जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत

जीन पियाजे (Jean Piaget) स्विट्जरलैंड निवासी एक मनोवैज्ञानिक थे। ‘‘बालकों का वृद्धि और विकास किस विशेष तरह से होता है’’ इस विषय के अध्ययन में उनकी विशेष रुचि थी जिसके लिए उन्होंने स्वयं के बच्चों को अपनी खोज का आधार बनाया। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गये, उनकी मानसिक विकास सम्बन्धी क्रियाओं का वे बड़ी बारीकी से अध्ययन करते रहे। इस अध्ययन के परिणामस्वरूप उन्होंने जिन विचारों का प्रतिपादन किया उन्हें पियाजे के मानसिक या संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। जीन पियाजे ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन 1952 में किया।

पियाजे की संज्ञानात्मक विकास की सैद्धांतिक अवधारणा

पियाजे की संज्ञानात्मक विकास की सैद्धांतिक अवधारणा निम्न लिखित है -
  1. संज्ञानात्मक संरचना।
  2. संज्ञानात्मक कार्यप्रणाली

1. संज्ञानात्मक संरचना

अन्य प्रजातियों से अलग मानव शिशु कुछ जन्मजात प्रवृत्तियों तथा सहज प्रवृत्तियों को लेकर पैदा होता है। इस तरह शिशु के पास संज्ञानात्मक संरचना के रूप में चार प्रकार की संज्ञानात्मक योग्यतायें पायी जाती हैं। जिनमें उसे चूसने, देखने, पकड़ने जैसे गायक क्रियाओं के संपादन में मदद मिलती है। पियाजे ने इन क्षमताओं को स्कीमाज का नाम दिया और कहा कि ये चारों हमारे संज्ञानात्मक विकास के मूलाधार हैं।

पियाजे के अनुसार इस तरह शिशु अपने संज्ञानात्मक विकास की यात्रा विभिन्न प्रकार के स्कीमाज से संरचित संज्ञानात्मक संरचना से शुरू करता है।

2. संज्ञानात्मक कार्यप्रणाली

इस प्रणाली की भूमिका समायोजन में अत्यधिक होती है। इस तरह की समायोजन सम्बन्धी कार्यप्रणाली को ठीक तरह से आगे बढ़ाने मेें पियाजे के अनुसार दो मुख्य प्रक्रियाओं आत्मसातीकरण तथा समायोजीकरण की प्रमुख भूमिका होती है।

‘‘आत्मसातीकरण’’ प्रक्रिया में बालक से यह अपेक्षा करती है कि उसके पास पूर्व संज्ञानात्मक संरचना के रूप में जो कुछ भी है वह उसी से किसी नवीन परिस्थिति का सामना करे।

समायोजीकरण में बालक नई परिस्थिति से निपटने के लिए नये ढंग से सोचने और व्यवहार करने हेतु अपने में उचित बदलाव लाने की कोषिष करता है।

अतः जहाँ आत्मसातीकरण प्रक्रिया में बालक अपने पूर्वज्ञान तथा अनुभवों के आधार पर ही अपनी अनुक्रिया व्यक्त कर प्रस्तुत परिस्थिति से निपट लेता है। वहीं समायोजीकरण में जब उसका काम पूर्व अनुभवों से नहीं चलता उसे अपनी वर्तमान संज्ञानात्मक संरचना में अनुकूल परिवर्तन लाकर सोचने तथा व्यवहार करने के नये तरीके अपनाने पड़ते है उदाहरण के लिए यदि कोई बालक प्रत्येक खिलौने को पकड़कर मुह में रख लेता है, और इसी प्रकार वह आत्मसातीकरण कर लेता है, तो पहले वह अपने पूर्व अनुभव का प्रयोग करता है, और मुख में रखने की कोषिष करता है पर सफल नहीं होता है तो वह व्यवहार में परिवर्तन करके उस खिलौने को धकेलकर खेलना सीख लेता है जिससे वह उसके साथ समायोजन कर लेता है।

जीन पियाजे की संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की अवस्थाएं

जीन पियाजे के सिद्धांत के अनुसार संज्ञानात्मक विकास चार सार्वभौमिक अवस्थाओं के क्रम में होता है। ये अवस्थाऐं हमेशा एक ही क्रम में होती हैं, तथा प्रत्येक अवस्था पूर्व अवस्था में सीखने पर आधारित होती है। ये अवस्थायें हैं -
  1. संवेदीगामक अवस्था (जन्म से 2 वर्ष तक) 
  2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (2-7 वर्ष तक)
  3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (7-12)
  4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था किषोरावस्था से (19/20 तक)

1. संवेदीगामक अवस्था-

पियाजे के अनुसार यह अवस्था जन्म से लेकर 2 वर्ष की आयु तक मानी गयी है। इस अवस्था में बालक को यह बोध होने लगता है कि पदार्थों का अस्तित्व बना रहता है। उनको यह ज्ञान हो जाता है कि वस्तुऐं दिखाई दें अथवा न दिखाई दें उनका अस्तित्व हमेशा रहता है। सामान्यतः 8 या 9 माह की आयु तक वस्तुतः स्थायित्व के लक्षण दिखने लगते हैं। इससे पूर्व जिस वस्तु को बालक अपनी इन्दियों से अनुभूत कर सकता है, उन्ही का अस्तित्व है ऐसा समझता है। जन्म से लेकर 2 वर्ष तक चलने वाली इस प्रथम अवस्था की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
  1. इस अवस्था में बच्चे बुद्धि का प्रदर्शन गत्यात्मक क्रियाओं द्वारा करते हैं, संकेतों के द्वारा नहीं करते।
  2. संसार विषयक ज्ञान सीमित होता है क्योंकि यह शारीरिक अन्तक्र्रियाओं पर आधारित होता है।
  3. बच्चे किसी पदार्थ सम्बन्धित स्थायित्व को 7 माह की आयु तक अर्जित करते हैं।
  4. इस अवस्था के अन्त तक कुछ संकेतात्मक (भाषा) योग्यता विकसित हो जाती हैं।
  5. इस अवस्था में बालक अपनी इन्दियों से प्राथमिक अनुभव प्राप्त करता है।
  6. वस्तुस्थायित्व संज्ञानात्मक विकास का महत्वपूर्ण स्तर है।

2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था-

इस अवस्था का समय 2 वर्ष से लेकर सात वर्ष के मध्य होता है इस अवस्था में बालकों का विकास ठीक प्रकार से प्रारम्भ हो जाता है। अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा बनने लगती है। अब बच्चा गामक क्रियाओं से अभिव्यक्ति कम करने लगता है। वस्तु के विषय में सोचने और विचारने के लिए भाषा और अन्य तरीकों का प्रयोग होने लगता है। इस अवस्था की कुछ विशेषताएं हैं-
  1. इस अवस्था में स्मृति और कल्पना विकसित हो जाती है।
  2. इस अवस्था में चिंतन अतार्किक तरीके से होता है।
  3. इस अवस्था में भाषा का प्रयोग परिपक्व हो जाता है।
  4. इस अवस्था में बालक स्वयं केन्द्रित हो जाता है, स्वयं को अपने कार्यों तक ही सीमित रखता है।
  5. बालक अपने परिवेष की वस्तुओं को पहचानने और उनमें भेद करना प्रारम्भ कर देते हैं।
  6. इस अवस्था में सम्प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। वे वस्तुओं को समूहों में विभाजित कर उनके नाम देना प्रारम्भ कर देते हैं।
  7. इस अवस्था में बच्चों में दो महत्वपूर्ण शक्तियों का अभाव पाया जाता है।

3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था-

इस अवस्था की अवधि पियाजे के अनुसार 7 वर्ष से 11 वर्ष के मध्य है। इस अवस्था में वस्तुओं को पहचानने, विभेद करने, वर्गीकृत करने तथा उपयुक्त नाम द्वारा समझने की क्षमता विकसित हो जाती है। इस अवस्था की कुछ विशेषताएं हैं-
  1. इस अवस्था में संक्रियात्मक चिंतन का विकास हो जाता है।
  2. आत्मकेन्द्रित विचारों में न्यूनता आने लगती है।
  3. इस अवस्था में बच्चों में मूर्त समस्याओं के समाधान ढूँढने की क्षमता विकसित हो जाती है किन्तु अमूर्त समस्याओं के विषय में वे नहीं सोंच पाते हैं।
  4. इस अवस्था में भी चिन्तन में क्रमबद्धता की कमी रहती है।
  5. इसी अवस्था में बच्चे गणित पढ़ने और गिनती करने में रुची लेने लगते हैं।
  6. ‘‘दो वस्तुओं में कौन-सी वस्तु छोटी है कौन बड़ी’’ इस प्रकार के सम्बन्ध बच्चे समझने लगते हैं।
  7. इस अवस्था में बच्चे यथार्थवादी और अधिक व्यावहारिक होते हैं।

4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था-

यह संज्ञानात्मक विकास की अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में सभी सम्प्रत्ययों का समुचित विकास हो जाता है यह अवस्था 11/12 वर्ष से प्रारम्भ होकर वयस्क अवस्था के प्रारम्भ तक मानी जाती है। इस अवस्था की कुछ विशेषताएं हैं-
  1. इस अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते बच्चों का मस्तिष्क परिपक्व हो जाता है चिंतन में क्रमबद्धता आने लगती है।
  2. इस अवस्था में बच्चे प्रतीकात्मक षब्दों का अर्थ भी समझने लगते हैं।
  3. किषोरों के विचार संगठित और परिपक्व हो जाते हैं।
  4. विचार करने, तर्क करने, कल्पना करने, निरीक्षण, परीक्षण, प्रयोग आदि द्वारा उचित निष्कर्ष निकालने की क्षमता का विकास हो जाता है।
  5. संश्लेषण, विश्लेषण, नियमीकरण तथा सूक्ष्म सिद्धांतों की स्थापना सम्बन्धी उच्च मानसिक क्षमताओं का समुचित विकास हो जाता है।
  6. प्रयास एवं त्रुटि विधि के स्थान पर प्रयोग द्वारा सीखने की आदत विकसित हो जाती है।
  7. बच्चा वस्तुओं की भाँति विचारों के बारे में चिन्तन करना सीख लेता है।
  8. इस अवस्था में मुख्य लक्ष्य तार्किक चिन्तन की योग्यता अर्जित करना होता है।
  9. इस अवस्था में बच्चों के अनुभवों में वृद्धि हो जाती है। जो उनकी समस्या समाधान की क्षमता को बढ़ाते हैं।
  10. इस अवस्था में बच्चे नूतन परिकल्पनायें करते हैं तथा उसको सत्यापित करने का प्रयोग करते हैं।
  11. अन्वेषणषीलता, सृजनात्मकता, मौलिकता, रचनात्मकता आदि सृजन में सहायक बौद्धिक क्षमताओं का विकास हो जाता है।
  12. इस अवस्था में चिंतन मूर्त नहीं रहता अमूर्त हो जाता है।
इस प्रकार बौद्धिक विकास/संज्ञानात्मक विकास की इस अन्तिम अवस्था को पार करते-करते किशोरों की मानसिक क्षमता अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाती है। यदि कुछ कमी रह भी जाती है तो आयु वृद्धि के साथ अनुभवों के द्वारा व्यक्ति पूरा करता रहता है।

जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की विशेषताएं

जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
  1. पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास चार भिन्न और सार्वभौमिक अवस्थाओं की श्रृंखला या क्रम में होता है। जिनमें विचारों का अमूर्त स्तर बढता जाता है। ये अवस्थायें सदैव एक ही क्रम में होती हैं। तथा प्रत्येक अवस्था पिछली अवस्था में सीखी वस्तुओं पर आधारित होती है।
  2. संज्ञानात्मक विकास में आत्मसातीकरण और संयोजन में समन्वय बल दिया जाता है।
  3. पियाजे ने बालक के ज्ञान को ‘‘स्कीमा’’ से निर्मित माना हैं। स्कीमा ज्ञान की वह मूल ईकाई है जिसका प्रयोग पूर्व अनुभवों को संगठित करने के लिए किया जाता है। जो नये ज्ञान के लिए आधार का काम करती है।
  4. संज्ञानात्मक विकास में मानसिक कल्पना, भाषा, चिन्तन, स्मृति-विकास, तर्कना, समस्या समाधान आदि समाहित होते हैं।
  5. यह सिद्धांत बताता है कि सीखने हेतु पर्यावरण और क्रिया की आवश्यकता होती है।
  6. इस सिद्धांत के अनुसार बालकों में चिंतन एवं खोज करने की शक्ति उनकी जैविक परिपक्वता अनुभव एवं इन दोनों की अन्तःक्रिया पर निर्भर है।
  7. पियाजे के अनुसार सीखना क्रमिक एवं आरोही प्रक्रिया होती है।

 पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के दोष

जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत के दोष निम्नलिखित हैं-
  1. इस सिद्धांत में केवल ज्ञानात्मक सम्प्रत्ययों की ही व्याख्या की गई है। यहाँ कुछ कमी सी प्रतीत होती है।
  2. यह सिद्धांत बताता है कि मूर्त संक्रियात्मक अवस्था से पहले तार्किक और क्रमबद्ध चिन्तन नहीं कर सकता, जबकि षोधों से यह प्रदर्षित है कि वह पहले भी चिन्तन कर सकता है।
  3. इस सिद्धांत में संज्ञानात्मक विकास का एक विषेष क्रम बताया गया है जबकि यह तथ्य भी आलोचना से नही बच सकता है।
  4. यह सिद्धांत वस्तुनिष्ठ कम व्यक्तिनिष्ठ अधिक है।
  5. इस सिद्धांत में विकास के अन्य पक्षों पर ध्यान नहीं दिया गया है।
  6. पियाजे ने कहा कि संज्ञानात्मक विकास व्यक्ति की जैविक परिपक्वता से सम्बन्धित है।

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