लाभ के सिद्धांत

राष्ट्रीय आय में से उद्यमी को मिलने वाला भाग लाभ कहलाता है। एक उद्यमी का मुख्य कार्य अनिश्चितता को सहन करना या जोखिम उठाना होता है। उद्यमी को इन कार्यों के बदले में जो आय प्राप्त होती है, उसे लाभ कहा जाता है।

लाभ की परिभाषा

अर्थशास्त्रियों ने लाभ शब्द की परिभाषा दो प्रकार से की हैः- 

(1) लाभ की मात्रा के अनुसारः प्रो. जैकब औसर के अनुसार, ”एक व्यवसाय की बाह्य तथा आंतरिक मजदूरी, ब्याज तथा लगान देने के पश्चात जो अवशेष रह जाता है, वह लाभ है।“ 

(2) लाभ के स्रोत के अनुसारः प्रो. हैनरी ग्रेसन के अनुसार, ”लाभ नये आविष्कार लागू करने, जोखिम तथा अनिश्चितता उठाने तथा बाजार की अपूर्णताओं का परिणाम हो सकता है।“ 

लाभ की धारणायें 

(1) कुल लाभ - एक उद्यमी की कुल आय तथा कुल बाह्य लागतों के अन्तर को कुल लाभ कहते हैं।

Gross Profit = Total Revenue - Explicit Costs

(2) आर्थिक या शुद्ध लाभः-आर्थिक लाभ का अनुमान लगाने के लिए कुल लाभ में से आंतरिक लागतें तथा घिसावट और बीमा आदि का व्यय घटा दिया जाता है।

Economic Profit = Gross Profit - Implicit Profit
OR
Economic Profit = Total Revenue - Total Costs

लाभ के सिद्धांत

लाभ का निर्धारण करने वाले बहुत से सिद्धांत हैं। परन्तु इस समय कोई ऐसा सिद्धांत नहीं, जो सर्वमान्य हो। यदि यह कहा जाए कि सभी सिद्धांत जो अभी तक दिए गए हैं असन्तोषजनक हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इनमें से प्रत्येक सिद्धांत लाभ के किसी एक पक्ष की व्याख्या करता है। आर्थिक सिद्धांत में सम्भवतः इतना अव्यवस्थित और अनियमित ऐसा कोई विषय नहीं होगा जितना कि लाभ का सिद्धांत है। लाभ के मुख्य सिद्धांत आगे दिए अनुसार हैंः 

1. लाभ का ग्यात्मक सिद्धांत 

 इस सिद्धांत की विवेचना प्रो. जे.बी. क्लार्क ने की है। उनके अनुसार, लाभ एक गत्यात्मक आधिक्यहै जो केवल गत्यात्मक स्थिति में उत्पन्न होता है तथा अगत्यात्मक अवस्था में लाभ नहीं मिलता। प्रो. क्लार्क के अनुसार, ”गत्यात्मक अवस्था में वस्तुओं की कीमत तथा लागत के अन्तर के कारण लाभ उत्पन्न होता है।“ 

अगत्यात्मक स्थिति में आर्थिक तत्त्वों जैसे-मांग, पूर्ति, जनसंख्या आदि में कोई परिवर्तन नहीं होता। इस अवस्था में उद्यमी के लिए कोई जोखिम या अनिश्चितता नहीं होती। प्रत्येक साधन को उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर आय प्राप्त होती है। इसलिए सारा राष्ट्रीय उत्पादन साधनों में ही बंट जाता है। उद्यमी को केवल प्रबन्ध की मजदूरी अर्थात् सामान्य लाभ ही प्राप्त होते हैं। 

इस अवस्था में वस्तु की कीमत तथा औसत लागत  बराबर होती है, इसलिए आर्थिक लाभ नहीं होता। 

क्लार्क के अनुसार वास्तविक जीवन में गत्यात्मक अवस्था पाई जाती है। इस अवस्था में पांच प्रकार के परिवर्तन आते हैंः 
  1. जनसंख्या में परिवर्तन होने के कारण मांग की मात्रा में होने वाले परिवर्तन
  2. मांग के प्रकार में परिवर्तन 
  3. उत्पादन की तकनीक में परिवर्तन 
  4. पूंजी की मात्रा में परिवर्तन तथा
  5.  व्यावसायिक संगठनों के रूप में परिवर्तन। 
अर्थव्यवस्था में जनसंख्या, मांग के प्रकार आदि में परिवर्तन आने के फलस्वरूप मांग की मात्रा कम या अधिक हो सकती है। इसी प्रकार उत्पादन तकनीक तथा पूंजी की मात्रा आदि में परिवर्तन आने के कारण पूर्ति में परिवर्तन आ सकते हैं। मांग तथा पूर्ति में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पादन लागत तथा कीमत में परिवर्तन हो सकता है। यदि कीमत उत्पादन लागत से बढ़ जाती है तो उद्यमी को लाभ होता है इसके विपरीत कीमत के उत्पादन लागत से कम होने के फलस्वरूप उद्यमी को हानि उठानी पड़ती है। 

स्टेनियर तथा हेग के अनुसार, ”एक अर्थव्यवस्था में जहाँ कोई परिवर्तन नहीं होता कोई लाभ नहीं होगा।“ 

संक्षेप में, क्लार्क के अनुसार गत्यात्मक अर्थव्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप जो असंतुलन उत्पन्न होता है उसके फलस्वरूप ही लाभ प्राप्त होता है। 

आलोचना - प्रो. नाइट इस सिद्धांत की आलोचना करते हुए कहते हैं कि सभी प्रकार के परिवर्तनों के कारण लाभ उत्पन्न नहीं होता। परिवर्तन दो प्रकार के हो सकते हैंः 

(1) एक पूर्व अनुमानित परिवर्तन जिनका पहले से अनुमान लगाया जा सकता है। इन परिवर्तनों का बीमा करके इनसे होने वाली हानि से बचा जा सकता है। इसलिए इन परिवर्तनों के फलस्वरूप मांग तथा पूर्ति में सन्तुलन उत्पन्न नहीं होता। अतएव इन पूर्व अनुमानित परिवर्तनों के फलस्वरूप लाभ उत्पन्न नहीं होता। नाईट के शब्दों में, ”सिर्फ परिवर्तन के कारण लाभ उत्पन्न नहीं होता क्योंकि अगर परिवर्तन के नियम का ज्ञान हो जाए, जैसे प्रायः हो जाता है, तो कोई लाभ उत्पन्न नहीं हो सकता।“  

(2) दूसरे अनिश्चित परिवर्तन जिनका पहले से कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इन अनिश्चित परिवर्तनों के फलस्वरूप ही लाभ उत्पन्न होता है। अतएव नाईट के अनुसार लाभ के गत्यात्मक सिद्धांत के स्थान पर अनिश्चितता सिद्धांत ही अधिक उपयोगी है। 

2. लाभ के नव-प्रवर्तन सिद्धांत 

लाभ के नव-प्रवर्तन सिद्धांत का प्रतिपादन प्रो. शुम्पीटर ने किया था। इस सिद्धांत के अनुसार, उद्यमी का कार्य नव-प्रवर्तन अर्थात् नये आविष्कार करना तथा उन्हें लागू करना है। इन नव-प्रवर्तनों के फलस्वरूप उद्यमी को जो पुरस्कार प्राप्त होता है वह लाभ कहलाता है। 

नव-प्रवर्तन क्या हैं? प्रो. शुम्पीटर के नव-प्रवर्तन शब्द का प्रयोग काफी विस्तृत अर्थों में किया है। उनके अनुसार, वे सब आविष्कार तथा परिवर्तन जिनके फलस्वरूप उत्पादन लागत को कम किया जा सके या औसत आय को बढ़ाया जा सके जिससे आय तथा लागत का अन्तर अर्थात् लाभ बढ़ जाए, नव-प्रवर्तन कहलाते हैं। मान लीजिए आप एक नए प्रकार की कार का आविष्कार कर लेते हैं जिसे चलाने के लिए पैट्रोल की आवश्यकता नहीं है तो आप इस कार को काफी अधिक कीमत पर बेच सकेंगे। आपको इसके फलस्वरूप काफी लाभ प्राप्त होगा। 

शुम्पीटर ने नव-प्रवर्तन की व्याख्या करते हुए बताया कि इसमें वस्तु के उत्पादन की कीमत को कम करने के लिए किसी नई पद्धति को अपनाना या वस्तु की मांग को बढ़ाने के लिए नई नीति को अपनाना सम्मिलित है। पहले तरीके में नई मशीनों को लगाना, तकनीकी परिवर्तन, कच्चे माल के नए स्रोत आदि का उपयोग किया जा सकता है। दूसरे तरीके में मांग को बढ़ाने के लिए वस्तु के नए-नए आकर्षक नमूने, प्रचार की पद्धति जैसे कोई उपहार योजना और नए बाजार की खोज इत्यादि सम्मिलित हैं। शुम्पीटर के अनुसार, नव-प्रवर्तन पाँच प्रकार के हो सकते हैंः (1) नई वस्तु का उत्पादन (2) उत्पादन के नये तरीके का उपयोग (3) नये बाजार की स्थापना (4) कच्चे माल के नये साधन की खोज (5) उद्योग कर पुनर्गठन। 

लाभ के नव-प्रवर्तन सिद्धांत के अनुसार नव-प्रवर्तन के फलस्वरूप होने वाले लाभ अस्थाई होते हैं। इसका कारण यह है कि दूसरे उद्यमी भी नव-प्रवर्तक की नकल कर लेते हैं। इसके फलस्वरूप उद्यमियों में परस्पर प्रतियोगिता बढ़ जाने के कारण आर्थिक लाभ समाप्त हो जाते हैं अतएव लाभ प्राप्त करने के लिए नव-प्रवर्तन होते रहते हैं। नव-प्रवर्तन लाभ को जन्म देते हैं तथा लाभ प्राप्त करने की लालसा नव-प्रवर्तन करने के लिए उद्यमियों को प्रोत्साहित करती रहती है। 

आलोचना - इस सिद्धांत की मुख्य आलोचनाएं इस प्रकार की जाती हैंः 

(1) शुम्पीटर ने लाभ के निर्धारण में अनिश्चितता को कोई महत्व नहीं दिया है। वास्तव में सभी नव-प्रवर्तनों में अनिश्चितता होती है। यदि अनिश्चितता न हो तो लाभ भी मजदूरी के समान हो जाएगा। 

(2) क्लार्क की भांति शुम्पीटर ने भी उद्यमी के जोखिम उठाने के कार्य को महत्व नहीं दिया। शुम्पीटर के अनुसार, ”उद्यमी कभी भी जोखिम उठाने वाला नहीं होता, यदि व्यवसाय असफल हो जाए तो भी हानि उसी को होती है जो साख प्रदान करता है।“ 

(3) इस सिद्धांत के अनुसार, लाभ केवल नव-प्रवर्तन का परिणाम है। शुम्पीटर ने इस सिद्धांत में लाभ के उत्पन्न होंने के अन्य कारणों की अवहेलना की है। 

3. लाभ का जोखिम सिद्धांत 

प्रसिद्ध अमेरिकन अर्थशास्त्री हाॅले ने अपनी पुस्तक 'Enterprise and Productive Process' में लाभ के जोखिम सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धांत के अनुसार उद्यमी का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य जोखिम उठाना है। एक उद्यमी उत्पादन के अन्य साधनों जैसे-पूंजी, श्रम, भूमि को एकत्रित करके उत्पादन आरम्भ करता है। इन साधनों को पहले से तय की गई शर्तों के अनुसार उद्यमी को भुगतान करना पड़ता है। इन साधनों की सहायता से जो उत्पादन किया जाता है उसे बेचने में समय लगता है। वस्तुओं का उत्पादन करने तथा उनकी बिक्री में जो समय का अन्तर होता है उसमें कई प्रकार के परिवर्तन आ सकते हैं। इनके फलस्वरूप वस्तु की बिक्री से प्राप्त कुल आय लागत से कम हो सकती है। अतएव उद्यमी को हानि उठाने को जोखिम सहन करना पड़ता है। एक उद्यमी जोखिम तभी उठाएगा जब उसके बदले में उसे कोई पुरस्कार दिया जाए। यह पुरस्कार ही लाभ कहलाता है। 

हाॅले के शब्दों में, ”एक व्यवसाय का लाभ प्रबन्ध तथा समन्वय का पुरस्कार नहीं है। यह जोखिम उठाने तथा उत्तरदायित्व का पुरस्कार है।“ हाॅले के अनुसार, जोखिम तथ लाभ में आनुपातिक सम्बन्ध है। उद्यमी का जोखिम जितना अधिक होगा लाभ उतना ही अधिक होगा। इसके विपरीत जोखिम जितना कम होगा लाभ भी उतना ही कम होगा। 

हाॅले के अनुसार, एक उद्यमी को चार प्रकार के जोखिम उठाने पड़ सकते हैंः (1) प्रतिस्थापन की जोखिम । (2) मुख्य जोखिम । (3) अनिश्चितता । (4) पुराना पड़ जाना प्रतिस्थापन को घिसावट भी कहते हैं। इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यह लागत में शामिल कर लिया जाता है। अतएव इसके लिए कोई लाभ नहीं मिलता। मशीनों के पुराने पड़ जाने के सम्बन्ध में उचित अनुमान लगाना पूरी तरह सम्भव नहीं क्योंकि यह ठीक प्रकार से नहीं कहा जा सकता कि तकनीकी उन्नति के कारण मशीनों को बेकार होना पड़ेगा, अथवा नहीं होना पड़ेगा। फिर भी इसके खर्च को लागत में शामिल कर लिया जाता है। मुख्य जोखिम इस कारण उत्पन्न होती है, क्योंकि वस्तु को उत्पन्न करने तथा उसे बेचने के समय, जो अन्तर होता है उसमें कई प्रकार के अनिश्चित परिवर्तन आ सकते हैं। इसके फलस्वरूप उद्यमी को हानि भी हो सकती है। लागत में मुख्य जोखिम तथा अनिश्चितता का भाग शामिल नहीं होता। इसके लिए एक उद्यमी तभी जोखिम सहन करेगा जब उसे इसके बदले में कोई पुरस्कार मिलेगा। वह पुरस्कार ही लाभ है। 

आलोचनायें - लाभ के जोखिम सिद्धांत की मुख्य आलोचनाएं निम्नलिखित हैंः 

(1) जोखिम कम करने का पुरस्कार - प्रो. कारवर ने लाभ के जोखिम सिद्धांत की आलोचना करते हुए कहा है कि ”लाभ इसलिए उत्पन्न नहीं होता क्योंकि योग्य उद्यमियों द्वारा जोखिम उठायी जाती है बल्कि इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि योग्य उद्यमी जोखिम को कम करने में समर्थ होते हैं।“ अतएव कारवर के अनुसार, उद्यमी लाभ इसलिए प्राप्त नहीं करते कि वे जोखिम उठाते हैं बल्कि इसलिए प्राप्त करते हैं कि वे जोखिम को नहीं उठाते हैं। 

(2) सभी प्रकार के जोखिम का पुरस्कार नहीं है - प्रो. नाईट के अनुसार प्रत्येक प्रकार के जोाखिम का पुरस्कार लाभ नहीं होता। केवल ऐसा जोखिम जिसको देखा या जाना नहीं जा सकता और इसलिए बीमा नहीं करवाया जा सकता, जैसे मांग तथा लागत की दशाओं से सम्बन्धित जोखिम। इनके परिणामस्वरूप ही लाभ उत्पन्न होता है। इसके विपरीत कुछ जोखिमों जैसे-आग, चोरी, दुर्घटना आदि का अनुमान लगाया जा सकता है तथा इसका बीमा करवा कर उनको दूर किया जा सकता है। इन जोखिमों के लिए कोई लाभ नहीं मिलता। अतएव नाईट के अनुसार लाभ केवल अनिश्चित जोखिमों का पुरस्कार है। सब प्रकार के जोखिमों का पुरस्कार नहीं है। 

(3) संकीर्ण सिद्धांत - आलोचकों के अनुसार लाभ का जोखिम सिद्धांत एक संकीर्ण सिद्धांत है। उनके अनुसार लाभ केवल जोखिम उठाने का ही पुरस्कार नहीं है। उद्यमी की प्रबन्ध करने की योग्यता, एकाधिकारी स्थिति, नव-प्रवर्तन आदि के कारण भी लाभ उत्पन्न होता है। अतएव यह सिद्धांत लाभ के केवल एक ही तत्व का वर्णन करता है बाकी तत्वों की अवहेलना करता है। 

(4) लाभ तथा जोखिम में आनुपातिक सम्बन्ध नहीं हैं - आलोचकों के अनुसार लाभ तथा जोखिम उठाने में कोई आनुपातिक सम्बन्ध नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि अधिक जोखिम उठाने पर अधिक लाभ मिलेगा। यदि ऐसा होता तो सभी उद्यमी अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए जोखिम उठाते तथा कोई और विशेष कार्य नहीं करते। 

4. लाभ का अनिश्चितता सिद्धांत 

फ्रैंक नाईट के अनुसार, ”उद्यमी का मुख्य कार्य उत्पादन सम्बन्धी अनिश्चितताओं को सहन करना होता है। अनिश्चितताओं को सहन करने के प्रतिफल को ही लाभ कहा जाता है।“ अनिश्चितताओं को सहन करने के अतिरिक्त कोई भी उद्यमी अपने उद्योग अथवा व्यवसाय में अन्य कार्य जैसे श्रमिक का कार्य, पूंजीपति का कार्य, मैनेजर का कार्य इत्यादि भी कर सकता है तथा इन सब कार्यों के लिए भी उसे प्रतिफल प्राप्त होते हैं। परन्तु इन सभी प्रतिफलों को उद्यमी के लाभ का अंश नहीं माना जाता। ये सभी प्रतिफल वेतन, ब्याज, लगान इत्यादि के प्रतिरूप माने जाते हैं। अतः इन्हें उत्पादन लागत का हिस्सा माना जाता है, लाभ नहीं माना जाता, लाभ का सम्बन्ध केवल अनिश्चितता सहन करने से ही है। दूसरे शब्दों में, लाभ एक व्यवसाय में होने वाला प्रबन्ध अथवा समन्वय का पुरस्कार नहीं है, केवल उद्यमी की अनिश्चितता सहन करने का प्रतिफल है। यहाँ अनिश्चितता तथा जोखिम के भेद को समझ लेना जरूरी होगा। व्यवसाय सम्बन्धी जोखिम दो प्रकार के हो सकते हैंः 

(i) पूर्व अनुमानित जोखिम - इस प्रकार के जोखिम चोरी, दुर्घटना, आग आदि से सम्बन्धित हैं। इनका प्रत्येक उद्यमी अनुमान लगा सकता है अतः वह इनकी हानि से बचने के लिए बीमा करा सकता है। इसलिए इन्हें बीमायोग्य जोखिम कहा जाता है। ये जोखिम बीमा व्यय के कारण लागत का ही अंग बन जाते हैं, इसके लिए कोई लाभ नहीं मिलता। 

(ii) अनिश्चित जोखिम- प्रो. नाइट के अनुसार, एक उद्यमी को कई प्रकार के अनिश्चित जोखिम उठाने पड़ते हैं जैसे-मांग में होने वाले परिवर्तन, नये आविष्कार, सरकारी नीति में परिवर्तन, प्रतियोगिता आदि। इन जोखिमों का पूर्वानुमान लगाना सम्भव नहीं होता इसलिए इनका बीमा भी नहीं कराया जा सकता। इन अनिश्चित जोखिमों के कारण ही लाभ उत्पन्न होता है। अनिश्चित जोखिम निम्नलिखित कारणों से हो सकते हैंः 

(1) बाजार की दशाओं में अनिश्चितता - प्रत्येक बाजार में मांग तथा पूर्ति में परिवर्तन आता रहता है। उत्पादक वस्तु की सम्भावित मांग के आधार पर उत्पादन करता है परन्तु यह सम्भव है कि जब उद्यमी बाजार में अपना उत्पादन बेचने के लिए तैयार हो तो मांग बहुत कम हो जाए। मांग में परिवर्तन उपभोक्ता के स्वाद या रुचि में परिवर्तन, जनसंख्या की आयु रचना, आय के वितरण आदि के कारणों से हो सकता है। जब मांग में परिवर्तन हो जाता है तो फर्म की आय में भी परिवर्तन होता है। मांग के अचानक कम होने के कारण फर्म को काफी हानि उठानी पड़ती है। अतएव बाजार दशओं में परिवर्तन के फलस्वरूप उद्यमी को अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है। 

(2) प्रतियोगिता सम्बन्धी अनिश्चितता - बाजार में नई फर्मों के आने तथा प्रतियोगिता के कारण पुरानी फर्मों के लिए बाजार स्थितियाँ और अनिश्चित हो जाती हैं। नई फर्मों के कारण पुरानी फर्मों की बिक्री कम हो सकती है तथा उनके लाभ कम होने की सम्भावना बढ़ जाती है। उद्योग में नई फर्मों के प्रवेश करने तथा उनकी प्रतियोगिता शक्ति के सम्बन्ध में सदैव अनिश्चितता बनी रहती है। 

(3) सरकारी हस्तक्षेप- आर्थिक विकास एवं आर्थिक स्थायित्व लाने के दृष्टिकोण से सरकार अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करती है। कभी-कभी सरकार ऐसे अनिश्चित कदम उठा लेती है, जिनका उद्यमी वर्ग को पूर्व अनुमान नहीं होता। परिणामस्वरूप, उन्हें अनायास ही लाभ अथवा हानि उठानी पड़ती है। मुद्रा अवमूल्यन, आयात-निर्यात नियन्त्रण इत्यादि सरकार के आकस्मिक हस्तक्षेप के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। 

(4) तकनीकी परिवर्तन - आज का युग तकनीकी परिवर्तनों का युग है। प्रायः मशीनों तथा उत्पादन के अन्य पूंजीगत साधनों को घिसने से पहले बदलना पड़ता है। अन्यथा उत्पादन लागत के आधार पर किसी भी उद्यमी के लिए टिकना कठिन हो जाता है। तेजी से होने वाले औद्योगिक आविष्कारों के कारण उद्यमी के अनिश्चित-जोखिम प्रबल होते जा रहे हैं। 

(5) व्यापारिक चक्र - व्यापारिक उतार-चढ़ाव किसी भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मूल विशेषतायें हैं। मन्दी के समय बाजार में मांग की भारी कमी होती है। चूँकि यह मन्दी अर्थव्यवस्था में होने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं के पारस्परिक प्रभावों से उत्पन्न होती है इसलिए किसी उद्यमी द्वारा इसकी रोकथाम अथवा इनके प्रभाव का पूर्वानुमान लगाना असम्भव होता है। परिणामस्वरूप, उद्यमी की व्यावसायिक अनिश्चितता में वृद्धि होती है। 

संक्षेप में, प्रो. शैकल के अनुसार प्रत्येक उद्यमी वस्तुओं का उत्पादन कुछ आशंसाओं के आधार पर करता है। ये आशंसायें ही मुख्य रूप से अनिश्चितता को जन्म देती हैं। आशंसायें दो प्रकार की हो सकती हैंः 

(1) सामान्य आशंसायें ;- इनका सम्बन्ध सारी अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित तत्वों में भविष्य में होने वाले परिवर्तन है। इन तत्वों का सम्बन्ध राष्ट्रीय आय, कीमत स्तर, भुगतान सन्तुलन आदि में होने वाले परिवर्तनों से है। 

(2) विशेष आशंसायें - इन आशंसाओं का सम्बन्ध एक फर्म या उद्योग से सम्बन्धित तत्वों में भविष्य में होन वाले परिवर्तन से है। इनका सम्बन्ध प्रतियोगी की कीमत नीति आदि से है। इन आशंसाओं के फलस्वरूप ही लाभ उत्पन्न होता है। कोई उद्यमी जितनी अधिक अनिश्चितता उठाने के लिए तैयार होना उतना ही अधिक लाभ उसको प्राप्त होगा। 

आलोचनायें - इस सिद्धांत की मुख्य आलोचनायें हैंः 

(1) लाभ के अन्य तत्वों की अवहेलना - लाभ अनिश्चितता सहन करने का ही पुरस्कार नहीं है। इस सिद्धांत में उद्यमी के अन्य कार्य जैसे-प्रबंध करना, समन्वय करना, इत्यादि को कोई स्थान नहीं दिया गया है अतएव यह सिद्धांत लाभ का एक अपूर्ण सिद्धांत है। 

(2) अवास्तविक मान्यता- इस सिद्धांत की यह मान्यता उचित नहीं है कि उद्यमी की पूर्ति के सीमित होने का मुख्य कारण अनिश्चितता है। अनिश्चितता ही उद्यमी की सीमित पूर्ति तथा परिणामस्वरूप लाभ के उत्पन्न होने का एकमात्रा कारण नहीं है। उद्यमी की सीमित पूर्ति के लिए अन्य कारण जैसे पूंजी का अभाव, ज्ञान एवं अवसर का अभाव इत्यादि भी उतने ही महत्वपूर्ण तत्व हैं। परन्तु इसका अनिश्चितता सिद्धांत में समावेश नहीं किया गया है। 

(3) अस्पष्ट सिद्धांत - अनिश्चितता उठाने का सिद्धांत लाभ के निर्धारण का एक अस्पष्ट सिद्धांत है। आजकल संसार में बहुराष्ट्रीय निगमों तथा उनकी एकाधिकारी शक्तियों का इतना अधिक महत्व है कि वे अपने लाभ से एक सीमा तक निश्चितता लाने में सफल हो गए हैं। नाईट का अनिश्चितता सिद्धांत ऐसी परिस्थितियों में तर्कसंगत नहीं जाना जाता। 

(4) संयुक्त पूंजी कम्पनियों पर लागू नहीं होती - संयुक्त पूंजी कम्पनियों के सम्बन्ध में नाईट का अनिश्चितता सिद्धांत शंका रहित नहीं है। ऐसी कम्पनियों में लाभ के अधिकारी केवल फर्म के हिस्सेदार होते हैं। उद्यम सम्बन्धी किसी भी कार्य को वे नहीं करते। उद्यम सम्बन्धी कार्य अथवा निर्णय वेतन पाने वाले प्रबन्धक ही करते हैं। अतः फर्म के हिस्सेदार जो कि लाभ के अधिकारी होते हैं, किसी भी प्रकार के निर्णय नहीं लेते। जबकि निर्णय लेने वाले अधिकारी लाभ के अधिकारी नहीं होते। इन कम्पनियों में लाभ का बंटवारा किस आधार पर होगा। इस सम्बन्ध में भी अनिश्चितता सिद्धांत कोई प्रकाश नहीं डालता। 

(5) अनिश्चितता उत्पादन का पृथक साधन नहीं है - नाईट की यह मान्यता भी ठीक नहीं है कि अनिश्चितता, श्रम, भूमि, पूंजी आदि के समान उत्पादन का एक पृथक साधन है। अनिश्चितता एक मनोवैज्ञानिक धारणा है जो उत्पादन की वास्तविक लागत का भाग है, परन्तु उत्पादन के साधनों की पूर्ति उनकी वास्तविक लागत के स्थान पर मौद्रिक लागत पर निर्भर करती है। संक्षेप में, लाभ का निर्धारण का कोई निश्चित सिद्धांत नहीं है। लाभ कई तत्वों जैसे-गत्यात्मकता, नव-प्रवर्तन, जोखिम तथा अनिश्चितता का पुरस्कार है। 

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