शिक्षा के कार्य क्या है ?

शिक्षा मानव जीवन के विकास की वह महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो जीवनपर्यंत चलती रहती है। यह व्यक्ति और समाज दोनों के विकास में योगदान देती है। इसके कार्य बहुमुखी हैं। इसके कार्यों के विषय में विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। कुछ विचार निम्न प्रकार हैं- 

एम. एल. जैक्स के अनुसार-‘‘शिक्षा को अनेकों कार्य करने हैं। शिक्षा के द्वारा बालक को इस योग्य बनाना चाहिए कि वह स्वयं विचार कर सके, परिश्रम का सम्मान कर सके, उत्तम मित्र बना सके, अनंत के प्रत्यक्ष का आनंद प्राप्त कर सके और अनुभव कर सके।’’ 

जाॅन ड्यूवी के शब्दों में-‘‘शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी के विकास में सहायता पहुँचाना नोट है, जिससे वह सुखी, नैतिक और कुशल मानव बन सके।’’ 

इमरसन के शब्दों में-‘‘शिक्षा इतनी व्यापक होनी चाहिए जितना कि मानव। उसमें (मानव में) जो भी शक्तियाँ हैं, शिक्षा को उन्हें पोषित और प्रदर्शित करना चाहिए।’’ 

शिक्षा के कार्य

शिक्षा के अनेक कार्य हैं, जिनमें प्रमुख कार्य निम्न प्रकार हैं- 

1. व्यक्तिगत विकास

शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति का विकास करना है। उसके जीवन को सुखमय, संपन्न और समृद्ध बनाना है। इसके लिए शिक्षा व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक, संवेगात्मक, सामाजिक, आध्यात्मिक और नैतिक विकास करती है और उसकी आवश्यकताओं, आकांक्षाओं, उद्देश्यों और मूल्यों को प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है।

2. सांस्कृतिक विरासत का संप्रेषण 

शिक्षा सांस्कृतिक विरासत के संपे्रषण का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण साधन है।  शिक्षा के सांस्कृतिक कार्यों को निम्नलिखित बिंदुओं में व्यक्त किया जा सकता है- 
  1. शिक्षा संस्कृति का संरक्षण करती है । 
  2. शिक्षा संस्कृति का हस्तांतरण करती है । 
  3. शिक्षा संस्कृति का विकास करती है। 
  4. शिक्षा सांस्कृतिक ठहराव को दूर करती है । 
  5. शिक्षा संस्कृति को निरंतरता प्रदान करती है । 

3. व्यावसायिक कुशलता

शिक्षा प्राप्त करने के बाद व्यक्ति अपने जीवनयापन के लिए किसी न किसी व्यवसाय का चयन करता है। यदि वह अपने व्यवसाय में कुशलता प्राप्त कर लेता है तो वह सफल और सुखी रहता है।  

4. सामाजिक कुशलता

समाज हित और राष्ट्रहित के लिए यह आवश्यक है कि उसके सदस्य सामाजिक दृष्टि से कुशल हों। शिक्षा का कार्य व्यक्ति को सामाजिक दृष्टि से कुशल और दक्ष बनाना है, उसमें सामाजिक कुशलता की भावना का विकास करना है। 

5. सृजन की कुशलता का विकास

सृजन की क्षमता का अर्थ उत्पन्न करना, सृजन करना, बनाना, निर्माण करना, चिंतन को मूर्त रूप देना आदि से है। बालकों में सृजन क्षमता का विकास करना बालक तथा समाज दोनों के हित में है। कुछ बालकों में सृजन की क्षमता बहुत अधिक होती है। शिक्षा का कार्य ऐसे बालकों की खोज करना और उनमें सृजन क्षमता का विकास करना है। ऐसे ही बालक भविष्य में उच्च कोटि के वैज्ञानिक, कलाकार, चित्रकार और साहित्यकार आदि बनते हैं। 

6. भाषा की कुशलता का विकास

बालक में भाषा की कुशलता तभी आ सकती है, जब वह सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने में दक्ष हो, कुशल हो, प्रवीण हो। शिक्षा का कार्य बालक में भाषा सीखने के प्रति अभिरुचि जाग्रत करना है, भाषा का प्रयोग करना सीखना है और उसमें भाषा की चारों क्षमताओं-सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना-का विकास करना है। भाषा, ज्ञान गम्य नहीं, अभ्यास गम्य है। भाषा सतत् अभ्यास से सीखी जाती है। बोलने, लिखने, पढ़ने और सुनने का जितना अभ्यास बालक को होगा, उतना ही अधिक भाषा-ज्ञान उसको होगा। इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से बालक भाषा पर पूर्ण अधिकार स्थापित करने में सक्षम होता है। 

7. मानव मूल्यों का अर्जन एवं उत्पादन 

बालक-बालिकाओं को एक उत्तरदायी नागरिक और समाज के उपयोगी सदस्य बनाने के लिए उनमें सहयोग, प्रेम, करुणा, शांति, अहिंसा, साहस, समानता, बंधुत्व, श्रम गरिमा आदि मौलिक गुणों का विकास करने के लिए, उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने के लिए, देश और समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनैतिक परिस्थितियों के संबंध नोट में जागरूकता उत्पन्न करने और उनमें वांछित सुधार लाने के लिए, स्वयं अपने प्रति, अपने साथियों के प्रति, सभी धर्मों और संस्कृतियों के प्रति, स्वदेश के प्रति, मानवता के प्रति, जीवन और पर्यावरण के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करने के लिए शिक्षा का कार्य मानव मूल्यों के अर्जन और उत्पादन में सहायता करना है। 

8. पाठ्यक्रम संबंधी क्रियाएँ

विद्यालयीन विषयों के द्वारा बालकों में मूल्यों का विकास किया जा सकता है। भाषा और साहित्य के शिक्षण द्वारा मूल्यों का विकास-मूल्यों का उचित रूप से विकास करने में भाषा और साहित्य का विशेष स्थान है। किसी भी भाषा का साहित्य उसकी सभ्यता और संस्कृति की वाणी होता है। निबंध, कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास, मुहावरे, लोकोक्तियाँ आदि विविध विधाओं में संस्कृति विशेष के तत्व व्याप्त होते हैं। अतः साहित्य के माध्यम से विभिन्न सांस्कृतिक मूल्यों का बोध कराया जा सकता है। बालक संवेदनशील होते हैं। भाषा का शिक्षक पाठ्य-पुस्तकों के किसी भी पाठ को पढ़ाते समय उनमें निहित आदर्शों और सि(ांतों के प्रति आस्था और प्रेम पैदा कर सकता है। 

सामाजिक अध्ययन द्वारा मूल्यों का विकास-सामाजिक अध्ययन के अंतर्गत जिन विषयों का अध्ययन होता है, उनमें इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र प्रमुख हैं। इतिहास में हम केवल राजा-महाराजाओं के उत्थान-पतन की कहानी ही नहीं पढ़ते वरन् जाति, समाज और राष्ट्र विशेष की सभ्यता और संस्कृति का भी ज्ञान प्राप्त करते हैं। इतिहास के द्वारा राम, कृष्ण, महावीर स्वामी, गौतम बु(, गुरु नानक जैसे महापुरुषों की जीवन गाथा का अध्ययन कर बालकों में त्याग, सहानुभूति, दया, परोपकार, परमार्थ, करुणा, अ¯हसा, शु(ता, पवित्राता, मानवता आदि गुणों का विकास कर सकते हैं। 

गीता कर्म के प्रति आस्था उत्पन्न करती है। रामायण परस्पर मानवीय संबंधों का आदर्श चित्राण करती है। गुरु गोबिंद सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी, महाराणा प्रताप, शहीद भगतसिंह आदि के जीवन को बताकर बालकों में वीरता, साहस, देशपे्रम और राष्ट्र विकास के मूल्य विकसित किये जा सकते हैं। 

भूगोल के द्वारा विभिन्न देशों की प्राकृतिक स्थिति, जलवायु आदि के विषय में जानकारी प्राप्त की जाती है। इससे बालकों को विभिन्न देशों की अन्योन्याश्रितता का ज्ञान कराया जा सकता है। पर्यावरण की सुरक्षा, संरक्षण, वृक्षारोपण, प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति लगाव आदि के भाव बालकों में भूगोल के द्वारा विकसित किये जा सकते हैं। 

अर्थशास्त्र में उपभोग, उत्पादन, श्रम, राजस्व, साहस आदि के विषय में जानकारी दी जाती है। अर्थशास्त्र के माध्यम से बालकों में श्रम का महत्व, धन का सदुपयोग, मितव्ययिता, साहस, सहयोग, त्याग, न्याय, पूँजीपति का सम्मान और श्रमिक के महत्व आदि मूल्यों का विकास कर सकते हैं। 

नागरिकशास्त्र के द्वारा आदर्श नागरिकों का निर्माण किया जाता है, कर्तव्य और अधिकारों की जानकारी दी जाती है और राष्ट्रीयता व अंतर्राष्ट्रीयता के विषय में बताया जाता है। इसके द्वारा बालकों में राजनैतिक मूल्यों का विकास बड़ी सरलता से किया जा सकता है। देशप्रेम, राष्ट्रचेतना, भ्रातृत्व, बलिदान, त्याग, सहयोग, सहिष्णुता, ईमानदारी, सत्यता आदि मूल्यों का विकास नागरिक शास्त्र के शिक्षण के द्वारा किया जा सकता है। कर्तव्य और अधिकारों की जानकारी देकर कर्तव्यनिष्ठा और उत्तरदायित्व के मूल्य पैदा किये जा सकते हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना का विकास किया जा सकता है। 

समाजशास्त्र के द्वारा सामाजिक परंपराओं, सामाजिक रीति-रिवाजों, समाज और व्यक्ति के संबंधों और संस्कृति आदि की जानकारी प्राप्त होती है। इसके द्वारा बालकों को यह बताया जा सकता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इस कारण उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह सामाजिक मूल्यों के प्रति निष्ठा रखे और उनके अनुकूल आचरण करे। विज्ञान शिक्षण के द्वारा मूल्यों का विकास-विज्ञान के शिक्षण के द्वारा भी बालकों में मूल्यों का विकास किया जा सकता है। 

जीव विज्ञान में जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों का अध्ययन किया जाता है। वनस्पति विज्ञान में पेड़-पौधों और प्रकृति का अध्ययन किया जाता है। इनके शिक्षण द्वारा हम बालकों में समायोजन, सहभागिता, परोपकार, प्रकृति पे्रम, सौंदर्य बोध, सामुदायिक स्वच्छता आदि मूल्यों को विकसित कर सकते हैं। परमाणु संरचना का ज्ञान प्रदान करते समय विज्ञान के विध्वंसकारी प्रभाव का वर्णन करते हुए उनमें शांति, प्रेम, दया, अहिंसा, विश्वबंधुत्व आदि मूल्यों का विकास कर सकते हैं। 

9. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ

बालकों में मूल्यों का विकास करने में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन क्रियाओं में बालक स्वयं भाग लेते हैं, रुचि के साथ कार्य करते हैं, मूल्यों का महत्व समझते हैं और अपने जीवन में अपनाने का प्रयास करते हैं। मुख्य पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ इस प्रकार हैं- 

1. प्रार्थना सभा -प्रत्येक विद्यालय का शुभारंभ प्रार्थना सभा से होता है। ईश्वर की प्रार्थना बालकों में सद्भाव, प्रेम, भक्ति, त्याग, परोपकार आदि मूल्यों को अपनाने की प्रेरणा देती है। ईश प्रार्थना के पश्चात् शिक्षकों के द्वारा विभिन्न धर्मों के सि(ांतों नैतिक नियमों, महापुरुषों के विचारों, उनसे संबंधित प्रेरक प्रसंगों की चर्चा की जाती है, इससे मूल्यों के निर्माण में बहुत सहायता मिलती है। 

2. महापुरुषों के जन्मोत्सव -विद्यालयों में राम, कृष्ण, ईसा मसीह, मोहम्मद साहब, गुरु नानक आदि महापुरुषों, गाँधी, पटेल, सुभाषचंद्र बोस, पंडित नेहरू, अंबेडकर आदि महान राजनेताओं, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर, राधाकृष्णन् आदि संतों, महर्षियों और विद्वानों के जन्मोत्सव मनाये जाते हैं, जिनमें इनके योगदान, इनके गुणों और इनके जीवन के प्रेरक प्रसंगों का वर्णन किया जाता है। इससे बालकों में मूल्यों का विकास होता है। 

3. राष्ट्रीय पर्व - पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी, दो अक्टूबर आदि राष्ट्रीय पर्वों को मनाये जाने से बालकों में देशपे्रम, राष्ट्र के लिए त्याग और समर्पण, विश्वबंधुत्व, सबके प्रति समान व्यवहार आदि प्रजातांत्रिक मूल्यों का विकास किया जा सकता है। 

4. खेलकूद - खेलों में बालकों की विशेष रुचि होती है। वे अधिक-से-अधिक खेलना चाहते हैं। खेलवूफद के द्वारा जहाँ बालक का शारीरिक विकास होता है वह शारीरिक श्रम के महत्त्व को समझता है, उत्तम स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होता है और आसन, व्यायाम आदि करने में रुचि लेता है, वहाँ प्रेम, भ्रातृत्व सहयोग, सहनशीलता, समानता, शालीनता और जय-पराजय में समान भाव आदि मूल्यों को भी सीखता है। 

5. साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम - साहित्यिक कार्यक्रमों में भाषण, निबंध, पत्र-पठन, वाद-विवाद, संगोष्ठी और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कवि सम्मेलन, कवि दरबार, संगीत सम्मेलन, नाटक, लोकनृत्य, लोक-गीत आदि आते हैं। इन कार्यक्रमों में सभ्यता और संस्कृति का दिग्दर्शन होता है। आवश्यकता इस बात की है कि इन कार्यक्रमों की व्यवस्था और संयोजन इस प्रकार से किया जाए, जिससे मानव मूल्यों की अभिव्यक्ति हो सके। 

6. समाज सेवा के कार्यक्रम - विद्यालयों में समाज सेवा के विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करके बालकों में मूल्यों का विकास किया जा सकता है। समाज सेवा से संबंधित कतिपय कार्यक्रम इस प्रकार हैं- 
  1. उपेक्षित क्षेत्रों की सफाई करना, श्रमदान से सड़वेंफ बनाना, स्वच्छता अभियान चलाना। 
  2. बीमारियों के विरुद प्रचार करना और स्वास्थ्य नियमों को बताना। 
  3. प्रौढ़ शिक्षा केद्रों में निःशुल्क सेवा करना और अशिक्षा के विरु( अभियान चलाना।
  4. गूँगे, बहरे, अंधे और अपाहिज लोगों को शिक्षित करना और उनकी सहायता करना। 
  5. पर्यावरण का सुधार करने का प्रयत्न करना। भौतिक पर्यावरण को सुधारने के लिए अपने चारों ओर नोट सपफाई रखना, पेड़-पौधों की रक्षा करना और सामाजिक पर्यावरण को सुधारने के लिए समाज में व्याप्त अराजकता, अनैतिकता, भ्रष्टाचार आदि को दूर करने का प्रयास करना। 
  6. एन.सी.सी., एन.एस.एस., स्काउ¯टग, गाइ¯डग आदि संगठनों का सदस्य बनकर राष्ट्र और समाज की सेवा करना। 
  7. प्राकृतिक आपदाओं के समय संकटग्रस्त लोगों की हर संभव सहायता करना। 
  8. पत्रा मित्रा संगठनों के सदस्य बनकर दूसरों के प्रति पे्रम रखना और उनकी हर संभव सहायता करना। 
7. सामाजिक उत्पादक कार्य - विद्यालयों में बालकों को सामाजिक दृष्टि से उपयोगी व उत्पादक कार्य करने के लिए पे्ररणा दी जानी चाहिए, जिससे उनमें वांछनीय मूल्यों का विकास किया जा सके। 

8. सहकारी संस्थाएँ -विद्यालयों में विभिन्न क्षेत्रों में सहकारी संगठन बनाए जाने चाहिए। चाय-नाश्ते की व्यवस्था, भोजन की व्यवस्था, विभिन्न सामानों के विषय की व्यवस्था सहकारी संस्थाओं के द्वारा की जानी चाहिए, जिसका संपूर्ण उत्तरदायित्व छात्रा/छात्राओं पर होना चाहिए। इससे उनमें जहाँ सामूहिक और सहकारी भावना पैदा की जा सकती है, वहाँ ईमानदारी, संयम, सहयोग, अपरिग्रह आदि मूल्यों का विकास किया जा सकता है। 

9. पर्यटन और यात्राएँ - पर्यटन और यात्राओं के माध्यम से बालक-बालिकाओं में मानव मूल्यों का विकास किया जा सकता है। ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थानों पर जाकर जहाँ अपने देश और समाज की संस्कृति, धरोहर, संस्थाओं आदि की जानकारी बालकों को दी जाती है, वहाँ उनमें उस क्षेत्रा के लोगों से मिलकर पारस्परिक स्नेह, सहयोग, सद्भावना के मूल्य पैदा किये जाते हैं। 

10. स्वशासन -विद्यालयों में विभिन्न कार्यों का संपादन करने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया जाता है। इनका संचालन करने का पूर्ण उत्तरदायित्व बालक-बालिकाओं पर होता है। इससे उत्तरदायित्व की भावना, स्वानुशासन, आत्मनियंत्रण और आत्मविश्वास के मूल्य पैदा होते हैं। 

10. समाजीकरण 

समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति समाज में रहकर उसके मूल्यों, आदर्शों और जीवन-शैली को सीखता है और उसे अपने व्यक्तित्व का अंग बनाता है। समाजीकरण की संपूर्ण प्रक्रिया सामाजिक कार्य के अंतर्गत आती है। शिक्षा बालकों के समक्ष उच्च आदर्शों को प्रस्तुत करके, स्वस्थ मानवीय संबंधों का निर्माण करके, विभिन्न संस्कृतियों के प्रति आदर भावना का विकास करके, सामूहिक क्रियाओं को प्रोत्साहन देकर और उत्तम सामाजिक वातावरण का निर्माण करके समाजीकरण में सहयोग देती है। 

11. सामाजिक नियंत्रण 

सामाजिक नियंत्रण के द्वारा एक समुदाय अपने सदस्यों के व्यवहार को नियंत्रित करता है। इसके द्वारा समाज अपने सदस्यों को समाज द्वारा स्थापित नियमों एवं आदर्शों के अनुकूल व्यवहार करने को प्रेरित करता है। यदि समाज ऐसा न करें तो समाज विघटित हो जाएगा। समाज के सभी सदस्य समान गुणों वाले नहीं होते। उनमें शारीरिक, बौ(िक और संवेगात्मक विभिन्नताएँ होती हैं, उनके जीवन दर्शन में भिन्नता होती है। 

इन विभिन्नताओं पर सामाजिक नियंत्रण द्वारा विजय प्राप्त करके समाज अपने अस्तित्व की रक्षा करता है और उसको दृढ़ता प्रदान करता है। 

14. सामाजिक परिवर्तन 

किसी समाज की व्यवस्था, संगठन, ढाँचे सभ्यता और संस्कृति में होने वाले परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहलाते हैं। शिक्षा का कार्य मनुष्यों में अपनी भाषा, रहन-सहन, खान-पान, व्यवहार की विधियों और रीति-रिवाजों में अपने अनुभवों के आधार पर आवश्यक परिवर्तन एवं विकास की क्षमता पैदा करना है। शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण साधन है। 

शिक्षा के द्वारा समाज के लोगों के विचारों में बदलाव लाया जा सकता है और समाज को प्रगति की ओर ले जाया जा सकता है। कोठारी आयोग ने कहा है कि आज के युग में शिक्षा ही एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से व्यापक सामाजिक परिवर्तन लाये जा सकते हैं। शिक्षा को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन करने के लिए एक शक्तिशाली साधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। 

शिक्षा का कार्य बालकों में सामाजिक भावना का विकास करना, व्यक्तिगत हितों की तुलना में सार्वजनिक हितों को महत्त्वपूर्ण समझने की भावना विकसित करना, सामाजिक दक्षता का विकास करना, सामाजिक दायित्वों का निष्ठा के साथ निर्वहन करने की क्षमता पैदा करना, सामाजिक अनुशासन का विकास करना और समाज के कल्याण, सुधार व उन्नति के लिए अपने को समर्पित करना है। 

15. आदर्श एवं कुशल नागरिकों का निर्माण

आज के बालक ही कल के नागरिक बनेंगे और उन्हीं के हाथों में शासन का सूत्रा होगा।  यह कार्य शिक्षा का है। शिक्षा बालकों में आदर्श नागरिकों के गुणों का विकास करती है। उनको कर्तव्य और अधिकारों से परिचित कराती है और उनमें देशभक्ति की भावना का नोट विकास करती है। आज के प्रजातांत्रिक युग में तो शिक्षा का यह कार्य और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है। 

शिक्षा ही नागरिकों को जागरूक बनाकर और अपने उत्तरदायित्वों का भली प्रकार से निर्वहन कराकर प्रजातंत्रा को सफल बनाती है। शिक्षा के इस कार्य का समर्थन करते हुए न्यूयार्वफ की वैधानिक समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है- ‘‘सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का मुख्य कार्य विद्यार्थियों को राज्य में नागरिकता के दायित्वों और कर्तव्यों के निर्वहन के लिए तैयार करना है।’’ 

16. नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण 

शिक्षा का कार्य बालकों को इस प्रकार से शिक्षित करता है कि वे समाज का पथ प्रदर्शन कर सके, शासन का संचालन भली प्रकार से कर सके, धार्मिक सि(ांतों और आदर्शों का प्रचार और प्रसार कर सके, सांस्कृतिक उत्थान कर सके, नये-नये वैज्ञानिक आविष्कार कर सके और औद्योगिक क्षेत्रा में नयी-नयी लाभप्रद योजनाएँ बना सके, जिससे सभी क्षेत्रों में राष्ट्र की समृ(ि और विकास हो सके। 

विभिन्न शैक्षिक क्रियाओं में भाग लेने से बालकों में सद्गुणों का विकास होता है, अनुशासन की भावना पैदा होती है और वे नेतृत्व के लिए तैयार होते हैं। 

17. संस्कृति एवं सभ्यता की सुरक्षा एवं संरक्षण

 शिक्षा केवल संस्कृति की सुरक्षा और हस्तांतरण ही नहीं करती वरन् उसका विकास और सुधार भी करती है, जिससे संस्कृति जीवंत बनी रहती है। 

18. सार्वजनिक हित की प्रमुखता 

किसी राष्ट्र की उन्नति और विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसके नागरिकों में सार्वजनिक हित के लिए अपना तन, मन, धन बलिदान करने की भावना हो। शिक्षा का कार्य इस प्रकार का प्रशिक्षण देना है, जिससे व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा सार्वजनिक हितों को अधिक महत्त्व दें और सार्वजनिक महत्त्व के लिए अपने हितों को बलिदान करना अपना परम धर्म समझें। हमारे देश में आज पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, प्रतिस्पर्धा और संघर्ष पैफला हुआ है, जिससे देश का बड़ा अहित हो रहा है। अतः शिक्षा का कार्य इन बुराइयों को दूर करके सार्वजनिक हितों को प्रमुखता देना है।

19. चरित्र एवं नैतिकता का प्रशिक्षण

राष्ट्रीय जीवन में चरित्र एवं नैतिकता का एक विशेष स्थान है। चारित्रिक एवं नैतिक गुणों से युक्त व्यक्ति राष्ट्र की अमूल्य संपत्ति है। बीचर ने कहा है कि, ‘‘प्रत्येक युवक को याद रखना चाहिए कि सभी सपफल कार्यों का आधार नैतिकता है।’’ अतएव शिक्षा का एक प्रमुख कार्य बालकों को चरित्र एवं  नैतिकता का प्रशिक्षण देना है, जिससे इन गुणों से युक्त होकर वे राष्ट्र का कल्याण कर सके। 

20. सामाजिक सुधार और उन्नति 

शिक्षा का कार्य सामाजिक सुधार एवं समाज की उन्नति करना है। शिक्षा व्यक्ति को समाज की संगठित परंपराओं से परिचित कराती है और उनको बदलने तथा सुधारने की क्षमता उत्पन्न करती है। शिक्षा व्यक्ति और समाज को उचित दिशा की ओर प्रगति करने के लिए अवसर प्रदान करती है। शिक्षा के इस कार्य के विषय में ड्यूई ;क्मूमलद्ध ने लिखा है, ‘‘शिक्षा में निश्चित और अल्पतम साधनों द्वारा सामाजिक और संस्थागत उद्देश्य के साथ-साथ समाज के कल्याण, प्रगति और सुधार में रुचि का विकसित होना पाया जाता है।’’ 

21. राष्ट्रीय एकता

किसी राष्ट्र के सतत् विकास के लिए आवश्यक है कि उसके नागरिकों में राष्ट्रीय एकता की भावना हो। जातीयता, सांप्रदायिकता, प्रांतीयता, भाषावाद, गरीबी-अमीरी आदि अनेक कारणों से लोगों में कटुता, वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष आदि भावनाएँ पैदा हो जाती हैं, जिससे कभी-कभी बड़े संघर्ष हो जाते हैं और राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाती है। शिक्षा का कार्य कटुता, वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष आदि इस प्रकार की संकीर्ण भावनाओं को पनपने से रोकना है और प्रेम, सहयोग, मित्रता, सहकारिता तथा देश प्रेम की भावनाएँ उत्पन्न करना है, जिससे देश की राष्ट्रीय एकात बनी रहे। 

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