दीर्घकालीन वित्त क्या है ? दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता एवं महत्व का वर्णन

औद्योगीकरण के इस व्यापक प्रचार के साथ-साथ ही दीर्घकालीन वित्त का महत्व एवं आवश्यकता भी उसी अनुपात में बढ़ी है। कुछ विद्वान उद्योग एवं व्यापार में 10 वर्ष से अधिक की वित्तीय आवश्यकताओं को दीर्घकालीन वित्त कहते हैं। परन्तु सामान्य स्वीकार्य अवधारणा एवं भारतीय योजना आयोग द्वारा निर्धारित अवधि के अनुसार भारत में उन सभी वित्तीय परियोजनाओं को जिनके लिये पांच वर्ष या इससे अधिक अवधि का ऋण प्राप्त किया जा सकता है दीर्घकालीन वित्त कहा जाता है। प्रो0 ए0 एस0 डेविंग के अनुसार, “विद्यमान उद्योगों में सुधार, नवीनीकरण एवं विस्तार तथा नवीन उद्योगों की स्थापना से सम्बन्धित विभिन्न परियोजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होती है।

दीर्घकालीन वित्त का उपयोग स्थायी अथवा अचल सम्पत्तियों जैसे - भूमि एंव भवन, संयत्र, मशीनरी, फर्नीचर एंव फिटिंग्स, ख्याति, ट्रेडमार्क एवं पेटेण्ट आदि का क्रय करने, प्रारम्भिक व्यय आदि का भुगतान करने, अतिरिक्त कार्यशील पूंजी के स्थायी भाग की व्यवस्था करने, व्यवसाय एवं संयंत्र के नवीनीकरण करने, भविष्य में मशीनरी एवं संयंत्र के नवीनीकरण अथवा उनको प्रतिस्थापित करने अथवा विस्तार में होने वाले विभिन्न व्ययों आदि में किया जा सकता है।

दीर्घकालीन वित्त में तरलता का गुण नहीं होता अर्थात् यह दीर्घकाल तक स्थायी रूप से व्यवसाय एवं उद्योग में विनियोजित रहती है आवश्यकता होने पर इसे जब चाहे निकाल नहीं सकते। यह दीर्घकालीन वित्त व्यवसाय अथवा उद्योगों में विभिन्न रूपों में विनियोग किया जा सकता है तथा आय अर्जन में सहयोग करने वाला स्थायी प्रकृति का वित्त होता है। इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी व्यवसाय, उद्योग एवं परियोजना आदि में दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता केवल स्थायी सम्पत्तियों के वित्तके लिए ही नही होती वरन् यह सभी प्रकार की सम्बन्धित दीर्घकालीन आवश्यकताओं की पूर्ति भी करता है।

दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता एवं महत्व

1- व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिये- किसी भी व्यवसाय, उद्योग अथवा उपक्रम को प्रारम्भ करने के लिए करने के लिए दीर्घकालीन वित्त एक अनिवार्य आवश्यकता है। व्यवसाय की स्थापना के समय भवन, उपकरण, एवं अन्य प्रारम्भिक व्यय के लिए दीर्घकालीन वित्त अति आवश्यक है।

2- स्थायी/अचल सम्पत्तियों के प्रबन्धन हेतुः- प्रत्येक उपक्रम में स्थायी सम्पत्तियों जैसे मशीन, संयंत्र, फर्नीचर आदि को क्रय करने एवं उनके उचित रखरखाव के लिए दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होती है। स्थायी सम्पत्तियों में विनियोजित राशि की प्रकृति स्थायी होती है। जिसकी पूर्ति दीर्घकालीन वित्त के माध्यम से ही सम्भव है।

3- व्यवसाय विस्तारः- परिस्थितियों के अनुसार कालक्रम में प्रत्येक उपक्रम एवं संगठन को प्रतियोगिता के इस युग में विस्तार की आवश्यकता होती है और यह विस्तार दीर्घकालीन वित्त के बिना किसी भी प्रकार संभव नहीं है।

4- पुनर्गठन हेतु:- किसी भी उपक्रम या संगठन के पुनर्गठन हेतु भी दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होती है। संगठन के पुनर्संगठन के समय एक ओर कृत्रिम सम्पत्तियों, अदृश्य सम्पत्तियों, लाभ हानि के डेबिट (ऋणी) शेष एवं अन्य सम्पत्तियों के पुनर्मूल्यांकन पर हानि को अपलिखित करना होता है वही दूसरी ओर मशीन उपकरणों के उच्चीकरण के लिए भी दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होती है।

5- नवीनीकरण एवं आधुनिकीकरण:- वर्तमान युग परिवर्तन का युग है। नित नए तकनीकी ज्ञान का प्रादुर्भाव, गलाकाट प्रतियोगिता आदि के कारण उद्योग-व्यवस्था में बने रहने के लिए प्रत्येक नवीनता एवं आधुनिकता को अंगीकार करना प्रत्येक संगठन की महती आवश्यकता है। बिना दीर्घकालीन वित्त के यह नवीनीकरण या आधुनिकीकरणनितांत असम्भव है।

6.  आर्थिक विकास की तीव्रताः- अधिक उत्पाद एवं राष्ट्रीय आय में वृद्वि यह आर्थिक विकास के दो मूलभूत पैमाने हैं जो कि पूंजी विस्तार एवं गहन पूंजी पर निर्भर करते हैं और इन दोनों ही क्रियाओं में दीर्घकालीन वित्त की अनिवार्य भूमिका है।

7. रोजगार सुविधाओं का विस्तार:- रोजगार की सुविधाओं के लिए किसी भी अर्थव्यवस्था के उद्योगों और व्यवसायों में पंूजीगत साधनों की वृद्धि अति आवश्यक होती है और पूंजीगत साधनों की वृद्धि के लिए दीर्घकालीन वित्त अनिवार्य है।

8.  तकनीकी प्रगतिः- किसी भी अर्थव्यवस्था में तकनीकी प्रोत्साहन में वित्त की अत्यन्त महत्पूर्ण भूमिका होती है। आर्थिक विकास के लिए प्रौद्योगिकी अर्थात तकनीक का समृद्ध एंव आधुनिकतम होना आदि आवश्यक है जबकि इसके लिए दीर्घकालीन वित्त एक अनिवार्य अवयव है।

9. मानवीय पूंजी का निर्माण:- वित्त से ही मानवीय पूंजी का विकास या निर्माण सम्मव है। स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक सेवाओं, समाज कल्याण आदि पर किये गए व्यय, अप्रत्यक्षतरू मनुष्यों पर किया गया व्यय एवं विनियोग है अर्थात मानवीय पूंजी का निर्माण है। इस विनियोग एवं व्यय के लिए भी दीर्घकालीन वित्त आवश्यक है।

10. अन्तर्राष्ट्रीय छवि में सुधार:- पर्यात दीर्घकालीन वित्त की उपलब्धता किसी भी देश के उद्योग धन्धों एंव उपक्रमों के लिए जीवन रक्त कार्य करती है और उनकी प्रगति एवं विकास देश की अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक होता है जिसका अंतिम परिणाम देश की अन्तराष्ट्रीय स्तर पर छवि सुधार होता है।

दीर्घकालीन वित्त को प्रभावित करने वाले तत्व

विभिन्न व्यवसाय उपक्रम एवं उद्योगों की स्थापना के समय अथवा विद्यमान उद्योगों के विकास एवं विस्तार के लिए दीर्घकालीन वित्त एक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक अवयव है। दीर्घकालीन वित्त की मात्रा किस उपक्रम में कितनी होनी चाहिए इसका कोई निश्चित मापदण्ड, आधार या सिद्धान्त नहीं है। यह व्यवसाय, उद्योग के आकार, क्षेत्र एवं परिस्थिति के अनुसार प्रभावित हो सकता है। दीर्घकालीन वित्त का प्रयोग किस मात्रा में किया जाना है यह अनेक कारणों से प्रभावित होकर भिन्न-भिन्न हो सकता है। संक्षेप में दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकता को प्रभावित करने वाले प्रमुख तत्व है:-

1. व्यवसाय की प्रकृति एवं आकार

दीर्घकालीन वित्त की मात्रा का कम या अधिक होना किसी भी व्यवसाय उपक्रम एवं उद्योग के आकार पर निर्भर करता है। बड़ा आकार अधिक वित्त एवं छोटा आकार कम वित्त की आवश्यकता। इसके अतिरिक्त निर्माणी संस्थाओं तथा पूंजीगत वस्तुओं के निर्माणी उद्योगों में भी प्रकृति के अनुसार कम या अधिक दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता हो सकती है। इसके अतिरिक्त जनोपयोगी सेवाओं में संलग्न विभिन्न संस्थानों जैसे रेल सेवा, जलपूर्ति, विद्युत पूर्ति, बस सेवा, आदि में भी अधिक दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होती है।

2. स्थायी सम्पत्तियों को क्रय करने की विधि

यदि संस्थान द्वारा स्थायी सम्पत्तियों का क्रय नकद किया जाता है तो अधिक दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होती है परन्तु यदि इस क्रय के लिए किश्त पद्धति या किराया क्रय पद्धति का प्रयोग किया जाता है तो अपेक्षाकृत कम वित्त की आवश्यकता होगी।

3. स्थायी एवं चल सम्पत्तियों का अनुपात

दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता को स्थायी सम्पत्तियों एवं चल सम्पत्तियों के मध्य निर्धारित अनुपात भी प्रभावित करता है। यह अनुपात उपक्रम या उद्योग की प्रकृति के आधार पर निर्धारित होता है और परिवर्तनीय होता है। यदि स्थायी सम्पत्तियों का अनुपात अधिक है तो दीर्घकालीन वित्त भी अधिक चाहिए और चल सम्पत्तियों का अनुपात अधिक है तो दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता भी कम होगी।

4. मशीनों एवं तकनीक का उपयोग

यदि उपक्रम, उद्योग या संस्थान में मानव श्रम आधारित क्रियाएं अधिक है तो कम दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होगी, परन्तु यदि यंत्रीकरण, स्वचालन एवं तकनीकी प्रयोग अधिक है तो दीर्घकालीन वित्त का उपयोग भी अधिक मात्रा में होगा। श्रम आधारित संस्थानों में दीर्घकालीन वित्त की अपेक्षा कार्यशील पूंजी की आवश्यकता अधिक होती है।

5. सरकारी नीति एवं वैधानिकतायें

विभिन्न राज्य एवं केन्द्र सरकार की उद्योग सम्बन्धी नीतियां दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता को प्रभावित करती है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रो एवं स्थान पर सरकार द्वारा सस्ती दरों पर जमीन, भवन, विद्युत आपूर्ति अथवा अनुवृत्ति का प्रावधान होता है ऐसी दशा मे अपेक्षाकृत कम दीर्घकालीन वित्त की आवश्यकता होती है।

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