उच्च रक्तचाप के लक्षण एवं कारण क्या है ?

उच्च रक्तचाप

उच्च रक्तचाप-आयु वर्ग विशेष के लिए मान्य अधिकतम रक्त-चाप से अधिक रक्त-चाप हो जाना उच्च रक्तचाप कहलाता हैं। उच्च रक्तचाप को हाइपरटेन्शन (Hypertension) तथा हाई ब्लड प्रेशर (High blood pressure) अति रक्तदाब, रक्तभार वृद्धि, धमनी जरा रोग आदि नामों से भी जाना जाता हैं।

जब तक शरीर की धमनियाँ और रक्त-नलिकाएँअपनी स्वाभाविक दशा में रहती हैं, अर्थात् जबतक लचीली रहती है एवं उनके छिद्र पूरे खुले रहते हैं तब तक रक्त को शरीर में आगे बढ़ाने के लिए हृदय को आवश्यकता से अधिक दबाव डालने की आवश्यकता नहीं पड़ती। स्वाभाविक रूप से हृदय से निकलकर रक्त धमनियों और रक्त-नलिकाओं के माध्यम से शरीर के प्रत्येक भाग में पहुंचता रहता है। परंतु जब धमनियों और रक्त-नलिकाओं के छिद्र विभिन्न कारणों से संकरे पड़ जाते है तब हृदय को अस्वाभाविक रूप से अधिक दबाव ड़ालकर पतली और तंग रक्त नलिकाओं में रक्त को ठेलना पड़ता है। इस कार्य हेतु हृदय को अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ता है। इसे ही उच्च रक्तचाप कहा जाता हैं।

रक्तचाप संबंधी क्रियाएँ मस्तिष्क में स्थित एक विशेष स्नायुकेंद्र के नियंत्रण में होती हैं। हमें इसका आभास नहीं होता। ग्रंथियों से निकलने वाले कुछ रासायनिक पदार्थ भी ऐसा ही प्रभाव ड़ालते है। इस प्रकार शरीर की आवश्यकता के अनुसार रक्तचाप प्रत्येक क्षण घटता बढ़ता रहता है। स्वस्थ अवस्था में यह रक्तचाप के घटने बढ़ने का अन्तर अधिक नहीं होता।

उच्च रक्तचाप प्रारंभिक उच्च रक्तचाप अथवा अज्ञात हेतुक उच्च रक्तचाप एवं द्वितीयक उच्च रक्तचाप अथवा लाक्षणिक उच्च रक्तचाप, दो प्रकार का होता हैं। वह उच्च रक्तचाप जिसमें बाह्यरूप से उसकी उत्पत्ति का कोई स्पष्ट कारण नहीं मिलता है उसे अज्ञात हेतुक उच्च रक्तचाप अथवा प्रारंभिक उच्च रक्तचाप कहा जाता है। 90प्रतिशत व्यक्ति इसी प्रकार के उच्च रक्तचाप से पीडि़त रहते है। इसके विपरीत कुछ ऐसे भी रोगी होते है जिनमें शुरू से ही कुछ न कुछ लक्षण अवश्य मिलते है। ऐसे उच्च रक्तचाप को लाक्षणिक उच्च रक्तचाप अथवा द्वितीयक उच्च रक्तचाप कहते है। यह अन्य रोगों के फलस्वरूप भी होता हैं।

उच्च रक्त चाप के प्रकार

95 प्रतिशत से अधिक उच्च रक्त चाप के रोगी में इसके प्रमुख कारण का पता नहीं चल पाता है। इस प्रकार के उच्च रक्त चाप को अनिवार्य उच्च रक्त चाप (Essential hypertension) कहा जाता है। इस प्रकार के उच्च रक्त चाप के कारणों को चिकित्सा विज्ञान अभी तक ठीक प्रकार नहीं समझ पाया है। विभिन्न प्रकार के चिकित्सा शोध में इसका सम्भाव्य कारण गुर्दा, परिधिय रक्त नलिका अवरोध एवं अनुकम्पीय तंत्रिका तंत्र आदि की असामान्यता एवं अन्य कारण जैसे कुछ खास भौगोलिक क्षेत्र में पाये जाने वाले मानव जाति, अनुवांशिक कारक, पर्यावरण आदि माना गया है।

द्वितीयक उच्च रक्त चाप (Secondary hypertension) लगभग 5 प्रतिशत रोगी में विशिष्ट रोग के रूप में माना गया है। यहाॅं रक्त चाप की असमानता का कारण सोडियम लवण की असामान्य जमावट और/या रक्त नलिकाओं का संकुचन आदि माना गया है।

उच्च रक्तचाप के कारण

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसके निम्नलिखित कारण माना गया है- वंशानुगत, उम्र, धूम्रपान, अत्यधिक वसायुक्त भोजन, निष्क्रिय जीवन शैली, व्यक्तित्व आदि। अब आप इन कारणों की व्याख्या से इसे समझ सकेंगे की किस प्रकार यह कारण उच्च रक्त चाप के लिए उत्तरदायी है।

1. वंशानुगत  

यदि माता-पिता दोनों उच्च रक्त चाप से पीडि़त हैं तो उनके संतान में अन्य व्यक्ति के तुलना में उच्च रक्त चाप की संभावना 40 से 50 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। यदि माता-पिता में से किसी एक उच्च रक्त चाप से पीडि़त हों तो 30 प्रतिशत तक उसके संतान में अन्य व्यक्ति की तुलना में उच्च रक्त चाप होने की संभावना बढ़ जाएगी।

इस प्रकार आपने देखा की वंशानुगत कारण भी उच्च रक्त चाप को प्रभावित करता है। परन्तु यदि वातावरण, व्यवहार एवं जीवन शैली में समुचित परिवर्तन किया जाय तो इन संभावनाओं को कम से कम किया जा सकता है।

2. उम्र 

40 से 60 उम्र समूह में उच्च रक्त चाप होने की संभावना अधिक होती है। आज युवावर्ग में भी उच्च रक्त चाप बढ़ रही है। अधिकांश व्यक्ति में उम्र बढ़ने के साथ रक्त चाप भी बढ़ता है। अधिक उम्र में कुछ अन्य कारण भी इस रोग को उत्पन्न कर सकता है। बुढ़ापे में शारीरिक क्षमता में कमी एवं जीवनी शक्ति का ह्रास, शारीरिक क्रिया में व्यतिरेक भी इस रोग को बढ़ावा देता है। यह रोग आज अधिकांशतः वयस्कों में देखा जाता है। बुढ़ापे में रक्त धमनियों की लचीलापन में कमी के कारण रक्त चाप बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है।

3. धूम्रपान 

अब यह अविवादित हो गया है कि धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। फेफड़े का कैंसर एवं इससे संबंधित अन्य रोग की संभावना भी धूम्रपान से बढ़ जाता है। साथ ही धूम्रपान हृदय की धमनियों को सक्त बना देती है तथा परिधिय रक्त नलिकाओं के क्षय होने की दर को भी बढ़ा देती है परिणामस्वरूप परिधिय अवरोध बढ़ जाता है। इस प्रकार यह देखा गया है कि धूम्रपान करने वाले व्यक्ति में उच्च रक्त चाप की संभावना धूम्रपान नहीं करने वाले व्यक्ति से कई गुणा अधिक होता है।

4. कोलेस्टेराॅल एवं उच्च वसायुक्त भोजन 

कोलेस्टेराॅल एवं रक्त वसा की अधिकता अधिकांशतः रक्त नलिका संबंधी रोगों की संभावना को बढ़ा देता है। रक्त नलिका के रोगग्रस्त होने से उच्च रक्त चाप की संभावना बढ़ जाती है इसलिए हम लोगों को सामान्य रक्त चाप की स्थिति में वसायुक्त भोजन कम कर देना चाहिए ताकि अधिकतम स्वास्थ्य बना रहे। अत्यधिक वसा रक्त नलिकाओं के दिवारों में जमकर उसे सक्त बना देती है जिससे रक्त संचार में अवरोध बढ़ने लगता है।

5. निष्क्रिय जीवनशैली 

बढ़ते हुए शहरीकरण एवं यांत्रिकता के कारण शारीरिक श्रम एवं व्यायाम में कमी आयी है। आधुनिक तकनीक के कारण आज हम लोग मोटर वाहन, टेलीविजन, सिनेमा, कम्प्युटर के साथ अधिक समय बिताते हैं। घर एवं कार्यस्थल में भी शारीरिक गतिविधि कम होती जा रही है। भोग विलास की वस्तुएॅ आज लोागों की आवश्यकता बनती जा रही है। उपरोक्त कारणों से हम दिनों-दिन शारीरिक श्रम से दूर होते जा रहे हैं।

इस प्रकार शारीरिक निष्क्रियता वाले व्यक्ति जैसे अधिकारी, पदाधिकारी, व्यापार से जुड़े कुछ अधिकारियों में उच्च रक्त चाप होने की संभावना अधिक रहती है। शोध अध्ययन बताते हैं कि शारीरिक व्यायाम की कमी से शरीर में स्थूलता, कमजोरी एवं उच्च रक्त चाप की संभावना बढ़ जाती है खास कर जब यह मानसिक तनाव से जुड़ा हो।

6. व्यक्तित्व, तनाव एवं मनोभाव 

शोध अध्ययन से यह विदित होता है कि स्थिर मानसिक एवं संवेगात्मक तनाव शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता को कमजोर बना देता है। अधिकांश मनोवैज्ञानिक एवं मनोचिकित्सक का यह मानना है कि व्यक्तित्व का प्रकार अनिवार्य उच्च रक्त चाप से संबंधित है। जो व्यक्ति दूसरे से सौहार्दपूर्ण संबंध एवं स्वअनुशासित होते हैं उनमें उच्च रक्त चाप होने की संभावना कम होती है जबकि जो व्यक्ति अधिक उत्तेजित, प्रतिस्पर्धी, महत्वाकांक्षी एवं तनावपूर्ण जीवनशैली के होते हैं उनमें उच्च रक्त चाप की संभावना बढ़ जाती है।

हम अपने व्यक्तित्व की प्रकृति के अनुसार ही आंतरिक मनोभाव, मानसिक तनाव एवं वातावरणजन्य परिस्थितियों के साथ प्रतिक्रिया करते हैं। इस प्रकार आंतरिक या बाह्य उद्दीपक इस बात पर निर्भर करता है कि हम उसके साथ किस प्रकार की अनुक्रिया करते हैं। कोई भी परिस्थिति या कारक कितना तनाव उत्पन्न कर सकता है यह हमारे मनोवृत्ति के उपर निर्भर करता है। यदि हम आंतरिक रूप से सबल एवं मानसिक रूप से परिपक्व हैं तो किसी भी परिस्थिति को, जो कि तनाव को बढ़ा सकता है, के साथ भली प्रकार सामंजस्य स्थापित कर उसे दूर कर सकते हैं। जबकि व्यक्तित्व का नकारात्मक पहलू के कारण हम तनावग्रस्त हो जाते हैं। इस प्रकार यह तनाव हमारे उर्जा का क्षय कर हमें कमजोर एवं रोगग्रस्त बना देता है।

इसके अतिरिक्त अन्य कारक भी द्वितीयक उच्च रक्त चाप (Secondary hypertension) के कारण माने जाते हैं-
  1. अल्कोहल का सेवन
  2. मोटापा
  3. गर्भकाल में भी रक्त चाप बढ़ने की संभावना रहती है
  4. कुछ गुर्दा रोग जैसे रेनल वेसक्युलर रोग, पेरेनकाईमल रेनल रोग, ग्लोमेरूलोनेफ्राइटिस, पाॅलिसिसटिक गुर्दा रोग आदि में
  5. अन्तःस्त्रावी ग्रंथि से संबंधित रोग जैसे कोण्स सिण्ड्रोम, हाइपरथाॅराडिज्म, एक्रोमिगेली, कुसींगस सिण्ड्रोम, थाइरोटाॅक्सिकोसिस आदि में भी उच्च रक्त चाप होने की संभावना रहती है
  6. कुछ दवा जैसे गर्भनिरोधक गोलियाॅ जिसमें एस्ट्रोजन, एनाबोलिक स्टेराॅइड, काॅरटिकोस्टेराॅइड, नाॅन स्टेराॅइडल ऐन्टी इन्फलामेटरी ड्रग्स आदि के विपरीत प्रभाव से भी रक्त चाप बढ़ने की संभावना रहती है
  7. महाधमनी के संकुचन के कारण
  8. अधिक मानसिक श्रम एवं तनावपूर्ण दिनचर्या
  9. मानसिक तनाव, चिन्ता, क्रोध, असहिष्णुता, उॅंची महत्वाकाॅक्षाए
  10. अत्यधिक मांसाहार
  11. नमक का अधिक प्रयोग
उच्च रक्त चाप खास कर द्वितीय उच्च रक्त चाप के प्रमुख कारण है। अनिवार्य उच्च रक्त चाप का कोई प्रमुख कारण ज्ञात नहीं माना जाता है।

उच्च रक्तचाप के लक्षण

उच्च रक्त चाप के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित है-
  1. सर के पिछले हिस्से में दर्द, विशेषकर सुबह के समय
  2. हृदय का तीव्र धड़कना, जिसे आसानी से महसुस कर सकते हैं
  3. भय या चिन्ताग्रस्त होना
  4. सर चकराना
  5. सर में खालीपन या शून्यता महसुस होना।
  6. शारीरिक एवं मानसिक थकान, उर्जा की कमी
  7. उदासिनता, विषाद, चिन्ता
  8. चिडचिड़ापन, भावनात्मक उद्वेग
  9. असहज महसुस करना एवं उसे व्यक्त न कर पाना
उच्च रक्त चाप की तीव्र अवस्था में निम्न लक्षण दिखाई देते हैं-
  1. सरदर्द,
  2. सांस फूलना
  3. धड़कन बढ़ना
  4. दृष्टि में गड़बड़ी
  5. भूख की कमी
  6. अनिद्रा
  7. छाती में खिंचावट महसुस होना
  8. चक्कर आना
  9. घबराहट
  10. याद्दास्त एवं एकाग्रता की कमी
  11. भावावेग में उत्तेजित होना,
  12. बात-बात में चिड़चिड़ाहट एवं क्रोध
  13. कभी-कभी नाक से खून आ जाना
मस्तिष्क संबंधी- उच्च रक्तचाप के75 प्रतिशत रोगियों में प्रायः शिरशूल मिलता है। ये शूल सिर के पश्चिम प्रदेश में रहता है तथा विशेष रूप से सुबह के समय जागकर उठने पर होता है, जो बाद में धीरे-धीरे कम होते जाता है। रोगी के सिर में बार-बार चक्कर आता है और खड़े रहने में इधर-उधर धक्के से लगते है।

मस्तिष्क की धमनियों में कठोरता आने से रोगी की बौद्धिक, मानसिक क्षमताओं में कमी आती है। बुद्धि, स्मृति, एकाग्रता आदि की शक्तियाँ घट जाती है। जिसके फलस्वरूप स्वल्प कारणों से ही रोगी व्याकुल एवं अशान्त हो जाता है। किसी किसी रोगी में बोलने की शक्ति नष्ट हो जाती है तो किसी-किसी रोगी में दृष्टि-मन्दता का लक्षण हो जाता है। किसी-किसी रोगी में थोड़े समय के लिए मूच्र्छा अथवा गहरी निद्रा होने का लक्षण भी मिलता है। अन्त में किसी मस्तिष्क धमनी में अवरोध होकर मूच्र्छा तथा पक्षाघात के लक्षण हो जाते हैं।

हृदय संबंधी- उच्च रक्तचाप के आधे के लगभग रोगियों में हृदय कम्पन एवं श्वास काठिन्य के लक्षण होने लगते हैं। श्वास केन्द्र को रक्त के या आक्सीजन कम मिलने तथा रक्त में एसीडोसिस के बढ़ जाने से श्वास काठिन्य हो जाता है अथवा इसकी उत्पत्ति फुफ्फुसों में ओडिमा होने से होती है। श्वास काठिन्य का उपद्रव रात्रि में सोने के 2 घण्टे पश्चात तीव्र रूप में उत्पन्न हो सकता है, जिसे हृदयजन्य श्वास कहते हैं।

रक्तचाप के बढ़ने पर हृदयशूल के दौरे आने लगते हैं। थोड़े परिश्रम से अथवा बिना परिश्रम के भी दौरे पड़ने लगते हैं। सामान्य हृदयशूल, हृदय धमनी के संकीर्ण होने से होता है परन्तु उच्च रक्तचाप में हृदय धमनी संकीर्णन होते हुए भी दौरा पड़ता हैं। उच्च रक्तचाप से कभी-कभी नासा रक्तस्त्राव भी हो सकता है।

वृक्क संबंधी- वृक्कों की सूक्ष्म धमनियों के कमजोर होने से उनकी ट्यूबूल्स का पोषण कम होता है जिससे उच्च रक्तचाप के आधे के लगभग रोगियों में मूत्र रात्रि के समय अधिक मात्रा में तथा बार-बार त्याग होने का लक्षण होता है। उच्च रक्तचाप की प्रारम्भिकावस्था से ही यह लक्षण मिलने लगते है। उच्च रक्तचाप के उग्र स्वरूप में मूत्र त्याग की मात्रा और भी अधिक बढ़ जाती है।
  1. जंघाओं की माँसगत सूक्ष्म धमनियों के कठोर हो जाने से प्रान्त भागों की माँसपेशियों का पोषण कम हो जाता है जिससे रात्रि के समय उनमें वेदना होने लगती है। 
  2. पैरों के धमनी काठिन्य के कारण रक्त कम मिलने से उनकी वसा शुष्क हो जाती है और वे कृश होते जाते हैं। 
  3. पैरों तथा हाथों को रक्त कम मात्रा में मिलने के कारण नाखुन शुष्क तथा कठोर दिखाई देने लगते है। 
  4. त्वचा को रक्त न मिलने से त्वचा भी पतली, शुष्क एवं झुरीदार हो जाती है। 
  5. जब आमाशय की धमनियों मंे क्षीणता आती है तो अजीर्ण सम्बन्धी लक्षण होने लगते हैं। 
  6. कभी-कभी आँत, पित्ताशय तथा प्लीहा की धमनियाँ कठोर हो जाती है तब इनमें तीव्र वेदना होने लगती है।
  7. फुफ्फुस की किसी धमनी में अवरोध होने से पाश्र्वशूल और रक्त वमन के लक्षण उत्पन्न होते हैं। 
  8. नेत्रों की रेटिना की धमनियों के कठोर एवं संकुचित हो जाने से वह चाँदी के तार के समान तुड़ी-मुड़ी दृष्टिगोचर होती है तथा शिराएँ भरी हुई दीखती है। 
उपरोक्त लक्षणों के अतिरिक्त रोगी में निम्न लक्षण भी होते है- 
  1. हमेशा आलस्य बने रहना। 
  2. शारीरिक एवं मानसिक परिश्रम से अनिच्छा। 
  3. समय-समय पर श्वास बन्द होने का भाव। 
  4. रात्रि के समय अच्छी नींद का न आना अथवा बिल्कुल ही न आना। 
  5. बीच-बीच में नाक से रक्तस्त्राव। 
  6. हृदय में दर्द। 
  7. पैरों में झुनझुनी इत्यादि।

उच्च रक्त चाप के संभावित दुष्परिणाम

उच्च रक्त चाप का खतरा केवल इतना ही नहीं है, कि इसमें रक्त चाप अत्यधिक बढ़ जाता है बल्कि कई अन्य दुष्परिणाम भी सामने आते हैं, जहाॅं रक्त नलिकाएं शरीर के सभी हिस्से में रक्त संचारित करती है, जब रक्त धमनियाॅ संकुचित होती है तो इन अंगों में रक्त प्रवाह पर्याप्त नहीं होने के कारण वहाॅं आक्सीजन की आपूर्ति एवं चयापचयी अनुपयोगी या विशाक्त पदार्थ का निष्कासन भी कम हो जाता है। साथ ही साथ उतक का क्षय दर भी बढ़ जाता है। इससे शारीरिक अंगों की सुचारू कार्यप्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मस्तिष्क, हृदय, गुर्दा, दृष्टि आदि पर उच्च रक्त चाप का घातक प्रभाव पड़ता है। कुछ घातक प्रभाव इस प्रकार हैं-

1. हृदय - उच्च रक्त चाप के कारण हृदय अत्यधिक तनावपूर्ण एवं उसकी पेशियाॅं थकान की स्थिति में पहुॅंच जाती है साथ ही इसका आकार भी बढ़ जाता है। आंतरिक घटक जैसे वाल्व आदि क्षतिग्रस्त होने लगते हैं जिससे हृदय की कार्य प्रणाली दुर्बल होने लगता है। हृदयाघात की अत्यधिक संभावना रहती है।

2. मस्तिष्क - मस्तिष्क में रक्त प्रवाह कम होने से इसकी उच्चतम कार्यक्षमता प्रभावित होती है। इसका शुरूआती परिणाम सरदर्द, चक्कर आना आदि तथा बाद में संवेगात्मक असंतुलन, याद्दास्त एवं एकाग्रता में गिरावट के साथ-साथ मस्तिष्क की संरचानात्मक बदलाव, रक्त धमनिकाओं का फटना जिसके परिणामस्वरूप पक्षाघात एवं मृत्यु भी हो सकती है।

3. दृष्टि - उच्च रक्त चाप से दृष्टि क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जैसे धुधला दिखाई देना, आगे इससे दृष्टिहीनता भी हो सकता है। इसके अतिरिक्त दृष्टि से संबंधित अन्य दोष भी होने की संभावना रहती है।

4. गुर्दा - उच्च रक्त चाप के परिणामस्वरूप गुर्दा की कार्य प्रणाली पर भी प्रतिकूल प्रभाव पडता है जिससे इसकी कार्य क्षमता घटती है और चयापचयिक विषाक्त पदार्थ रक्त से ठीक प्रकार छन नहीं पाता है एवं रक्त की विषाक्तता बढ़ने लगती है जिससे व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकता है।

संदर्भ -
  1. योग द्वारा रोगों की चिकित्सा - डाॅ. फुलगेंदा सिन्हा
  2. योग महाविज्ञान- डाॅ. कामाख्या कुमार
  3. शरीर-रचना एवं शरीर-क्रिया विज्ञान - श्रीनन्दन बन्सल
  4. बृहद् प्राकृतिक चिकित्सा -डाॅ. ओमप्रकाश सक्सेना

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