रसखान का जीवन परिचय, प्रमुख रचनाएँ, भाषा और काव्य सौंदर्य

रसखान भक्तिकाल के ऐसे कवि के रूप में ख्यात हैं, जिनके जीवन के बारे में परस्पर विरोधी धारणाएं मौजूद हैं। उनके जीवन के बहिर्साक्ष्य ओर अंतर्साक्ष्य दोनों उपलब्ध हैं। बहिर्साक्ष्य यानी उनके दौर की रचनाओं में उनके बारे में जो प्रमाण उपलब्ध हैं तथा अंतर्साक्ष्य यानी रसखान की रचनाओं से क्या राय सामने आती है। आवश्यकता इस बात की है कि दोनों तरह के साक्ष्यों को आधार मानकर तर्कपूर्ण निष्पत्तियों तक पहुँचने का प्रयास किया जाये। रसखान दिल्ली के पठान सरदार थे। उनके जीवन की अनेक झलकियाँ उनकी रचनाओं में उपलब्ध है। जैसे ‘प्रेमवाटिका’ में उनकी उक्ति है:
देखि ग़दर हित साहबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादसा.बंश की, ठसक छोरि रसखान।।
प्रेमनिकेतन श्रीबनहिं, आइ गोबर्धन.धाम।
लह्यो सरन चितचाहि के, जुगलसरूप ललाम।।

ऊपर उल्लिखित पंक्तियों में ‘ग़दर’ और ‘दिल्ली के श्मशान बन जाने’ के समय का विशेषज्ञों ने निर्धारण किया हे। अनुमान के मुताबिक़ यह वर्ष 1555 है। इसी वर्ष मुगल बादशाह हुमायूँ ने दिल्ली के सूरवंशीय पठान शासकों से अपना खोया हुआ शासनाधिकार फिर से प्राप्त किया था। इस ग़दर के दौरान भारी रक्तपात हुआ था। इस ग़दर का असर रसखान पर हुआ और वे विरक्त हो गए। रसखान ने जिस बादशाह वंश की ठसक का जिक्र किया है, वह शेरशाह सूरी का है। सूरी का उदय 1528 ई. में हुआ था, और इस वंश का अंत इब्राहिम खान ओर अहमद खान के पारस्परिक कलह के चलते 1555 ई . में हो गया। इस ग़दर के समय रसखान की उम्र यदि बीस-बाईस साल मान ली जाय तो उनके जन्म का वर्ष 1533 माना जा सकता हे। एक समय यह धारणा बलवती थी कि रसखान पिहानी के सैयद इब ्राहिम का ही उपनाम है। 

बाद के शोधों ने इस पर पुनर्विचार का अवसर उपलब्ध कराया। ‘प्रेमवाटिका’ के जिस पद कांपर उल्लेख किया गया है, उसके साक्ष्य पर यह कहना सही हे कि जिस तरह उन्होंने दिल्ली छोड़कर गोवर्धन जाने का उल्लेख किया है उसके मुताबिक उनके जन्म स्थान को दिल्ली मानना चाहिए।

ऐसा मशहूर है कि वे दिल्ली निवासी एक साहूकार के बेटे पर आसक्त हो गए थे। ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। इस आख्यान के अनुसार रसखान ने एक बार दो आदमियों को यह बतियाते हुए सुना किंश्वर में ऐसे ध्यान लगाना चाहिए जैसी रसखान की बनिए के बेटे से प्रीत है। एक दूसरी कहानी भी मशहूर है, जिसके मुताबिक़ उनकी प्रेमिका बड़ी मानिनी थी और अक्सर उनका तिरस्कार करती रहती थी। एक दिन जब वे ‘श्रीमद्भागवत’ काुारसी अनुवाद पढ़ रहे थे तब उसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति प्रेम देखकर उनके मन में आया क्यों न उन्हीं कृष्ण पर लौ लगाई जाय जिन पर इतनी गोपियाँ उत्सर्ग हो रही हैं। फिर वे अपनी तलाश लिए वृंदावन पहुंच गए। ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के मुताबिक़ उनकी आसक्ति वैष्णव भक्तों के प्रोत्साहन से बनिए के बेटे से कृष्णभक्ति में रूपांतरित हो गई। वैष्णवों ने इन्हें कृष्ण.चित्र दी थी, जिन्हें लेकर वे दिल्ली से ब्रज प्रदेश पहुँचे थे। कृष्ण को देखने की चाह लिए वे मंदिर.मंदिर भटकते रहे। अंततः गोविंद-कुंड में श्रीनाथ जी के मंदिर में भक्तवत्सल भगवान कृष्ण ने उन्हें दर्शन दिए। 

कथा के अनुसार, फिर स्वामी विट ्ठलनाथ ने रसखान को मंदिर के अंदर बुलाया। रसखान के जीवन में भारी बदलाव आया ओर वे गोपी भाव की भक्ति में निष्णात हो गए। सत्यदेव मिश्र ने लिखा हे, ‘‘वस्तुतः उक्त वार्ता में वर्णित घटना.चक्र संबंधी कुछ संकेत रसखान की रचनाओं में भी मिलते हैं - यथा, ‘प्रेम.वाटिका’ में छवि दर्शन का उल्लेख तथा ‘सुजान.रसखान’ का लीला वर्ण न।’’ उन्होंने गोस्वामी विट ्ठलनाथ का शिष्यत्व ग्रहण किया था।

‘नव भक्तमाल’ के रचनाकार श्री राधाचरण गोस्वामी और ‘उत्तरार्ध भक्तमाल’ के रचयिता भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी रसखान का उल्लेख किया है। प्रसंगवश भारतेंदु का यह कहना रसखान की प्रसिद्धि का बयान करता है कि इन मुसलमान भक्त कवियों केंपर करोड़ों हिंदूओं को न्योछावर किया जा सकता है। शिवसिह सेंगर ने रसखान को सैयद वंश का माना और निवास स्थान पिहानी ठहराया। मिश्र बंधुओं और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रसखान को दिल्ली के शाही वंश का पठान सरदार माना और विट्ठलनाथ का पट ्ट शिष्य स्वीकार किया। मिश्र बंधु तथा आचार्य रामचन्द शुक्ल की मान्यता को ही सर्वाधिक स्वीकृति मिली।

रसखान की विद्वता ओर लोकप्रियता का आलम इससे भी आंका जा सकता है कि वेणीमाधवदास द्वारा 1755-56 ई में रचित ‘मूलगुर्साइचरित’ में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा स्वरचित ‘रामचरितमानस’ की कथा सर्वप्रथम रसखान को सुनाने का जि़क्र है: जमुना तट पै त्रय वत्सर लौं, रसखानहिं जाइ सुनावत भौ।

रसखान-काव्य के सभी अध्येता इस बात पर सहमति व्यक्त करते हैं कि उनकी अंतिम रचना ‘प्रेमवाटिका’ (1614 ई.) हे। कुछ ही साल बाद 1618 ई . में उनका देहावसान हो गया।

रसखान की प्रमुख रचनाएँ

रसखान रचित तीन रचनाओं को सभी प्रामाणिक मानते हें- ‘सुजान.रसखान’, ‘प्रेम.वाटिका’ और ‘दानलीला’। विद्यानिवास मिश्र के अनुसार, ‘‘नागरी प्रचारिणी सभा के संग्रहालय में उक्त रचनाओं के अतिरिक्त ‘रसखान दोहावली’ और ‘रसखान कवितावली’ नामक दो रचनाएँ रसखान के नाम से मिलती हैं। ‘रसखान दोहावली’ की अरबी.फारसी शब्दों से बोझिल शैली रसखान की नहीं हो सकती। ... ‘रसखान कवितावली’ में रसखान का कोई पद संगृहीत नहीं है।’’

असल में, रसखान की कविताओं की छानबीन लंबे अरसे से होती रही है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय इस खोजबीन में तेजऱ्ी आइ । रसखान की रचनाओं का प्रकाशन सबसे पहले किशोरीलाल गोस्वामी ने किया। तब से अब तक रसखान की अनेक रचनाओं का प्रकाशन हुआ। किशोरीलाल गोस्वामी द्वारा संकलित ‘सुजान.रसखान’, ‘प्रेम वाटिका’; ‘रसखान पदावली’- संकलन: प्रभुदत्त बह्मचारी; ‘रसखान रत्नावली’ - संकलन: दुर्गाशंकर मिश्र; ‘रसखान और घनानंद’ - संकलन: बाबू अमीर सिंह; ‘रसखानि ग्रंथावली’ - संपादन: आचार्य विष्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि का इस संदर्भ में उल्लेख किया जा सकता है। 

ज़्यादातर विद्वानों ने अपने.अपने संकलनों में अपने पहले के संकलनों से एक-दो अधिक पदों को देने का प्रयास किया है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के संकलन को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। उनके संकलन को इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है कि उन्होंने पहले के प्रकाशित संग्रहों की अपेक्षा अपने संग्रह में कवित्त, सवैयों, दोहों आदि की संख्या में बढ ़ोत्तरी की। नागरी प्रचारिणी सभा की रिपोर्ट ओर विवरणों को ध्यान में रखकर उपलब्ध पांडुलिपियों का सहारा लेकर आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘सुजान रसखान’ में दो सौ चैदह कवित्त.सवैये, ‘प्रेमवाटिका’ में तिरपन दोहें तथा ‘दानलीला’ में ग्यारह पदों के साथ ही साथ प्रकीर्णक के अंतर्गत दो पद होली और सगुनोती के भी संकलित किए हैं। 

पं. विद्यानिवास मिश्र और सत्यदेव मिश्र के संपादन में भी ‘रसखान रचनावली’ का प्रकाशन किया गया, जिसमें रसखान के संपूर्ण काव्य को समाहित करने का प्रयास किया गया। आगे रसखान की तीन प्रमुख रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है।

सुजान-रसखान

‘सुजान.रसखान’ संबंधी सर्वाधिक पद विष्वनाथ प्रसाद मिश्र की ‘रसखानि ग्रंथावली’ मं शामिल है। इनसे पहले के संकलनों में पदों की संख्या बीस से एक सौ चैंतीस तक ही रही। मिश्र जी ने अपने अनथक प्रयास से दो सौ चैदह पदों का संकलन किया। इस ग ्रंथ में कृष्ण के लीला.विलास को शामिल किया गया है। विभिन्न लीलाओं की रचना अलग.अलग समयों में की र्गइ है, लिहाजा उनमें किसी निश्चित तारतम्य को ढूँढना संभव नहीं। 

इसमें शामिल काव्य के कथ्यों का उल्लेख करें तो हम इन भाव दशाओं से संबंधित पद पाते हैं- प्रेम, भक्ति, बाललीला, गोचारण, चीरहरण, कुंज-विलास, पनघट.प्रसंग, वन लीला, गोरस लीला, वयःसंधि, सुकुमारता, राधा.रूप वर्ण न, वंशीवादन, पूर्वराग, अभिलाषा, रूपमाधुरी, चेतावनी, उपदेश, प्रेमलीला, दधिदान, उपालंभ, सपत्नीभाव, मिलन ,वियोग, चैपड, रिझवार, मानवती प्रिया, विदग्धा, सूरत, सुरतांत, होली, भ्रमर, मीत, हरिशंकरी, भक्ति.भावना, अलौकिकत्व, कृष्ण सौंदर्य, नटखट कृष्ण, कालिया.दमन,ुाग.लीला, सखी-शिक्षा, उद्धव-उपदेश आदि। 

यह सूची इस तथ्य को प्रकट करती है कि रसखान लोक में प्रचलित विभिन्न कृष्ण प्रसंगों को अपनी कविता का उपजीव्य तो बना रहे थे, लेकिन सिलसिलेवार ढंग से प्रबंध योजना सुनिश्चित करना उनकी कविता का उद्देश्य नहीं था।

प्रेम-वाटिका

‘प्रेम.वाटिका’ तिरपन दोहों का संकलन है। इसमें कृष्ण चरित से संबद्ध विभिन्न प्रेम.प्रसंगों को आधार बनाया गया हे।

दान-लीला

‘दान.लीला’ ग्यारह कवित्त.सवैयों का संकलन है। इस रचना का कलेवर लघु है। इसकी शैली संवादमूलक है। यह संवाद दो रूपों में मिलता है। विद्वानों का एक वर्ग इस रचना को अप्रामाणिक मानता है। अप्रामाणिक मानने के पीछे उनका तर्क है, ‘‘रसखान की प्रवृत्ति सवेयारचना की ओर अधिक रही है और इसमें कुल पाँच सवैया ही हैं। रसखान ने प्रायः अपने सभी पदों में अपने नाम की छाप दी हे। ‘दान-लीला’ के ग्यारह पदों में मात्र एक बार (पद सं. 2 में) उनका नाम आया हे।’’

रचना की प्रामाणिकता के बारे में फिलहाल यह मानना सही हे कि ‘दानलीला’ का उल्लेख रसखान की रचना के रूप में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्ट में विद्यमान हे। यही नहीं, हिंदी की मध्यकालीन स्वच्छंद काव्यधारा के अन्यतम अनुसंघेता आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे रसखान की प्रामाणिक रचना मानकर अपने संग्रह ‘रसखानि.ग्रंथावली’ में समाविष्ट किया है।

उल्लिखित तीन रचनाओं को आधार मानकर विभिन्न रसखान.ग्रंथावलियों की रचना की गई है।

रसखान की भाषा और काव्य सौंदर्य

रसखान की भाषा में संवाद की अद ्भुत सामर्थ्य है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में दर्ज किया, ‘‘इनकी भाषा बहुत चलती सरल और शब्दाडंबरमुक्त होती थी। शुद्ध ब्रजभाषा का जो चलतापन और सफाई इनकी और घनानंद की रचनाओं में है, वह अन्यत्र दुर्ल भ है।’’ कृष्णभक्त कवियों की परंपरा ‘गीतकाव्य’ की थी, पर रसखान ने इससे अलग दोहों, सवैयों और कवित्त में कृष्ण काव्य को गूँथा जिसकी व्याप्ति और गहराई विशिष्ट है। रसखान का प्रिय छंद सवेया और घनाक्षरी है।

रसखान के काव्य की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है- निरलंकृति। लेकिन यहीं यह समझ लेना चाहिए कि ऐसा नहीं है कि उन्हें अलंकारों से परहेज है। वे बहुधा अभिधा में अपनी बात कहते हैं, लेकिन वे आवश्यकतानुसार अलंकारों का प्रयोग भी करते हैं। उनके काव्य में यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि के उदाहरण मिल जाते हैं। 

उदाहरणस्वरूप:

यमक
बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।
... त्यों रसखानि वही रसखानि जु हैं रसखानि सो है रसखानि।।

यहाँ भिन्न अर्थों के साथ रसखानि शब्द की आवृत्ति है। इसी तरह अर्थालंकार-उपमा की बानगी देखि जा सकती हे:
तिरछी बरछी सम मारत है दृग बान कमान सुजान लग्यौ।
... जाको लसे मुख चंद समान सुकोमल अंगनि रूप लपेटी।

उल्लिखित काव्य पंक्तियों में ‘तिरछी बरछी सम मारत है’ ओर ‘जाको लसे मुख चंद समान सुकोमल’ में उपमा अलंकार की सुंदरता अभिव्यक्त है।

रसखान की भाषा का लोक संस्कार उन्हें अपने ढंग का विशिष्ट रचनाकार बनाता हे। भले ही उनकी कविता में घनानंद की तरह प्रवीणता न दिखे या फिर बिहारी की तरह पांडित्य! उनका लोक संस्कार कविता में जिस जीवन राग को संभव करता है, हिंदी कविता उसी की मुरीद हुई। विद्यानिवास मिश्र ने लिखा है,‘‘शब्द-संपदा, अर्थ-गौरव, भाव-गरिमा, प्रांजलता, संप्रेषण-शक्ति और भावाभिव्यंजना की दृष्टि से रसखान-काव्य गुणात्मक एवं विशिष्ट है।

यद्यपि रसखान घनानंद की भाँति ब्रजभाषा पवीन और बिहारी की भाँति बजभाषा पंडित नहीं हैं तथापि उनकी ब्रजभाषा की अपनी विशेषता है ओर वह है उसका ग्राम्य संस्कार, उसकी निरलंकृति और सरलता। सहज और सरल भाषा अर्थात चिर-परिचित शब्दावली का मार्दवयुक्त प्रयोग वे ही रचनाकार कर पाते हें जिनका संबल निष्ठा है। निष्ठा शब्दाडंबर में नहीं होती। कहना न होगा कि रसखान ऐसे ही निष्ठावान कवि हैं।’’ जिन्हें भारतीय काव्यशास्त्र प्रसाद गुण कहता है, उसकी उत्कृष्ट झलक रसखान के रचनात्मक संसार में नज़र आती है।

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