साधारणतया पूंजी के सेवाओं के लिए किए जाने वाले भुगतान को ब्याज कहा जाता है परन्तु अर्थशास्त्र में पूंजी शब्द
का प्रयोग कई अर्थों में किया जाता है। पूंजी शब्द का प्रयोग मशीनों, इमारत, कारखानों तथा नकद पूंजी के लिए किया
जाता है। पूंजी की इन सभी विभिन्न प्रकार की सेवाओं के लिए किया जाने वाला भुगतान ब्याज नहीं कहलाता है। ब्याज
शब्द का प्रयोग केवल मुद्रा रूपी पूंजी के लिए एक निश्चित समय के लिए प्रयोग करने के लिए दिए जाने वाले भुगतान
के लिए किया जाता है। इसलिए ब्याज को प्रतिशत के रूप में प्रकट किया जाता है। अतएव अर्थशास्त्र में मुद्रा की सेवाओं
के लिए दिया जाने वाला भुगतान ब्याज कहलाता है।
कुल ब्याज के अंगः-इसमें निम्न तत्वों को शामिल किया जाता है:
ब्याज क्यों उत्पन्न होता हैः-इसके बारे में विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने अलग-अलग सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं।
आलोचना -
आलोचना -
बाम बावर्क ने मनुष्य द्वारा भावी आवश्यकताओं को कम महत्व देने और वर्तमान उपभोग को अधिमान्यता देने के दो कारण बतलाए हैं। पहला यह कि मनुष्य अपनी भावी आवश्यकताओं की तीव्रता को नहीं जान सकता और उसकी वर्तमान की आवश्यकताएं अधिक तीव्र और प्रबल होती है। दूसरा यह है कि भविष्य अनिश्चित है और इसलिए मनुष्य अपनी उपभोग की सन्तुष्टि को अनिश्चित भविष्य में स्थगित नहीं करना चाहता। इस भविष्य के बट्टे के कारण ही मनुष्य को बचत करने तथा ऋण देने के लिए ब्याज देना पड़ता है।
3. फिशर का समय अधिमान्यता सिद्धांत - यह सिद्धांत इर्विग फिशर ने प्रस्तु किया और उनका सिद्धांत बाम बावर्क के बट्टा सिद्धांत से काफी मिलता-जुलता है। ब्याज क्यों दिया जाता है की व्याख्या फिशर समय अधिमान्यता द्वारा करता है। समय अधिमान्यता से तात्पर्य एक समान मूल्य वाली तथा समान निश्चितता की भावी तुष्टि की अपेक्षा मनुष्य वर्तमान तुष्टि को अधिक अधिमान्यता देता है। वर्तमान तुष्टि के लिए अधिमान्यता के कारण ही वह अपनी आय को वर्तमान उपभोग पर व्यय करने के लिए व्यग्र रहता है। मनुष्य रुपया बचाकर ऋण देने के लिए तभी प्रेरित होगा जब उसे कोई प्रलोभन दिया जाए और यह प्रलोभन है ब्याज। अतएव ब्याज वह कीमत है जो मनुष्य द्वारा अपनी आय को वर्तमान उपभोग पर व्यय करने के लिए व्यग्रता को दूर करने के लिए दी जाती है।
ब्याज की परिभाषा
प्रो. मैकोनल के अनुसार ”ब्याज वह कीमत है जो मुद्रा या ऋण योग्य कोष की सेवाओं के लिए दी जाती है।“कुल ब्याज तथा शुद्ध ब्याज
1. कुल ब्याज: ऋणी द्वारा पूंजी के प्रयोग के लिए ऋणदाता को जो कुल भुगतान किया जाता है, उसे कुल ब्याज कहते हैं।कुल ब्याज के अंगः-इसमें निम्न तत्वों को शामिल किया जाता है:
- शुद्ध ब्याजः-शुद्ध ब्याज, जोकि केवल मुद्रा की सेवाओं के उपयोग के लिए दिया जाता है, वह कुल ब्याज का अंग है।
- जोखिम का पुरस्कारः-ऋणदाता को रुपया उधार देने में जोखिम उठानी पड़ती है। उसे यह डर होता है कि यह रुपया वापिस मिलेगा या नहीं।
- प्रबंध का पुरस्कारः-ऋणदाता को ऋण देते और लेते समय कई प्रकार के प्रबंधों पर रुपया खर्च करना पड़ता है। ऋणदाता रुपये का हिसाब-किताब रखने के लिए मुनीम रखता है, रुपया न मिलने पर कानूनी कार्यवाही करना इत्यादि जो प्रबंध है, उनके लिए भी पुरस्कार कुल ब्याज में सम्मिलित होता है।
- असुविधाओं के लिए पुरस्कारः-ऋणदाता को ऋण देने में बहुत ही असुविधा का सामना करना पड़ता है। यह सम्भव है कि आवश्यकता पड़ने पर ऋणदाता को रुपया वापस न मिले और उसे कहीं और से उधार लेना पड़े। ऋणी के इंकार करने पर मुकदमा इत्यादि चलाने की असुविधा भी ऋणदाता को उठानी पड़ती है। इन सब असुविधाओं के लिए भी ऋणदाता कुछ पुरस्कार प्राप्त करता है। इसे भी कुल ब्याज में शामिल किया जाता है।
ब्याज का प्रतिष्ठित सिद्धांत
ब्याज के बारे में सबसे पहले सिद्धांत को प्रतिष्ठित या वास्तविक सिद्धांत कहते हैं। इसे वास्तविक सिद्धांत कहते हैं, क्योंकि यह वास्तविक कारकों जैसे पूंजी की उत्पादकता, बचत की प्रवृत्ति आदि पर आधारित है। इस सिद्धांत के दो भाग हैं। पहला भाग यह है कि ब्याज की दर क्यों उत्पन्न होती है। दूसरा यह कि उसके अनुसार ब्याज का दर निर्धारण किस प्रकार होता है।ब्याज क्यों उत्पन्न होता हैः-इसके बारे में विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने अलग-अलग सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं।
1. पूंजी की सीमान्त उत्पादकता सिद्धांत - कुछ अर्थशास्त्रियों जैसे माल्थस, जे.वी.से. आदि का विचार था कि पूंजी पर ब्याज इसलिए दिया जाता है कि क्योंकि
पूंजी की अपनी उत्पादकता शक्ति होती है। पूंजी द्वारा उत्पादन अधिक होता है, अतः पूंजी प्राप्त करने वाला ब्याज देने
को तैयार हो जाता है किन्तु ब्याज क्यों दिया जाता है। यह सिद्धांत इसकी पूर्ण व्याख्या नहीं करता अतएव यह सिद्धांत
ब्याज के केवल मांग पक्ष की व्याख्या करता है। पूर्ति पक्ष को यह सिद्धांत विचार में नहीं लाता है। इसके अतिरिक्त यह
सिद्धांत इस बार की व्याख्या नहीं करता कि उपभोग के लिए दिए गए ऋण पर ब्याज क्यों दिया जाता है।
आलोचना -
- यह सिद्धांत ब्याज के लिए केवल मांग पक्ष का अध्ययन करता है। इसमें ब्याज पर पूंजी की पूर्ति के पड़ने वाले प्रभाव की अवहेलना की गई है।
- यह सिद्धांत उपभोग ऋणों पर दिए जाने वाले ब्याज की व्याख्या नहीं करता।
- पूंजी की उत्पादकता का अनुमान लगाना सम्भव नहीं है क्योंकि पूंजी उत्पादन के दूसरे साधनों की सहायता के बिना कोई उत्पादन नहीं कर सकती।
समाजवादी लेखक कार्ल माक्र्स द्वारा सीनियर के
इस सिद्धांत पर आपत्ति की गई। उन्होंने बताया कि धनी व्यक्तियों द्वारा अपनी सभी आवश्यकताएँ पूरी करने के पश्चात
जो कुछ बचता है वह वे ऋण पर देते हैं। अतः उनके लिए विचार में धनी व्यक्ति कोई उपभोग के स्थगन का त्याग
नहीं करते।
माक्र्स की आलोचना के कारण ही मार्शन ने उपभोग के स्थगन के स्थान पर प्रतीक्षा शब्द किया है। उनके
अनुसार जब कोई व्यक्ति रुपया बचाकर किसी को ऋण देता है तो कुछ समय तक उसका उपभोग नहीं कर पाता और
प्रतीक्षा में रहता है और इस प्रतीक्षा के बलिदान के लिए ही उसे ब्याज दिया जाता है।
आलोचना -
- यह सिद्धांत एकपक्षीय है। इसमें केवल पूर्ति के पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। ब्याज पर मांग के पड़ने वाले प्रभाव की अवहेलना की गई है।
- यह सिद्धांत ब्याज निर्धारण का एक अधूरा सिद्धांत है। ब्याज केवल उपभोग या प्रतीक्षा का पुरस्कार नहीं है।
बाम बावर्क ने मनुष्य द्वारा भावी आवश्यकताओं को कम महत्व देने और वर्तमान उपभोग को अधिमान्यता देने के दो कारण बतलाए हैं। पहला यह कि मनुष्य अपनी भावी आवश्यकताओं की तीव्रता को नहीं जान सकता और उसकी वर्तमान की आवश्यकताएं अधिक तीव्र और प्रबल होती है। दूसरा यह है कि भविष्य अनिश्चित है और इसलिए मनुष्य अपनी उपभोग की सन्तुष्टि को अनिश्चित भविष्य में स्थगित नहीं करना चाहता। इस भविष्य के बट्टे के कारण ही मनुष्य को बचत करने तथा ऋण देने के लिए ब्याज देना पड़ता है।
3. फिशर का समय अधिमान्यता सिद्धांत - यह सिद्धांत इर्विग फिशर ने प्रस्तु किया और उनका सिद्धांत बाम बावर्क के बट्टा सिद्धांत से काफी मिलता-जुलता है। ब्याज क्यों दिया जाता है की व्याख्या फिशर समय अधिमान्यता द्वारा करता है। समय अधिमान्यता से तात्पर्य एक समान मूल्य वाली तथा समान निश्चितता की भावी तुष्टि की अपेक्षा मनुष्य वर्तमान तुष्टि को अधिक अधिमान्यता देता है। वर्तमान तुष्टि के लिए अधिमान्यता के कारण ही वह अपनी आय को वर्तमान उपभोग पर व्यय करने के लिए व्यग्र रहता है। मनुष्य रुपया बचाकर ऋण देने के लिए तभी प्रेरित होगा जब उसे कोई प्रलोभन दिया जाए और यह प्रलोभन है ब्याज। अतएव ब्याज वह कीमत है जो मनुष्य द्वारा अपनी आय को वर्तमान उपभोग पर व्यय करने के लिए व्यग्रता को दूर करने के लिए दी जाती है।
ब्याज का नव-प्रतिष्ठित सिद्धांत
इस सिद्धांत को विकसित करने वाले अर्थशास्त्रियों में प्रमुख हैं विकसेल, बर्ढिल, राबर्टसन आदि। इस सिद्धांत के
अनुसार वास्तविक शक्तियाँ जैसे कि बचत करने की भावना, प्रतीक्षा, समय अधिमान्यता तथा पूंजी की उत्पादकता ही केवल
ब्याज दर को निर्धारित नहीं करते बल्कि मुद्रा का संचय तथा असंचय करना, बैंकों द्वारा मुद्रा का सृजन, उपभोग के प्रयोजनों
के लिए मुद्रा-ऋण की मांग भी ब्याज दर के निर्धारण में भाग लेते हैं। इस प्रकार इस सिद्धांत में ब्याज का निर्धारण मौद्रीक
और गैर-मौद्रीक दोनों ही प्रकार की शक्तियों द्वारा होना माना गया है।
ब्याज दर का निर्धारण: इस सिद्धांत के अनुसार ब्याज की दर उस स्तर पर निर्धारित होती है जिस पर ऋण
योग्य कोष की मांग तथा पूर्ति बराबर होती है।
आलोचनात्मक समीक्षा
1. अनिर्धारणीय: इस सिद्धांत के अनुसार ब्याज की दर ऋण योग्य कोषों द्वारा निर्धारित होती है। ऋण योग्य
कोष आय पर निर्भर करते हैं और आय निवेश स्तर पर निर्भर करती है। निवेश का स्तर, ब्याज की दर पर निर्भर करता
है। इसलिए जब आय का पता नहीं होगा, हम ब्याज की दर का अनुमान नहीं लगा सकते तथा बिना ब्याज की दर
का पता लगाये आय का अनुमान नहीं लगा सकते।
2. पूर्ण रोजगार की अवास्तविक मान्यता: यह सिद्धांत लार्ड कीन्स के अनुसार पूर्ण रोजगार की अवास्तविक मान्यता
पर आधारित है।
3. आय पर निवेश के प्रभाव की उपेक्षा: यह सिद्धांत आय पर निवेश के प्रभाव की उपेक्षा करता है। इस सिद्धांत
के अनुसार ऊंची ब्याज की दर पर लोग अधिक बचत करेंगे परन्तु यह सदैव सही नहीं होता। ऊंची ब्याज की दर के
कारण निवेश कम होता है, निवेश कम होने के कारण आय कम होती है। आय कम होने के कारण बचत कम होती
है।
4. विभिन्न तत्वों का मिश्रण: यह सिद्धांत कई तत्वों जैसे वास्तविक तथा मौद्रीक तत्वों को एक साथ मिलाकर
ब्याज के निर्धारण का अध्ययन किया जाता है। ये तत्व एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं इसलिए ब्याज के निर्धारण से
इनके प्रभावों का अलग-अलग अध्ययन किया जाना चाहिए।
कीन्स का ब्याज सम्बन्धी नकदी-अधिमान सिद्धांत
यह सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कीन्स ने नकदी-अधिमान की एक नई धारणा प्रस्तुत की है और इस नई धारणा
के आधार पर अपना यह नया ब्याज दर सिद्धांत स्थापित किया। अतः इस सिद्धांत की व्याख्या करने से पूर्व हमें यह
समझना चाहिए कि नकदी अधिमान का क्या अर्थ है और लोगों में नकदी अधिमान किन कारणों से होता है।
नकदी अधिमान का अर्थः-कीन्स ने बताया कि हम अपने धन को कई रूपों में रख सकते हैं। उन विभिन्न रूपों में
सबसे सरल रूप मुद्रा या नकदी है क्योंकि हमारा धन नकदी के रूप में हो तो हम इसे इच्छानुसार प्रयोग कर सकते है।
इसके विपरीत यदि हमारा धन भूमि, मकान, कारखाने, शेयरों आदि के रूप में हो तो उसे तत्काल अपनी इच्छानुसार प्रयोग
नहीं कर सकते। पहले उसे नकदी के रूप में बदलना पड़ता है, तब जाकर उससे हम अपनी वांछित वस्तु या सेवा प्राप्त
कर सकते हैं। अपने धन को नकदी के रूप में न रखकर भूमि, मकान, कारखाने, शेयरों तथा ऋणपत्रों के रूप में रखने
से एक लाभ यह होता है कि हमें इनसे आय प्राप्त होती है जैसे भूमि, मकान आदि से किराया, शेयरों से लाभांश मिलता
है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि धन को नकदी के रूप में रखने से लाभ तथा हानियां दोनों होते हैं।
अतः यह हमारे अपने
निर्णय पर निर्भर करता है कि किसी समय हम नकदी को धन के अन्य रूपों की तुलना में कितना अधिमान प्रदान करते
हैं। किसी भी समय व्यक्तियों का नकदी के लिए कुछ अधिमान होता है, किन्तु यदि उनको उस नकदी के लिए उस समय
की प्रचलित ब्याज दर से ऊंची ब्याज दर दी जाए तो अधिक सम्भावना यह होगी कि वे अपनी नकदी को कुछ भाग ऋण
पर दे देंगे और अपने पास कम नकदी रखने को तैयार हो जाएंगे। इसे हम यों कह सकते हैं कि ब्याज एक ऐसा प्रलोभन
है जिसके द्वारा लोगों की नकदी की इच्छा या अधिमान को खरीदा जा सकता है।
नकदी अधिमान के प्रयोजनः-नकदी की मांग निम्नलिखित तीन प्रयोजनों से की जाती हैः-
1. क्रय-विक्रय का काम चलाने के लिएः-प्रत्येक व्यक्ति तथा फर्म को अपने प्रतिदिन के क्रय-विक्रय के लिए मुद्रा
की आवश्यकता होती है। इसका कारण यह होता है कि लोगों तथा फर्मों द्वारा किए जाने वाले व्यय तथा उन्हें प्राप्त
होने वाली आय में समय का अन्तर होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति का फर्म आय का कुछ भाग क्रय-विक्रय के लिए नकदी
के रूप में रखना पड़ता है।
2. पूर्वोयापी प्रयोजनः-प्रत्येक व्यक्ति तथा व्यवसाय की यह प्रवृत्ति होती है कि वह कुछ नकदी अपने पास इसलिए
रखे की उसे आड़े समय में काम आए। एक व्यक्ति को बीमारी, बेरोजगारी, दुर्घटना आदि का सामना करना पड़ सकता
है। प्रत्येक व्यक्ति इन कठिनाईयों से बचने के लिए मुद्रा का कुछ भाग नकद के रूप में रखना चाहता है। सावधानी
उद्देश्य के लिए रखी गई मुद्रा या नकदी की मात्रा आय स्तर पर निर्भर करती है।
Lp = f (y)
यहाँ
Lp = सावधानी या पूर्वोयापी प्रयोजन के लिए मुद्रा की मांग।
Y= आय।
3. सट्टा प्रयोजनः-ब्याज की दर में भविष्य में परिवर्तन होता रहता ाहै। जब लोगों को यह आशा होती है कि
भविष्य में ब्याज की दर बढ़ जाएगी तब वे अपनी नकद मुद्रा को वर्तमान समय में उधार नहीं देंगे, जिसे वे भविष्य में
ब्याज की दर बढ़ने पर नकद मुद्रा उधार देकर आय प्राप्त कर सकें। इसे सट्टा प्रयोजन कहा जाता है। इस प्रयोजन
के किलए नकदी की मांग ब्याज सापेक्ष होती है। इसको हम निम्न समीकरण के रूप में व्यक्त कर सकते हैं।
Ls = f (r)
यहाँ
Ls = सट्टा प्रयोजन के लिए मुद्रा की मांग
Or = ब्याज की दर
ब्याज दर का निर्धारण
कीन्स के सिद्धांत के अनुसार ब्याज दर नकदी या मुद्रा की मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। किसी समय देश
में मुद्रा की पूर्ति कितनी होगी इसका निर्णय देश के मुद्रा अधिकारी के हाथ में होता है। अतः जहाँ तक मुद्रा की पूर्ति का
प्रश्न है, वह तो सरकार या मुद्रा अधिकारियों द्वारा अपनाई गई नीति पर ही निर्भर करती है।
कीन्स के ब्याज के नकदी अधिमान की आलोचना
1. कीन्स के ब्याज के निर्धारण में वास्तविक तत्वों की उपेक्षा कीः- ब्याज की दर पूर्णतया मौद्रिक तत्व नहीं है।
ब्याज की दर के निर्धारण में पूंजी की उत्पादकता और बचत की भावना जैसे वास्तविक शक्तियाँ भी हैं। इस सिद्धांत
में ब्याज दर को निवेश मांग से स्वतंत्र बताया है। वस्तुतः यह स्वतंत्र नहीं है। व्यवसायियों की नकदी की शक्तियाँ अधिकांशतः
पूंजी-निवेश के लिए मांग द्वारा निर्धारित होती है। पूंजी-निवेश के लिए मांग पूंजी की सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर
करती है। अतएव ब्याज दर पूंजी की सीमान्त आय उत्पादकता तथा निवेश मांग से स्वतंत्र रूप से निर्धारित नहीं होती।
कीन्स ने इसकी उपेक्षाकी है।
2. इस सिद्धांत में भी ब्याज दर निश्चित रूप से निर्धारण नहीं होती: कीन्स के अनुसार ब्याज दर मुद्रा के लिए
सट्टा-मांग तथा उसको सन्तुष्ट करने के लिए मुद्रा की पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। किन्तु कुल मुद्रा पूर्ति दी हुई होने पर
हम यह नहीं जान सकते हैं कि मुद्रा के लिए सट्टा-मांग कितनी होगी यदि हमें पहले मुद्रा के लिए क्रय-विक्रय की मांग
मालूम न हो। चूँकि आय का स्तर मालूम न हो तो हमें मुद्रा के लिए क्रय-विक्रय की मांग भी ज्ञात नहीं हो सकती। इसलिए
कीन्स के सिद्धांत में ब्याज दर निश्चित रूप से निर्धारित नहीं होती।
3. बचतों के बिना तरलता सम्भव नहींः -कीन्स के अनुसार ब्याज तरलता अथवा नकदी त्यागने का पुरस्कार है
और यह बचत प्रेरणा अथवा प्रतीक्षा करने का पुरस्कार नहीं है। परन्तु प्रश्न यह है कि बचत के बिना तरल अथवा
नकदी के रूप में रखने के लिए मुद्रा राशियाँ कहाँ उपलब्ध होगी और नकदी त्यागने का प्रश्न ही नहीं उठता, यदि पहले
से मुद्रा न बचाई जाए तो। इस प्रकार ब्याज की दर के निर्धारण में बचत से घनिष्ठ सम्बन्ध है जिसकी कीन्स ने उपेक्षा
की है।
Tags:
ब्याज