खड़ीबोली का नामकरण और क्षेत्र

हिंदी में गद्य-रचना के विकास-काल से खड़ी बोली का प्रभावी रूप में विकास हुआ है। आदि काल में डिंगल-पिंगल में रचना होती थी, तो मध्यकाल में अवध्ी और ब्रजभाषा काव्य-रचना की आधार भाषा थी। आधुनिक युग में हिंदी का यही रूप साहित्य-सृजन का आधार बना है।

हिंदी भाषा में एकरूपता और बोध्गम्यता बढ़ाने का प्रयास एक लंबे समय से चल रहा था। जैन, सिद्ध और नाथ साहित्य में खड़ी बोली का प्रारम्भिक रूप देख सकते हैं। संत कवियों की भाषा में खड़ीबोली की झलक सामने आती है।

पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथ।
आगे ते सतगुरु मिला, दीपक दीया हाथ।

इस दोहे में क्रिया आदि शब्दों के तद्भव रूप और कारक-चिर्ोिंं के प्रयोग खड़ीबोली के प्रभाव को प्रदर्शित करता है। अमीर खुसरो के काव्य में खड़ीबोली का प्रभावी रूप सामने आता है। डाॅ. भोलानाथ तिवारी अमीर खुसरो को खड़ीबोली का प्रारंभिक और श्रेष्ठ कवि मानते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अमीर खुसरो को खड़ीबोली में रचना करने वाले सहृदय शुरुआती साहित्यकार की मान्यता दी है।

अकबर के दरबार कवियों में भी खड़ीबोली की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इन कवियों में ‘रहीम’ का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

रीतिकाल के गद्य पर ब्रज और फारसी का प्रभाव अवश्यमेव पड़ा है। राम प्रसाद निरंजनी कृत अट्ठारहवीं शताब्दी की ‘भाषायोग वशिष्ठ’ खड़ीबोली की प्रथम प्रामाणिक रचना मानी गई है। आचार्य शुक्ल ने ‘रामप्रसाद निरंजनी’ को खड़ीबोली का प्रौढ़ रचनाकार घोषित किया है। इनकी भाषा योग वशिष्ट ठ का एक गद्यांश अवलोकनीय है-

फ्जो पुरुष अभिमानी नहीं है, वह शरीर के इष्ट-अनिष्ट में राग-द्वेष नहीं करता। क्योंकि इसकी शुद्ध वासना है। इसी समय से खड़ीबोली के प्रयोग की एक परंपरा बनी और साहित्य-सृजन के लिए आधार बनी।

खड़ीबोली का नामकरण

हिंदी के सर्वमान्य स्वरूप को खड़ीबोली नाम दिया गया है। हिंदी भाषा के इस स्वरूप की अनुकूलता अर्थात् खरेपन के कारण ‘खड़ीबोली’ कहा गया और फिर ‘खड़ीबोली’ नाम दिया गया। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि शब्द-भंडार के प्रमुख वर्ग क्रिया की संरचना को नामकरण का आधार बनाया गया होगा अर्थात् हिंदी की समस्त क्रिया की रचना में अंतिम ध्वनि ‘आ’ की मात्रा ‘ा’ खड़ी पाई होती है यथा-जाना, आना, धेना, खोना, चलना, पिफरना, हँसना आदि। सभी क्रिया-शब्दों के अंत में ‘ा’ खड़ी पाई का प्रयोग है। इसके आधार पर ‘खड़ीबोली’ नामकरण की संभावना व्यक्त की गई है।

खड़ीबोली के क्षेत्र

खड़ीबोली का क्षेत्र, मुजफ्फरपुर नगर और दिल्ली के आस-पास माना गया है। सर्वेक्षण के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि ‘खड़ीबोली’ के रूप में प्रयुक्त हिंदी भाषा का रूप उक्त क्षेत्र के किसी भी गाँव में प्रयुक्त नहीं होता है। गंभीर चिंतन करने से यह तथ्य सामने आता है कि हिंदी भाषा के विस्तृत क्षेत्र और उसकी विविधता दखकर जा एकरूपता देने का प्रयास किया गया, उसमें इस क्षेत्र की बोली को आधार बनाया गया है। ‘खड़ीबोली’ का उक्त क्षेत्र वास्तव में पश्चिमी हिंदी की कौरवी बोली का क्षेत्र है। इस प्रकार खड़ी बोली के विषय में कहा जा सकता है- कौरवी बोली के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों के लोगों की बोधगम्यता के लिए जो संकल्पनात्मक रूप विकसित हुआ, उसे खड़ीबोली नाम दिया गया है।

खड़ीबोली का प्रभाव धीरे-धीरे विस्तृत होता जा रहा है। वर्तमान में मेरठ, मुजफरनगर, बिजनौर, सहारनपुर, हरिद्वार, गाजियाबाद, मुरादाबाद ओर दिल्ली तक देख सकते हैं। हरियाणा के करनाल, यमुनानगर, पानीपत, सोनीपत के कुछ भागों में खड़ीबोली का स्पष्ट प्रभाव मिलता है।

Post a Comment

Previous Post Next Post