वाक्य रचना पदों के संयोग से होती है। इसमें मुख्यतः चार बातें आवश्यक मानी गई हैं- 1. पदक्रम या शब्दक्रम,
2. अन्वय, 3. लोप, 4. आगम।
1. अन्तः केन्द्रिक तथा
2. वाह्य केन्द्रिक।
1. पदक्रम- योगात्मक भाषाओं में पदक्रम अनिवार्य होता है। चीनी जैसी भाषाओं में पक्रम का अत्यन्त मह़वपूर्ण
स्थान है। वियोगात्मक भाषाओं में भी पदक्रम के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। पदक्रम का अर्थ है
वाक्य में निश्चित स्थान पर पद का प्रयोग। जैसे हिन्दी में कर्ता पहले, कर्म बीच में और क्रिया अंत में होती हैं
जैसे ‘राम रोटी खाता है।’ अंग्रेजी में क्रिया कर्ता के बाद होती है। जैसे Ram reads a book.
2. अन्वय- अन्वय का अर्थ है व्याकरणिक समरूपता। भाषा में कर्ता, कर्म, क्रिया, क्रिया-विशेषण, विशेषण आदि
के लिंग, वचन, पुरुष आदि की अनुरूपता होती है। अलग-अलग भाषाओं में अन्वय अलग-अलग होता है। जैसे
रामः गच्छति-राम जाता है। सीता गच्छति-सीता जाती है।
3. लोप- वाक्य-रचना में सभी शब्दों का प्रयोग सदा नहीं किया जाता। कभी-कभी कुछ शब्द लुप्त हो जाते हैं
लोप होने वाले शब्द निश्चित होते हैं जैसे तुम कहाँ जाओगे? श्रोता कहता है-घर। यहाँ ‘मैं’ तथा ‘जाउगा’ का लोप
हो गया है। वाक्य में जिन शब्दों का लोप हो गया होता है उनको अर्थ के लिए ले आना अध्याहार कहलाता है।
‘अध्याहार का अर्थ है वाक्य का अर्थ करते समय लुप्त शब्दों को ले आना। उनके बिना अर्थ स्पष्ट नहीं होता।
4. आगम- अर्थ के लिए कभी-कभी कुछ अतिरिक्त शब्दों को ले आया जाता हैं इसे आगम कहते हैं। किन्तु
‘अपेक्षित न हो तो अतिरिक्त शब्दों से बचना चाहिए।’
वाक्य में निम्नलिखित बातें दृष्टिगत हाती हैं-
- वाक्य भाषा की सहज इकाई है।
- वााक्य में एक शब्द भी हो सकता है और एक से अधिक भी।
- वाक्य में अर्थ की पूर्णता हो सकती है और नहीं भी।
- वाक्य व्याकरणिक संरचना की दृष्टि से पूर्ण होता है। व्याकरणिक पूर्णता कभी-कभी संदर्भ के आश्रित होती है।
- वाक्य में कम-से-कम एक समायिका क्रिया अनिवार्यतः होती है।
वाक्य रचना के प्रकार
पाश्चात्य विद्वानों ने वाक्य रचना के दो प्रकार माने हैं-1. अन्तः केन्द्रिक तथा
2. वाह्य केन्द्रिक।
1. अन्तः केन्द्रिक
अन्तःकेन्द्रित रचना उसे कहते हैं, जिसका केन्द्र उसी में हो। ‘लड़का’ और ‘अच्छा लड़का’ में वाक्य के स्तर पर कोई अन्तर नहीं है। ‘लड़का आता है’ भी कह सकते हैं और ‘अच्छा लड़का आता है’ भी। यहाँ प्रमुख शब्द लड़का है। वाक्य के स्तर पर व्याकरणिक रचना की दृष्टि से ‘अच्छा लड़का’ वही है, जो ‘लड़का’ है। यहाँ ‘अच्छा लड़का’ अन्तःकेन्द्रित रचना है। इसके कई रूप हो सकते हैं-
डा. कपिलदेव द्विवेदी ने इस विषय पर विस्तर से चर्चा की है। उनके अनुसार एण्डो-सेन्ट्रिक शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- Endo (अन्तर्गत, अन्दर) ग्रीक- Endon (= within) का समस्त पदों में प्रयुक्त होने वाला संक्षिप्त रूप है। Centrie (सेन्ट्रिक) शब्द Centrie (सेन्टर-केन्द्र) का विशेषणात्मक रूप है। अतः Endocentric का अनुवाद होगा- अन्तः केन्द्रिक। अन्तःकेन्द्रिक उस रचना को कहते हैं, जिसका केन्द्र अन्दर हो। इसको अन्तर्मुखी रचना भी कह सकते है। यदि रचना का पद-समूह (वाक्यखण्ड) उतना ही काम करता है, जितना उसके एक या अनेक निकटतम अवयव करते हैं, तो उसे अन्तःकेन्द्रिक वाक्यांश कहेंगे, और ऐसी रचना को अन्तःकेन्द्रिक रचना कहेंगे।
- विशेषण + संज्ञा (काला कपड़ा, बदमाश आदमी),
- क्रियाविशेषण + विशेषण (बहुत तेज, खूब गंदा),
- क्रियाविशेषण + क्रिया (तेज दौड़ा, खूब खाया),
- संज्ञा + विशेषण उपवाक्य (आदमी, जो गया था; फल, जो पकेगा),
- सर्वनाम + विशेषण उपवाक्य (वह, जो दौड़ रहा था),
- सर्वनाम + पूर्वसर्गात्मक वाक्यांश तथा
- क्रिया + क्रियाविशेषण उपवाक्य (गया, जहाँ हवाई जहाज गिरा था) आदि प्रमुख हैं।
डा. कपिलदेव द्विवेदी ने इस विषय पर विस्तर से चर्चा की है। उनके अनुसार एण्डो-सेन्ट्रिक शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- Endo (अन्तर्गत, अन्दर) ग्रीक- Endon (= within) का समस्त पदों में प्रयुक्त होने वाला संक्षिप्त रूप है। Centrie (सेन्ट्रिक) शब्द Centrie (सेन्टर-केन्द्र) का विशेषणात्मक रूप है। अतः Endocentric का अनुवाद होगा- अन्तः केन्द्रिक। अन्तःकेन्द्रिक उस रचना को कहते हैं, जिसका केन्द्र अन्दर हो। इसको अन्तर्मुखी रचना भी कह सकते है। यदि रचना का पद-समूह (वाक्यखण्ड) उतना ही काम करता है, जितना उसके एक या अनेक निकटतम अवयव करते हैं, तो उसे अन्तःकेन्द्रिक वाक्यांश कहेंगे, और ऐसी रचना को अन्तःकेन्द्रिक रचना कहेंगे।
इसमें मुख्यरूप से विशेषण-विषय संबन्ध होता है। इसमें एक या अनेक विशेष्य होते हैं और उनके एक या अनेक विशेषण हो सकते हैं। जैसे- सन्दुर फूल, शुद्ध दूध, स्वादिष्ट भोजन, सज्जन व्यक्ति, सीधी गाय आदि में एक विशेषण और एक विशेष्य है। अत्यन्त सुन्दर फूल, पूर्ण शुद्ध दूध, अत्यधिक स्वादिष्ट भोजन में एक विशेष्य के दो-दो विशेषण है। ‘धनुर्धर राम और योगिराज कृष्ण’ वाक्यांश में दो विशेष्य और दो विशेषण हैं।
इस प्रकार अन्तः केन्द्रिक रचना के अनेक भेद हैं। जैसे-
- विशेषण + संज्ञा शब्द - शुद्ध दूध, काला आदमी, लाल घोड़ा।
- क्रिया-विशेषण + विशेषण - बहुत स्वच्छ, अत्यन्त कुटिल, अत्यधिक मनोहर, खूब शरारती।
- क्रिया-विशेषण + क्रिया - शीघ्र आया, तुरन्त गया, खूब खेला, तेज चला, चुप बैठा।
- संज्ञा शब्द + विशेषण उपवाक्य - मनुष्य, जो कर्मठ है। जीवन, जो भार रूप है। पुष्प, जो सौरभयुक्त है।
- सर्वनाम + विशेषण उपवाक्य - वह, जो आज आया है। वह, जो पढ़ाई में लगा है। तू, जो मेरा मित्र है।
- सर्वनाम + पूर्वसर्गात्मक वाक्यांश - Those at home; Those on the ship,
- क्रिया + क्रियाविशेषण उपवाक्य- पहुँचा, जहाँ दुर्घटना हुई थी। गया, जहाँ मेला लगा था।
- संज्ञाशब्द + संयोजक + संज्ञाशब्द - कृष्ण और अर्जुन।
अन्तःकेन्द्रिक रचना के भेद- अन्तःकेन्द्रिक रचना दो प्रकार की होती है-
1. समवर्गी - जैसे- राम और कृष्ण, दूध और दही, रोटी और मक्खन, फूल और फल। इसमें दोनांे समान वर्ग या एक सी स्थिति वाले होते हैं। द्वन्द्व समास वाले स्थलों पर ऐसे समवर्गी शब्द मिलते हैं।
2. आश्रितवर्गी - इसमें एक या कुछ शब्द मुख्य होते हैं और शेष उनके आश्रित (Subordinative या Attributive) होते हैं। जैसे- सुन्दर फूल, मधुर फल, स्वादिष्ट व्यंजन, मनोरम प्रासाद। आश्रित के भी दो भेद होते हैं-
(1) मुख्य- आश्रितों में भी प्रमुख होता है या विशेष्य का स्थान ले लेता है, उसे मुख्य कहते हैं। जहाँ विशेषण का भी विशेषण लगता है। वहाँ एक विशेषण विशेष्य-वत् हो जाता है। जैसे- -अत्यन्त मधुर फल’ में मधुर विशेषण (आश्रित) है, ‘अत्यन्त’ विशेषण (आश्रित) है और ‘मुधर’ विशेष्य-वत् है।
(2) आश्रित- विशेषण का विशेषण आश्रित का आश्रित होगा। जैसे- ‘मधुर’ विशेषण का विशेषण ‘अत्यन्त’।
2. बहिष्केन्द्रिक रचना
Exocentric (एक्सोसेन्ट्रिक) शब्द भी दो शब्दों से मिलकर बना है- Exo (बाह्म, बहिर्गत, बाहरी) ग्रीक (Exo = outside, बाहरी)
का समस्त पदों में प्रयुक्त होने वाला स्वरूप है। Centric शब्द Centre (सेन्टर, केन्द्र) से बना है। Exocentric का अर्थ है-
बहिष्केन्द्रिक, जिसका केन्द्र बाहर हो। इसको बहिर्मुखी रचना भी कह सकते हैं। यदि रचना का वाक्यांश आने निकटम अवयव
के अनुरूप कार्य न करता हो तो उसे बहिष्केन्द्री वाक्यांश कहेंगे और उस रचना को बहिष्केन्द्रिक कहेंगे। यह रचना अन्तःकेन्द्रिक
के विपरीत होती है। दोनों रचनाओं में ये अन्तर है-
- अन्तःकेन्द्रिक में एक मुख्य और एक विशेषण होता है। अथवा दो या अधिक समवर्गी शब्द मुख्य होते हैं। उनके विशेषण हो सकते हैं।
- बहिष्केन्द्रिक में न विशेष्य होता है और न विशेषण।
- बहिष्केन्द्रक में कोई एक शब्द या वाक्यांश पूरी रचना के स्थान पर नहीं आ सकता है।
बहिष्केन्द्रिक रचना में संज्ञा शब्द + कारकचिन्ह या निपात होते हैं। हाथ + से, घर + पर, छत + पर, पेड़ + से आदि। ये
वाक्यांश किसी संज्ञा-शब्द आदि के विशेषक के रूप में आते हैं। जैसे- हाथ से कम करो, घर पर पुस्तक है, छत पर पक्षी
है। इनमें ‘हाथ से, ‘घर पर’ आदि वाक्यांश काम, पुस्तक आदि के विशेषक (Attribute) के रूप में हैं।