रचना शिक्षण का अर्थ, परिभाषा, विधियां तथा उद्देश्य

रचना शिक्षण

रचना शब्द 'composition' का हिन्दी रूपान्तरण है। भाषा के क्षेत्र में रचना के अन्तर्गत भावों व विचारों को शब्द-समूहों में सँवारते है। विचारों को क्रमबद्ध करके शब्द-समूह में व्यक्त करना, आत्माभिव्यक्ति का अभ्यास, भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति, तथा कलात्मक ढंग से विचार व्यक्त करना ही रचना है।

रचना के प्रकार

रचना के दो प्रकार है - 1. मौखिक रचना 2. लिखित रचना। मौखिक रचना, व्यक्ति बोलकर अपने विचार प्रकट करता है। लिखित रचना, जब व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति लिख कर सकता है।

मौलिक लेखन या लिखित रचना क्या है?

वस्तुकार या मूर्तिकार अपने स्थूल-साधनों के प्रयोग से विभिन्न कलाकृतियों का निर्माण करता है। चित्रकार तूलिका के सहारे अपने सूक्षम भावों को पटल पर अंकित करता है। ठीक इसी तरह लेखक वर्ण, शब्द, वाक्य लोकोक्ति मुहावरों का आश्रय लेकर व्याकरण सम्मत नियमों में आबद्ध होकर लेखन के सहारे अपने आंतरिक मनोभावों को साकार करता है। मूर्तिकार, वास्तुकार, चित्रकार तथा लेखक का एक ही उद्देश्य है- ‘रचना करना, अपने व्यक्तित्व की छाप कृति पर अंकित करना।’

रचना शिक्षण की विधियाँ / प्रणाली

1. प्रश्नोत्तर प्रणालीः यह प्रणाली प्राचीनतम एवं सर्वाधिक प्रचलित है। जिस विषय पर रचना-शिक्षण कराना हो, उससे सम्बन्धी प्रश्न पूछता है प्रश्नों को इस क्रम में पूछता है कि सम्बन्धित विषय पर क्रमबद्ध रूप से विचार करने का अवसर मिलता है। इस विधि में पहले मौखिक रचना बाद में लिखित रचना की जाती है। यह मनोवैज्ञानिक प्रणाली है ।

इस प्रणाली में यह ध्यान रखना होता है कि रचना का विषय अनुभव सीमा के भीतर का हो, प्रश्न छोटे व स्पष्ट हो, प्रश्नों का उत्तर पूर्ण वाक्य में लिया जाये। एवं उत्तरों में त्रुटि होने पर उन्हीं की सहायता से दूर कराने का प्रयास किया जाए।

2. चित्र-वर्णन प्रणालीः इस विधि में जिस विषय पर रचना-कार्य कराना होता है, उससे सम्बन्धित चित्र कक्षा में समक्ष प्रस्तुत किये जाते हें। पहले इन चित्रों पर मौखिक रूप से चर्चा होती है और फिर उन्हें क्रमिक रूप से प्रदर्शित किया जाता है। विद्यार्थी इनका वर्णन अपनी सूझ-बूझ और कल्पना के अनुसार करता है। इस विधि का प्रयोग प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर सफलतापूर्वक किया जा सकता है। इस प्रणाली से मौलिक लेखन तथा स्वानुभूति प्रकट करने का अच्छा अवसर मिलता है।

3. भाषायन्त्र प्रणालीः इस प्रणाली में छोटे बच्चे खेल-खेल में रचना करना सीख जाते हैं। इस विधि में प्रायः चार उपकरणों की सहायता ली जाती है टेपिरिकार्डर, रचना का रिकार्ड या कैसेट, चित्र एवं सहायक पुस्तक। पहले टेपरिकार्डर पर रचना का कैसेट लगा कर उसे चालू कर दिया जाता है, दीवार पर सम्बन्धित चित्र टाँग कर अध् यापक कैसेट से निकलने वाले वाक्यों के अनुसार संकेतक से चित्रा पर संकेत करता चलता है। बच्चे चित्र देखते हैं, कैसेट सुनते है, एक से अधिक इन्द्रियां अर्थात आँख, कान, हाथ आदि सक्रिय रहते है और बच्चों की पाठ में रूचि बनी रहती है। लेकिन यह विधि खर्चीली है एवं छोटे बच्चे अपनी त्राुटियाँ स्वयं दूर करे, ऐसी आशा करना व्यर्थ है।

4. रूपरेखा प्रणालीः बच्चे को पैदल चलना सिखाने के लिए ‘वाकर’ आदि का आश्रय देकर पदसंचालन क्रिया को रोचक बनाया जाता है तथा उसे न गिरने या चोट लगने के लिए आश्वस्त किया जाता है। उसी प्रकार निबन्ध जैसे ग्लैशियर को पार करने के लिए स्ंकेटिंग पादुका बना काम निबन्ध की रूपरेखा से लिया जाता है। इस विधि के अनुसार निबन्ध का आरम्भ, मध्य तथा समापन वाक्यांशों को रूपरेखा के माध्यम से दे दिया जाता है। विद्यार्थी को कुछ वाक्यों का निर्माण करना पड़ता है। और कुछ वाक्यों से विषय के विस्तार में सहायता मिलती है। यह विधि सभी स्तरों पर सफलतापूर्वक अपनाई जा सकती है।

5. अनुकरण प्रणालीः इस प्रणाली में सामने त्रुटि रहित कोई रचना प्रस्तुत की जाती है। उस रचना का अध्ययन एवं मनन करते हैं। फिर उसी रचना से मिलती-जुलती कोई दूसरी रचना स्वयं करते हैं जैसे- “यदि में मंत्री होता” रचना का अनुकरण कर ‘यदि मैं मुख्यमंत्री होता’ विषय पर रचना कार्य करते हैं।

6. प्रवचन प्रणालीः इस प्रणाली के अनुसार शिक्षक विषय के बारे में व्याख्यान द्वारा पूरी जानकारी सम्मुख रखता है। सुनते हैं तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार रचना-कार्य करते हैं। यह विधि उच्च कक्षाओं में प्रयुक्त की जा सकती है।

7. स्वाध्याय प्रणालीः शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों को इस प्रणाली में सक्रिय रहना पड़ता है। इस विधि से ज्ञान में वृद्धि होती है तथा विषया सामग्री के स्वाध्याय के समय उनका विभिन्न लेखन-शैलियों से परिचय हो जाता है। इस विधि से लेखन की अपनी शैली का निर्माण होता है, क्योंकि शिक्षार्थी को मधुमक्षि वृत्ति का आश्रय लेना पड़ता है।

8. परिचर्चा विधिः स्वाध्याय विधि का अगला चरण परिचर्चा प्रणाली है। पहले तो शिक्षार्थी विवेच्च विषय के बारे में स्वाध्याय करें तथा फिर सामूहिक चर्चा करें।

लेखन मौखिक अभिव्यक्ति का लिपिबद्ध रूप है। चर्चा करने से विचारों में स्पष्टता आती है और विषय के प्रति प्रतिबद्धता होती है। इस शैली का प्रयोग उच्च कक्षाओं के लिए उत्तम है।

9. वाद-विवाद प्रणालीः उच्च कक्षाओं में इस प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। ‘सहशिक्षा’ ‘सती प्रथा’, ‘दहेज प्रथा’ आदि विषयों पर रचना कार्य कराने के लिए दो भागों में बाँट कर रचना के पक्ष एवं विपक्ष में विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है। रचना के पक्ष या विपक्ष में बोलते हुए अपने विचारों को सत्य सिद्ध करने के लिए तर्क प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार वाद-विवाद पूरा होने के पश्चात् विषय पर रचना-कार्य करने के लिए कहा जाता है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि बौद्धिक एवं मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए किसी भी उपयुक्त प्रणाली का प्रयोग कर रचना करने में प्रशिक्षित किया जा सकता है। ये शिक्षण प्रणालियाँ रचनात्मक योग्यता को विकसित करने के लिए साधन है, साध्य नहीं।

रचना शिक्षण में लेखन का महत्व

जैसाकि आप जानते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की अन्तर्निहित भावनाओं और शक्तियों को सुअवसर देकर उनका पूर्ण विकास करना है। भाषा इन शक्तियों के विकास में महत्वपूर्ण आधार प्रदान करती है। बोलचाल और लेखन की शिक्षा का समुचित आयोजन किया जाये, तो मौलिक अभिव्यक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त हो जाता है। लेखन में नवीनता या मौलिकता लाने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर विचार करेंगे।

1. सामाजिकता के क्षेत्र मेंः आज परिवार की इकाईया दूर-दूर स्थानों पर जा बसी है। इन्हीं बिखरे बिन्दुओं को केन्द्रित करने के लिए हर दिन सम्बन्धी के लिए या विदेशों में बसे मित्र के लिए, पत्र व्यवहार ही ऐसा माध्यम है। जिससे विचारों का आपसी आदान-प्रदान हो सकता है। अतः पत्र-व्यवहार की रचना महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करती जा रही है।

2. व्यावसायिक व्यवहार के लिएः हमारी नई शिक्षा नीति का उद्देश्य हर बालक को अपना स्वतंत्र व्यवसाय चुने को प्रोत्साहन देना है। परिणाम स्वरूप हमें व्यावसायिक और वाणिज्य से सम्बन्धित पत्रा-व्यवहार, सार-लेखन टिप्पणी, विचार या भाव विस्तार आदि कुशलताओं के विकास पर बल देना होगा। अतः यह कार्य रचना के समुचित अभ्यास के माध्यम से ही यह सम्भव हो पायेगा।

3. राष्ट्रीय जीवन के लिएः हमारा संविधान, न्यायिक प्रक्रिया और शासकीय पद्धति लिखित रूप में है। इन पहलुओं में हर शब्द का अपना अर्थ है। विद्यालयों पर यह दायित्व है कि विद्यार्थियों को शब्द के भेदों-अभेदों के प्रति सचेत करें। उनका उचित प्रयोग करना सिखायें, ताकि वे अपने मत को सुस्पष्ट और सारगर्भित शब्दों में प्रकट कर सकें। 

4. साहित्य में सृजनात्मकताः विज्ञान के इस युग में मानव हृदय कठोर होता जा रहा है। मशीनीकरण के युग में उसके हृदय का स्पन्दन अपनी संवेदनशीलता खोता जा रहा है। भारतीय मनीषियों ने बिना स्टेथेस्कोप यन्त्रा की सहायता से धरती के स्पन्दन का अनुभव किया था। आज ऐसी स्थिति में भावुक लेखक तैयार करने की आवश्यकता है, जो मौलिक लेखन द्वारा वैज्ञानिक के मन को गुदगुदा कर उन्हें अपनी भूल पर प्रायश्चित करने पर बाध्य कर सकें।

रचना की शिक्षा के सोपान

रचना शिक्षण के उन सोपानों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है।
  1. आरम्भिक सोपान
  2. मध्य द्वितीय सोपान
  3. उत्तर तृतीय सोपान
1. आरम्भिक या प्रथम सोपानः प्रथम सोपान में सुलेख वर्णों की बनावट व सुडौलता, शब्दों की उचित दूरी पर ध् यान दिया जाता है।

2. मध्य या द्वितीय सोपानः इस सोपान में वर्तनी की शुद्धता पर बल पर दिया जाता है। वाक्य-रचना आदि भी उसी सोपान के अन्तर्गत आते हैं। वाक्य रचना के विभिन्न रूपों जैसे प्रश्नार्थक, आज्ञार्थक, स्वीकारार्थक, नकारात्मक आदि के अभ्यास की आवश्यकता है। अतः ठीक उसी तरह अव्यवस्थित पदक्रम को व्यवस्थित करना, वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति करना, क्रियाओं के विविध रूपों का अभ्यास, काल परिवर्तन आदि वाक्य संरचना के अभ्यास क े उदाहरण है।

3. अन्तिम या उत्तर सोपानः वास्तविक मौलिक रचना का प्रारम्भ तो उत्तर सोपान ही है। इसके अन्तर्गत हम कई उपविषयों को रख सकते हैं। उदाहरणार्थ अनुच्छेद रचना, साहित्यिक विद्याओं की रचना, व्यावसायिक कार्यालयी पत्र व निजी या व्यक्तिगत पत्रा-रचना इसमें समाविष्ट होते हैं।

रचना में मौलिकता कैसे लाये?

  1. मन से भय, झिझक, संकोच दूर किया जाये, ताकि उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न हो। 
  2. लिखित कार्य के अधिक अवसर प्रदान किए जाएं। 
  3. स्वाध्याय की रूचि जागृत की जाये। उन्हें अध्ययन चिन्तन, मनन एवं अभिव्यक्ति के अधिक से अधिक अवसर प्रदान किये जाएं। 
  4. उन्हें के विभिन्न घटनाओं, दृश्यों, वस्तुओं आदि का निरीक्षण करने, कल्पना करने और विचार करने के अधिक से अधिक अवसर प्रदान किये जाएं। 
  5. अपने विचारों की अभिव्यक्ति की पूर्ण छूट दी जाये। 
  6. विद्यालय पत्रिका का आयोजन भी मौलिक रचना का एक अच्छा अवसर है।

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