संधिवात के लक्षण और इसके मुख्य कारण

संधिवात

शरीर के संधियों को मुख्यतः प्रभावित करने वाले इस रोग को आर्थराइटिस या संधिवात कहा जाता है। हमारे शरीर में अधिकांश संधियाॅं विशेष प्रकार से निर्मित होती है जिसे श्लेषक संधि कहते हैं। श्लेषक संधि में अस्थियों के दोनों सिरे, उपास्थियों अर्थात् कार्टिलेज से निर्मित होती है जो उनके किनारों को पूर्णरूपेण चिकना बनाये रखता है। संधियों के आंतरिक भाग श्लेषक झिल्ली द्वारा आच्छादित होती है जो एक प्रकार का चिकना द्रव्य स्त्रावित करती है जिससे श्लेषक कहते हैं। यह द्रव ग्रीज जैसा कार्य करता है। श्लेषक संधियों को चारों ओर से अस्थिबंध बांधे रहता है जिससे दोनों अस्थियाॅं एक दूसरे के सम्पर्क में रहती है। 

संधियों के आंतरिक सतह पर उपस्थित श्लेषक झिल्ली नियमित श्लेषक द्रव स्त्रावित करती रहती है जिससे यह हमेशा चिकना बना रहता है। यह श्लेषक द्रव श्लेषक झिल्ली द्व़ारा रक्त से संश्लेषित होता है एवं शिराओं एवं लसिकाओं द्वारा सोंख लिया जाता है। इस प्रकार श्लेषक द्रव का संचार संधियों एवं उसके उपास्थियों को पोषण प्रदान करते रहता है साथ ही अनुपयोगी उत्सर्जी पदार्थ को वापस बहा ले जाता है। यह क्रिया संधियों की कोशिकाओं को स्वस्थ एवं उसके क्षरण को रोकने हेतु आवश्यक है। इस प्रकार यदि कभी भी इस श्लेषक द्रव के बनने एवं संचार में किसी भी प्रकार का व्यतिरेक होता है तो संधियों की गतिशीलता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शारीरिक उपापचय क्रिया द्वारा उत्पन्न विषाक्त एवं अम्लीय पदार्थ यदि संधियों में संचित होने लगे तो यह उपस्थित स्नायुतंत्र को उत्तेजित कर देता है साथ ही संधियों में दर्द एवं कड़ापन भी आ जाता है। श्लेषक द्रव की कमी से संधियों में चिकनाई कम होने लगती है तथा कोमल उपास्थियों का क्षय प्रारंभ हो जाता है। 

इन सब कारणों से संधियों की गतिशीलता बाधित होने लगती है। यह स्थिति यदि लम्बे समय तक बनी रहे, तो इन संधियों के स्वरूप भी नष्ट होने लगता है परिणामस्वरूप इन संधियों में सूजन, लाली, दर्द, कड़ापन आदि बढ़ता जाता है जो रोगी को अपंग एवं निष्क्रिय बना देता है यही स्थिति संधिवात या आर्थराइटिस कहलाता है।

यह रोग प्रायः शरीर का वजन ढ़ोने वाले अंगों के संधियों जैसे नितंभ, घुटने, टखने आदि अधिक प्रभवित होते हैं साथ ही छोटी-छोटी संधियाॅं जैसे उॅंगलियाॅं, अंगुठे आदि को भी प्रभावित करती है। संधिवात या आर्थराइटिस शारीरिक अपंगता का सबसे बड़ा कारण है। यह एक ऐसा रोग है जो धीरे-धीरे संधियों को पूर्णतः क्षतिग्रस्त कर देता है जिससे संधियों को मोड़ना या हिलाना-डुलाना कठिन हो जाता है।

संधिवात के प्रकार

विभिन्न प्रकार के लक्षणों के रूप में प्रदर्शित होने वाला यह रोग का मूल कारण एक ही है फिर भी उत्पन्न होने की गति एवं स्थान में भिन्नता के कारण इसके कई प्रकार बताये जाते हैं-

1. एक्यूट संधिवात

इस प्रकार के संधिवात प्रायः परिस्थितिजन्य कारणों जैसे संक्रमण, सर्दी-जुकाम, खासी, फ्लू, बुखार आदि रोगों में दर्द एवं पीड़ा उत्पन्न हो जाता है, परन्तु जैसी ही ये मूलकारण दूर होते हैं यह संधियों के दर्द भी स्वतः ठीक हो जाता है। संक्रमण के कारण रोगाणुओं द्वारा रक्त में छोड़े गये विषाक्त पदार्थ संधियों में इकठ्ठा होने से दर्द शुरू होता है। 

2. अस्थिक्षय संधिवात् (आस्टियो आर्थराइटिस)

यह अक्सर ऐसे व्यक्ति में देखा जाता है जिसके शरीर का वजन आवश्यकता से अधिक अर्थात् मोटापे के शिकार व्यक्ति में, जो गरिष्ठ भोजन करते हैं तथा कम शारीरिक श्रम करते हैं। यह प्रायः प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था में अक्सर देखा जाता है। यह विशेषकर उन्हीं संधियों में उभरता है, जहाॅं पर कभी चोट लगी हो या फिर जन्मजात विकृति होती है। शरीर का अनावश्यक वजन संधियों पर पड़ने से भी इसके लक्षण दिखाई देते हैं। शरीर में कैल्सियम की अधिकता भी इस रोग का कारण हो सकता है। 

3. वातजनित संधिवात (रूमेटाइड आर्थराइटिस)

यह रोग संधियों को अपेक्षाकृत अधिक नुकसान पहुंचाता है तथा तीव्र्र रोग माना जाता है। अधिकांशतः यह रोग युवकों एवं मध्य आयु के लोगों में देखा जाता है। पुरुष की तुलना में महिलाएं इस रोग से अधिक प्रभावित होती है। भावनात्मक आघात, तीव्र औषधि, तीक्ष्ण संक्रमण, एंटिबाॅडिज आदि संधियों में एकत्रित हो जाना भी इसका कारण माना जाता है। आधुनिक चिकत्सा विज्ञान में ठीक-ठीक इस रोग का कारण ज्ञात नहीं है। 

4. गाउट

खान-पान में गड़बड़ी इस रोग का मुख्य कारण माना जाता है। यह रोग प्रायः उन लोगों में अधिक होता जो अपने आहार में प्रोटीनयुक्त पदार्थ खासकर मांसाहार का अत्यधिक सेवन करते हैं। प्रोटीन के पाचन के पश्चात् युरिक अम्ल नामक पदार्थ उत्पन्न होता है जो मूत्र के साथ बाहर निकलते रहता है किन्तु गाउट रोग में यह युरिक अम्ल रोगी के शरीर में ही जमा होने लगता है।

संधिवात के कारण

मानसिक एवं भावनात्मक तनाव, रहन-सहन एवं खान-पान में असंयम ही इस रोग का मुख्य कारण माना जाता है।
  1. भोजन में अत्यधिक तेल घी, चर्बीदार पदार्थ जैसे मांस आदि, तले खाद्य पदार्थ, डिब्बा बंद एवं कृत्रिम रूप से बने खाद्य पदार्थ, अधिक दूध, चीनी एवं नमक का सेवन इस रोग को बढ़ावा देता है। जीर्ण कब्ज भी इस रोग को बढ़ाता है। 
  2. मानसिक तनाव, कुण्ठा, भय, भावनात्मक अस्थिरता, असुरक्षा, चिन्ता आदि से शरीर में एलर्जी, अंतःस्त्रावी ग्रंथियों के स्त्राव में कमी, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी, पेशीय तनाव, तंतुशोथ, कब्ज आदि इस रोग को उत्पन्न करता है। इससे संधिवात होने की संभावना बढ़ जाती है। 
  3. शारीरिक श्रम एवं व्यायाम में कमी के कारण शारीरिक संधियाॅं एवं स्नायु कड़े हो जाते हैं जिससे शरीर को हिलाने-डुलाने में कठिनाई होती है। दैनिक जीवन में एक ही स्थान पर तथा एक ही शारीरिक स्थिति में बैठे रहकर काम करते रहने से व्यक्ति के पैर, नितंब, मेरूदण्ड, कंधों आदि की पेशियों एवं संधियों के लचीलापन कम होने लगते हैं परिणामस्वरूप इस रोग के लक्षण प्रदर्शित होने लगते हैं। 
  4. इस प्रकार कई प्रकार के यांत्रिक आघात, चयापचयिक असंतुलन, अनुवांशिक कारणों से श्लेषक संधियों में आये गड़बड़ी या इसके क्षय से यह रोग उत्पन्न होने लगता है। 

संधिवात के प्रमुख लक्षण

संधिवात के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं- 
  1. संधियों में दर्द, लालीपन, गर्माहट, सूजन 
  2. संधियों को मोड़ने में कठिनाई होती है खासकर सुबह के समय यह और अधिक रहता है। 
  3. अस्थि संधियों में कैल्सियम आदि पदार्थ जमा हो जाने से कड़ापन, सूजन और दर्द बढ़ जाता है।

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