मनोविश्लेषणवाद के प्रवर्तक कौन है इनके विचारों का संक्षिप्त विवरण

मनोविश्लेषणवाद के प्रमुख प्रवर्तक वियना के सिगमंड फ्रायड (1856-1939) थे। यह सम्प्रदाय विशेष रूप से अज्ञात मन की चेष्टाओं का अध्ययन करता है। डाॅ. फ्रायड ने मूर्छा और स्नायु रोगों की चिकित्सा के लिये सम्मोहन या मोह-निद्रा विधि को अपनाया। इस विधि द्वारा वह रोगियों को अचेतन अवस्था में करके उससे प्रश्न पूछता था। मोह-निद्रा के सहारे रोगी ऐसी बातों को कह डालता था जिससे उसके संवेगात्मक कष्टों का पता लग जाता था। मोह-निद्रा की अवस्था में रोगी अज्ञात चेतना के सहारे अपनी उन सभी बातों को प्रकट कर देता था जिन्हें वह चेतन अवस्था में लज्जा, भय या संकोच के कारण नहीं बताता। अचेतन अवस्था में सम्मोहन की स्थिति में कही हुई बातों को सुनकर फ्रायड उसके रोग के कारण को तर्क कर लेता था। 

कुछ रोगियों पर मोह-निद्रा या सम्मोहन का प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसे रोगियों की चिकित्सा के लिए उसने ‘स्वतंत्र साहचर्य’ विधि का प्रयोग किया।  फ्रायड ने मानव मन का विश्लेषण करने के लिए युक्तियाँ (विधि निकालीं। मन का गहन अध्ययन करने के बाद जो तथ्य प्राप्त हुए उनके आधर पर जिन सिद्धान्तों का निरूपण किया गया उन्हें मनोविश्लेषणवाद का नाम दिया गया। इस सम्बन्ध में अरनेस्ट जाॅन ने कहा है- मनोविश्लेषण शब्द का प्रयोग तीन वस्तुओं को बताने के लिये किया जाता है-
  1. मनोविश्लेषण का अर्थ चिकित्सा की एक विशेष विधि से, जिसका प्रयोग वियना के प्रोफसर फ्रायड ने स्नायुविक रोगों के कुछ विशिष्ट वर्ग के लोगों को ठीक करने के लिए किया था, इस प्रकार यह नियंत्रित अर्थ में सर्वप्रथम प्रयुक्त हुआ। 
  2. इसका अर्थ मन के गहरे स्तरों की खोज की एक विशेष प्रविधि भी है। 
  3. अन्त में इस शब्द का प्रयोग ज्ञान के एक क्षेत्र के लिए भी किया जाता है, जो कि इस विधि द्वारा प्राप्त किया जाता है और इस अर्थ में यह व्यावहारिक रूप में ‘अचेतन मन का विज्ञान’ होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनोविश्लेषणवादी सम्प्रदाय मानव के असाधरण आचरण का अध्ययन, अचेतन मन की विशेषताओं के साथ करता है। 
मनो-विश्लेषणवादी सम्प्रदाय में फ्रायड, एडलर तथा युंग तीन प्रमुख मनोवैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अचेतन मन की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। इन महानुभावों के विचारों को संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है-

1. फ्रायड-फ्रायड मनोविश्लेषणवादी सम्प्रदाय के पहले मनोवैज्ञानिक हैं। फ्रायड ने मन के तीन स्तर बताए हैं- चेतन अवचेतन  तथा अचेतन। मन के अज्ञात या अचेतन मन की अपेक्षा चेतन मन अधिक छोटा है। मानव व्यवहार अचेतन मन से बहुत अधिक नियंत्रित होता है। अचेतन मन का चेतन मन पर बहुत प्रभाव रहता है। अचेतन मन में अनेक अतृप्त भावनाएँ, संवेग और आवेग दबे पडे़ रहते हैं। 

फ्रायड ने मन की तुलना समुद्र में तैरते हुए एक हिमखंड से की है जिसका अधिकांश भाग पानी की सतह के नीचे होता है। इस प्रकार चेतन मन बहुत छोटा होता है और अचेतन मन अधिक प्रबल होता है। किन्तु मन के दोनों भाग क्रियाशील रहते हैं। अज्ञात चेतन में मानव की अतृप्त इच्छाएँ और भावनाएँ एकत्रित हो जाती हैं जो कि निष्क्रिय नहीं होती हैं। व्यक्ति सामाजिक या अन्य कारणों से उन्हें चेतन मन पर आने से रोकता है। 

इस प्रकार चेतन और अचेतन मन की शक्तियों में बराबर संघर्ष जारी रहता है। मन में दबी हुई भावनाएँ जब अपनी अभिव्यक्ति और प्रकाशन नहीं कर पातीं तब मन में इनकी गांठ या गुत्थी बन जाती है जिसे भावना ग्रन्थि कहते हैं। इन ग्रन्थियों का प्रभाव व्यक्तित्व पर पड़ता है। फ्रायड ने मन पर शासन करने वाली तीन शक्तियाँ बताई हैं- इदम्, अहम् और परम् । इनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्नलिखित है-

i. इदम् - इसका सम्बन्ध आनुवंशिकता से है। इसमें व्यक्ति के जन्मजात गुण व्याप्त रहते हैं। इसमें पाये जाने वाले विचार और वस्तु की चेतना व्यक्ति की नहीं होती, किन्तु यह व्यक्ति की मानसिक शक्तियों और वृत्तियों का स्रोत है। यह दमित इच्छाओं और वासनाओं का आधार है। इसमें विवेक नहीं होता। इसका स्वरूप, अचेतन और वास्तविकता से सम्बन्धित नहीं है। इसका सम्बन्ध काम प्रवृत्ति से है जिसे फ्रायड ने लिबिडो कहा है। 

ii. अहम् - यह इदम् का वह अंश है जिसका विकास बाहरी पर्यावरण में होता है। इसका सम्बन्ध् पर्यावरण की वास्तविकता से होता है। यह चेतन होता है और अचेतन मन की अवांछित इच्छाओं पर नियंत्रण रखता है। यह व्यक्ति का ‘साधरण अन्तःकरण’ है। इसमें व्यक्ति की अच्छी और बुरी सभी प्रकार की इच्छाएँ रहती हैं। अच्छी इच्छाओं पर कोई रोक नहीं होती पर बुरी इच्छाओं को बाहर आने के लिये हमारा ‘परम् अहम्’ जाग्रत रहता है। 

iii. परम अहम् - यह बुरी इच्छाओं को चेतन मन में आने से रोकता है। इसका काम अहम् पर शासन करना है। यह चेतन और अचेतन मन के बीच प्रहरी का कार्य करता है। हमारा साधारण अंतःकरण सभी प्रकार की इच्छाओं को पूरा करना चाहता है, किन्तु सामाजिक नियमों और मान्यताओं का ज्ञान शैशवकाल में ही व्यक्ति को धीरे-धीरे होने लगता है जिसके फलस्वरूप परम अहम् या ‘उच्च अन्तःकरण’ का निर्माण हो जाता है। 

फ्रायड के अनुसार इदम् का आधार सुख है और अहम् का आधर वास्तविकता। इसके अनुसार व्यक्ति की सभी मानसिक क्रियाएँ ‘सुख सिद्धान्त’ से प्रेरित होती हैं। यदि व्यक्ति का ‘अहम्’ समुचित रूप से विकसित है तो वह उचित या वांछनीय निर्णय लेने में सफल होता है और यदि उसका अहम् दुर्बल है तब अधिकतर उसकी इदम्-प्रेरित इच्छाओं की पूर्ति होती है। किन्तु जब व्यक्ति की आयु और अनुभव में वृद्धि होने लगती है तब उसी के अनुसार उसका अहम् वास्तविकता और यथार्थ सिद्धान्त के अनुसार काम करने पर बल देता है।

2. एलप्रेफड एडलर- मनोविश्लेषणवाद के दूसरे मनोवैज्ञानिक एडलर ने फ्रायड के साथ बहुत दिनों तक कार्य किया। एडलर का फ्रायड से सै(ान्तिक मतभेद था। इस कारण वह फ्रायड के सभी निष्कर्षों को मानने के लिए तैयार न था। फ्रायड ने समस्त क्रियाओं के आधार रूप में काम भावना को प्रधन शक्ति या प्रेरणा माना है जबकि एडलर का विचार था कि जीवन एक संघर्ष है और व्यक्ति को समाज में रहकर विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। वह अपने व्यक्तित्व की रक्षा और उचित विकास करना चाहता है। व्यक्तित्व-विकास के लिए उसकी कुछ इच्छाएँ, अभिलाषाएँ और मानसिक आवश्यकताएँ होती हैं। इसलिए इन बातों को ध्यान में रखते हुए, उसके लिए शक्ति प्राप्त करने की अभिलाषा को एडलर ने जीवन-कार्यों का आधार माना है और महत्व दिया है। शैली अध्ययन पर बल दिया है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति का व्यवहार भावना-ग्रन्थियों के कारण असाधरण हो जाता है।

एडलर के अनुसार सभी प्रकार के मानसिक रोगियों के रोग का कारण कोई अपराध् नहीं बल्कि ‘हीनता की भावना’ होती है। उसका विचार है कि हीनता की भावना से बचने के लिए वह एक विचित्र जीवन शैली को अपनाता है। यह भावना अज्ञात चेतना में होती है और यही ज्ञात चेतना में ‘श्रेष्ठता की भावना’ के रूप में दिखाई देती है। इस प्रकार व्यक्ति अपनी कमजोरियों को छिपाना चाहता है और अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए एक अनोखी जीवन-शैली अपनाता है। व्यक्ति के सामाजिक-व्यवहार प्रदर्शन में अज्ञात और ज्ञात दोनों प्रकार की चेतना का सहयोग होता है। एडलर के इन विचारों को ‘वैयक्तिक व मनोविज्ञान’ कहा गया है। व्यक्ति की जीवन शैली के अध्ययन से मनोविश्लेषणवादी को काफी सहायता मिल सकती है।

3. कार्लजुंग - इस सम्प्रदाय के तीसरे मनोवैज्ञानिक जुंग है। इसके सिद्धान्त फ्रायड और एडलर से भिन्न हैं। जुंग ने साहचर्य-परीक्षण और विश्लेषण का कार्य किया। इन परीक्षणों द्वारा व्यक्ति की मानसिक ग्रन्थियों का अनुमान किया जा सकता है। इनका फ्रायड से दो बातों में मतभेद दिखाई देता है-
  1. फ्रायड मानसिक रोग का कारण बाल्यकाल में बनी भावना ग्रन्थियों को मानता है, जबकि जुंग अतीत की बातों के साथ वर्तमान परिस्थिति पर भी बल देता है।
  2. जुंग ने ‘कामभावना’ स्पइपकव का विस्तृत अर्थ लिया है। यह जीवन की मुख्य शक्ति है जो दो रूपों में दिखाई देती है- कामवासना सम्बन्धी प्रवृत्ति और जीवन-शक्ति प्राप्त करने की प्रवृत्ति। जुग ने अज्ञात चेतना को ज्ञात चेतना से अधिक महत्व दिया है और अज्ञात चेतना को ज्ञात चेतना का क्षतिपूरक कहा है। जैसे जो व्यक्ति ज्ञात चेतना में साहसी दिखाई देते हैं अज्ञात चेतना में डरपोक या भीरु होते हैं। अज्ञात चेतना में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के विचार होते हैं। जुंग के विचारों में फ्रायड और एडलर दोनों के मतों का समन्वय है।

मनोविश्लेषणवाद का शिक्षा में योगदान

शिक्षा पर इस सम्प्रदाय का बहुत प्रभाव पड़ा। बालक के व्यक्तित्व-विकास का सम्बन्ध् शिक्षा से होता है। संक्षेप में इस वाद का प्रभाव इस प्रकार पड़ा-
  1. व्यक्ति के विकास में आनुवंशिकता और पर्यावरण मुख्य त्तव होते हैं। इनका सम्बन्ध् अचेतन मन से होता है। 
  2. मनोविश्लेषणवाद ने शिक्षा के सै(ान्तिक और व्यावहारिक दोनों पक्षों पर प्रभाव डाला है। सीखने की प्रक्रिया में अज्ञात चेतना या अचेतन मन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 
  3. शिक्षा-प्रक्रिया में बालक के प्रारम्भिक जीवन के अनुभवों और संस्कारों का बहुत महत्त्व है, शैशव और बाल्यकाल में पड़ी यही भावना-ग्रन्थियाँ बालक के भावी जीवन और व्यवहार को प्रभावित करती हैं। 
  4. इसने शिक्षा में संवेगों के महत्व पर प्रकाश डाला है। 
  5. मनोविश्लेषणवाद की सहायता से बालकों में कुसमायोजन के कारणों का पता लगाया गया जा सकता है। यह वाद समायोजन प्रक्रिया को समझने में बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ है।
  6. मनोविश्लेषणवाद ने बालक के व्यक्तित्व-विकास में प्रकृतिवादियों के समान ‘स्वतंत्रता के सिद्धान्त’ पर बल दिया है। 
  7. शिक्षा का एक प्रमुख कार्य मूल प्रवृत्तियों का शोधन है। इसमें मनोविश्लेषणवाद से सहायता मिलती है। 
  8. शिक्षा का सम्बन्ध बालक के समाजीकरण से होता है। इस प्रकार के विचारों के समर्थक जुंग महोदय हैं, उनका विचार है कि सामूहिक भावना और अचेतन मन का गहरा सम्बन्ध है। वास्तव में समाजीकरण और सांस्कृतिकरण व्यक्तिगत अचेतन एवं सामूहिक अचेतन का सामंजस्य है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मनोविश्लेषणवाद का शिक्षा पर कितना प्रभाव है। 
  9. इस वाद की सहायता से मानसिक अन्तद्र्वन्द्व को समझने एवं दूर करने में सहायता मिली है।

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