब्रजभाषा की विभाषा है।
5. बुन्देलीः यह झांसी, जालौन, हमीरपुर, बांदा, ग्वालियर, ओरछा, सागर, दमोह, नरसिंहपुर आदि की बोली है। मिश्रित रूप में यह पन्ना, दतिया आदि के क्षेत्रों में भी बोली जाती है। वह भी ब्रजभाषा की एक विभाषा है। इसका साहित्य नगण्य है।
राजस्थानी
इसका विकास शौरसेनी के नागर अपभ्रंश से हुआ है। इसका प्रमुख क्षेत्र राजस्थान है। पिंगल के अनुकरण पर राजस्थानी में ‘डिंगल’ काव्य की रचना हुई है। इसकी लिपि नागरी और महाजनी है। इसकी चार प्रमुख बोलियाँ हैंμमारवाड़ी, जयपुरी, मालवी और मेवाती।1. मारवाड़ीः यह पश्चिमी राजस्थान की बोली है। इसका क्षेत्रा हैμजोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि। पुरानी मारवाड़ी को डिंगल कहते हैं।
2. जयपुरीः यह राजस्थान के पूर्वी भाग में बोली जाती है। इसका क्षेत्र है-जयपुर, कोटा, बूंदी।
3. मालवीः यह राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग की भाषा है। इसका केन्द्र इन्दौर है।
4. मेवातीः यह अलवर और हरियाणा में गुडगाँव जिले के कुछ भागों में बोली जाती है। इस पर ब्रजभाषा का प्रभाव है।
गुजराती
शौरसेनी अपभ्रंश के नागर रूप से गुजराती का विकास हुआ है। यह गुजरात प्रान्त की भाषा है। इसका राजस्थानी से बहुत साम्य है। गुजरात का प्राचीन नाम ‘लाट’ था। यहाँ की भाषा ‘लाटी’ थी। संस्कृत में ‘लाटी’ शैली प्रसिद्ध हैं यहाँ अरब, पारसी, तुर्क आदि बड़ी संख्या में बाहर से आकर बसे हैं।मराठी
यह महाराष्ट्री अपभ्रंश से निकली है। यह महाराष्ट्र की भाषा है। इसकी चार बोलियाँ मुख्य हैं-- देशीः दक्षिण भाग में बोली जाती है। इसको दक्षिणी भी कहते हैं।
- कोंकणीः समुद्री किनारे की बोली है।
- नागपुरीः नागपुर के समीप की बोली है।
- बरारीः बरार की बोली है।
बिहारी
यह मागधी अपभ्रंश से निकली है। वस्तुतः बिहारी कोई भाषा नहीं है। यह बिहार प्रान्त में बोली जाने वाली भाषाओ के समूह का नाम है। इसमें प्रमुख भाषाएँ हैंμभोजपुरी, मैथिली और मगही।1. भोजपुरीः भोजपुरी का आधार ‘भोजपुर’ गाँव है। यह शाहाबाद जिले में था। अब शाहबाद जिला का नाम ही भोजपुर हो गया है। इस भाषा का क्षेत्रा बहुत व्यापक है। इसमें बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिले हैं। बिहार का पश्चिमी भाग और उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग इसका क्षेत्रा है। इसमें प्रमुख जिले हैं-उ0 प्र0 के वाराणसी, गाजीपुर, बलिया, जौनपुर, मिर्जापुर, गोरखपुर, देवरिया, बस्ती, आजमगढ़ और बिहार के भोजपुर (शाहाबाद), राँची, सारन, चम्पारन आदि। इसका स्वतन्त्रा साहित्य नहीं है। कबीर, धर्मदास, भीखा साहब आदि के पदों में भोजपुरी का प्रयोग हुआ है।
2. मैथिलीः यह मिथिला क्षेत्रा की भाषा है। इसका क्षेत्रा हैμदरभंगा, पूर्णिमा, सहरसा और मुजफ्फरपुर का पूर्वी भागं इसका ही एक भेद (अंगिका) मुंगेर और भागलपुर में बोला जाता है। बिहारी भाषाओं में सबसे अधिक साहित्य मैथिली में है। इसके प्रसिद्ध कवि हैं - विद्यापति, उमापति, हर्षनाथ, लखिमा ठकुरानी, मनबोध झा, चंदा झा आदि। मैथिली में मधुर लोकगीत हैं।
3. मगहीः यह पटना, गया, हजारीबाग एवं भागलपुर के पूर्वी भागों में बोली जाती है। इसमें उल्लेखनीय साहित्य नहीं है, कुछ लोकगीत हैं।
बंगाली (बंगला)
यह बंगाल प्रान्त की भाषा है। मागधी अपभ्रंश के पूर्वी रूप से इसका विकास हुआ है। इसकी साहित्यिक भाषा को ‘साधु भाषा’ कहते हैं। इसमें संस्कृत के शब्दों का बाहुल्य है। बंगाली में उच्चारण-संबंधी विशेषता है। इसके लिखित और उच्चारित रूप में भेद होता है। लक्ष्मीः को लोंक्खीं, परमानन्द को पोरमानन्द बोलते हैं। यह साहित्यिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध हैं। इसके प्रमुख साहित्यकार हैं चंडीदास, कृत्तिदास (रामायण), विजयगुप्त (पद्मपुराण), रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बंकिमचन्द्र शरत्चन्द्र आदि। बंगला की लिपि अलग है। यह प्राचीन देवनागरी से विकसित है। बंगाली का प्रामाणिक भाषाशास्त्राीय अध्ययन डाॅ0 सुनीतिकुमार चटर्जी ने ‘बंगाली का उद्भव और विकास’ ग्रन्थ में किया है।
उडि़या
यह उड़ीसा प्रान्त की भाषा है। इसको ओड्र (उड्र) जाति की भाषा से प्रभावित होने के कारण ‘ओड्री’ भी कहते हैं। उत्कल जाति की भाषा होनेसे ‘उत्कली’ भी कही जाती है। इस पर बंगाली और तेलुगु का अधिक प्रभाव है। संस्कृत भाषा के शब्द प्रचुर मात्रा में हैं। इसमें 15वीं शती के पुरी और भुवनेश्वर के शिलालेख हैं। इसकी लिपि भिन्न है। यह प्राचीन देवनागरी से विकसित हुई है।असमी
असमी, असमिया, आसामी या असामी असम प्रान्त की भाषा है। इसका बंगला से अधिक साम्य है। इसकी लिपि बंगला के सदृश है, केवल दो-तीन वर्ण भिन्न है। इस पर तिब्बती-बर्मी, नागा आदि भाषाओं का भी प्रभाव पड़ा है। इसके प्रसिद्ध कवि हैं-माधवकन्दली, शंकरदेव, माधवराम, सरस्वती आदि।पूर्वी हिन्दी
यह अर्धमागधी अपभ्रंश से विकसित हुई है। इसकी तीन बोलियाँ हैं-अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। इनकी लिपि नगरी है।1. अवधीः यह लखनऊ, फैजाबाद, सीतापुर, रायबरेली, गोंडा, बहराइच आदि जिलों में बोली जाती है। कानपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर आदि के भी कुछ भाग अवधी की सीमा में हैं। इसमें जायसी का पद्मावत और तुलसी का रामचरितमानस अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें पर्याप्त समृद्ध साहित्य है। डाॅ0 बाबूराम सक्सेना ने इसका प्रामाणिक भाषाशास्त्राीय अध्ययन ‘अवधी का विकास’ ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है।
2. बघेलीः यह बघेलखंड की बोली है। इसका केन्द्र रीवां है।
3. छत्तीसगढ़ीः इसका विस्तार रायपुर, बिलासपुर के जिलों में था। इसमें केवल कुछ लोकगीत मिलते हैं।
लहँदा (लहँदी)
इसका विकास पैशाची अपभ्रंश से हुआ है। यह पंजाब के पश्चिमी भाग तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग की भाषा है। पश्चिमोत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग मे पश्तो बोली जाती है। उससे भेद के लिए इसे हिन्दकी कहते हैं। इसके अन्य नाम हैंμजटकी, मुलतानी, डिलाही, उच्ची। लहँदा का अर्थ हैμपश्चिमी। इसकी लिपि लंडा है। यह उर्दू और गुरुमुखी में भी लिखी जाती है। इसकी चार मुख्य बोलियाँ हैं-(1) केन्द्रीय बोली, (2) दक्षिणी (मुलतानी), (3) उत्तरपूर्वी (पोठवारी), (4) उत्तरपश्चिमी (धन्नी)। इसमें सिक्खों का वार्ता-साहित्य, जनसाखी और लोकगीत हैं। इसका क्षेत्रा अब पाकिस्तान में चला गया है।सिन्धी
यह प्राचीन सिन्ध प्रान्त की भाषा थी। भारत-पाक विभाजन के बाद इसके बोलने वाले पंजाब, दिल्ली, बम्बई आदि में बस गए हैं। इसकी पाँच बोलियाँ हैंμबिचैली, सिरैकी, लाड़ी, थरेली, कच्छी। इनमें बिचैली मुख्य है। यह साहित्यिक भाषा हो गई है। इसकी लिपि लंडा है। यह अरबी और गुरुमुखी लिपि में भी लिखी जाती है। इसमें साहित्य नाममात्रा का है। उल्लेखनीय ग्रन्थ ‘शाहजी रिसालो’ है। ब्राचड अपभ्रंश के तुल्य आदिम त झ ट, द झ ड होता है। इसमें विदेशी शब्द अधिक हैं।पंजाबी
यह पंजाब प्रान्त की भाषा है। इस पर दरद भाषा का प्रभाव है। पंजाबी की एक बोली डोगरी है, जो जम्मू राज्य में बोली जाती है। पंजाबी की लिपि गुरुमुखी है। इससे सिक्खों का साहित्य विशेष रूप से लिखा जा रहा है। इसमें संस्कृत और प्राकृत के शब्द अधिक हैं।पहाड़ी
खस अपभ्रंश से इसका विकास हुआ है। कुछ विद्वान् शौरसेनी से ही इसका विकास मानते हैं। यह हिमालय के निचले भाग में बोली जाती है। इसकी लिपि नागरी है। इसके तीन भाषा-वर्ग हैं (1) पश्चिमी, (2) मध्य, (3) पूर्वी। पश्चिमी पहाड़ी की लगभग 30 बोलियाँ हैं। इनमें उत्तर प्रदेश के जोनसार-बाबर की जौनसारी तथा पश्चिमी पहाड़ी भाग शिमला आदि की शिरमौरी, चंबाली, कुलूई, क्यंथली बोलियाँ मुख्य हैं। मध्य पहाड़ी के दो भाग हैं (1) गढ़वाल की गढ़वाली, (2) कुमायूँ की कुमायूँनी। कुमायूँनी में थोड़ा साहित्य है। इनका लोक-साहित्य संपन्न है। पूर्वी पहाड़ी में नेपाली है। इसको खसकुरा, गोरखाली, पर्वतिया भी कहते हैं। यह नेपाल की राजभाषा है। इसका साहित्य नवीन है। डा0 टर्नर ने नेपाली पर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘नेपाली शब्दकोश’ लिखा है।आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का वर्गीकरण
वर्गीकरण प्रस्तुत करने वाले मुख्य भाषा-वैज्ञानिक हैं-हार्नलें, बेबर, ग्रियर्सन, डाँ0 सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा, श्री सीताराम चतुर्वेदी, डॉ0 भोलानाथ आदि।1. हार्नले द्वारा प्रस्तुत भारतीय आर्य भाषा का वर्गीकरण - प्रकार हार्नले ने आर्यों के बहिरंग तथा अंतरंग वर्गों के आधार पर ही उनकी भाषाओं को भी वर्गीकृत किया है। इस आधार पर हार्नले ने अंतरंग और बहिरंग दो वर्ग बनाए।
हार्नले ने "Comparative Grammer of the Gaudian Languages" में एक भिन्न वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने विभिन्न दिशाओं के आधार पर भाषा-सीमा बनाने का प्रयत्न किया है। ये भाषा वर्ग हैं-
- पूर्वी गौडियन : पूर्वी हिन्दी (बिहारी सहित), बंगला, उड़ीसा, असमी।
- पश्चिमी गौडियन : पश्चिमी हिन्दी (राजस्थानी सहित), गुजराती, सिन्धी, पंजाबी।
- उत्तरी गौडियन : पहाड़ी (गढ़वाली, नेपाली आदि)
- दक्षिणी गौडियन : मराठी।
1. प्रथम वर्गीकरण - उन्होंने इस वर्गीकरण में समस्त भाषाओं को मुख्यत: तीन वर्गों में विभक्त किया है।
1. बाहरी उपशाखा -
- पश्चिमोत्तर वर्ग : लहँदा, सिन्धी।
- दक्षिणी वर्ग : मराठी।
- पूर्वी वर्ग : उड़िया, बंगला, असमी, बिहारी।
- पूर्वी हिन्दी।
- केन्द्रीय वर्ग : पश्चिमी हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, राजस्थानी (भीली, खानदेशी)
- पहाड़ी़वर्ग : नेपाली (पूर्वी पहाड़ी), मध्य पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी।
2. द्वितीय वर्गीकरण - गिय्रसर्न ने बाद में हिन्दी को विशेष महत्व देते हएु एक नए ढगं का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है इस वर्गीकरण में विभिन्न भाषाओं की समान विशेषताओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
- मध्य देशीय भाषाएँ - पश्चिमी हिन्दी
- अन्तर्वत भाषाएँ - पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, पहाड़ी (पश्चिमी हिन्दी से अधिक समता रखने वाली भाषाएँ); पँर्वी हिन्दी (बाहरी भाषाओं से समता रखने वाली भाषाएँ)
- बाहरी भाषाएँ - 1. श्चिमोत्तरी भाषाएँ - लहँदा, सिन्धी 2. दक्षिणी भाषा -मराठी 3. पूर्वी भाषाएँ - बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी।