डॉ0 भीमराव अंबेडकर के धार्मिक विचार, आर्थिक विचार, शिक्षा सम्बन्धी विचार

अंबेडकर का जन्म मध्य भारत के एक छोटे से शहर मऊ में एक अछूत परिवार में 14 अप्रैल 1891 को हुआ था। उनके परिवार का सैन्य-सेवा से संबंध था। वे महार जाति के सदस्य थे। अंबेडकर के दादा मलोजी सैन्य सेवा में थे और अंबेडकर के पिता रामजी मऊ सैनिक स्कूल के प्रभारी सुबेदार-मेजर थे। रामजी और उनकी पत्नी भीमाबाई की चौदह संतान हुई। उनमें से सात की मृत्यु शैशवावस्था में ही हो गई। यह उस समय के लिए आम बात थी। भीम चौदहवां बालक था जिन्हें भीवा भी पुकारा जाता था।
 
जब वे दसवीं में थे तो उनका विवाह रमाबाई से कर दिया गया। उस समय रमाबाई की उम्र नौ-दस साल की थी। अंबेडकर अछूत समाज के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की और इस अवसर पर समारोह का आयोजन किया गया। केलुस्कर की सिफारिश पर बड़ौदा नरेश महाराज सयाजीराव गायकवाड़ ने आगे की शिक्षा के लिए 20 रुपये प्रति माह की छात्रवृति देना स्वीकार किया। 1912 में एल्फिंस्टन कालेज से बी.ए. की परीक्षा पास की।

डाॅ. अम्बेडकर एक प्रसिद्ध भारतीय विधिवेत्ता थे। उन्होंने अपना जीवन भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष में बिता दिया। उन्हें भारतीय संविधान का जनक भी माना जाता है। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री बने। डाॅ. बी.आर. अम्बेडकर का भारत के सर्वोच्य नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया।

डॉ0 भीमराव अंबेडकर के धार्मिक विचार

अंबेडकर का यह मानना था कि धर्म प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। बहुत से लोग जो मार्क्सवाद से प्रभावित होकर, धर्म को अफीम समझते हैं तथा धर्म त्यागने योग्य मानते हैं, लोगों की ऐसी सोच उचित नहीं है।

अंबेडकर कॉर्ल मार्क्स तथा अन्य मार्क्सवादी चिन्तकों से इस बात पर बिलकुल सहमत नहीं हुए कि धर्म का मानव जीवन में कोई महत्व नहीं है। उन्होंने कहा कि ‘‘मनुष्य मात्र रोटी के सहारे जीवित नहीं रहता। उसका एक मस्तिष्क भी होता है, जिसे विचार रूपी खुराक की जरूरत होती है। धर्म मनुष्य में आशा का संचार करता है और उसे कर्म के लिए प्रेरित करता है। यह एक भिन्न विषय है कि उन्होंने धर्म के रूप में हिन्दू धर्म की आलोचना की तथा उसे अस्वीकार कर दिया।

अंबेडकर भलीभांति आश्वस्त थे कि धर्म मनुष्य को एक अच्छा चरित्र विकसित करने में सहायता करता है। चरित्र एवं शिक्षा को प्राथमिकता देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘धर्म के प्रति नवयुवकों को उदासीन देखते हुए मुझे दु:ख होता है। धर्म अफीम नहीं है जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। जो कुछ भी अच्छी बातें मेरे अन्दर हैं अथवा मेरी शिक्षा से समाज को जो कुछ भी लाभ हुए हैं, मैं उन्हें मेरे अन्दर धार्मिक भावनाओं के कारण मानता हूं। मैं धर्म चाहता हूं, किन्तु धर्म के नाम में दोगलापन नहीं चाहता। अंबेडकर ने अपने बौद्ध धर्म के आधार पर मार्क्सवाद को भी चुनौती दी। उन्होंने कहा-यदि बुद्ध के उपदेशों को स्वीकार नहीं किया गया तो एशिया में भी यूरोप की भाँति संघर्षों का दौर शुरू हो जायेगा। उन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म का मार्ग ही सुरक्षित मार्ग है। इसी मार्ग पर चलकर मार्क्सवाद से भी बचा जा सकता है। ‘‘एक सामाजिक शक्ति के रूप में धर्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती’’, इस बात को डॉ0 अंबेडकर ने भलीभांति स्वीकार किया और वह हरवर्ट स्पेन्सर से सहमत थे, जब उन्होंने यह कहा, ‘‘धर्म एक बाना रहा है, जो इतिहास के ताने को हर जगह क्रॉस करता है।’’ यह प्रत्येक समाज के लिए सही माना जाता है। 

डॉ0 अंबेडकर ने देखा, भारत के संदर्भ में तो यह बात और प्रामाणिक है। उन्होंने कहा, धर्म ने भारतीय इतिहास के ताने को न केवल हर जगह क्रॉस किया है, अपितु वह हिन्दू मन के ताने-बाने को भी निर्धारित करता है। हिन्दू का जीवन प्रत्येक क्षण धर्म द्वारा संयत होता है। वह उसे आज्ञा देता है कि उसे अपने जीवन के दौरान किस प्रकार का आचरण करना चाहिए। सामान्यत: यह इस विचार को प्रमाणित करता है कि भारत के इतिहास में धर्म ने अपनी भूमिका किस प्रकार अदा की है। धर्म, चाहे सही हो अथवा गलत, यहां के जीवन का अनिवार्य अंग बन गया है, जिसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता।

इसके अलावा कि धर्म एक सामाजिक शक्ति है, जैसा कि डॉ0 अंबेडकर ने कहा, वह दैविक प्रशासन की एक व्यवस्था भी निर्धारित करता है। यदि किसी आदर्श को किसी धर्म का समर्थन मिल जाता है, तो वह और अधिक शक्तिशाली बन जाता है। धर्म सर्वत्र है और उसके प्रभाव को प्रत्येक आदमी महसूस करता है। ‘‘जो लोग धर्म के महत्व को अस्वीकार करते हैं वे न केवल इसे भूल जाते हैं, अपितु वे यह महसूस करने में भी असफल रहते हैं कि किसी धार्मिक आदर्श की पीछे, किसी विशुद्ध लौकिक आदर्श की तुलना में कितनी बड़ी सामर्थ्य तथा आज्ञा होती है।

अंबेडकर ने जीवन में सच्चे धर्म की आवश्यकता पर बल दिया। किन्तु उन्होंने यह बात सच्चे धर्म के लिए, न कि सभी विद्यमान धर्मों को लेकर कही थी। स्पष्टत: उन्होंने धर्म को सामाजिक आदर्श के रूप में स्वीकार किया, न कि किसी तात्त्विक सत्ता के रूप में।

डॉ0 अंबेडकर की दृष्टि में, यदि कोई धर्म अपने अनुयायियों को उपयोगी संगठन की अनुमति नहीं देता; आत्म-सम्मान, परस्पर सहयोग एवं भ्रातृत्व पैदा नहीं करता; सत्ता एवं प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं करने देता; व्यवसाय तथा कार्य की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है; समता भाव से वंचित रखता है; वह अच्छा धर्म नहीं है। उन्होंने स्पष्ट रूप में यह कहा, ‘‘वह धर्म जो मनुष्य को मनुष्य के साथ अमानवीय ढंग से व्यवहार करने का उपदेश देता है, धर्म नहीं है, अपितु एक अपकीर्ति है। वह धर्म जो मानव प्राणी को एक मानव प्राणी के रूप में नहीं मानता, वह अभिशाप है। वह धर्म जिसके अन्तर्गत पशुओं के स्पर्श की अनुमति है, किन्तु एक मानव प्राणी का स्पर्श दूषित करता है, वह धर्म नहीं है, अपितु धर्म का एक मजाक है। वह धर्म जो कुछ वर्गों को शिक्षा से अलग रखता है, उन्हें धन संचय और शास्त्र रखने से रोकता है, वह धर्म नहीं, अपितु एक निरंकुशता है। वह धर्म जो अज्ञानी को अज्ञानी और निर्धन को निर्धन रहने के लिए बाध्य करता है, धर्म कहलाने के योग्य नहीं है। इसी आधार पर डॉ0 अंबेडकर ने हिन्दू धर्म की कड़ी आलोचना की।

डॉ0 अंबेडकर ने कहा कि हिन्दू समाज व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है, जो वर्णों पर आधारित है, न कि व्यक्तियों पर। यह वह व्यवस्था है, जिसमें वर्णों को एक दूसरे के ऊपर श्रेणीबद्ध किया गया है। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें वर्णों की प्रतिष्ठा तथा कार्य-निर्धारण निश्चित है। हिन्दू समाज व्यवस्था एक कठोर सामाजिक प्रणाली है। इस बात से उसे कोई लेना-देना नहीं कि किसी व्यक्ति के पद और प्रतिष्ठा में अपेक्षाकृत परिवर्तन हो, लेकिन वह जिस वर्ण में पैदा हुआ है, उस वर्ण के सदस्य के रूप में उसको सामाजिक स्थिति दूसरे वर्ण के दूसरे व्यक्ति के संदर्भ में किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होगी। उच्च वर्ण में जन्मे और निम्न वर्ण में जन्मे व्यक्ति की नियति उसका जन्मजात वर्ण ही है। 

अंबेडकर का मानना था कि हिन्दू धर्म का दर्शन ऐसा है कि उसे मानवता का धर्म नहीं कहा जा सकता। इसलिए ही बाल्फोर की भाषा का उपयोग करते हुए हम कह सकते हैं कि यदि हिन्दू धर्म सर्वसाधारण लोगों के जीवन में गहरे प्रवेश करता है, लेकिन उन्हें सुरक्षा का कवच नहीं प्रदान करता। वस्तुत: उन लोगों को विकलांग बनाता है। हिन्दू धर्म में सामान्य मानवीय आत्माओं के लिए कोई पोषक तत्व नहीं है। साधारण मानवीय कमजोरी के लिए कोई सहायता नहीं है। कुल मिलाकर हिन्दू धर्म लोगों को अंधकार में छोड़ देता है। इतने क्रूर अधर्म से अधिक क्रूर कार्य और क्या हो सकता है। वह, मनुष्य का ईश्वर के साथ जो संबंध है, उसे ही भंग कर देता है। हिन्दू धर्म का दर्शन ऐसा है। वह महामानव (ब्राह्मण) के लिए स्वर्ग है, तो साधारण मनुष्य के लिए नर्क है। 

सारांशत: डॉ0 अंबेडकर को यह कहना पड़ा, ‘‘हिन्दू धर्म, तेरा नाम असमानता है।’’ हिन्दू धर्म से विमोह उनके धर्मान्तरण का मुख्य कारण था। उनका कहना था कि जिस धर्म में अपने ही अनुयायियों के बीच भेदभाव है वह धर्म नहीं पक्षपात है, जो धर्म अपने करोड़ो अनुयायियों को कुत्तों और अपराधियों , से भी बदतर मानता है और उन पर नारकीय मुसीबतें बरसाता है वह धर्म हो ही नहीं सकता।

डॉ0 अंबेडकर के अनुसार धर्म का मूल्यांकन सामाजिक मापदण्डों से किया जाना चाहिए जो सामाजिक आचार-विचारों पर आधारित है। अंबेडकर हिंदू धर्म से पूर्णतया निराश थे। क्योंकि यह जातिगत असमानता पर आधारित था। अंबेडकर ने कहा, ‘‘हिन्दू धर्म एक ज्वालामुखी के द्वार पर खड़ा है जो उसे कभी भी जला सकता है। आज ऐसा दिखाई देता है कि वह ज्वालामुखी शांत है, परंतु ऐसा नहीं है। जैसे-जैसे करोड़ों लोगों में जागृति आती जाएगी तथा उन्हें यह अहसास होने लगेगा कि उनकी आज की गिरावट तथा दयनीय हालत हिंदू सामाजिक दर्शन के कारण है, यह ज्वालामुखी फिर से फट पड़ेगा और चारों तरफ आग ही आग बिखरने लगेगी।’’ 

अंबेडकर हिन्दू धर्म की भेदभाव पूर्ण सिद्धान्तो से पूरी तरह निराश हो गये थे और उन्हें लगने लगा था कि इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। जहाँ एक ओर नव स्वतंत्र राष्ट्र भारत अपने जातिगत तथा पुरुष सत्तात्मक समाज की मूल समस्याओं का हल ढूंढे बिना ही समाजवादी समाज की स्थापना , का दावा करते हुए अपने भविष्य की ओर अग्रसर था, वहीं अंबेडकर बुद्ध धर्म के समीप होते जा रहे थे। बुद्ध धर्म उन्हें मुक्ति का मार्ग लग रहा था। 

1950 में उन्होंने ‘जर्नल ऑफ द महाबोधि सोसाइटी’ में ‘द बुद्धा एंड द फ्यूचर ऑफ हिज रिलीजन’ शीर्षक से लेख प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने लिखा कि बौद्ध धर्म पूरी दुनिया का धर्म बनना चाहिए। उनके शब्द हैं- ‘‘यदि नई दुनिया पुरानी दुनिया से भिन्न है तो नई दुनिया को पुरानी दुनिया से अधिक धर्म की आवश्यकता है और वह धर्म बौद्ध धर्म ही हो सकता है।’’ अंबेडकर ने धर्म परिवर्तन पर बहस की और धर्मान्तरण की घोषणा की। धर्मान्तरण की घोषणा : 13 अक्टूबर 1935 को, द्योंड-मनमाड रेल मार्ग पर नासिक से कोई 35 मील दूर स्थित येवला नामक कस्बे में, बम्बई प्रेसीडेंसी दलित वर्ग सम्मेलन में भाग लेने के लिए दस हजार लोग एकत्र हुए जिनमें कुछ हैदराबाद और सेंट्रल प्रॉविंसेज के भी कुछ लोग शामिल थे। सम्मेलन के अध्यक्ष की हैसियत से दिए गए अपने डेढ़ घंटे के भाषण में , अंबेडकर ने अपने श्रोताओं को स्मरण कराया कि वे कालाराम मन्दिर प्रवेश आन्दोलन के माध्यम से हिन्दू समाज में बराबरी का दर्जा अथवा प्राथमिक अधिकार पाने में असफल रहे थे।

अंबेडकर ने कहा कि ‘‘हम दुर्भाग्यवश स्वयं को हिन्दू कहते हैं, इसलिए हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है। यदि हम और किसी धर्म के अनुयायी होते, तो कोई हमसे इस तरह का व्यवहार करने का साहस नहीं कर सकता था। आप कोई भी धर्म चुन लीजिए जो आपको बराबरी का सम्मान दे और आपके साथ बराबरी का व्यवहार करें। हम अपनी गलती को अब सुधारेंगे। मेरा यह दुर्भाग्य था कि मैं अछूत का कलंक लेकर पैदा हुआ। किन्तु यह मेरा दोष नहीं है, किन्तु हिन्दू की हैसियत में नहीं मरूंगा, क्योंकि यह मेरे बस में है।’’ सर्वसम्मति से इसी आशय का प्रस्ताव पास किया गया कि अस्पृश्य समाज हिंदू धर्म का त्याग कर ऐसा धर्म अपनाए जिसमें सामाजिक और धार्मिक समता हो। धर्मान्तरण की अंबेडकर की घोषणा पर विभिन्न समूहों के नेताओं ने तीव्र प्रतिक्रिया दी। , इस घोषणा के दो दिन बाद ही गांधी जी का प्रेस वक्तव्य आया। उन्होंने अंबेडकर द्वारा हिंदू धर्म के परित्याग पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, ‘यह अविश्वसनीय है। विशेषकर तब जबकि अस्पृश्यता समाप्ति के कगार पर है। धर्म कोई घर अथवा घड़ी की तरह नहीं है जिसे जब चाहे बदल दिया।’ अंबेडकर द्वारा हिन्दू धर्म को नकारना तथा उसके दूसरे विकल्प की चर्चा करना किसी विस्फोटक क्रान्ति से कम नहीं था। मार्क्सवादियों ने बौद्ध धर्म की स्वीकारोक्ति को अंबेडकर के दर्शन का सबसे अधिक सुधारात्मक पक्ष माना था।

उपरोक्त विवेचन से यह विदित होता है कि अंबेडकर की धर्म अवधारणा मानववाद में अन्तर्निहित है। मानववाद के बिना, उनके धर्म का विचार अकल्पनीय है। अंबेडकर की दृष्टि में, सच्चा धर्म मानव चेतना, बुद्धि, स्वतंत्र चिंतन, मित्रता, प्रेम, बन्धुता, समता, स्वतंत्रता एवं न्याय पर आधारित है। धर्म न्याय, समानता, स्वतंत्रता तथा बन्धुत्व का दूसरा नाम है। अंबेडकर ने उस धर्म को पसन्द किया जो मानव व्यक्तित्व तथा मनुष्य की बौद्धिक शक्तियों के विकास में उसकी सहायता करता , हो और इस परिपेक्ष्य में उन्होंने बौद्ध धर्म को सबसे बेहतर माना।

अंबेडकर ने सन् 1950 में यह घोषणा कर दी कि बौद्ध ही वह धर्म है जो आधुनिक समाज की जरूरतों-ज्ञान, दया और सामाजिक न्याय को पूरा कर सकता है।

डॉ0 भीमराव अंबेडकर के आर्थिक विचार 

डॉ0 भीमराव अंबेडकर की पहचान विश्व में दलितों के मसीहा, संविधान निर्माता, विधिवत के रूप में की जाती है। निश्चित ही वे इस क्षेत्र में अपना प्रभाव और सफलता का जौहर दिखा चुके है, जो विश्व में अपने आप में सशक्त प्रमाण है। अपने विचारों द्वारा महान चिन्तकों की श्रेणी में स्थापित कर कई उत्कृष्ट योगदान विश्व मानवता को दे चुके है। किन्तु यह उनके व्यक्तित्व का एक पहलू है। डॉ0 अंबेडकर के आर्थिक चिन्तन का पक्ष उनके समग्र सामाजिक चिन्तन का सार है। जो कुछ भी सामाजिक क्रान्ति वे उत्पन्न करना चाहते थे वह सार के रूप में आर्थिक परिवर्तन ही था।

अंबेडकर के जीवन का ध्येय शोषित तथा दलितों के सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक हितों की रक्षा करना था और ये उद्देश्य राज्य की सहायता के बिना सम्भव नहीं था। अत: अंबेडकर ने राज्य समाजवाद का रास्ता चुना।

राज्य समाजवाद:-अंबेडकर का मानना था कि भारत के द्रुत औद्योगिकीकरण के लिए ‘राज्य समाजवाद’ आवश्यक है। व्यक्तिगत उद्योग यह कार्य नहीं कर सकते और यदि उन्होंने किया भी तो यह सम्पत्ति की ऐसी असमानता पैदा करेंगे जैसी यूरोप में पूंजीवाद ने पैदा की थी।

अंबेडकर समाजवाद की परिभाषा अनुशासित औद्योगिक अर्थव्यवस्था के रूप में कर रहे थे। उनके राज्य समाजवाद के मुख्य प्रस्ताव थे-

(i) मूल उद्योगों का राज्य स्वामित्व तथा राज्य द्वारा प्रबन्ध, मूलभूत उद्योगों पर राज्य का स्वामित्व। मुआवजा देकर राज्य को जमीन अधिग्रहण करने का अधिकार और गांव में खेती के लिए उसे बांटने का अधिकार या किसानों का उस जमीन पर सामूहिक खेती करने का अधिकार। ये सारे कार्य सरकार द्वारा , निर्धारित नियमों तथा निर्देशन के आधार पर संयन्त्र होंगे। सामूहिक खेती द्वारा प्राप्त उत्पादन हिस्सों में विभाजित कर काश्तकारों में बांटा जाएगा। यह भी जोड़ दिया गया।

(ii) जमीन ग्रामवासियों को बिना किसी जाति या पंथ के भेदभाव के दी जाएगी। यह इस प्रकार से बंटेगी कि न कोई जमींदार होगा, न कोई काश्तकार, न कोई भूमिहीन मजदूर।

(iii) राज्य का दायित्व होगा कि वह इस प्रकार की सामूहिक खेती को वित्तीय सहायता दे। खेती के लिए पानी का प्रबन्ध करे तथा पशु, खाद, बीज तथा खेती के औजार दे। राज्य फिर लगान लेगा, मुआवजा देगा और पूँजीगत निवेश के लिए धन देगा। अंबेडकर अपने इन विचारों में उस सीमा तक नहीं गए, जिस सीमा तक वामपंथी जा रहे थे।

डॉ0 अंबेडकर परम्परावादी समाजवाद एवं साम्यवाद सम्बन्धी विचारकों की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों से सहमत नहीं थे। समाजवादियों द्वारा केवल आर्थिक पक्ष को ही मुख्य कारक माना जाता है तथा वे सोचते हैं कि आर्थिक समस्या के हल होते ही सारी समस्याएँ स्वत: समाप्त हो जायेंगी। पश्चिमी देशों के अनुभव के आधार पर सम्पत्ति को शक्ति का, मूल स्रोत मानना और इसलिये सम्पत्ति के समान वितरण को मूलभूत सुधार मानकर समाज में लागू करना एक भूल है। डॉ. अंबेडकर की मान्यता थी कि धर्म, सामाजिक स्थिति और सम्पत्ति तीनों समान रूप से शक्ति और सत्ता के स्रोत हैं। इसलिये सामाजिक एवं धार्मिक सुधार किये बिना आर्थिक सुधार लागू करना कठिन है एवं इससे मानवाधिकारों की स्थापना असंभव है।

डॉ0 अंबेडकर निजी अर्थव्यवस्था चाहते थे। यहाँ उनका गाँधी जी के साथ मतभेद दिखता है। दोनों के बीच भारत के विकास मार्ग को लेकर भी विरोध सामने आया। महात्मा गांधी गांवों को केन्द्र में रखते हुए विकास मॉडल के समर्थक थे जिसमें औद्योगिकीकरण की अनदेखी करते हुए ‘राम राज्य’ की स्थापना की जा सके। जबकि डॉ0 अंबेडकर आर्थिक विकास के लिए औद्योगिकीकरण को महत्वपूर्ण मानते थे। उनकी बहस राज्य-समाजवाद को लेकर थी हालांकि बाद में उन्होंने उद्योगों में कुछ तरह के निजी स्वामित्व को भी स्वीकार किया। उनके मुताबिक गाँव आदर्श नहीं बन सकते। वह पिछड़ेपन, परंपरा, दासता के परिचायक हैं। दलितों को गाँवों को छोड़ देना चाहिए , और भारत को भी गाँव के इतिहास को दरकिनार कर आगे बढ़ना चाहिए। डॉ0 अंबेडकर के विचारों एवं आर्थिक चिन्तन की उपलब्धियों के आधार पर विकास प्रारूप का यौगिक संक्रमण चक्र कुछ इस प्रकार होगा।

कुल मिलाकर अंबेडकर का समाजवाद प्रजातंत्र का उत्पाद था। अंबेडकर ने इसे इसी प्रकार देखा था। राज्य और अल्पसंख्यक पुस्तक में उन्होंने लिखा है- प्रजातंत्र की आत्मा एक व्यक्ति व एक मूल्य में निहित है। दुर्भाग्य से प्रजातंत्र ने इस सिद्धान्त का प्रभावीकरण केवल एक व्यक्ति एक वोट के लिए किया है। इसने आर्थिक संरचना के परिवर्तन का काम उन लोगों पर, छोड़ दिया है जो इसे परिवर्तित कर सकते हैं। यह संवैधानिक अधिवक्ताओं के कारण हुआ है। उन्होंने कभी भी यह अनुभव नहीं किया कि समाज की आर्थिक संरचना के लिए उसके स्वरूप तथा उसकी शक्ल को निर्धारित करना चाहिए। यदि प्रजातंत्र में एक व्यक्ति एक मूल्य को स्वीकारना है तो कुछ कड़े कदम उठाने होंगे और आर्थिक संरचना तथा समाज की राजनीतिक संरचना को संविधान के कानून में परिभाषित करना पड़ेगा।

समाज की आर्थिक संरचना को सुझाने के लिए, अंबेडकर की विशिष्ट सिफारिश का अर्थ था राज्य नियंत्रित मूल उद्योग तथा सामूहिक खेती, लेकिन आज बहुत से लोग उपर्युक्त दोनों तथा केन्द्रीयकृत औद्योगीकरण कारखानों पर आधारित अर्थव्यवस्था में विश्वास पर सवालिया निशान लगा सकते हैं, लेकिन क्योंकि बाजार अपने आप से बराबरी की गारंटी नहीं दे सकता। राज्य को परिभाषावादी तथा सलाह देने वाली भूमिका अदा करनी चाहिए, राज्य के माध्यम से समाज के सदस्यों को बाजार का नियमन, उसकी सीमा बांधने तथा यदि आवश्यक हो तो उसको अपने ही नियंत्रण में ले लेना चाहिए। यह वह विचार है, जिसके ऊपर तीसरी दुनिया में कुछ लोग ही , अंगुली उठाएंगे। ऐसा लचीला समाजवाद- राजनीतिक प्रजातंत्र और अहिंसक जन आन्दोलनों का समन्वय अंबेडकर के आर्थिक विचारों को अभी भी प्रासंगिक बना देता है।

डॉ0 अंबेडकर का शिक्षा सम्बन्धी विचार

डॉ0 अंबेडकर के अनुसार ‘शिक्षा’ एक ऐसी वस्तु है, जिसे हरेक व्यक्ति की पहुँच के अन्दर लाया जाना चाहिए। उन्होंने शिक्षा और उच्च शिक्षा को समाज में व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्व दिया है।

अंबेडकर का मानना था कि शिक्षा से ही मनुष्य को विवेक का बोध होता है और विवेकहीन मनुष्य पशु तुल्य होता है। मानवीय मूल्यों की परिकल्पना शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। शिक्षा से सदाचार और शील का विकास होता है। शिक्षा से इंसानियत और राष्ट्रीयता का बोध होता है। शिक्षा, रोटी, कपड़ा और मकान ही नहीं, बल्कि सम्मान प्राप्त करने का साधन है। डॉ0 अंबेडकर ने यह स्पष्ट किया कि शिक्षा से ही समता, स्वतंत्रता, बन्धुता और देशप्रेम की भावना का जन्म होता है, जिसे ब्राह्मणी शिक्षा पद्धति ने पूर्ण रूप से नकार कर , अज्ञानता में वृद्धि की। इंसान को इंसान से जोड़ने और मनुष्य की सामाजिक शैक्षिक अज्ञानता में वृद्धि की। 

 अंबेडकर का मानना था कि भारत में शिक्षा सर्वजन सुलभ नहीं थी। शिक्षा एक छोटे से वर्ग तक सीमित थी। यह कभी भी बहुजनों का अधिकार और अवसर नहीं रही। वस्तुत: चातुर्वण्र्य व्यवस्था में एक ही वर्ग शिक्षा प्राप्त कर सकता था और बाकी जनता इससे वंचित रखी गई थी। उनका मानना था कि अस्पृश्यों के अधोपतन का एक कारण यह था कि उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया।

अंबेडकर ने न केवल शिक्षा विषयक विचार रखे वरन शिक्षा के प्रसार के लिए प्रयास भी किये। मिलिंद महाविद्यालय की स्थापना 1951 में अपने प्रयासों से कराई। इस अवसर पर अंबेडकर ने कहा, ‘‘हिन्दू समाज में सबसे निम्न वर्ग में आने के कारण मैं शिक्षा के महत्व को अच्छी तरह समझता हूँ। निम्न स्तर के लोगों के उत्थान की समस्या उनके आर्थिक स्तर से जोड़ी जाती है, जो भयंकर भूल है। भारत में सामाजिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए उन्हें भोजन-वस्त्र देना और उच्च वर्ग की सेवा में लगा देना ही समस्या का हल नहीं है। निम्न वर्ग की समस्या यह है कि उनके अन्दर से हीनभावना की ग्रंथी निकाल दी जाए, जिसने उनका विकास अवरूद्ध किया है, उन्हें दूसरों का गुलाम बना रखा है। उनके अन्दर अपने लिए और अपने देश के लिए अपने जीवन की महत्ता की चेतना जागृत की जाए, जिसे वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में क्रूरतापूर्वक लूट लिया गया है। उच्च शिक्षा के प्रसार के अलावा किसी अन्य चीज से इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। मेरे विचार से यह सारे सामाजिक कष्टों को दूर करने के लिए संजीवनी है।’

अंबेडकर का यह विचार था कि शिक्षा एक ऐसी विधा है जो सभी की पहुंच तक हो, स्कूली शिक्षा सबको आसानी से प्राप्त हो तथा उच्च शिक्षा भी इतनी सस्ती हो कि प्रत्येक नर-नारी उसे प्राप्त कर सके अंबेडकर हिन्दू समाज व्यवस्था को ‘अप्रगतिशील चरित्र‘ का समाज मानते थे। उनकी दृष्टि से यह बहुत ही दु:खद स्थिति थी और आज भी लगभग वही अवस्था है। इसलिए उन्होंने एक महत्वपूर्ण नारा दिया था - ‘‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।’’ ऐसा होने पर ही सभी सामान्य स्त्री-पुरुष विशेषतः दलित व उपेक्षित वर्ग, बराबरी का, दर्जा हासिल कर पाएंगे और समान अधिकारों को प्राप्त करने में सक्षम हो सकेंगे। इसी दिशा में अग्रसर होकर वे समाज का प्रगतिशील चरित्र सुदृढ़ बनाने में सफल होंगे। डॉ अंबेडकर की राय में यह सरकार का दायित्व है कि प्रारंभिक शिक्षा सभी बच्चों को सुलभ हो।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर अंबेडकर की शिक्षा सम्बंधी विचारों को निम्न प्रकार प्रदर्शित कर सकते हैं-
  1. नि:शुल्क और अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था हो।
  2. साक्षरता प्रचार के लिए अशिक्षित, प्रौढ़ शिक्षा की योजना हो।
  3. औद्योगिक शिक्षा पर विशेष बल हो।
  4. दलित, अस्पृश्य और पिछड़ी जातियों के प्रतिभासम्पन्न और बुद्धिमान युवकों को उच्च शिक्षा के लिए सरकारी कोष की व्यवस्था हो।
  5. प्रादेशिक विश्वविद्यालयों की स्थापना हो।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अंबेडकर ने अपने प्रेरणा स्रोत ज्योतिबा फुले की ही तरह शिक्षा को काफी महत्व दिया तथा इसे भारत में कई तरह की समस्याओं का समाधान माना। उनके अनुसार शिक्षा ही किसी देश को उन्नत एवं समृद्ध बनाती है।

डॉ0 भीमराव अंबेडकर का शिक्षा में योगदान

डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने देष के निर्धन और दलित समाज को प्रगति करने का जो सुनहरा सूत्र दिया था, उसकी पहली इकाई शिक्षा दी थी। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वे गतिशील समाज के लिये शिक्षा को कितना महत्व देते थे।

उनका त्रि-सूत्र था- शिक्षा, संगठन ओर संघर्ष। वे आवाहन करते थे शिक्षित करो, संगठित करो ओर संघर्ष करांे। पढ़ो और पढ़ाओं। डॉ0 भीमराव अंबेडकर ने शिक्षा को प्राथमिकता दी है।

डॉ0 भीमराव अंबेडकर ने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये अनेक कष्ट सहे, लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने ध्येय पर अडिग रहे। पाठशाला के दिनों में जाति भेद को लेकर उनको जो दिक्कतें उठानी पड़ी, वे सर्वविदित है इसलिये बाबा साहब के मन में प्रारंभ से ही यह विचार आया और उन्होंने जाति-पाति के आधार पर संविधान में इन नियमों का अंत करने का प्रयास किया तथा उन्होंने कहा कि अस्पृश्यता एक दण्डनीय अपना है सभी मनुष्य ईश्वर की देन ओर सभी को अपने कार्य पूर्णतः से करने चाहिये और ठीक प्रकार से कार्य करने के आधार पर शिक्षा पर अधिक जोर देते हुये उन्होंने कार्य किया।

2 Comments

  1. बाबा साहब के विचार किसी देवी देवता से भी ऊपर है

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