कृषि मूल्य नीति से क्या अभिप्रायः है ? कृषि मूल्य नीति के उद्देश्य तथा मुख्य अंश

कृषि उत्पादन की कीमतों में अत्यधिक उतार-चढ़ाव से किसानों तथा समाज पर बुरा प्रभाव पडता है। इसलिए एक कृषि मूल्य नीति का होना अत्यन्त आवश्यक है। कृषि मूल्य नीति, कृषि उत्पादन को बढाने के लिए, खाद्यानों की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए तथा औद्योगिक क्षेत्र की कच्चेमाल की आवश्यकता की नियमित पूर्ति के लिये आवश्यक है। क्योंकि कृषि उत्पादन की कीमत में तेज गिरावट आने से उसके उत्पादक किसान पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। उनकी आय में तेजी से कमी होती है। जिससे वह अगले वर्ष उसी फसल को दोबारा उत्पादित करने से हिचकिचाता है। यदि वह फसल सामान्य जनता के उपभोग की वस्तु है तो अगले वर्ष पूर्ति मांग की अपेक्षा कम रहने की सम्भावना रहेगी और इस अन्तर को आयात द्वारा पूरा करना पडता है।

कृषि मूल्य नीति इस प्रकार की होनी चाहिए, जो किसानों और उपभोक्ताओं दोनों के ही हितो की रक्षा कर सकें। अतिरिक्त उत्पादन वाले वर्षों में सरकार उचित दामों पर किसानों का उत्पादन खरीद लेती है ताकि उन्हें हानि न हो। ये दाम ऐसे होने चाहिए कि किसानों की उत्पादन लागत तो पूरा करने के बाद कुछ न्यूनतम लाभ भी दे। सरकारी खरीद से जो प्रतिरोधक भण्डार (बफर स्टाॅफ) इकट्ठा होता है। उसका प्रयोग कम उत्पादन वाले वर्षों में पूर्ति की कमी को पूरा करने में किया जाता है। इससे सरकार खाद्यान्नों के आयतों से बच जाती है और कीमत स्तर को भी एक उचित स्तर पर बनाया रखा जा सकता है। इस प्रकार सरकार कृषि मूल्य नीति के दो मुख्य उद्देश्य होने चाहिए- कीमतों को बहुत ज्यादा न बढ़ने देना और कीमतों को एक न्यूनतम स्तर के निचे न गिरने देना ।इसके लिये सरकार न्यूनतम तथा वसूली कीमतों का निर्धारण करती है। जिससे किसानों के उत्पादन करने की प्रेरणा बनी रहे अर्थात् कीमतें ऐसे स्तर पर निर्धारित की जाये जो किसानों को और अधिक उत्पादन करने के लिए प्रेरित कर सकें।

कृषि मूल्य नीति के उद्देश्य

किसानों के हित के लिए एक विकासशील अर्थव्यवस्था में कृषि मूल्य नीति के मुख्य उद्देश्य निम्न होने चाहिए-

(1) किसानों को एक निश्चित न्यूनतम समर्थन कीमत की गारण्टी देना ताकि उनके हितों की रक्षा हो सके, उत्पादन में जोखिम न रहे, और वे लोग उत्पादन को ओर ज्यादा बढाने के लिये निवेश करने को तत्पर रहें।

(2) निर्धारित लक्ष्यों के अनुरूप विभिन्न फसलों के उत्पादन को निर्देशित किया जा सके। 

(3) अधिक आगातों के प्रयोग द्वारा तथा उन्नत किस्म के बिजों , उर्वरकों व अन्य आगातों का प्रयोग करने नई कृषि तकनीक के अधिक प्रसार द्वारा कुल कृषि उत्पादन में वृद्धि लाई जा सकें।

(4) किसानों को इस बात के लिये प्रेरित किया जा सके, कि वे खाद्यान्नों का बढ़ता हुआ हिस्सा बाजार में बेचने के लिए तैयार हो।

(5) अत्यधिक कीमत वृद्धि से उपभोक्ताओं की रक्षा करना, विशेष रुप से निम्न आय वर्ग के उपभोक्ताओं की उन वर्षों में जब आपूर्ति मांग से काफी कम हो और बाजार कीमतों में लगातार वृद्धि हो रही हो।

(6) कृषि मूल्य नीति का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कभी प्रयोग नहीं होना चाहिए। कोई देश किस प्रकार की कृषि मूल्य नीति को अपनाये यह विचार का विषय है मैलर के अनुसार विकासशील देशों में कृषि विकास की मुख्य दो अवस्थाएं होती हैं ।

जिनके अनुसार कृषि मूल्य नीति निर्धारित की जाती है। प्रथम अवस्था परम्परागत अवस्था होती है। जिसमें कृषि मूल्य नीति अधिक प्रभावशाली नहीं होती । क्योंकि परम्परागत तकनीक से कृषि कार्य करने के कारण मूल्य वृद्धि करने के साथ उत्पादन में वृद्धि नहीं होती है। क्योंकि परम्परागत अवस्था में कृषि उत्पादन हेतु भूमि तथा श्रम को ही अधिक महत्व दिया जाता है। द्वितीय अवस्था गैर-परम्परागत अवस्था अर्थात तकनीकी अवस्था है।

इसमें कृषि उत्पादन हेतु कृषि आगतें औद्योगिक क्षेत्र से खरीदी जाती है। किसानों में औद्योगिक क्षेत्र की वस्तुओं का उपभोग बढना आरम्भ हो जाता है, इसके साथ ही अब कृषि उत्पादों की बढती हुई मात्रा को गैर कृषि क्षेत्रों में आसानी से बेचा जा सकता है। ऐसी अवस्था में कृषि उत्पादों के मूल्यों में परिवर्तन का कृषि उत्पादन तथा कृषि उत्पादों की बिक्री पर प्रभाव पडेगा।

कृषि मूल्य नीति के मुख्य अंश

एक प्रभावी कृषि मूल्य नीति न केवल किसानों को प्रभावित करती हैं बल्कि इससे उपभोक्ताओं तथा औद्योगिक क्षेत्र भी प्रभावित होता है। इस प्रकार एक कृषि मूल्य नीति किसी देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है। इसलिए कृषि मूल्य नीति बनाने समय निम्न मुख्य अंश को ध्यान में रखना चाहिए। 

(1) कृषि उत्पादों का मूल्य निर्धारण- जब सरकार कृषि उत्पादों के मूल्यों में किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए, परिवर्तन करती है तो ऐसा परिवर्तन, उपभोक्ताओं के हितों के विरुद्ध काम करता है। इसी प्रकार यदि सरकार उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाना चाहती है तो यह नीति किसानों के हितों को ठेस पहुँचायेगी। भिन्न-भिन्न देशों की सरकारें सदा इस दुविधा में रही है कि किस पक्ष के हित अधिक महत्वपूर्ण है। आर्थिक विकास की गति को बढाने के लिए बहुत से देशों ने विकास के प्रारम्भिग चरणों में नकारात्मक कृषि मूल्य नीति को अपनाया है। इस नीति में खाद्यान तथा कच्चे माल के मूल्यों को कम रखा जाता है, जिससे औद्योगिक क्षेत्र का लाभ बढने से विकास को प्रोत्साहन मिलें।

आजकल कई देश कृषि मूल्यों की सकारात्मक नीति का पालन करते हैं। जिससे किसानों को उनके उत्पाद का उचित और लाभप्रद मूल्य प्राप्त हो। इस नीति के पीछे मुख्य तर्क हैं कि जब तक कृषि क्षेत्र एक निर्णायक न्यूनतम विकास दर को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों का विकास होना कठिन है।

(2) कृषि साधनों के मूल्यों के बारे में नीति- कृषि मूल्य नीति केवल कृषि उत्पादों के मूल्यों के निर्धारण तक ही सीमित नहीं है। इसका दूसरा पहलू , कृषि उत्पादन के साधनों (आगातों) के मूल्यों से सम्बन्धित है। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सकारात्मक मूल्य नीति के उद्देश्य को कृषि साधनों के मूल्यों में परिवर्तन लाकर प्राप्त किया जा सकता है। इस नीति में किसानों को कृषि आगातों पर अनुदान देकर उत्पादन बढाने हेतु प्रेरित करना है। जिससे उत्पादन लागत में कमी आयेगी। किसान नवीन कृषि तकनीक को अपनाये, और उत्पादन में वृद्धि होगी। जिससे उपभोक्ता को भी खाद्यान्न की पूर्ति सुनिश्चित होगी और आधुनिक कृषि तकनीक अपनाने से औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादित कृषि आगतों की मांग बढेगी।

(3) उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा तथा कृषि मूल्य नीति- कृषि मूल्य नीति का सबसे जटिल अंश है। क्येांकि इसका उद्देश्य किसानों तथा लाखों उपभोक्ताओं के परस्पर विरोधी हितों को सन्तुलित करना है। कृषि मूल्य मे कमी से किसानों का अहित होता है। जिससे भावी कृषि उत्पादन भी प्रभावित होता है जबकि मूल्य वृद्धि से निम्न व मध्यम आय वर्ग सहित मजदूर वर्ग भी प्रभावित होता है। इसलिए ऐसी स्थिति में सरकार एक निश्चित मूल्य पर किसानों से उनका उत्पाद खरीद कर उचित मूल्य की दुकानों द्वारा कम मूल्य पर निम्न आय वाले उपभोक्ताओं तक पहुंचाती है। जिससे दोनों के हितों की रक्षा हो।

भारत में कृषि मूल्य नीति

भारत में स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद कृषि मूल्य नीति का आधार दूसरे विश्व युद्ध में लागू किए गये अनेक प्रतिबन्ध एवं नियन्त्रण थे। जिसमें एक राज्य से अन्य राज्यों की ओर कृषि उत्पादन लें जाने पर कडे नियन्त्रण थे। उत्पादको और मिल मालिकों से अनिवार्य उगाही की जाती थी, तथा लगभग सभी राज्यों में राइनिंग व्यवस्था थी।

खाद्यान्न नीति समिति के 1947 में यह सुझाव देने के बाद कि विनियंत्रण होना चाहिए, सरकार ने प्रतिबन्धों और नियन्त्रण को कम कर दिया। परन्तु 1948 में खाद्य संकट पैदा हो गया और खाद्यान्नों की कीमतों में तेज वृद्धि हुई। इसलिए नियन्त्रण को एक बार फिर लागू किया गया। 1953-54 में खाद्य स्थिति सुधरी और नियन्त्रणों को लगभग खत्म कर दिया गया। 1955 के मध्य से खाद्य कीमतें फिर बढ़ने लगीं इसलिए अधिकांश नियन्त्रण फिर से लगाये गये। इस प्रकार 1951 से 1957 के बीच नीति सम्पूर्ण नियन्त्रण से सम्पूर्ण विनियन्त्रण और फिर आंशिक नियन्त्रण के बीच डोलती रही।

खाद्यान्न जाँच समिति 1957 के इस सुझाव पर कि ‘खाद्यान्नों के थोक व्यापार पर सामाजिक नियन्त्रण‘ होना चाहिए। भारत सरकार ने अप्रैल 1959 में खाद्यान्नों के राज्य व्यापार का प्रयोग किया। इस प्रयोग से राज्य व्यापार दो मुख्य खाद्यान्नों-गेहूँ और चावल तक सीमित था। क्योंकि यह प्रयोग आर्थिक शक्तियों की पूरी जानकारी के बिना शुरु किया था। इसलिए विफल हो गया। उदाहरण के लिए गेहूँ की वसूली कीमतों का निर्धारण बहुत कम स्तर पर किया गया। इसलिए काफी उत्पादन के बावजूद बाजार में बहुत कम खाद्यान्न बिकने के लिए आये। कुछ राज्यों ने थोक व्यापारियों से अत्यधिक अनिवार्य उगाही करने की कोशिश की, इसलिए थोक व्यापारी जहाँ एक और हतोत्साहित हुए वहीं दूसरी और उन्होंने कई अनुचित और भ्रष्ट उपाय करने का प्रयास किया।

कृषि मूल्य में स्थायित्व लाने के प्रयास में मार्च 1964 में खाद्य क्षेत्रों का गठन किया गया। देश को आठ गेहूँ क्षेत्रों में विभाजित किया गया। दक्षिण भारत में चावल क्षेत्र बनाये गये। इस प्रयोग के विफल होने के बाद, प्रत्येक राज्य को एक अलग क्षेत्र बना दिया गया। एक क्षेत्र के बीच खाद्यान्नों के चलन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था, परन्तु एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में खाद्यान्न के व्यापार पर नियन्त्रण लगाये गये। अतिरिक्त उत्पादन वाले राज्यों में खाद्यान्नों की उगाही करके उन्हें कमी वाले राज्यों में बांटने का काम सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से स्वयं अपने हाथ में लिया।

लेकिन पहली बार, तीसरी पंचवर्षीय योजना के प्रलेख में यह माना गया कि कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को कृषि उत्पादों के लाभकारी मूल्यों द्वारा प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। इसलिए सरकार को कृषि मूल्यों की नकारात्मक नीति को छोड़कर एक सकारात्मक नीति अपनाने के लिए कहा गया। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सरकार ने कृषि उत्पादों के मूल्यों पर आंशिक नियन्त्रण की नीति को छोड़ दिया तथा वर्ष 1964 में खाद्यान्न मूल्य समिति (झा समिति) का गठन किया गया। झा समिति ने सरकार द्वारा कृषि उत्पादों के लाभकारी मूल्यों को निर्धारित किये जाने की बात कही तथा इन मूल्यों के निर्धारण के लिए सुझाव दिये-
  1. मूल्यों के स्तर ऐसे होने चाहिए, जोकि कृषि में उन्नत टैक्नोलोजी अपनाने तथा उत्पादन को अधिकतम करने के लिए प्रोत्साहन देते हों।
  2. निर्धारित किये गये मूल्य ऐसे हों, जोकि भूमि के अनुकूलतम् प्रयोग को सुनिश्चित करते हों।
  3. निर्धारित मूल्य का स्तर, जहाँ तक हो सके, ऐसा होना चाहिए कि यह भिन्न-भिन्न फसलों की पूर्ति तथा मात्रा के बीच संतुलन लाता हो।
  4. किसी एक मूल्य को निर्धारित करते समय, इससे संबंधित फसल के आयात तथा निर्यात पर पड़ने वाले प्रभाव को सामने रखना चाहिए।
  5. समूची मूल्य नीति के अन्य क्षेत्रों पर प्रभाव, विशेषतया उन क्षेत्रों के वेतन, रहन-सहन के खर्च, उत्पादन लागत आदि पर प्रभाव को भी सामने रखा जाना चाहिए। 
समिति ने सुझाव दिया कि फसलों की अधिकतम संख्या को कृषि सम्बन्धी मूल्य नीति के अधीन लाना चाहिए। ऐसा करने से अधिक से अधिक मूल्यों का परस्पर सन्तुलन तथा समन्वय हो सकेगा। समिति ने कृषि उत्पादन के साधनों के लिए अनुदान के भी सुझाव दिये।

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