हृदय रोग के व्यक्ति में कौन - कौन से लक्षण पाये जाते हैं ?

हृदय-रक्त-संचरण क्रिया का यह सबसे मुख्य अंग है। यह नाशपाती के आकार का मांसपेशियों की एक थैली जैसा होता है। हाथ की मुट्ठी बाँधने पर जितनी बड़ी होती है, इसका आकार भी उतना ही बड़ा होता है। इसका निर्माण धारीदार एवं अनैच्छिक पेशी - ऊतकों द्वारा होता है। वक्षोस्थि से कुछ पीछे की ओर तथा बाँयें हटकर दोनों फेफड़ों के बीच इसकी स्थिति है। यह पाँचवीं, छठी, सातवीं तथा आठवीं पृष्ट देशीय -कशेरूका के पीछे रहता है इसका शिरों भाग बाँये बेन्ट्रिकल से बनता है निम्न भाग के अपेक्षा इसका ऊपरी भाग कुछ अधिक चैड़ा होता है इस पर एक झिल्ली मय आवरण चढ़ा रहता है जिसे हृदययवरण या पेरिकार्डियम कहते हैं इस झिल्ली से एक का रस निकलता है जिसके कारण हृदय का ऊपरी भाग आद्र बना रहता है। हृदय का भीतरी भाग खोखला रहता है यह भाग सूक्ष्म मांसपेशी की झिल्ली द्वारा ढ़का तथा चार भागों में बंटा रहता है इस भाग में क्रमशः ऊपर नीचे तथा दायें बाँये चार प्रकोष्ठ होतें हैं।

कार्यानुरूप हृदय को दो भागों में बांटा गया है:- 1. हृदय का आधा भाग फुफ्फसीय परिसंचरण से संबंधित है, इसे दाहिने हृदय के रूप में जाना जाता है। 2. हृदय का दूसरा भाग दैहिक परिसंचरण से संबेधित है इसे बायें हृदय के रूप में जाना जाता है। हृदय के दोनों भागों में अपने-अपने दो खण्ड होते है। एक खण्ड रक्त प्राप्त करता है जो आलिंद या एट्रियम कहलाता है दूसरा खण्ड एट्रियम में संग्रहित रक्त प्राप्त करके हृदय से बाहर पंप कर देता है। वह निलय या वेंट्रिकल कहलाता है।

हृदय की संरचना

इसका भार व्यस्क व्यक्ति में 200 से 260 ग्राम तक होता है। यह एक भित्ति द्वारा दांये ओर बांये भागों में विभक्त होता है। जन्म के पश्चात् इन दोनों भागों में संबंध नहीं रहता। इनमें से प्रत्येक भाग पुनः दो भागों या कोष्ठों में विभाजित हो जाता है ऊपर का कोष्ठ आलिंद तथा नीचे का कोष्ठ निलय कहलाता है। इस प्रकार दो आलिंद तथा दो निलय होते हैं। दोनों ओर, आलिंद ओर निलय का एक दूसरे से आलिंद निलय द्वार पर सम्मिलिन होता है। यह द्वार कपाटों द्वारा सुरक्षित रहता है। दाँयी ओर का कपाट त्रिकपर्दीवाल्व तथा बांयी ओर का कपाट द्विकपर्दीवाल्व कहलाता है। आलिंद -नियल वाल्व में से रक्त केवल आलिंद से निलय की ओर प्रवाहित हो सकता है इसके विपरीत दिशा में कभी प्रवाहित नहीं हो सकता।

हृदय रोग के प्रकार

हृदय रोगों के निम्नांकित भेद होते हैं:-

1. हृत्कम्प

इस रोग में जोर-जोर से दिल धड़कने के दौरे आते हैं। उस वक्त रोगी को घबराहट बढ़ जाती है तथा उसे मृत्यु - भय होने लगता है। यह रोग पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों को अधिक होता है। आकस्मिक घटनाओं, भय या क्रोध की स्थिति में भी हृदय तीव्र गति से धड़कने लग जाता है। हृदय की पेशियों और स्नायुओं की निर्बलता इस रोग का मूल कारण है।

इस रोग के अन्य प्रमुख कारण है -
  1. नशीली चीजों का सेवन
  2. शारीरिक और मानसिक दुर्बलता,
  3. अजीर्ण,
  4. रक्तहीनता,
  5. स्नायुविकार,
  6. अनियमित आहार-विहार,
  7. हृदयदोष,
  8. वीर्य-विकार,
  9. खूनी बवासीर एवं पेट में अपच के कारण वायु की उत्पत्ति आदि
हृदय में कोई दोष उत्पन्न हो जाने के कारण जब हृत्कम्प रोग होता है तो उसमेें प्रायः हाथ बर्फ की भाँति ठण्डे हो जाते हैं तथा रोगी को ठण्डा पसीना आता है।

2. हृदय की धड़कन का बंद होने लगना

हृदय की धकड़न तो अकस्मात् बंद हो जाती है, परन्तु उसके पूर्व रोगी को कितने ही लक्षणों द्वारा उसका आभास अवश्य ही मिल जाता है। हृदय की धड़कन सदैव के लिए बंद होने से पहले उसमें कमी होने लगती है जिसे हृदय या दिल का बैठाना कहते हैं। साथ में हृदय में कभी - कभी दर्द भी होता है। प्रायः पेट में नाभि के ऊपर कठिन पीड़ा भी होती है। जिसे साधारणतः कलेजे का दर्द समझा जाता है।

हृदय की धड़कन बंद होकर जब मृत्यु होने को होती है तो अत्यधिक और अवर्णनीय प्रकार की रोगी को बेचैनी होती है। अचानक ही बदन में सख्त गर्मी मालूम होने लगती है और उसके बाद पसीना आता है। छाती के पास रोगी को इतना अधिक तीव्र दर्द होता है कि रोगी बुरी तरह से छटपटाने लगता है।

3. हृदयशूल

हृदय की रक्त कोशिकाओं से प्रकृति जब वहाँ पर एकत्रित विजातीय द्रव्य को बाहर निकाल फेंकने की चेष्टा करती है तो रूकावटों को दूर करने में विजातीय द्रव्य के कणों में रगड़ व टक्कर होती है, जिससे भयानक पीड़ा की अनुभूति होती है। यही - ‘ हृदयशूल’ या दिल का दर्द है जिसे अँग्रजी में ‘एन्जाइना पैक्टोरिस कहते हैं। यदि समय पर इस रोग की सफल चिकित्सा न की जाए तो रोगी की मृत्यु निश्चित है। कभी -कभी हृदय और उसके स्नायुओं में कमजोरी आ जाने के कारण भी यह दर्द उत्पन्न होता है।

हृदयशूल के समय रोगी बुरी तरह घबराता है। श्वास लेने में कष्ट होने लगता है और मृत्यु- भय साक्षात् उपस्थित हो जाता है। कभी-कभी यह दर्द बढ़कर पूरे बाँए हाथ और पूरी बाँयी छाती तक फैल जाता है। उस समय रोगी का मुँह लाल, बदन ठण्डा और नाड़ी की गति धीमी हो जाती है। दर्द के दौरे आते हैं। दर्द साधारणतः के 3-4 मिनट तक रहता है। कभी-कभी इससे अधिक समय तक भी रहता है।

4. हृदय का आकार में छोटा या बड़ा हो जाना

हृदय में अथवा हृदय के आस -पास विजातीय द्रव्य के एकत्रित हो जाने से रक्तनलिकाओं में दूषित पदार्थ भर जाते हैं जिससे वे सँकरी हो जाती है और साथ ही हृदय की दीवारें भी मोटी हो जाती है तथा फेल भी जाती है जिससे हृदय आकार में बड़ा प्रतीत होने लगता है।

विजातीय द्रव्य की ही गर्मी से जब हृदय सूख जाता है तो उस समय वह आकार में छोटा हो जाता है। इन दोनों ही परिस्थितियों में रक्त को शरीर के समस्त भागों में पहुँचाने हेतु हृदय को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है।

5. हृदय शोथ

हृदय में शोथ (सूजन) उत्पन्न हो जाना इस बात का प्रमाण है कि हृदय में विजातीय द्रव्य काफी मात्रा में एकत्रित हो गया है। हृदय चारों ओर से एक प्रकार की झिल्ली से ढँका होता है। जब इसकी झिल्ली में सूजन हो जाती है तो उसे ‘परिहार्दिक सूजन’ ;च्मतपबंतकपजपेद्ध कहते हैं और जब यह सूजन हृदय की भीतरी झिल्ली में होती है तो उसे - ‘अन्तःहार्दिक सूजन’ (इण्डो कार्डइटिस) कहते हैं तथा जब स्वयं हृदय अथवा उसकी माँसपेशियों में सूजन हो जाती है तब उसे ‘मध्य हार्दिक सूजन’ कहते हैं।

प्रायः हृदय को ढँकने वाली झिल्ली जिसे ‘ हृदयावरण’ कहते हैं, में पानी आ जाने से भी हृदय सूजा हुआ प्रतीत होता है जिसकी बढ़ी हुई अवस्था में रोगी को साँस लेने में कष्ट होता है।
  1. पारिहार्दिक सूजन में हृदय में मीठा-मीठा दर्द होता है, नाड़ी तेज चलती है और कभी-कभी ज्वर भी हो जाता है। 
  2. अन्तःहार्दिक सूजन में -रोगी छाती में भारीपन अनुभव करता है। 
  3. मध्यहार्दिक सूजन में- जब रोग बढ़ा हुआ होता है तो हृदय के स्थान पर हल्की पीड़ा और साथ ही साथ हल्का ज्वर भी हो जाता है।
आयुर्वेद के अनुसार हृदय रोग के प्रकार: हृदय रोग पांच प्रकार क होते हैं, उनके नाम तथा लक्षण निम्नलिखित है- 

1. वातिक हृद्रोग- इसमें हृदय में खिंचावट तथा सूचिकावेधन वत् पीड़ा होती है, रोगी को कभी-कभी प्रतीत होता है कि उसके हृदय को कोई डण्डे से मथ रहा हो, टुकड़े कर रहा हो या कुल्हाड़ी से चीर रहा हो। हृदय में कम्पन, स्तम्भ एवं मूच्र्छा, वष्टन तथा जकड़ाहट होती है। 

2. पितक हृद्रोग- इसमें तृषा, उष्मा (गर्मी), दाह, चोष, हृदय की व्याकुलता, धूम निकलने की प्रतीति, मूर्छा, स्वेद आना तथा मुख का सूखना आदि लक्षण होते हैं। 

3. श्लैष्मिक हृद्रोग-हृदय के कुपित कफ के व्याप्त होने पर शरीर में गौरव (भारीपन), ताला प्रसेक, अरूचि, हृदय में स्तम्भ (जकड़ाहट), तथा अग्निमांद्य होते हैं, और मुख का स्वाद मधुर मीठा रहता है। 

4. त्रिदोषज् हृद्रोग-इसमें तीनों दोषों (वात, पित, कफ) के मिले हुऐ लक्षण मिलते हैं। 

5. कृमिज हृद्रोग-इसमें तीव्र पीड़ा, कण्डू (खुजली), उत्क्लद, निष्ठीवन (बार-बार थूकने की प्रवृत्ति), तोदवत् पीड़ा, शूल, हृल्लास (मिचली), तम (आंखों के सामने अंधेरा छा जाना), अरूचि, नेत्रों में मलिनता तथा शोथ के लक्षण मिलते हैं। त्रिदोष तथा कृमिज् हृद्रोग में परस्पर सम्बन्ध भी हेतु तथा लक्षणों की दृष्टि से मिल सकता है, यथा अपथ्य सेवन से त्रिदोषज् हृद्रोग की प्रवर्धमानावस्था को कृमिज हृद्रोग माना गया है। उत्क्लेद से तम पर्यन्त त्रिदोषज् हृद्रोग के तथा अरूचि आदि कृमिज हृद्रोग के लक्षण होते है।

हृदय रोग के कारण

हार्ट डिसीज हृदय रोग के प्रमुख दो कारण है:-
  1. अधिक गरिष्ठ भोजन।
  2. व्यायाम तथा परिश्रम का अभाव।
माँस, मैदा, सफेद चीनी, नशीली चीजें, तेल, खटाई, आचार, मसाले और तली-भुनी चीजें गरिष्ठ होती है। इनमें से प्रत्येक वस्तु हृदयरोग उत्पन्न करने वाली सिद्ध होती है। इन वस्तुओं के सेवन से रकत में अम्लता यदि, खट्टापन की वृद्धि होती है जो हृदय रोगों का एक प्रधान कारण होती है। इसके अतिरिक्त अधिक औषधियों का सेवन भी हृदय पर बुरा प्रभाव डालता है। हकीमों के कुश्ते, वैद्यों के भस्म और एलोपैथी डाॅक्टर्स की ज्वरनाशक औषधियाँ, वेदनाशामक ‘सोडा सैली साईलिट’ एस्प्रिन, फीनस्टीन, पैरासिटामोल, एनालजिन, डिक्लोनेक, आइबूप्रोफन आदि जैसी तीक्ष्ण औषधियाँ तथा कथित हृदयरोग निवारक डिजीटेलि, स्ट्रिकनिया, फूरासिमाइड आदि औषधियाँ एवं नाना प्रकार के विषैले इंजेक्शन ये सब हृदय पर इतना भयानक दुष्प्रभाव डालते हैं कि हृदय के ढाँचे को गंभीर हानि पहुँचाती है।

हृदय रोग के लक्षण

हृदय रोग के सामान्य लक्षण हैं, जैसे वैवर्ण्य, बेहोशी, बुखार, खाँसी, हिचकी, साँस फूलना, मुँह फुलाना, तृषा, प्रमोह, पित्ती, खांसी, दहाड़, अरुचि आदि उनकी पर्याप्त समानता तथा अवस्था हृदय विकारों में मिलती है।

सामान्य रूप से हृत्स्पन्दन या हृदय की स्पन्दन गति (दिल की धड़कन) की अनुभूति स्वयं को नहीं होती है, कभी-कभी अस्थायी रूप से अथवा भय या अति परिश्रम से हृत्स्पन्दन बढ़ जाता है, तब कुछ क्षण के लिए जो अनुभव हो, वह यथाविधि सामान्य हो जायेगा। परन्तु जब हृदय रोग माना जाता है। ऐसा मनस्ताप, रक्त की विकृति या कमी, हृत्पेशी दुर्बलता, चाय, काफी, मद्य, तम्बाकू आदि मादक द्रव्यों का अति सेवन, शुक्र का अतिक्षय जैसा कई कारणों से हृदय रोग उत्पन्न हो जाता है। इसके अतिरिक्त अर्श, गलगण्ड, मधुमेह, वातरक्त, हिस्टीरिया, श्वेतप्रदर आदि रोगों में उनके कारण (परिणाम) स्वरूप हृदय रोग हो सकता है।

जब विशिष्ट कारणों से हृदय को रक्त कम मिलने लगता है तथा इस प्रकार आक्सीजन की कमी होती है, तब वाम हृदय में शिथिलता का लक्षण होने लगता है। इससे वाम हृदय निर्बल हो जाता है, इससे प्रति मिनट आगे जाने वाले रक्त की मात्रा में भी कमी आती है। इसके परिणामस्वरूप शरीर के अन्य उपयोगी अंगों, यथा- वृक्क, मस्तिष्क, यकृत एवं मांसपेशियों के कार्य में पोषण की कमी के कारण न्यूनता आ जाती है। जब आगे आने वाले रक्त की मात्रा आधी से कम होने लगती है, तब शिराओं एवं स्रोतों में रक्तभार के अधिक बढ़जाने के कारण हाथ-पैरों में शोथ उत्पन्न हो जाता है। स्वल्प श्रम जनित श्वास कष्ट इस रोग का प्राथमिक लक्षण है। श्वास लेने में सीटी की-सी आवाज मालूम पड़ती है, रात को नींद आने से थोड़ी देर बाद ही सांस फूलने लगती है। रोगी कभी-कभी कुछ सैकेण्ड के लिये सो भी जाता है, परन्तु सीधा लेटकर सोना कठिन हो जाता है। फिर रोगी को आरामकुर्सी पर लेटने में अधिक सुविधा लगती है।

संदर्भ -
  1. रोग और योग - स्वामी सत्यानन्द सरस्वती
  2. योग द्वारा रोगों की चिकित्सा - डाॅ. फुलगेंदा सिन्हा
  3. योग महाविज्ञान- डाॅ. कामाख्या कुमार
  4. शरीर-रचना एवं शरीर-क्रिया विज्ञान - श्रीनन्दन बन्सल
  5. बृहद् प्राकृतिक चिकित्सा - डाॅ. ओमप्रकाश सक्सेना

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