बादामी गुफाएं कहां स्थित है

बादामी गुफाएँ महाराष्ट्र प्रान्त के बीजापुर जिले के आइहोल के निकट स्थित है। दक्षिण में ‘‘वाकाटको ’ के बाद एक शक्तिशाली वंश ‘‘चालुक्य’’ का उदय हुआ। इस वंश में पुलकेषियन प्रथम, उसके पुत्र कीर्तिवर्मन, व उनके पुत्र पुलकेषियन द्वितीय बड़े प्रतापी राजा हुये। कीर्तिवर्मन के बाद उसका छोटा भाई मंगलेश चालुक्य वंश का शासक बना और उसने ‘‘वात्यापिपुरम’’ आधुनिक ‘‘बादामी’’ को अपनी राजधानी बनाया। शासक मंगलेश कला प्रेमी और कला का एक अच्छा संरक्षक था। इसी कारण उसके काल में ‘‘महाबलीपुरम’’, ‘‘काँचीपुरम’’ और ‘‘बदामी’’ की चैथी गुफा जैसे कला स्थल बनकर तैयार हुएँ। बादामी की यह चौथी गुफा वास्तु, षिल्पसज्जा और चित्रकारी की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती है।

बादामी की चौथी गुफा में मंगलेश के शासन काल के बारहवें वर्ष का एक लेख मिला है। जिसका समय 579 ई. है। इसके आधार पर बादामी गुफा का समय 579 ई. निश्चित किया जाता है। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस चौथी गुफा के मुख्य मण्डप में विष्णु की प्रतिमा स्थापित की गई थी और इस प्रतिमा की पूजा-सेवा के लिए चालुक्य शासन की ओर से अनुदान रुप में ‘‘लन्जीसवाड़ा’’ नामक ग्राम की जागीर इस मन्दिर के प्रबन्ध हेतु दी गयी थी।

बादामी में कुल चार गुफा मन्दिर है, जिसमें एक जैनधर्म से और तीन ब्राह्मण धर्म से संबंधित है। इस प्रकार ब्राह्मण धर्म के चित्रों में अब तक के ज्ञात चित्र उदाहरणों में ये प्राचीनतम भित्ति चित्र है। इन चित्रों की शैली अजन्ता चित्र शैली से साम्यता रखती है।

बादामी चित्रों की खोज का श्रेय डाॅ. स्टेला क्रेमरिश को मिलता है। कलाविद् डाॅ. शिवराममूर्ति ने भी बादामी गुफा के चित्र वैभव की भूरी-भूरी प्रशंसा की है।

बादामी गुफा के चित्र

पहला दृश्य

इस विशाल पैनल चित्र के केन्द्र में राजा-रानी सिंहसनारुढ़ संगीत व नृत्य का आनन्द ले रहे हैं। कुछ दर्शक महल के ऊपरी झरोखें से इस दृश्य को देख रहे हैं। राजा की आकृति कोमल व नीलियायुक्त हरे रंग की है। जिसका अब धड़ और हाथ ही शेष रहा है। केवल मुकुट बच गया है और संपूर्ण मुखाकृति नष्ट हो चुकी है। शरीर पर चालुक्य काल की अनेक मालाएँ और यज्ञोपवीत है। चित्र के नीचे की ओर कुछ व्यक्ति बैठे है। आस-पास कुछ स्त्रियाँ चँवर लकेर खडी़ हैं। बायीं ओर इन्द्र की एक नृत्य सभा का चित्रण है। जिसमें इन्द्र को स्तम्भ युक्त मण्डप में सिंहासन पर बैठे दर्शाया है। पृष्ठभूमि में पर्दा भी टंगा है। चित्र के मध्य में एक युगल नृत्य कर रहा है। जिसके आसपास स्त्रियां की एक मण्डली वाद्ययन्त्र बजा रही है। चित्र में इन्द्र की विलासिता को व्यक्त किया गया है, और नृत्य दल उसे आसक्त करने का प्रयत्न करता है।

दूसरा दृश्य

इस पैनल में सिंहासन पर एक राजा विश्राम की मुद्रा में अधलेटा चित्रित है। राजा का एक पैर नीचे पादपीठ पर है और दूसरा पैर सिंहासन पर रखा है। निकट में अनेक राजकुमार व राज पुरुष बैठें है। दूसरी आरै रानी भी सिंहासन पर अलसायी मदु ्रा में बैठी है, जिसका सिंहासन राजा के सिंहासन से कुछ नीचा है। पास ही एक दासी राज चिन्ह ‘दण्ड’ लिए खड़ी है।

दूसरी ओर एक दासी रानी के पैर में अलक्तक लगा रही है। चारों ओर श्रृंगार प्रसाधिकाएँ बिखरी पड़ी है। रानी गौरवर्ण की है, तथा उसके कैष बड़े ही सुन्दर ढंग से संवारे हुए है।

सम्भवतः यह दृश्य मंगलेश के बड़े भाई कीर्तिवर्मन के परिवार का हो, कारण कि मंगलेश अपने बड़े भाई कीर्तिवर्मन का बड़ा ही सम्मान करता था। शिलाभिलेख में मंगलेश इस गुफा का समस्त वैभव अपने अग्रज को ही समर्पित किया है। गुफा के निकट ही एक वाराह प्रतिमा है।

गुफा के निकट ही वाराह की प्रतिमा स्थापित करना, सम्राट द्वारा अपने ईष्ट के समीप स्वयं को प्रतिस्थापित करने वाली बादामी की यह परम्परा आगे चलकर, ‘‘महाबलीपुरम’’ में वाराह के निकट पल्लव राजा नृसिहं वर्मन पिता महन्ेदव्रमर्न और पितामह सिंहविष्णु की सपत्नीक आकृतियाँ उत्कीर्ण करने में यही परम्परा विकसित हुई।

बादामी गुफा के अन्य पैनलों में कुछ खण्डित चित्र बचे हैं, जिनमें ‘‘आकाषगामी विद्याधर’’ चित्र की पृष्ठभमि में उड़ते हुए बादल, उडत़ े हुए विद्याधर के युगल चित्र, आदि भावपणर््ू ा मदु ्रा में अंकित हुए हैं। एक स्थान पर स्तम्भ का सहारा लिए एक ‘‘विचारमग्न विरहणी’’ की आकृति भी अंकित है। जिसकी आँखों और शारीरिक मुद्रा से गहरी वेदना व्यक्त होती है। यह चित्र दर्शक में भावोत्पन्न करने में विशेष महत्व रखता है।

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