बौद्ध दर्शन का अर्थ, परिभाषा और इसके मूल सिद्धांत

बौद्ध दर्शन की जन्मभूमि भारत है, यह बात दूसरी है कि उसका विकास भारत की अपेक्षा, बर्मा, श्याम, जावा, तिब्बत, चीन, कोरिया, मंगोलिया और जापान में अधिक हुआ है। प्रारंभ में यह मत भी एक धर्म के रूप में विकसित हुआ था। शाक्य गणाधिपति शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध, 567-487 ई. पू.) इसके प्रतिपादक थे। सिद्धार्थ जन्म से ही आभायुक्त थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि सिद्धार्थ वृद्ध, रोगी और मृतक को देखने से मनुष्यों के दुखों से पीडि़त हो उठे थे और एक दिन राज्य, परिवार, पत्नी और पुत्रा सभी को त्यागकर चल दिए थे। सबसे पहले वे भृगु आश्रम पहुँचे। उसके बाद आलार कालाम के पास गए और यहाँ से गया पहुँचकर तपस्या में लीन हो गए। यहाँ उन्हें चार आर्य सत्यों का ज्ञान हुआ, वे सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए।

धर्म के रूप में बौद्ध दर्शन के दो रूप हैं-हीनयान और महायान। हीनयान वह संप्रदाय है जो बुद्ध की मौलिक शिक्षाओं को मानता है। बुद्ध की मौलिक शिक्षाएँ हैं-आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग और त्रिरत्न। बुद्ध ने उपदेश दिया कि न तो ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित कर्मकाण्ड के पालन में सुख है और न चार्वाकों द्वारा प्रतिपादित इंद्रिय भोग में सुख है सुख तो इन दोनों के बीच में ही हो सकता है। इसलिए बुद्ध के मार्ग को मध्यम प्रतिपदा मार्ग कहा जाता है। इसके विपरीत महायान वह संप्रदाय है जो बुद्ध की मौलिक शिक्षाओं-चार आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग और त्रिरत्न के साथ-साथ भक्ति में भी विश्वास करता है। 

महायानियों ने तो मूर्ति पूजा के विरोधी बुद्ध को ही भगवान के रूप में प्रतिष्ठित कर डाला और निर्वाण के लिए ज्ञान के साथ-साथ भक्ति को आवश्यक माना। महायानियों ने अपने मार्ग की श्रेष्ठता को स्पष्ट करने हेतु अपने मार्ग को महायान और बुद्ध के कोरे ज्ञान के उपदेशों को मानने वालों के मार्ग को हीनयान की संज्ञा दी। वास्तविकता यह है कि भक्ति भावना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। 

यहाँ धर्म और दर्शन ने चाहे जितने रूप बदले हों परंतु अंत में उसके साथ भक्ति भावना अवश्य जुड़ी, चाहे वह जैन दर्शन हो, चाहे बौद्ध और चाहे वेदांत।

हीनयान की दार्शनिक व्याख्या से वैभाषिक (बाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद) और सौत्रांतिक (बाह्यार्थ अनुमेयवाद)ध, दो दार्शनिक संप्रदायों का विकास हुआ और महायान की दार्शनिक विवेचना से योगाचार (विज्ञानवाद) और माध्यमिक (शून्यवाद) का विकास हुआ। वैभाषिक संप्रदाय के मूल दार्शनिक ग्रंथ हैं-वसु बंधु कृत ‘अभिधर्म कोश’ और संघभद्र कृत ‘समय प्रदीपिका।’ सौत्रांतिक संप्रदाय का मूल ग्रंथ है कुमार लता का ‘कल्पना मण्डिलिका’। योगाचार संप्रदाय का मूल ग्रंथ है-असंगकृत ‘योगाचार भूमिशास्त्रा’ और माध्यमिक संप्रदाय का मूल ग्रंथ है-नागार्जुन कृत ‘माध्यमिक कारिका’।

किसी भी दार्शनिक चिंतनधारा के स्वरूप को समझने के लिए हमें उसकी तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को समझना आवश्यक होता है। 

बौद्ध दर्शन का तत्व मीमांसा

जहाँ तक बुद्ध की बात है उन्होंने तत्व मीमांसा के विवेचन में अपनी शक्ति व्यय नहीं की। उनका स्पष्टीकरण था कि जीव-जगत और आत्मा-परमात्मा के विषय में निश्चय रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता और मनुष्य जीवन को उन्नत बनाने और निर्वाण प्राप्ति में इनके ज्ञान से कोई सहायता भी नहीं मिलती अतः इन पर विचार करना व्यर्थ है। जगत के विषय में उन्होंने केवल इतना कहा कि इस जगत में न तो कोई वस्तु शाश्वत है और न पूणर्त या नश्वर। जगत के विषय में उनके इस सिद्धांत को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ कहा जाता है। परंतु उनके नोट अनुयायियों ने इस जगत की व्याख्या अपनी-अपनी दृष्टि से प्रस्तुत की है।

हीनयान से संबंधित वैभाषिक एवं सौत्रांतिक, दोनों दर्शन वस्तु तथा चित्त की स्वतंत्रा सत्ता स्वीकार करते हैं। दोनों में अंतर इतना है कि वैभाषिक दर्शन वस्तु को इंद्रिय प्रत्यक्ष (चित्त निरपेक्ष) मानता है और सौत्रांतिक दर्शन अनुमान गम्य (चित्त सापेक्ष) मानता है। इसीलिए वैभाषिक दर्शन को बाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद और सौत्रांतिक दर्शन को बाह्यार्थ अनुमेयवाद कहा जाता है। इनके विपरीत महायान से संबंधित योगाचार एवं माध्यमिक दर्शन वस्तु को न तो चित्त निरपेक्ष मानते हैं और न चित्त सापेक्ष। योगाचार दर्शन इनके मूल में विज्ञान की सत्ता मानता है। इसके अनुसार चित्त, मन और विज्ञप्ति, ये विज्ञान के ही पर्याय हैं और यह समस्त संसार बुद्धि (विचारों) का बना हुआ है (सर्व बुद्धिमयं जगत)। इसलिए योगाचार को विज्ञानवाद कहा जाता है। इसके विपरीत माध्यमिक संप्रदाय के लोग इस जगत के मूल में एक पारमार्थिक तत्व की सत्ता को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार यह परम तत्व न सत् है न असत्, न सत्-असत् दोनों है और न सत्-असत् दोनों नहीं हैं। इसको वे ‘शून्य’ की संज्ञा देते हैं। उनका यह ‘शून्य’ कोई अभाववादी शब्द नहीं है अपितु एक अनिर्वचनीय परम तत्व का द्योतक है। 

माध्यमिकों की इस विचारधारा को शून्यवाद अथवा शून्य द्वैतवाद कहा जाता है। आत्मा-परमात्मा के आध्यात्मिक स्वरूप को चारों संप्रदाय अस्वीकार करते हैं। इसलिए बौद्ध दर्शन को अनात्मवादी एवं अनीश्वरवादी दर्शन कहा जाता है। वैभाषिक एवं सौत्रांतिक आत्मा के स्थान पर चित्त, योगाचार विज्ञान और माध्यमिक शून्य के अस्तित्व में विश्वास करते हैं।

बौद्ध दर्शन कर्म सिद्धांत और पुनर्जन्म दोनों में विश्वास करता है, परंतु इसका कर्म सिद्धांत अन्य धर्म-दर्शनों से भिन्न है। बौद्ध दर्शन के अनुसार मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर नया जन्म प्राप्त करता है, परंतु इन पूर्व जन्म के कर्मों का फलदाता कोई अन्य (ईश्वर आदि) नहीं है, कर्म स्वयं ही अपने फल देते हैं।

बौद्ध दर्शन का ज्ञान एवं तर्क मीमांसा

बौद्ध दर्शन में ज्ञान के स्वरूप और उसे प्राप्त करने के उपायों के संबंध में भी बड़ा मतभेद है। वैभाषिक और सौत्रांतिक दोनों बाह्य जगत की सत्ता स्वीकार करते हैं, यह बात दूसरी है कि वैभाषिक उसे चित्त निरपेक्ष मानते हैं और सौत्रांतिक चित्त सापेक्ष। पदार्थों के धर्मों एवं चित्त की क्रियाओं के ज्ञान को ये वास्तविक ज्ञान मानते हैं। वैभाषिकों के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के दो साधन हैं-ग्रहण और अध्यवसाय। ग्रहण का अर्थ है इंद्रियों द्वारा प्रत्यक्ष करना, इसके द्वारा पदार्थ के सामान्य रूप का ज्ञान होता है। पदार्थ को नाम एवं जाति आदि कल्पना से संयुक्त करना अध्यवसाय है। सौत्रांतिक इंद्रिय प्रत्यक्ष के आधार पर चित्त द्वारा अनुमान करने की क्रिया पर बल देते हैं। 

योगाचार और माध्यमिक जगत की स्वतंत्र सत्ता नहीं मानते, वे उसकी केवल व्यावहारिक सत्ता मानते हैं। योगाचार उसके मूल में विज्ञान और माध्यमिक शून्य के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और उसको प्राप्त करने के लिए योग की क्रियाओं पर बल देते हैं।

बौद्ध दर्शन के मूल्य एवं आचार मीमांसा

ऐसा उल्लेख मिलता है कि सिद्धार्थ (बुृध) ने राजकुमार के रूप में एक दिन निर्बल शरीर के बूढ़े को देखा, कुछ दिन बाद उन्होंने एक रोगी को देखा और उसके कुछ दिन बाद एक मृतक की अंतिम यात्रा को देखा। इससे उन्हें बड़ा दुख हुआ, वे व्याकुल हो उठे और एक दिन राजमहल, अपनी पत्नी और पुत्र, सबको छोड़कर चले गए और तपस्या में लीन हो गए। 6 वर्ष की तपस्या के बाद उन्होंने चार सत्यों की खोज की जिन्हें चार आर्य सत्य कहा जाता है। ये चार आर्य सत्य हैं-

1. जीवन दुखों से पूर्ण है -सिद्धार्थ के रूप में बुद्ध को वृद्ध, रोगी और मृतक को देखकर मानव के दुःखों की अनुभूति हुई। तपस्या के फलस्वरूप उन्होंने पाया कि मनुष्य का संपूर्ण जीवन दुखों से पूर्ण है, जिन्हें वह क्षणभर के लिए सुख समझ बैठता है वे भी उसमें तृष्णा को उत्पन्न करते हैं और इस प्रकार दुखों को उत्पन्न करते हैं।

2. इन दुखों का कारण विद्यमान है (दुख समुदाय)-गौतम बुद्ध ने दूसरा सत्य यह खोजा कि मनुष्य के दुखों का मूल कारण अज्ञान है। अज्ञान के कारण ही वह इन्द्रिय भोग में सुख समझने लगता है तथा और अधिक पाने की इच्छा अर्थात् तृष्णा से सदैव दुखी रहता है।

3. इन दुखों का अंत संभव है (दुख निरोध)-तीसरा आर्य सत्य उन्होंने यह खोजा कि अज्ञान अर्थात् जीवन के प्रति मोह तथा और अधिक प्राप्त करने की तृष्णा की समाप्ति से मनुष्य इन सांसारिक दुखों से छूट सकता है।

4. इन दुखों के अंत का उपाय है (दुख निरोध मार्ग अथवा निर्वाण मार्ग)-जीवन के मोह तथा और अधिक प्राप्ति की तृष्णा से मुक्त होने के लिए उन्होंने आर्य अष्टांग मार्ग की खोज की। इस मार्ग के अग्रलिखित आठ अंग हैं-
  1. सम्यक् दृष्टि (सम्मा दिष्टि)-बुद्ध के अनुसार मनुष्य के दुखों का मूल कारण अज्ञान है, अज्ञान के कारण ही उसकी भौतिक वस्तुओं में आसक्ति होती है, वह और अधिक पाने की इच्छा (तृष्णा) से ग्रसित रहता है और सदैव दुखी रहता है। अतः सबसे पहली आवश्यकता है-सत्य ज्ञान (सम्यक् दृष्टि, सम्मा दिष्टि) की।
  2. सम्यक् संकल्प (सम्मा संकल्प)-बुद्ध के अनुसार सत्य ज्ञान होने के बाद दूसरी आवश्यकता है उस सत्य के आधार पर पर चलने का दृढ़निश्चय (सम्यक् संकल्प, सम्मा संकल्प)।
  3. सम्यक् वचन (सम्मा वाचा)-बुद्ध के अनुसार तीसरा मार्ग है-संयमित वाणी, सत्य वचन (सम्यक् वचन, सम्मा वाचा)। उनके अनुसार असत्य एवं कटु वाणी मनुष्य के अनेक दुखों का कारण होती है अतः उसे सदैव सत्य बोलना चाहिए और कभी भी कटु नहीं बोलना चाहिए।
  4. सम्यक् कर्म (सम्मा कम्मा)-सम्यक् वचन के बाद सम्यक् वचन के अनुसार सम्यक् कर्म अर्थात् सत् कर्म करना आवश्यक है। बुद्ध के अनुसार सत् कर्मों में सत्य, अहिंसा, अस्तेय तथा करुणा का पालन एवं अधिक भोजन करने, इंद्रिय भोग में लीन होने और निंदा करने आदि दुष्कर्मों से दूर रहना आवश्यक है।
  5. सम्यक् जीव (सम्मा आजीव)-बुद्ध के अनुसार मनुष्य को अपनी जीविका कमाने के लिए भी उचित मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। गलत रास्तों से धनोपार्जन करने एवं आवश्यकता से अधिक धनोपार्जन करने का बुद्ध ने निषेध किया है।
  6. सम्यक् व्यायाम (सम्मा व्यायाम)-इसका अर्थ है कि अपनी तथा दूसरों की भलाई के लिए सदैव प्रयत्न करना। इसके लिए आत्मानुशासन एवं करुणा, इन दो का होना आवश्यक है। जब तक मनुष्य अपने पर नियंत्रण नहीं करता और दूसरों की भलाई के लिए तैयार नहीं होता वह सम्यक् व्यायाम नहीं कर सकता। संयम्, करुणा और दया बौद्ध आचार के मूल आधार माने जाते हैं।
  7. सम्यक् स्मृति (सम्मा मति)-इसका अर्थ है-सत्य मति। गौतम बुद्ध के अनुसार निर्वाण के इच्छुक को अपनी मति को सदैव सही रखना चाहिए, उसे चार आर्य सत्यों को सदैव अपनी स्मृति में बनाए रखना चाहिए और तदनुकूल आचरण करना चाहिए।
  8. सम्यक् समाधि (सम्मा समाधि)-बुद्ध के अनुसार उपरोक्त सात मार्गों का पालन करने वाले व्यक्ति का ही मन शांत हो सकता है और वही एकाग्र मन से समाधि की स्थिति प्राप्त कर सकता है। बुद्ध ने मन को संसार से हटा लेने को ही समाधि कहा है। इस स्थिति में ही मनुष्य संसार के दुखों से छूट सकता है निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।
आर्य अष्टांग मार्ग पर चलने हेतु शरीर शुद्धि पहली आवश्यकता है। शरीर शुद्धि के बौद्धदर्शन में तीन साधन बताए हैं-शील, समाधि तथा प्रज्ञा। इन्हें त्रिरत्न कहते हैं। यहाँ इनका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत हैं। 

1. शील-शील का अर्थ है-सात्विक कर्म। अहिंसा, अस्तेय, सत्य भाषण, ब्रह्मचर्य तथा नशा का सेवन न करना, ये पंचशील हैं जिनका पालन गृहस्थ तथा भिक्षुओं दोनों के लिए अनिवार्य है। भिक्षुओं के लिए अन्य पाँच शीलों का भी विधान है, वे हैं-अपरार् िंभोजन, मालाधारण, संगीत व स्वर्ण-रजत का त्याग तथा महत्त्वपूर्ण शÕया का त्याग।

2. समाधि-समाधि का अर्थ है चित्त की नैसर्गिक एकाग्रता। समाधि से तीन प्रकार की विधाएँ उत्पन्न होती नोट हैं-पूर्व जन्म की स्मृति, जीव की उत्पत्ति तथा विनाश का ज्ञान और चित्त के बाधक विषयों की जानकारी। 

3. प्रज्ञा-प्रज्ञा तीन प्रकार की होती है-श्रुतमयी (सुनी हुई), चिंतामयी (युक्ति से उत्पन्न) और भावनामयी (समाधिजन्य निश्चय)।

महायानी निर्वाण के लिए भक्ति को भी आवश्यक मानते हैं। इनके यहाँ सप्त विधि अनुत्तर पूजा (वंदना, पूजा, पाप देशना, पूण्यान मोदन, अध्येषणा, बोधिचिंतोत्पाद तथा परिणामना) का विधान है। इनकी दृष्टि से इसके लिए नैतिक जीवन परमावश्यक है और नैतिक जीवन के लिए षट्पारामिताओं (दान, वीर्य, शील, शांति, ध्यान और प्रज्ञा) का अर्जन आवश्यक है। 

यही संक्षेप में बौद्ध दर्शन की मूल्य एवं आचार मीमांसा है।

बौद्ध दर्शन की परिभाषा

बौद्ध दर्शन की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा के आधार पर हम उसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित कर सकते हैं- बौद्ध दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को न तो केवल वस्तुजन्य मानती है और न केवल आध्यात्मिक तत्व द्वारा निर्मित, यह इसे परिणामशील मानती है। यह आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति है, जिसे चार आर्य सत्यों के ज्ञान एवं आर्य अष्टांग मार्ग तथा त्रिरत्न के पालन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत

बौद्ध दर्शन की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को यदि हम सिद्धांतों के रूप में क्रमबद्ध करना चाहें तो निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं-

1. यह ब्रह्माण्ड परिणामशील है-श्रौत दर्शन के अनुसार इस ब्रह्माण्ड का मूल तत्व आध्यात्मिक है और चार्वाक दर्शन के अनुसार यह ब्रह्माण्ड चार मूलभूतों (भौतिक पदार्थों) से निर्मित है। लेकिन बुद्ध ने इनके विपरीत परिणाम की सत्ता स्वीकार की है। बुद्ध के अनुयायियों ने भी इस पर अपने-अपने विचार व्यक्त किए हैं। वैभाषिकों एवं सौत्रांतिकों के अनुसार यह ब्रह्माण्ड स्वंफधों के घात-प्रतिघात का प्रतिफल है। योगाचार विज्ञान को इस ब्रह्मांड का मूल तत्व मानते हैं और माध्यमिक शून्य को। परंतु एक बात ये भी मानते हैं कि यह जगत परिणामशील है।

2. वस्तु जगत और मानसिक जगत दोनों की सत्ता है-वैभाषिकों के अनुसार यह इंद्रियग्राह्य जगत सत्य है और इसके साथ-साथ मन ;चित्त अथवा विज्ञानद्ध के जगत की भी सत्ता है, परंतु है सब परिवर्तनशील। योगाचार और माध्यमिक इस वस्तु जगत की स्वतंत्रा सत्ता स्वीकार नहीं करते। योगाचार दर्शन के अनुसार यह बाह्य जगत विज्ञान (मन अथवा चित्त) की अभिव्यक्ति है और माध्यमिक दर्शन के अनुसार यह बाह्य जगत शून्य (अनिर्वचनीय परम तत्व) की अभिव्यक्ति है। ये दोनों संप्रदाय वस्तु जगत की केवल व्यावहारिक सत्ता मानते हैं।

3. आत्मा-परमात्मा की आध्यात्मिक सत्ता नहीं है-बौद्ध दर्शन आध्यात्मिक तत्व आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। उसके स्थान पर वैभाषिक एवं सौत्रांतिक क्रियाशील तत्व की सत्ता में विश्वास करते हैं, योगाचार विज्ञान की सत्ता में और माध्यमिक शून्य की सत्ता में। 

4. मनुष्य स्कंधों का संघात मात्रा है-हीनयानियों का मत है कि संसार के समस्त पदार्थ पाँच स्कंधों से निर्मित हैं। ये पंच स्कंध हैं-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान। महायानी इसे विज्ञान अथवा शून्य की प्रतीति मानते हैं। दोनों संप्रदाय यह बात स्वीकार करते हैं कि प्राणी (मनुष्य) पूर्व कर्मों के कारण उत्पन्न होने वाले धर्मों का संघात मात्रा है, यह तो उसका भ्रम है कि उसके अंदर कोई आत्मा है। आष्टांगिक मार्ग से व्यक्ति को वस्तुओं की अनित्यता का आभास हो जाता है।

5. मनुष्य का विकास बाह्य एवं आंतरिक क्रियाओं द्वारा होता है-बौद्ध मतावलंबी कारण-कार्य सिद्धांत में विश्वास करते हैं। इनकी दृष्टि से मनुष्य का विकास पूर्वजन्म में किए गए कर्मों, वर्तमान में किए जा रहे कर्मों और भविष्य में किए जाने वाले कर्मों, तीनों पर निर्भर करता है। हीनयान के अनुसार मानव के विकास का चरम रूप अर्हत पद की प्राप्ति है और महायान के अनुसर बुद्धत्व की प्राप्ति।

6. मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति है-हीनयानी निर्वाण को दुखों का अभाव मात्रा मानते हैं, परंतु महायानी निर्वाण को आनंद रूप मानते हैं। वैभाषिक एवं सौत्रांतिकों के अनुसार इंद्रिय भोग से विमुख होना अर्थात् तृष्णा के विरोध से दुखों का अंत ही निर्वाण है। इनके अनुसार निर्वाण के दो रूप हैं-सोपधिशेष और निरूपधिशेष। इनके विपरीत योगाचार का मत है कि क्लेशावरण तथा ज्ञेयावरण की निवृत्ति से निर्वाण लाभ हो सकता है। माध्यमिक परमार्थ तत्व ‘शून्य’ की अनुभूति को निर्वाण मानते हैं। इस प्रकार निर्वाण का अर्थ बौद्ध दर्शन के भिन्न-भिन्न संप्रदायों में भिन्न-भिन्न है।

7. निर्वाण के लिए अष्टांग मार्ग आवश्यक है-हीनयानी (वैभाषिक और सौत्रांतिक) बुद्ध द्वारा बताए मार्ग का अनुसरण करते हैं। उनके अनुसार चार आर्य सत्यों के ज्ञान और अष्टांग मार्ग का अनुसरण करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है। महायानी (योगाचारी और माध्यमिक) निर्वाण के लिए चार आर्य सत्यों के ज्ञान और अष्टांग मार्ग के अनुसरण के साथ-साथ भक्ति पर भी बल देते हैं।

8. आर्य अष्टांग मार्ग पर चलने के लिए त्रिरत्न का पालन आवश्यक है-बौद्ध दर्शन में त्रिरत्न-शील, समाधि और प्रज्ञा को मानव आचरण का मूल माना गया है। शीलों में भी पंचशील (अहिंसा, अस्तेय, सत्य भाषण, ब्रह्मचर्य और नशा न करना) तो गृहस्थ और भिक्षुक दोनों के लिए आवश्यक बताए गए हैं। समाधि अर्थात् चित्त की नैसर्गिक एकाग्रता और प्रज्ञा को भी निर्वाण के लिए आवश्यक माना गया है।

9. राजा का मूल कर्तव्य प्रजा का पालन और उसे सत्य मार्ग पर लगाना है-बुद्ध शाक्य गणाधिपति शुद्धोधन के पुत्र थे। उनकी दृष्टि से राजा का कर्तव्य है प्रजा का पालन करना। साधु के रूप में उन्होंने इस प्रजा पालन में प्रजा को सद्मार्ग पर लगाने की बात भी राजा के कर्तव्यों में जोड़ दी। आगे चलकर बौद्ध धर्म और दर्शन के प्रचार में भी राज्य का सहयोग प्राप्त किया गया। किसी भी स्थिति में बौद्ध दार्शनिक राजा अथवा राज्य से यह आशा करते रहे कि वह प्रजा के आचरण पर नियंत्रण रखे।

संदर्भ -
  1. शिक्षा के दार्शनिक और सामाजिक आधार, माथुर, एस.एस., विनोद पुस्तक मंदिर
  2. शिक्षा के दार्शनिक आधार, शर्मा, ओ.पी.।

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