कार्यशील पूंजी किसे कहते हैं? तथा उसके निर्धारक कारकों का वर्णन

प्रत्येक व्यावसायिक संस्था को दो प्रकार की पूंजी की आवश्यकता होती है- स्थिर पूंजी व कार्यशील। व्यवसाय के संचालन में स्थायी रूप में प्रयोग हेतु कुछ सम्पत्तियों की आवश्यकता पड़ती है, जिन्हें स्थायी सम्पत्ति कहते हैं और इनमें लगायी गयी पूजीं स्थायी या स्थिर पूंजी कहलाती है। इसके विपरीत, व्यवसाय के संचालन सम्बन्धी दिन प्रतिदिन की आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु भी सम्पत्तियों की जरूरत पड़ती है, जिन्हें चल सम्पत्ति कहते हैं और इनमें लगायी गयी पूंजी को चालू पूंजी या कार्यशील पूंजी (Working Capital) कहते हैं।

कार्यशील पूंजी की परिभाषा 

व्यापक दृष्टिकोण के आधार पर - वानाविले व डेवे ने कहा है कि किसी भी फण्ड की प्राप्ति को, जो चालू सम्पत्ति को बढ़ाता है, कार्यशील पूंजी की संज्ञा दी जा सकती है।

संर्कीण दृष्टिकोण के आधार पर - संर्कीण दृष्टिकोण के आधार पर चल सम्पत्तियों में से चल दायित्वों को घटाने के बाद जो शेष बचता है, उसे ही कार्यशील पूंजी माना जा सकता है। 

कार्यशील पूंजी की आवश्यकता के निर्धारण करने वाले कारक

किसी व्यावसायिक संस्था के सफल संचालन हेतु आवश्यक कार्यशील पूंजी का निर्धारण अपने आप में एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। वास्तविक कार्यशील पूंजी की स्थिति का विश्लेषण भी अर्थहीन हो जाता है, यदि हम संस्था की आवश्यक कार्यशील पूंजी का अनुमान न लगाते हों। आवश्यक कार्यशील पूंजी का निर्धारण सम्बन्धी समस्या का समाधान तभी हो सकता है, जब हम यह पता लगा लें, कि कार्यशील पूंजी की मात्रा किन-किन कारणों से प्रभावित होती है। कभी-कभी कार्यशील पूंजी की अवधारणा को चालू सम्पत्तियों से सम्बन्धित किया जाता है और इस प्रकार की राय रखने वाले विशेषज्ञों की यह मान्यता है, कि संस्था की चालू सम्पत्तियों की आवश्यकता ही कार्यशील पूंजी की आवश्यकता मानी जानी चाहिए। 

अन्य शब्दों में, कार्यशील पूंजी की मात्रा इच्छित सम्पत्तियों की मात्रा के बराबर होगी, परन्तु संस्था के अन्तर्गत प्रयुक्त स्थायी सम्पत्तियों की प्रकृति व सम्भाग पर्याप्त सीमा तक चालू सम्पत्तियों की मात्रा को प्रभावित करता है। अतः कार्यशील पूंजी की मात्रा स्थायी सम्पत्तियों से भी प्रभावित होती है। किसी भी व्यावसायिक संस्था के लिए आवश्यक कार्यशील पूंजी की मात्रा निम्न कारकों से प्रभावित होती है और यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि कार्यशील पूंजी का अनुमान लगाते समय इन कारकों को ध्यान में रखा जाएः

1. व्यवसाय की प्रकति

कार्यशील पूंजी की मात्रा को प्रभावित करने वाला यह एक महत्वपूर्ण कारक है। व्यवसाय की प्रकृति के अनुसार कार्यशील पूंजी की आवश्यकता भिन्न-भिन्न मात्रा में होती है। कुछ व्यवसाय ऐसे होते हैं, जहाॅ पर कार्यशील पूंजी की आवश्यकता उतनी अधिक नहीं होती है, जितनी कि स्थायी पूंजी की। इन्जीनियरिंग व तेल उद्योग इसका उदाहरण है। कुछ व्यवसाय इस प्रकार के होते हैं जहाॅ पर स्थायी पूंजी की तुलना में कार्यशील पूंजी की आवश्यकता अधिक होती है, जैसे- बैंकिंग उद्योग या व्यापार करने वाली संस्था में।

2. निर्माण अवधि की लम्बाई व उत्पादन-बिक्री का अन्तराल

संस्था की कार्यशील पूंजी की आवश्यक मात्रा को प्रभावित करने वाले तत्वों में दूसरा महत्वपूर्ण तत्व यह है, कि निर्माण अवधि कितनी है और निर्माण होने और बिक्री होने के बीच का अवधि अन्तराल कितना है? यदि संस्था की निर्माण अवधि काफी अधिक है, तो कच्चा माल खरीदने के लिए, श्रम व अन्य खर्चो के भुगतान के लिए संस्था बाध्य हो जायेगी और उसे अधिक समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, जब तक कि माल तैयार होकर, बिक्री के लिए उपलब्ध न हो जाए। ऐसी स्थिति में पूंजी का एक यथेष्ट भाग निर्माण कार्य में बंधित हो जायेगा।

इस अवधि में बिक्री न होने से, सभी प्रकार के भुगतानों के लिए अलग से कार्यशील पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। यही नहीं, लम्बी अवधि की दशा में कीमत-परिवर्तन की भी सम्भावना होती है और यह भय बना रहता है कि अनुमानित लाभ कम या नगण्य हो जाए। ऐसी स्थिति में कार्यशील पूंजी की मात्रा अधिक रूप में आवश्यक होती है, ताकि कठिनाइयों को झेला जा सके। यही नहीं, निर्माण व विक्रय के बीच की अवधि का अन्तराल जितना ही अधिक होगा उतनी ही अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी। निर्माण व बिक्री का अन्तराल अधिक होने के कारण संस्था में फण्ड का बहाव सहज, तुरन्त, नियमित व समय से नहीं हो पाता है और इसलिए निर्माण व स्कन्ध संग्रहण सम्बन्धी खर्चों को पूरा करने के लिए अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता पड़ती है।

3. विक्रय की कुल मात्रा व कार्यशील पूंजी का आवर्त

संस्था की बिक्री की कुल मात्रा जितनी अधिक होगी, कार्यशील पूंजी की मात्रा की आवश्यकता उतनी ही कम होगी, क्योंकि अधिक विक्रय मात्रा की रकम से संस्था अपने दिन-प्रतिदिन के भुगतानों का आयोजन कर सकती है, परन्तु विक्रय की गति का भी कार्यशील पूंजी पर प्रभाव पड़ता है। यदि बिक्री सहज व नियमित है, तो कार्यशील पूंजी की आवश्यकता अपेक्षाकृत कम होगी। अनियमित बिक्री की दशा में कार्यशील पूंजी की मात्रा अधिक होगी। बिक्री मात्रा बढ़ाने की नीति, विशेष बिक्री अभियान पर होने वाला खर्च, कीमत में परिवर्तन व साख-नीति, आदि का भी कार्यशील पूंजी पर प्रभाव पड़ता है। कार्यशील पूंजी की आवत्र्त की गति भी कार्यशील पूंजी को प्रभावित करती है। यह आवत्र्त बतलाता है कि चालू सम्पत्तियों में विनियोजित पूंजी का कितनी बार व्यापार में प्रयोग किया गया है। यह आवत्र्त जितना ही अधिक होता है, पूंजी की उसी मात्रा से व्यवसाय की अधिक मात्रा का व्यापार किया जा सकता है।

4. क्रय व विक्रय की शर्ते (लेखा नीति)

यदि संस्था माल का नकद क्रय करती है, परन्तु माल को उधार बेचती है, तो उसे कम से कम इतनी पॅूजी की आवश्यकता पड़ेगी जो कुछ बेचा गया है और जिसका रूपया नहीं मिला है, उसे नकद रूप में खरीदा जा सके। दूसरी तरफ, यदि संस्था माल का क्रय उधार करती है और नकद रूप में बेचती है, तो वह विक्रय हेतु स्कन्ध बिना पूंजी के ही प्राप्त या जमा कर सकेगी और समय-समय पर नकद बिक्री से प्राप्त धन मंे से उधार क्रय (लेनदारांे) का भुगतान कर सकेगी, परन्तु व्यवहार में ये दोनों स्थितियाॅ असीम होती हैं और पायी नहीं जाती है। वस्तुतः माल का क्रय-विक्रय अंशतः नकद और अंशतः उधार दोनों रूपों में होता है। उधार बिक्री की अवधि जितनी ही लम्बी होगी, उतनी ही अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी। इसके विपरीत, उधार क्रय की अवधि जितनी अधिक होगी, कार्यशील पूंजी की आवश्यकता भी उतनी ही कम होगी।

5. चालू सम्पत्तियों की तरलता

संस्था के पास जितनी ही अधिक तरल सम्पत्तियाॅ होगीं उसे उतनी ही कम पूंजी की आवश्यकता होगी। तरल सम्पत्तियों में केवल उन्हीं सम्पत्तियों को शामिल करते हैं, जिन्हें तुरन्त नकद धन में परिवर्तित किया जा सकता है। इसलिए यह कहा जाता है कि चालू सम्पत्तियों का मूल्य चालू दायित्वों से अधिक होना चाहिए। तरल सम्पत्तियों की आवश्यकता का अनुमान लगाते समय विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियों के मिश्रण का विधिवत् विश्लेषण करना आवश्यक होता है। तरलता का अनुमान लगाने के लिए मुख्य रूप से निम्न सम्पत्तियों का विश्लेषण महत्वपूर्ण होता है।

अ. रोकड़ स्थिति - यह तो सर्वविदित है कि व्यावसायिक संस्था द्वारा सम्भावित प्रत्येक क्रिया से रोकड़ स्थिति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती है। इसलिए व्यवसाय के प्रबन्ध के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह संस्था के लिए इच्छित रोकड़ का अनुमान लगाये। इसके लिए रोकड़ बजट का निर्माण किया जाना चाहिए। यह तथ्य ध्यान में रखना होगा, कि रोकड़ अपने आप में एक अप्रभावशाली एवं अनुत्पादक सम्पत्ति है और आवश्यकता से अधिक रोकड़ की विद्यमानता संस्था की लाभदायकता को कमजोर कर सकती है। यदि संस्था में रोकड़ का बहाव नियमित और सहज है, तो कम मात्रा में रोकड़ की जरूरत पड़ती है। रोकड़ स्थिति का विश्लेषण करते समय आन्तरिक कारक जैसे- कर भुगतान, लाभांश नीति, छूट नीति, लागत-कमी प्रोग्राम, कीमत परिवर्तन, आदि का भी सतर्कतापूर्वक अवलोकन व व्यवस्था की जानी चाहिए।

ब. देनदारों की स्थिति - तरल सम्पत्तियों की श्रेणी में देनदारों एवं प्राप्य बिलों का दूसरा स्थान है। अतः इनका भी विधिवत् विश्लेषण करके पता लगाना चाहिए, कि कुल उधार बिक्री का कितना भाग बकाया रह जाता है, देनदारों से औसतन कितनी अवधि के बाद रूपया वसूल हो पाता है, कितनी मात्रा में देनदार अशोध्य ऋण के रूप में हो जाते हैं, इत्यादि। इन सभी का प्रभाव देनदारांे की स्थिति पर पड़ता है जो अन्तिम अवस्था में कार्यशील पूंजी को भी प्रभावित करता है।

स. स्कन्ध स्थिति - प्रत्येक व्यावसायिक संस्था को व्यापार संचालन हेतु कच्चे माल का या तैयार माल का स्कन्ध रखना पड़ता है। स्कन्ध में तरलता का अभाव रहता है। अतः इसमें लगायी गयी पूंजी कुछ समय के लिए बंधित हो जाती है। स्कन्ध की स्थिति कई कारकों से प्रभावित होती है। संक्षेप में, स्कन्ध स्तर की अधिकतम एवं न्यूनतम सीमाएं, बिक्री का आवत्र्त, निर्माण अवधि व बिक्री एवं निर्माण अवधि का अन्तराल, आदि कारक स्कन्ध स्थिति को प्रभावित करते हैं।

6. व्यवसाय में मौसमी परिवर्तन 

 कुछ संस्थाए ऐसी होती हैं जिनका व्यापार संचालन मौसमी प्रकृति का होता है अर्थात् एक मौसम से दूसरे मौसम में व्यवसाय की प्रकृति या मात्रा में परिवर्तनों से ये संस्थाएॅ प्रभावित होती रहती हैं। ऐसी संस्थाओं के यहाॅ मौसम में व्यापार संचालन हेतु कच्चा माल अधिक मात्रा में क्रय करना पड़ता है और साथ ही सभी मौसम की माॅग को पूरा करने के लिए तैयार माल का स्कन्ध पर्याप्त मात्रा में रखना पड़ता है। दोनों दशाओं में स्पष्टतः अधिक पूंजी, चालू सम्पत्तियों मंे लगानी पड़ती है और इस प्रकार इन संस्थाओं के यहाॅ उस मौसम विशेष में कार्यशील पूंजी की अधिक आवश्यकता पड़ती है।

उक्त पंक्तियों में उन कारकों का वर्णन किया गया है जो कार्यशील पूंजी को प्रभावित करते हैं और इसलिए कार्यशील पूंजी का अनुमान लगाते समय इन्हें ध्यान में रखना आवश्यक होता है। परन्तु इन कारकों से भी अधिक महत्वपूर्ण चीज प्रबन्ध की योग्यता व क्षमता है, जो कार्यशील पूंजी की पर्याप्त सीमा तक प्रभावित करती है। उपर्युक्त कारकों के प्रति प्रबन्ध का दृष्टिकोण कारकों की प्रकृति की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण होता है। जोखिम उठाने की क्षमता, पूंजी संरचना का लचीलापन, लाभांश नीति, पूंजी का उचित स्रोत व क्रय-विक्रय सम्बन्धी साख नीति, ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें दक्ष प्रबन्ध अपनी कुशलता का परिचय देकर कार्यशील पूंजी की आवश्यकता को अनुकूलतम एवं लाभदायी बनाये रख सकता है।

सन्दर्भ -
  1. व्यावसायिक वित्त: डा0 आर0एस0 कुलश्रेष्ठ व डा0 विनय शंकर सिंह 
  2. उच्च वित्तीय प्रबन्ध: डा0 एस0पी0 गुप्ता व डा0 बी0 कुमार मित्तल
  3. व्यावसायिक वित्त: डा0 एफ0सी0 शर्मा
  4. वित्तीय प्रबन्ध: डा0 एम0डी0 अग्रवाल व डा0 एन0पी0 अग्रवाल

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