वित्तीय प्रणाली से क्या तात्पर्य है ? विभिन्न वित्तीय संस्थाओं का वर्णन

वित्तीय प्रणाली सामान्यतया आर्थिक क्रियाओं का एक नियमन तंत्र होता है। इसके अन्तर्गत वित्तीय संस्थाओं, उपकरणों, सेवाओं, साधनों, कार्यविधियों, व्यवहारों एवं बाजारों के समूह के रूप में इसको विश्लेषित किया जाता है। ये सभी समूह एक दूसरे से अन्र्तसम्बन्धित होते हैं।

इस प्रकार वित्तीय प्रणाली के अन्तर्गत आर्थिक क्रियाओं में बचतों, विनियोगों, विनियोगों का अनुकूलतम आबंटन एवं लाभों का पुर्ननियोजन आदि को सम्मिलित किया जाता है। वित्तीय उपकरणों, वित्तीय सेवाओं, वित्तीय बाजारों की आवश्यकता आर्थिक क्रियाओं के साथ आपसी तालमेल हेतु अत्यन्त आवश्यक होती है। इसी ‘नियामक तंत्र’ को वित्तीय प्रणाली के रूप में परिभाषित किया जाता है। 

‘‘इस प्रकार वित्तीय प्रणाली वित्तीय साधनों, वित्तीय बाजारों, नियामक उपकरणों, वित्तीय सेवाओं, कार्यविधि एवं व्यवहारों का एक मिश्रित संजाल समूह है, जो एक-दूसरे से परस्पर आन्तरिक तौर पर जुड़े हुए हैं।’’

वित्तीय प्रणाली की संरचना

वित्तीय प्रणाली की परिभाषा से विदित है कि वित्तीय प्रणाली की संरचना के अन्तर्गत वित्तीय संस्थाओं, वित्तीय बाजारों, नियामक तंत्रों, उपकरणों, वित्तीय सेवाओं आदि को सम्मिलित किया जाता है। इसलिए वित्तीय प्रणाली को वित्तीय क्षेत्र की संज्ञा भी प्रदान की गयी है। वित्तीय प्रणाली की संरचना के अध्ययन हेतु निम्नलिखित का अध्ययन आवश्यक है-
  1. वित्तीय संस्थायें
  2. वित्तीय बाजार
  3. वित्तीय उपकरण
  4. वित्तीय सेवाएँ

1. वित्तीय संस्थाएँ

वित्तीय संस्थाओं के अन्तर्गत उन समस्त संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है जो जमाओं , बचतों को स्वीकार कर उन्हें एकत्रित करके निवेशकों को निवेश हेतु उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार ये संस्थाएँ बैंकिंग के प्राथमिक कार्यों (1) जमाओं को स्वीकार करना तथा (2) ऋण प्रदान करना को कुशलता से निवर्हन करती है। इसके अतिरिक्त ये वित्तीय संस्थाएँ एजेन्सी सम्बन्धित सेवाओं, सामान्य उपयोगिता के कार्यों का निवर्हन करके वित्तीय सेवायें उपलब्ध कराते हैं। वित्तीय संस्थाओं की तुलना में गैर-वित्तीय व्यावसायिक संस्थायें केवल मशीनरी, यांत्रिकी उपकरणों, तकनीकि ज्ञान, बुनियादी ढाँचा, कच्चा माल आदि के सम्बन्ध में लेनदेन करते हैं। 

(i)  नियामक संस्थाएँ - नियामक संस्थाओं को वित्तीय प्रणाली में सर्वोच्च स्थान प्राप्त होता है। यह वित्तीय प्रणाली के तंत्र को नियमित करने के लिए सर्वोच्च स्थान प्राप्त संस्थाएँ होती है। वित्तीय प्रणाली को नियंत्रित करने पर सम्पूर्ण उत्तरदायित्व इन्हीं संस्थाओं पर होता है। नियंत्रण के उद्देश्य के दृष्टिगत ये सर्वोच्च संस्थायें वित्तीय लेनदेनों से सम्बन्धित नियम, उपनियम, अधिनियम, आचार संहिता, दिशा-निर्देश आदि समय-समय पर तैयार करके उनका अनुपालन सुनिश्चित कराती है। नियामक संस्थाओं में निम्न को सम्मिलि किया जा सकता है-
  1. भारतीय रिजर्व बैंक आफ इंडिया (केन्द्रीय बैंक)
  2. प्रतिभूति एवं विनिमयन बोर्ड आफ इंडिया 
  3. बीमा नियामक विकास प्राधिकरण
  4. औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निमाण बोर्ड 
  5. नेशनल फाईनेंशियल रिपोर्टिंग अथाॅरिटी-राष्ट्रीय वित्तीय सूचना प्राधिकरण 
(ii)  वित्तीय मध्यस्थ - वित्तीय मध्यस्थों के अन्तर्गत वित्तीय संस्थाओं को निहित किया जाता है। इनका मुख्य कार्य अन्तिम बचतकर्ताओं एवं अन्तिम साख सृजन करने वालों के मध्य मध्यस्थता करना होता है। इन संस्थाओं में मुख्य रूप से वाणिज्यिक बैंकों, सहकारी बैंकों, ऋण समितियों, डाकघर बचत बैंक, चिट फण्ड आदि को सम्मिलित करते हैं।

(अ) बैंकिंग मध्यस्थ - ये संस्थायें केवल बैंकिंग कार्यों का समायोजन करती हैं, इनमें समस्त वाणिज्यिक बैंकों के साथ-साथ बैंकिंग गतिविधियों में संलिप्त संस्थाओं जैसे सहकारी बैंक, डाकघर जमाओं आदि को सम्मिलित करते है।

(ब) गैर-बैंकिंग मध्यस्थ - इन संस्थाओं में केवल उन्हीं संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है, जो बैंकिंग कार्यों में संलग्न नहीं होती हैं, लेकिन मध्यस्थता का कार्य सम्पादित करती हैं। इनमें मुख्य रूप से जीवन बीमा कम्पनियों, परस्पर निधि (म्युचल फण्ड), चिट फण्ड, सामान्य ट्रस्ट कोष आदि को सम्मिलित करते हैं।

(स) गैर-वित्तीय मध्यस्थः-गैर-वित्तीय मध्यस्थों के अन्तर्गत ऐसी संस्थाओं को सम्मिलित करते हैं, जोकि मध्यस्थ के रूप में कार्य करके अपनी सेवायें प्रदान करते हैं, इनमें किराया क्रय कम्पनियों, जोखिम पूँजी कम्पनियों आदि को शामिल किया जाता है।

(द) अन्य संस्थाएँ - इन संस्थाओं में उन संस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है, जोकि उपरोक्त संस्थाओं की सहायक के रूप में कार्य करती हैं, इनमें स्टाॅक ब्रोकर, निर्यात साख जमा कम्पनियाँ, बीमा एवं प्रतिभू निगम आदि को शामिल किया जाता है।

2.  वित्तीय बाजार

वित्तीय बाजार के अन्तर्गत वित्तीय परि-सम्पत्तियांे जिसके अन्तर्गत अंशों, ऋणपत्रों, स्टाॅक, बाॅण्ड, सरकारी प्रतिभूतियों, बैंक चैक, बिल्स आदि का क्रय-विक्रय किया जाता है। वित्तीय बाजार का सम्बन्ध उस समस्त क्षेत्र से लिया जाता है जहाँ उपरोक्त परि-सम्पत्तियों का लेनदेन किया जाता है। 

वित्तीय प्रणाली के उद्देश्य

वित्तीय प्रणाली के माध्यम से न्यूनतम वित्तीय साधनों द्वारा अधिकतम लाभों को अर्जित करना होता है, वित्तीय प्रणाली का यह उद्देश्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन वित्तीय शास्त्रियों के इसके ‘अधिकतम लाभ’ शब्द पर अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए कहा है कि यह अधिकतम लाभ के स्थान पर ‘अनुकूलतम लाभ’ होना अत्याधिक उचित रहेगा। इस सम्बन्ध में सोलोमन इजरा का यह कथन अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि ,‘‘वित्तीय प्रणाली का मुख्य उद्देश्य धन का अधिकतमीकरण है, लेकिन इस उद्देश्य की पूर्ति करते समय उपभोक्ता वर्ग के हितों को भी ध्यान में रखना चाहिए।’’ वित्तीय प्रणाली के अन्तर्गत यदि संस्था का प्रबन्ध ‘अनुकूलतम लाभ’ को अर्जित करने की नीति का अनुपालन करता है तो इससे समाज के किसी भी वर्ग का कोई शोषण नहीं होता। 

वित्तीय प्रणाली के उद्देश्यों के सम्बन्ध में विभिन्न वित्तीयशास्त्रियों द्वारा निम्नलिखित तीन प्रकार के उद्देश्यों का स्पष्टीकरण किया गया है-

(1) अधिकतम लाभोपार्जन का उद्देश्य

प्रत्येक संस्था/कम्पनी/व्यावसायिक उपक्रम का मुख्य उद्देश्य उसके स्वामियों के हितों की रक्षा करना होता है, जिनकी पूर्ति अधिकतम लाभोपार्जन द्वारा की जा सकती है। संस्था द्वारा अर्जित लाभ को संस्था की उत्पादन क्षमता, विक्रय क्षमता एवं प्रबन्धकीय एवं प्रशासकीय कार्यकुशलता का मापदण्ड समझा जाता है। अतः प्रत्येक संस्था वित्तीय प्रणाली के माध्यम से नवीनतम तकनीकि विधियों का प्रयोग करके स्वामी हितों को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है। अतः लाभ के आधार पर किसी भी व्यावसायिक संस्था का कार्य-मूल्याकंन किया जा सकता है, क्योंकि लाभों को अधिकतम उत्पादन एवं विक्रय में वृद्धि करके एवं लागतों में कमी करके ही किया जा सकता है।

(2) अधिकतम प्रतिफल का उद्देश्य

वित्तीय प्रणाली के उद्देश्यों की द्वितीय कड़ी के रूप में अधिकतम प्रत्याय दर को सम्मिलित किया जाता है। किसी भी व्यावसायिक संस्था की पूँजी संरचना में समता अंश पँूजी के अतिरिक्त पूर्वाधिकार अंशधारियों एवं ऋणपत्रधारकों द्वारा भी पूँजी को विनियोजन किया जाता है। इनके आर्थिक हितों को सुरक्षा प्रदान करना भी व्यावसायिक वित्त प्रबन्धक का कर्तव्य होता है। ऋणपत्रधारियों को उनके द्वारा विनियोजित पूंजी पर ब्याज का नियमित भुगतान, पूर्वाधिकार अंशधारियों को पूर्वाधिकार लाभांश का नियमित भुगतान एवं समता अंशधारियों की प्रति अंश में वृद्धि के साथ-साथ अंशों के बाजार मूल्य में वृद्धि को इनके हितों की सुरक्षा माना जाता है। अतः इन सभी पक्षकारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि ऐसी वित्तीय प्रणाली द्वारा उचित प्रबन्धकीय कार्यों को सम्पादित किया जाये जिससे विनियोजित पूँजी पर अधिकतम प्रत्याय दर की प्राप्ति हो सके।

(3) मूल्य अधिकतमीकरण का उद्देश्य

सोलोमन इज़रा के अनुसार, ‘‘वित्तीय प्रणाली का मुख्य उद्देश्य धन का अधिकतमीकरण है।’’ यहाँ पर धन के मूल्य अधिकतम करने अथवा सम्पत्तियों के शुद्ध वर्तमान मूल्य अधिकतम करने से लगाया जाता है। प्रो. इरविन फ्रेण्ड भी इस मत के समर्थक थे उनके अनुसार, ‘‘वित्तीय प्रणालियों का उद्देश्य विशुद्ध सम्पत्तियों के मूल्यो में वृद्धि करना है। विशुद्ध सम्पत्तियों के मूल्यों में अभिवृद्धि से विनियोग मूल्यों में वृद्धि हो जायेगी तथा इसके परिणामस्वरूप अंशों के बाजार मूल्य में स्वतः ही वृद्धि हो जायेगी। यह उद्देश्य लाभ अधिकतमीकरण उद्देश्य की तुलना में अधिक उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि इसके अन्तर्गत रोकड़ आगमों के आधार पर गणना कार्य किया जाता है, जिसके कारण लेखांकन लाभों की अस्पष्टता एवं संदिग्धता से छुटकारा मिल जाता है। मुद्रा प्रसार के कारण मुद्रा की क्रय-शक्ति में जो कमी आती है, उसका समायोजन शुद्ध वर्तमान मूल्य पद्धति द्वारा हो जाता है। यह उद्देश्य प्रबन्धकों की योग्यता एवं कार्यकुशलता का मापक भी होता है।

वित्तीय प्रणालियों का महत्व

‘वित्त’ आधुनिक औद्योगिक संरचना का जीवन रक्त है। यह समस्त व्यावसायिक क्रियाओं का मूलाधार बिन्दु है। जिस प्रकार एक स्वस्थ शरीर हेतु पर्याप्त रक्त का होना आवश्यक समझा जाता है, ठीक उसी प्रकार एक स्वस्थ व्यावसायिक संस्था में पर्याप्त वित्त की मात्रा का होना अत्यन्त आवश्यक है। विश्व का कोई भी देश पर्याप्त वित्त के अभाव में समुचित विकास की कल्पना भी नहीं कर सकता है।

प्रो. इरविन फ्रेण्ड के अनुसार, ‘‘एक फर्म की सफलता, यहाँ तक कि उसका अस्तित्व उसकी कार्यक्षमता एवं उत्पादन करने की इच्छा, स्थायी एवं कार्यशील पूँजी में विनियोग करने की क्षमता पर्याप्त सीमा तक उसकी विगत एवं वर्तमान नीतियों द्वारा ही निर्धारित होती है।’’ कुछ इसी प्रकार के विचार प्रोसोलोमन इज़रा द्वारा भी व्यक्त किये गये हैं, उनके अनुसार, ‘‘वित्तीय प्रणालियों के माध्यम से आज केवल कोषों के संग्रहण करने की एक विशिष्ट क्रिया मात्र ही नहीं है, अपितु सम्पूर्ण प्रबन्धकीय विज्ञान का एक अभिन्न अंग बन गया है। यह कोषों के एकत्रीकरण के साथ-साथ उत्पादन विपणन एवं निर्णयन से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित रहता है।’’ 

वित्तीय प्रणालियों के बढ़ते हुए महत्व को देखते हुए हसबैण्ड एवं डाकरी ने अपनी परिभाषा में विश्लेषण किया है, ‘‘विभिन्न आर्थिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने के लिए किसी प्रणाली की आवश्यकता होती है जो उन्हें सुचारू रूप से निर्देशित कर सके और व्यावसायिक प्रणालियाँ एकमात्र शक्तिशाली साधन है, जो इस कार्य को बखूबी से पूर्ण करता है।’’

इसके आधार पर यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि व्यावसायिक प्रणालियाँ समस्त व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग की आत्मा है। इन प्रणालियों के माध्यम से उपलबध ‘वित्त’ व्यावसायिक संचालन का आधारभूत तत्व होने के कारण व्यवसाय का कोई भी अंग व्यावसायिक प्रणालियों के महत्व से अछूता नहीं रहता हैं। संक्षेप में, व्यावसायिक प्रणालियों का महत्व निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-

(1) व्यावसायिक प्रबन्धकों के लिए महत्व

वित्तीय प्रणाली का सर्वाधिक महत्व व्यावसायिक प्रबन्धकों के लिए ही परिलक्षित होता है। व्यावसायिक प्रणालियाँ प्रबन्धकों को विवेकपूर्ण कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करता है। संस्था में विनियोक्ताओं द्वारा विनियोजित पूँजी का कुशलतम उपयोग तभी सम्भव है, जबकि प्रबन्धक वर्ग वित्तीय प्रबन्ध की विभिन्न तकनीकि विधियों के विश्लेषण के उपरान्त संस्था के हित में कोई निर्णय लेने में समर्थ होते हैं। व्यावसायिक प्रणालियाँ के गहन अध्ययन के पश्चात् ही वे अपने इस उत्तरदायित्व के साथ न्याय कर सकते हैं। अतः यह व्यावसायिक प्रबन्धकों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण तकनीकि प्रणाली है।

(2) विनियोक्ताओं के लिए महत्व

वित्तीय प्रणालियों द्वारा उपलब्ध वित्तीय संसाधन विनियोक्ताओं को अपनी विनियोजित पूजीं पर अधिकतम प्रत्याय अर्जित करने का अवसर प्रदान करता है। विनियोक्ता-विनियोग से पूर्व विभिन्न विकल्पों पर लाभदायकता का निर्धारण करके उचित विकल्प को अपनाकर पूँजी विनियोजित करते हैं। संस्था का सर्वश्रेष्ठता तभी सिद्ध होगी जबकि संस्था के प्रबन्धक वित्तीय तकनीकि की मद्द से लाभ अधिकतमीकरण की नीति को अपनाते हैं। लाभ के अधिक होने पर संस्था ऊँचा भुगतान अनुपात निश्चित करके विनियोक्ताओं के हितों को सुरक्षा प्रदान कर सकती है।

(3) कर्मचारियों के लिए महत्व

वित्तीय प्रबन्धन में कुशलता एवं विवेकपूर्ण रीतियों से वित्त का प्रयोग किया जाता है। इससे उत्पादन में वृद्धि, गुणवत्ता में सुधार एवं विक्रय में वृद्धि होती है। इसके फलस्वरूप संस्था का सम्पूर्ण लाभ अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाता है। संस्था के लाभांे में वृद्धि से कर्मचारियों के वेतन, भत्ते एवं बोनस में भी वृद्धि होती है। संस्था कर्मचारी हितों को ध्यान में रखकर अधिक धन श्रमिक कल्याण पर व्यय करके कर्मचारियों के मनोबल को बढ़ाने का प्रयास करती है।

(4) बैंकों एवं विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं के लिए महत्व

बैंक एवं अन्य विशिष्ट वित्तीय संस्थायें कोषों के संग्रहण एवं उनके विनियोजन हेतु वित्तीय प्रणाली के ज्ञान की प्राप्ति करते हैं। इसके अभाव में ये बैंक एवं वित्तीय संस्थायें अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफल रहती है। अतः कुशलतापूर्वक वित्त के विनियोजन हेतु इन संस्थाओं के प्रबन्धकों को वित्तीय प्रणालियों की पूर्ण जानकारी होना अत्यन्त आवश्यक है।

(5) अंशधारियों के लिए महत्व

अंशधारियों को व्यावसायिक वित्त के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान है तो वे संस्था की वित्तीय स्थिति का स्वयं मूल्यांकन करके अपने हितों की सुरक्षा स्वयं कर सकते हैं। संस्था के संचालकों को अंशधारी उचित लाभांश नीति अपनाने हेतु विवश कर सकते हैं एवं उचित वित्तीय प्रणाली के अनुपालन हेतु संचालकों को बाध्य भी कर सकते हैं।

(6) सरकार के लिए महत्व

वित्तीय प्रणालियों में ‘लोक वित्त’ का भी अध्ययन किया जाता है। इसके द्वारा सरकार को लोक व्यय, लोक आगम एवं लोक ऋणों के सम्बन्ध में ज्ञान की प्राप्ति होती है। सरकार अधिकतम कल्याणकारी व्ययों पर अधिक वित्त का विनियोजन करती है, जिससे सामाजिक कल्याण में अभिवृद्धि होती है। अतः व्यावसायिक वित्त प्रबन्ध एवं वित्तीय प्रणालियों के अभाव में कोई भी सरकार लोक कल्याण के व्ययों को नहीं कर सकती है। अतः सरकार एवं उसके अंशधारियों को वित्तीय प्रणालियों के विशद अध्ययन एवं ज्ञान की आवश्यकता प्रतीत होती है।

(7) अन्य पक्षकारों के लिए महत्व

व्यावसायिक प्रणालियों स्वरूप सार्वभौमिक एवं सर्वव्यापकता का पुट लिये हुए होते हैं। अतः इसका सम्बन्ध प्रत्येक क्रिया, पक्षकार एवं उसके परिणाम से होता है। अन्य पक्षकारों के अन्तर्गत वाणिज्य विषय से सम्बन्धित विद्यार्थी, अर्थशास्त्रवेत्ता, राजनीतिज्ञ, आदि को सम्मिलित करते हैं, इन्हें भी वित्तीय प्रणालियों के सिद्धान्तों का पूर्ण होना आवश्यक है, क्योंकि इसके अभाव में वे देश की आर्थिक समस्याओं को समझने, विश्लेषण करने एवं सुलझाने में अपने को असमर्थ होंगे। 

अतः उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्यावसायिक क्रियाओं के संचालन में वित्तीय प्रणलियों का योगदान है, वहीं लोक कल्याण से सम्बन्धित क्रियाओं का सम्पादन भी इसके बिना नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार वित्तीय प्रणाली, एक ऐसी धुरी है जिसके चारो ओर सभी व्यावसायिक क्रियायें, विनियोक्तागण, अंशधारी, कर्मचारी समूह, सरकार, बैंक एवं वित्तीय संस्थायें, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ एवं विद्यार्थी सभी गोलाकार घूमते नजर आते हैं।

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