विश्व व्यापार संगठन का भारतीय कृषि पर प्रभाव

विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के बाद से विश्व के विकसित तथा विकासशील देशों के मध्य व्यापार की संरचना एवं दिशा में महत्वपूर्ण परिवर्तन परिलक्षित हुए। विश्व व्यापार संगठन द्वारा भारतीय व्यापार को भी अनेक दिशाओं में परिवर्तित किया। विकसित देशों द्वारा भारतीय कृषि के व्यापार एवं आन्तरिक कृषि व्यवस्थाओं को भी अपने हितों की ओर आकर्षित किया है। भारतीय कृषि के आयात एवं निर्यात पर लगातार मात्रात्मक एवं गुणात्मक प्रतिकरों को लगाये जाने तथा भारत पर लगातार अनेक प्रकार के दवाबों को बनाये रखने का प्रयास विकसति देशों द्वारा विश्व व्यापार संगठन के द्वारा किया गया। इस प्रकार के दवाबों एवं प्रयासों के द्वारा भारतीय कृषि व्यापार का अन्य विकासशील देशों की ओर बढ़ने का भी प्रभाव पड़ा है। 

विकसित देशों द्वारा अपनाये जाने वाली प्रतिकूल नीति का सामना करने के लिए भारत सरकार द्वारा भी कृषि उत्पादन एवं व्यवस्था के सुदृढ़ करने के लिए अनेक नीतिगत कदन उठाये हैं ताकि विश्व व्यापार संगठन के नकारात्मक प्रभावों का सामना किया जा सके। सरकार द्वारा कृषि के लिए आन्तरिक रूप से अनेक प्रकार की योजनागत प्रयास किये गये है। जिसके परिणामस्वरूप कृषि वस्तुओं के व्यापार में निरपेक्ष रूप से काफी सुधार हुआ है।

विश्व व्यापार संगठन का भारतीय कृषि पर प्रभाव

विश्व व्यापार संगठन के भारतीय कृषि पर पड़ने वाले प्रभावों को दो रूपों में रखकर अध्ययन किया जाना अति आवश्यक समझा जायेगा।
  1. कृषि पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव।
  2. कृषि पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव।
विश्व व्यापार संगठन का भारतीय कृषि पर जो प्रभाव पड़ा है उसमें सकारात्मक प्रभावों को एक सीमित दायरे में रखकर ही देखा जा सकता है। इन सकारात्मक प्रभावों के अन्तर्गत केवल यह कहा जा सकता है कि खुली आर्थिक नीतियों के कारण कृषि निर्यात के लिए बाजार का विस्तार हुआ है तथा भारत की अर्थव्यवस्था में व्यापारी वर्ग द्वारा की जाने वाली कृषि वस्तुओं की काला बाजारी को कम किया गया है। वहीं दूसरी ओर भारत सरकार द्वारा भारतीय कृषि उत्पाद को आन्तरिक तथा बाहरी क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति के अनुकूल बनाने के सार्थक प्रयास किये गये हैं। जिसके लिए खाद्य प्रसंस्करण जैसी व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है कृषि निर्यात के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना पर केन्द्र सरकार द्वारा काफी ध्यान दिया गया है तथा वर्तमान में भी इन क्षेत्रों के विकास एवं विस्तार पर निरन्तर कार्य किया जा रहा है। इन क्षेत्रों के विकास के माध्यम से भारतीय व्यापारियों में भी कृषि उत्पादों की पूरी कीमत देने के लिए प्रयास किये गये हैं जिससे किसानों के मध्य भी अपनी कृषि के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण पैदा हुआ है।

विश्व व्यापार संगठन के कृषि पर पड़ने वाले प्रभावों को नकारात्मक रूप में निम्नवत लिया जा सकता है।

भारतीय कृषि व्यवस्था एक लम्बे समय से ही अनेक प्रकार की संस्थागत तथा गैर-संस्थागत समस्याओं का सामना कर रही है। जिससे भारतीय कृषि उत्पादन की लागत अधिक तथा उत्पादन की वृद्धि दर निम्न स्तर पर पहुँच गयी है। विश्व व्यापार संगठन के अन्तर्गत कृषि समझौते से भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि वस्तुओं का आगमन तेजी से हुआ जिससे भारतीय कृषि उत्पाद विदेशी वस्तुओं से प्रतिस्पद्र्धा करने में पूर्ण सफल नहीं हो सके। विकसित देशों द्वारा अपने किसानों को सहायताऐं प्रदान की जा रही है जिससे विकासशील देशों के कृषि बाजार में उनकी पहुँच आसान बन गयी है। इस प्रकार विकसित देशों द्वारा भारतीय कृषि को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित किया गया है।

मात्रात्मक प्रतिबन्ध समाप्त होने के पश्चात् आवश्यक वस्तुओं का अन्धाधुन्ध आयातः रोकने के लिए नई आयात-निर्यात नीति तय की गयी। देश में फल, सब्जियाँ, चाय, काॅफी, मसाले, गेहूँ, चावल, मोटे अनाज, नारियल का तेल आदि का आयात मुक्त हो गया है जिससे भारतीय कृषि के आन्तरिक बाजार पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगा है।

विश्व व्यापार संगठन के कृषि पर पड़ने वाले मनमाने प्रभावों के परिणामस्वरूप छोटे तथा सीमान्त किसानों के हितों को सुरक्षित रखा जाता सम्भव नहीं है जिससे अत्यधिक कर्ज का बोझ, आत्महत्याऐं जैसी घटनाऐं सामने आ रही हैं। पेटेन्ट कानून एवं वौद्धिक सम्पदा का अधिकार भी भारतीय कृषि को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक वर्ष किसानों को नए बीजों को खरीदना होगा जिससे कृषि लागत में वृद्धि होगी एवं कृषि उत्पादन के लिए किसी भी दिशा में प्रभाव हो सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में डीजल तथा कच्चे तेज की कीमतों का बाजार भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन से प्रभावित हुआ जिससे भारतीय कृषि के लिए सिंचाई, परिवहन के साधन आदि की लागत मंे भी वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप किसानों के लोगों में कमी आयी। 

भारत में पेटेन्ट प्रणाली के आविष्कार के उपयोग तथा इससे उत्पादित उत्पादन एवं उत्पादन में अपनायी जाने वाली विधि पर सम्बन्धित देश के अधिकार का भी भारतीय कृषि पर अत्यन्त प्रभाव पड़ा। इस प्रणाली के लागू होने से कोई भी व्यक्ति पेटेन्ट स्वामी की बिना अनुमति के उस उत्पादन का उपयोग एवं विक्रय व्यापारिक स्तर पर नहीं कर सकता। यह अधिकार उसी स्थिति में किसी देश को दिया जा सकता है जब उस उत्पादन की नवीन उपयोगिता हो तथा मानव के लिए उपयोगी भी हो। इस कानून के लागू होने से भारत में कृषि क्षेत्र में विदेशी पूँजी को आकर्षित होने का अवसर प्राप्त हुआ जिससे भारतीय किसानों की स्वायत्तता पर गहरा आघात लगने की संभावना व्यक्त की गयी।

आपको यह भी स्पष्ट करना अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होगा कि स्वास्थ्य और पादप स्वास्थ्य प्रावधान तथा व्यापारगत प्राविधिक अवरोध नामक समझौता विश्व व्यापार संगठन का एक सराहनीय कार्य रहा। विकासशील देशों के साथ भारत ने इसके उचित क्रियान्वयन की प्रतिवद्धता प्रकट की लेकिन विकसित राष्ट्रों द्वारा इसका क्रियान्वयन न होने के कारण विकासशील देशों को काफी क्षति उठानी पड़ रही है। विकसित देश अपने वायदों से पीछे हटकर अपने बाजारों को संरक्षित किया गया है। इससे भारतीय कृषि बाजार के अन्तर्गत निर्यातों को सीमित किया गया है जिसका भारतीय कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसके लिए यह आवश्यक है कि विकासशील देश, विकसित देशों पर इस प्रावधान को लागू कराने का दबाव डालें।

बीजों एवं पौधों की किस्म का पेटेन्ट होने से देश के किसानों को प्रत्येक वर्ष बीज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से खरीदने होंगे और अपने निजी फार्मों पर उत्पादित बीजों का प्रयोग किसान अपनी फसल के लिए नहीं कर सकेंगे। विश्व व्यापार संगठन की सन्धि को क्रियान्वित करने के सम्बन्ध मंे सरकार ने पौध किस्म संरक्षण के लिए एक कानून बनाने का निर्णय लिया है। जिसके अन्तर्गत पौध प्रजननक अधिकारों की एक व्यवस्था तैयार की गयी है। प्रस्तावित पौध संरक्षण कानून-1978 संधि के प्रावधानों के अनूरूप तैयार किया गया है। इसके अन्दर किसानों तथा अनुसंधानकर्ताओं के अधिकारों को संरक्षित करने की व्यवस्था की गयी है। पौधों की किस्म के संरक्षण की अवधि सीमा 15 वर्ष रखी गयी वृक्ष एवं बेल के इस प्रावधान के बाहर रखा गया है।

भारत में सीमान्त एवं लघु किसानों की संख्या अत्यधिक है जो नयी किस्म के बीजों को प्रत्येक साल खरीदने में सक्षम नहीं होते हैं। इसके लिए ‘टर्मिनेटर जीन’ जैसी प्रौद्योगिकी को अपनाने में सावधानी अत्यन्त आवश्यक है। भारत सरकार इस तकनीकी से सहमत नहीं है। भारत इस मामले में सकारात्मक रवैया अपनाने का पक्षधर है।

विश्व व्यापार संगठन की नीतियों एवं उपायों के चलते भारतीय चाय उद्योग के सामने अनेक प्रकार की गंभीर चुनौतियां पैदा हुई हैं  जिनमें ज्यादा उत्पादन लागत, गुणवत्ता में गिरावट निर्यात बाजार में कड़ी प्रतियोगिता, घरेलू मूल्य पर प्रतिकूल प्रभाव आदि प्रमुख हैं। परिणामस्वरूप चाय बागान मजदूरों की मजदूरी अत्यन्त कम हुई है जो चाय बागानों के प्रति श्रमिकों का नकरात्मक रवैया पाया गया है। इससे चाय उद्योग प्रतिकूल दिशा में प्रभावित हुआ है। विश्व व्यापार संगठन की विकासशील देशों के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार के कारण चाय की अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों में काफी अन्तर पाया गया है। जिससे चाय के अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अनेक प्रकार की समस्याऐं पैदा हुई हैं। चाय उद्योग मंे व्याप्त श्रमिकों सम्बन्धी समस्याओं के लिए अनेक प्रकार के सुधारों की आवश्यकता है। 

आपको ज्ञात हो कि विश्व व्यापार संगठन द्वारा सबसे मजबूत हथियार ‘कृषि के लिए दिये जाने वाले अनुदानों की समाप्ति का बनाया गया।’ सरकार द्वारा कृषि को दी जाने वाली अनुदान सहायता के कारण कृषि उत्पादन की कीमतें घरेलू बाजारों में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की अपेक्षा कम होती हैं। इसके पीछे यह तथ्य प्रस्तुत किया जाता है कि विकसित देशों के कृषि उत्पादन के विपणन में उच्च कीमत होने के कारण अनेक प्रकार की बााधाऐं पैदा होती हैं। जिसकें सन्दर्भ में विकासशील देश विशेषकर भारत में यह तथ्य प्रस्तुत किया गया कि कृषि के बाजार में प्रचलित कीमतों में अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों के बराबर समानता लायी जाय। सरकार द्वारा अपने देश की कृषि के लिए कृषि उपादानों पर अनुदान दिया जाता है जैसे - उवर्रक, बीज, सिंचाई, कृषि ऋण आदि, जिसका प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से किसान भी लाभ लेने में समर्थ हो पाते हैं। 

भारत में यह व्यवस्था एक लम्बे समय से चली आ रही है। विश्व व्यापार संगठन द्वारा इस अनुदान व्यवस्था पर गम्भीरता से ध्यान दिया गया तथा इसका प्रभाव विश्व व्यापार पर विकसित देशों की कृषि व्यवस्था के पक्ष में ड़ालने का प्रयास किया गया। भारत में भी सरकार द्वारा कुछ विशेष फसलों एवं वागानों की कृषि के लिए भी अलग से अनुदान देने की व्यवस्था की जाती है जिसके कारण इस प्रकार की कृषि को बढ़ावा देकर उसे अधिक उत्पादक बनाने का प्रयास किया जाता है। इसका प्रभाव भी अन्तर्राष्ट्रीय कीमत के आधार पर देखने के लिए विश्व व्यापार संगठन द्वारा भारत सरकार तथा भारतीय व्यापारियों को मजबूत किया गया है। विश्व व्यापार संगठन के समझौते के अनुसार भारत सरकार ने अपने आयातों पर से मात्रात्मक प्रतिबन्धों को एक बड़ी सीमा तक हटा लिया है जिसका भारतीय कृषि पर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ा है। 

भारत ने विश्व व्यापार संगठन के दिशा निर्देशों के अनुसार पूर्व में हटाये गये आयात प्रतिबन्धों के अतिरिक्त शेष बचे 1429 उत्पादों के आयात से भी प्रतिबन्ध समाप्त कर दिया है जिसमें 714 उत्पादों पर से अप्रैल 2000 में तथा शेष बचे 715 वस्तुओं पर से 1 अप्रैल 2001 से यह प्रतिबन्ध समाप्त किये गये। आपको यह स्पष्ट करना अत्यन्त आवश्यक है कि जिन उत्पादों से आयात सम्बन्धी मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटाये गये हैं उनमें कृषि तथा गैर कृषि उत्पाद दोनों ही सम्मिलित हैं। लेकिन इन आयात सम्बन्धी प्रतिबन्धों की समाप्त का अधिकांश प्रभाव भारतीय कृषि व्यापार पर ही पड़ा है। मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटने के साथ आवश्यक वस्तुओं का भारत में अतिरिक्त या अनावश्यक कृषि वस्तुओं का आयात न हो सके इसके लिए भारत सरकार ने अपनी कृषि नीति तथा विदेश व्यापार नीति में भारतीय कृषि को संरक्षण प्रदान करने के जोरदार प्रयास किये। 

कुछ महत्वपूर्ण कृषि उत्पादों गेहूँ, चावल, मक्का के खुले आयात की छूट नहीं दी है इन वस्तुओं का आयात कुछ विशेष सरकारी व्यावसायिक कम्पनियाँ ही कर सकतीं हैं। वनस्पति तथा पशु उत्पाद से सम्बन्धित वस्तुओं के आयात के लिए कृषि मंत्रालय की अनुमति को आवश्यक बनाया गया है। भारत में मांस, दूध और दुग्ध उत्पाद, फल व सब्जियाँ, चाय काॅफी, मसाले, गेहूँ, चावल व मोटे अनाज, रबड़ रबड़ का सामान, कागज व लेखन सामग्री, नारियल का तेल, रेशम का आयात खुल गया है।

विश्व व्यापार संगठन की विकासशील देशों की कृषि विरोधी नीतियों के कारण भारत सरकार को अनेक नीतिगत उपायों का सहारा लेना पड़ा। सरकार द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना करके कृषि की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया गया। विश्व व्यापार संगठन को कृषि के उत्पादन पर प्रभावों को भी मात्रात्मक रूप में दर्शाया जा सकता है। देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में मोटे अनाज के उत्पादन का भाग वर्ष 2003-04 में 17.8 प्रतिशत रहा जो 38.12 मिलियन टन था 2005-06 में यह उत्पादन 34.00 मिलियन टन अनुमानित किया गया।

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) के दौरान भारत में कृषि की विकास दर 4.7 प्रतिशत आमंत्रित की गयी नवी योजना में यह विकास दर 2.1 प्रतिशत ही रह गयी। दसवी योजना में वर्ष 2002-03 में यह विकास दर ऋणात्मक रूप में -7 प्रतिशत हो गयी ग्यारवहवी पंचवर्षीय योजना में कृषि की विकास दर 8 प्रतिशत आंकलित की गयी। इस प्रकार विश्व व्यापार संगठन की नीतियों के प्रभावों का भारतीय कृषि पर समग्र रूप में ऋणात्मक प्रभाव ही पडा भले ही सरकार ने इसकी पूर्ति के लिए अनेक कृषि उत्पादन सुधार की योजनाएं संचालित की हो। विश्व व्यापार संगठन की नीतियों का प्रभाव गेहूँ के उत्पादन पर भी परिलक्षित हुआ। वर्ष 1999-2000 में गेहूँ का उत्पादन 76.3 मिलियन टन रहा जो 2000-01 में घटकर 69.6 मिलियन टन रह गया। 2002-03 में यह उत्पादन घटकर 65.8 मिलियन टन के स्तर पर आ गया। वर्ष 2004-05 में 68.6 मिलियन टन गेहँ का देश में उत्पादन किया गया। छोटे तथा सीमान्त किसानों की दयनीय हालात के कारण कृषि योग्य भूमि का प्रयाग भी सही रूप में नहीं हो सका। खाद्यान्न उत्पादन पर भी सही रूप में नहीं हो सका। खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ने वाले प्रतिकूलात्मक प्रभाव के कारण कृषि जोतों का अधिग्रहण आद्योगिक तथा सेवा क्षेत्र द्वारा किया गया जिससे कृषि क्षेत्र के विकास का मार्ग और अवरूद्ध हुआ। खुले व्यापार की नीतियों के कारण दिल्ली राजधानी क्षेत्र से सटे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का गेहूँ उत्पादक क्षेत्रफल के गैर कृषि कार्यो में उपयोग से गेहूँ उत्पादन में गिरावट आयी।

विश्व व्यापार संगठन द्वारा पैदा की गयी भारतीय कृषि सम्बन्धी समस्याओं के निराकरण के लिए सरकार द्वारा जो विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना की उससे भी भारतीय कृषि की दशा पर कोई खात अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ा।

विश्व व्यापार संगठन एवं भारतीय कृषि की समस्याएं

विश्व व्यापार संगठन एवं भारतीय कृषि से जुड़ी हुयीं अनेक समस्याओं की ओर ही आपका ध्यान ले जाने की आवश्यकता होगी। भारत में औद्योगिक तथा सेवा क्षेत्र के तीव्र विकास के परिणामस्वरूप भारतीय जनसंख्या का एक बड़ा भाग रोजगार तथा अन्य आर्थिक क्रिया कलापों के लिए अनेक रूपों में भारतीय कृषि से जुड़ा हुआ है। विश्व व्यापार संगठन द्वारा भारतीय कृषि पर जबरन थोपे गये अनेक नियमों एवं कानूनों तथा विकसित देशों की रणनीतियों के परिणामस्वरूप भारतीय कृषि अनेक प्रकार की समस्याओं से ग्रसित हो गयी है।

1991 में देश में प्रारम्भ किये गये आर्थिक सुधारों से पूर्व भारतीय कृषि व्यवस्था को नियन्त्रित एवं नियमन करने के लिए भारत सरकार स्वतन्त्र थी तथा कृषि विकास सम्बन्धी अनेक योजनाओं का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन किया गया जिसके परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की गयी। स्वतन्त्रता के समय कृषि सम्बन्धी अनेक प्रकार की संस्थागत तथा गैर संस्थागत समस्याऐं विद्यमान थीं जिनका निराकरण विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में तय रणनीति के अनुसार किया गया। आर्थिक सुधारों के वर्तमान दौर में कृषि अनेक प्रकार की समस्याओं जैसे कृषि जोतों का लगातार छोटा होना, उत्पादन में वांछित वृद्धि न होना, कृषि विवधीकरण के प्रति किसानों की अधिक सजगता न होना तथा समय पर बीज, खाद व सिंचाई की उपलब्धता न होना, देखी जा सकती है, जिसको लेकर भारत सरकार तथा राज्य सरकारों द्वारा अनेक ठोस कदम उठाये गये हैं लेकिन विदेशी नीतियों एवं दबाव के चलते इन कार्यक्रमों एवं योजनाओं का पूर्ण लाभ किसानों का प्राप्त नहीं हो पा रहा है। भारत में कृषि उत्पादों के अधिक आयात तथा कम निर्यात के कारण भी कृषि बाजार मंे मौसम के अनुसार किसान विरोधी आर्थिक उतार-चढ़ाव की स्थिति पैदा होती रहती है, जिसकी बजह से किसानों की लागत भी निकलना मुश्किल हो जाता है।

विश्व व्यापार संगठन द्वारा जारी दिशानिर्देश के अनुसार भारतीय कृषि को पूँजीवाद की परधि में लाया जा रहा है लेकिन भारत में ऐसे माहौल की कोई ठोस सम्भावनाऐं नहीं हैं। कृषि में किसानों को होने वाले आर्थिक हानि की बजह से भारत के अनेक प्रान्तों में किसानों द्वारा आत्म हत्याओं की स्थिति भी इस आर्थिक सुधार के दौर मंे देखी जा रही है। भारत में लगातार होती छोटी जोतों के कारण आर्थिक सुधारों के अन्तर्गत विकसित नवीन तकनीकी एवं तकनीकी उपकरणों का प्रयोग कृषि उत्पादन हेतु सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है। 

परिणामस्वरूप भारतीय कृषि व्यवस्था को एक नकारात्मक दृष्टिकोंण से देखा जा रहा है तथा भारतीय सरकारों एवं बड़े किसानों का भी कृषि विकास के प्रति महत्वपूर्ण प्रयास नहीं रह गया है और भारत सरकार की विभिन्न नवीन योजनाओं में सेवा क्षेत्र के विकास को ही प्रमुखता दी जा रही है इसके साथ कृषि क्षेत्र से श्रमिकों को भी पर्याप्त मात्रा में रोजगार नहीं मिल पा रहा है जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। कृषि वस्तुओं के उत्पादन की कीमतों में उतार-चढ़ाव एवं कृषि लागतों में वृद्धि के कारण ग्रामीणों को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भी अनेक प्रकार के वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

संदर्भ- 
  1. बरला एण्ड अग्रवाल (2008) अन्तर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, पुस्तक प्रकाशक एवं विक्रेता, अनुपम प्लाजा संजय प्लेस आगरा।
  2. दत्त एवं सुन्दरम् (2010) भारतीय अर्थव्यवस्था,एस0चन्द्र एण्ड क0 लि0 नई दिल्ली।
  3. Economic Survey (2009-10) Oxford University Press (Minister ofFinance Goverment of India) Jai singh Road New Delhi.

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