कहानी शिक्षण की उपयोगिता, कहानी पढ़ाते समय शिक्षक को किन तत्वों का ध्यान रखना चाहिए ?

कहानी कथन से संबंधित है, अतः मानव ने जब से कुछ कहना प्रारम्भ किया होगा तभी से कहानी प्रारम्भ हो गयी होगी। यह प्राचीन विधा हैं। मानव-जीवन के किसी पहलू, घटना, भावना आदि को दूसरों के समझ प्रस्तुत करना ही कहानी को जन्म दिया होगा। पंचतंत्र, हितोपदेष, बैताल पचीसी सिंहासन बत्रीसी आदि जातक कथायेंप्रचलित हैं। कहानी जीवन के सुंदर व मुख्य क्षणों का चित्र प्रस्तुत करती है। लघुता और प्रभाव का चित्र प्रस्तुत करती है। लघुतर और प्रभाव शीलता कहानी-कला की विशेषताएं हैं।

बाबू गुलाबराय के अनुसार -‘‘छोटी कहानी एक स्वतः पूर्ण रचना है जिसमें प्रभावों वाली व्यक्ति केन्द्रित घटना या घटनाओं का आवश्यक परंतु कुछ-कुछ अप्रत्याशित ढंग से उत्थान-पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला कौतूहलपूर्ण वर्णन हो।’’

कहानी के तत्व

कहानी के तत्व - छः तत्व माने जाते हैं -
  1. कथावस्तु
  2. चरित्र-चित्रण
  3. शैली
  4. कथोपकथन
  5. देशकाल
  6. उद्देश्य।

कहानी शिक्षण की उपयोगिता

कहानी शिक्षण की उपयोगिता के निम्न बिन्दु हैं:-

1) कहानी शिक्षण से सामान्य ज्ञान की वृद्धि होती है । छोटी-छोटी कहानियों से बालक संसार के अनेक जीव-जन्तुओं के नाम उनके गुण व अवगुण से परिचित हो जाता है। कुत्ता स्वामिभक्त है, लोमड़ी चालक जानवर है, हिरण तेज दौड़ता है इन सबका ज्ञान उसे अनायास ही हो जाता है ।

2) कहानी द्वारा तर्क, विवेक संकल्प एवं कल्पना-शक्ति की अभिवृद्धि होती है । बालक केवल चित्रों और संकेतों के आधार पर घटना-सूत्रों को समझने तथा नई कहानी रचने लगते हैं।

3) कहानी से बालक को क्रमिक रूप से बोलते जाने तथा तार्किक रूप से विचार करने की शिक्षा मिलती है । झिझक और संकोच की भावना दूर होती है, बोलने में स्वाभाविकता आती है।

4) उपयुक्त शब्दों और मुहावरों का ज्ञान अनायास होता जाता है । वक्ता और श्रोता के बीच घनिष्ठता स्थापित करने की कहानी ही सर्वोत्तम साधन है । कहानी द्वारा बालक उससे घुल-मिल जाता है । कक्षा का वातावरण घर जैसा बन जाता है ।

5) स्मरण शक्ति का विकास होता है बालक जटिल से जटिल प्रसंग को भी सुगमता से ग्रहण कर लेता है । उदाहरणार्थ - बालक को यदि कश्मीर के सौन्दर्य वर्णन पर लेख लिखने को दिया जाए तो कुछ दुष्कर रहेगा । यदि उसे कश्मीरी बालक की कहानी सुना दी जाए तो वह वहाँ के विषय में यथेष्ट ज्ञान प्राप्त कर लेगा ।

6) कहानी मनोरंजन का साधन है । अपने सजह सारल्य को लिए हुए वह अज्ञात रूप से विद्यार्थियों के मनोरंजन में पूर्ण सहयोग देती है ।

7) आज जब इस वैज्ञानिक युग में शीघ्रता का घोष है, तो हम कहानी ही पढ़ते हैं, उपन्यास नहीं क्योंकि उसमें समय लगता है ।

8) कहानी कल्पना तथा संवेगों में संतुलन करना सिखाती है ।

9) कहानी साहित्य की अभिवृद्धि की अन्यतम साधन है ।दौड़ता है इन सबका ज्ञान उसे अनायास ही हो जाता है ।

2) कहानी द्वारा तर्क, विवके संकल्प एवं कल्पना-शक्ति की अभिवृद्धि होती है । बालक केवल चित्रों और संकेतों के आधार पर घटना-सूत्रों को समझने तथा नई कहानी रचने लगते हैं।

3) कहानी से बालक को क्रमिक रूप से बोलते जाने तथा तार्किक रूप से विचार करने की शिक्षा मिलती है । झिझक और संकोच की भावना दूर होती है, बोलने में स्वाभाविकता आती है।

4) उपयुक्त शब्दों और मुहावरों का ज्ञान अनायास होता जाता है । वक्ता और श्रोता के बीच घनिष्ठता स्थापित करने की कहानी ही सर्वोत्तम साधन है । कहानी द्वारा बालक उससे घुल-मिल जाता है । कक्षा का वातावरण घर जैसा बन जाता है ।

5) स्मरण शक्ति का विकास होता है बालक जटिल से जटिल प्रसंग को भी सुगमता से ग्रहण कर लेता है । उदाहरणार्थ - बालक को यदि कष्मीर के सौन्दर्य वर्णन पर लेख लिखने को दिया जाए तो कुछ दुष्कर रहेगा । यदि उसे कष्मीरी बालक की कहानी सुना दी जाए तो वह वहाँ के विषय में यथेष्ट ज्ञान प्राप्त कर लेगा ।

6) कहानी मनोरंजन का साधन है । अपने सजह सारल्य को लिए हुए वह अज्ञात रूप से विद्यार्थियों के मनोरंजन में पूर्ण सहयोग देती है ।

7) आज जब इस वैज्ञानिक युग में शीघ्रता का घोष है, तो हम कहानी ही पढ़ते हैं, उपन्यास नहीं क्योंकि उसमें समय लगता है ।

8) कहानी कल्पना तथा संवेगों में संतुलन करना सिखाती है ।

9) कहानी साहित्य की अभिवृद्धि की अन्यतम साधन है ।

कहानी पढ़ाते समय शिक्षक को किन तत्वों का ध्यान रखना चाहिए ?

1) बच्चों को कहानी से अतिशय प्रेम होता है, अतः वे उसमें अत्यधिक आन्नद लेते हैं ।

2) कहानी पढ़ाकर बच्चों की श्रद्धा का पात्र बना जा सकता है । कहानी आदर तथा सम्मान प्रदान करने का अन्यतम साधन है ।

3) कहानी का चुनाव यदि उपयुक्त है और शिक्षक का व्यक्तित्व उसमें पिरोया जा चुका है तथा कक्षा में उसे विधिवत् पढ़ाया जा सका है तो शिक्षा की दृष्टि से एक महत् कार्य सम्पन्न हुआ समझना चाहिए ।

4) सम्पूर्ण कहानी कही जानी चाहिए । पढ़ने में वह रसास्वादन नहीं मिलता जो सुनने में मिलता है । विचारों की क्रमबद्धता, नयों का कर्षण कथानक की सम्बद्धता शब्दों का सारल्य तथा आवश्यक संकेतों पर ध्यान देने से ही कहानी के साथ न्याय किया जा सकेगा । सुनी हुई कहानी को बच्चे दुबारा सुनना चाहते हैं । 6 वर्षों तक शब्दों तथा वाक्यांशों को दुहराना उन्हें अच्छा लगता है । सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि शिक्षक को कहानी के अनन्य साधन होने में पूर्ण विश्वास होना चाहिए तभी उसका उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा । विश्वास-विश्वास को जन्म देता है शिक्षक का अतीव विश्वास श्रोता भी ग्रहण कर सकेगा ।

5) कहानी का चुनाव कर लेने पर उसमें आवश्यक परिवर्तन करना अनिवार्य है, परन्तु परिवर्तन के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कथानक का क्रम न भग होने पाए। कहानी की तारतम्यता बनाए रखने के लिए अथक परिश्रम किया जाना चाहिए ।

6) कथानक और दृश्यों में सरलता होना चाहिए । कथानक की जटिलता से कहानी कहानी न रहकर, गणित बन जाती है ।

7) कार्यों तथा उद्देश्यों में भी सरलता होनी चाहिए । कहानी सुनाने का दृष्टिकोण केवल धार्मिक शिक्षा देना ही न बन जाए अपितु इसका रूप प्रच्छन्न रूप से समाहित होना चाहिए ।

8) कहानी सुनाने के पूर्व शिक्षक को उसका पूर्णतः अध्ययन कर लेना चाहिए, क्योंकि पढ़कर सुनाने की अपेक्षा मौखिक रूप से सुनाने पर कहानी अधिक प्रभावशाली बन सकेगा । कहानी के अध्ययन के समय शिक्षक को सावधान रहना चाहिए । सावधान न रहने से वह कई आवश्यकीय तथ्य छोड़ भी सकता है, जिनका कहानी में विशेष स्थान होगा । अतः वह कहने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है कि शिक्षक को कहानी का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए ।

9) कहानी केवल स्वयं पढ़ लेने से ही कार्य समाप्त नहीं हो जाता, अपितु शिक्षक को सुनाते समय भी उसमें रुचि लेनी चाहिए । यदि वह स्वयं कहानी में रुचि नहीं लेगा तो वह अपने विद्यार्थियों में रुचि का संचार कर सकने में नितान्त असमर्थ रहेगा ।

10) शिक्षक को कहानी का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए । उसे मंच व्यवस्था के साथ ही सामाजिक तथा राजनीतिक वातावरण का भी ध्यान रखना चाहिए जिस मूर्त भावों का काल्पनिक चित्र शिक्षक ने निर्मित कर लिया है, उन्हें उपयुक्त भाषा के द्वारा विद्यार्थियों के समक्ष चित्रित करना है । इसमें उन्हें कल्पना का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है । यहाँ पर पहुंचकर विद्यार्थी स्वयं तथा पात्र का विभेद भूल जाता हे । इसी भावना-साम्य से विभोरता तथा तल्लीनता आ जाती है। स्वाभाविक नाटकीयता सदैव अपेक्षित होगी । छोटी कक्षाओं में सहायक-सामग्री का अतिशय प्रयोग किया जाना चाहिए । हास्य भी कहानी का आवश्यक अंग होना चाहिए ।

संदर्भ -

1. बी.एल. शर्मा- हिन्दी शिक्षण - आर. लाल बुक डिपो- 2009
2. डाॅ. शमशकल पाण्डेय- हिन्दी शिक्षण- अग्रवाल पब्लिकेशन- 2012
3. डाॅ. एस.के. त्यागी - हिन्दी भाषा शिक्षण- अग्रवाल पब्लिकेशन आगरा-2-2009

Post a Comment

Previous Post Next Post