कीन्स ने अपने रोजगार सिद्धांत को अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘The General Theory of Employment, Interest and Money (1936) में प्रतिपादित किया है। कीन्स के अनुसार पूर्ण रोजगार की स्थिति एक पूंजीवादी विकसित अर्थव्यवस्था की सामान्य नहीं स्थिति है। वास्तव में, प्रत्येक अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी पाई जाती है।
कीन्स के अनुसार बेरोजगारी का मुख्य कारण प्रभावपूर्ण मांग में होने वाली कमी है। प्रभावपूर्ण मांग कुल मांग का वह स्तर है जिस पर वह कुल पूर्ति के बराबर होती है। इस प्रकार प्रभावपूर्ण मांग को बढ़ाकर बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है। कीन्स का यह विचार था कि बेरोजगारी को दूर करके पूर्ण रोजगार की स्थिति को प्राप्त करने के लिये सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक है।
डिल्लर्ड के अनुसार, “कीन्स के रोजगार सिद्धांत का तार्किक आरम्भ बिन्दु प्रभावपूर्ण मांग का सिद्धांत है।”
कीन्स के रोजगार सिद्धांत में प्रभावपूर्ण मांग महत्वपूर्ण तत्व है। प्रभावपूर्ण मांग और उसके तत्वों को निम्न प्रकार से स्पश्ट किया जा सकता है:
1. प्रभावपूर्ण मांग: प्रभावपूर्ण मांग कुल मांग और कुल पूर्ति पर निर्भर करती है अर्थात् कुल मांग और कुल पूर्ति के सन्तुलन को दिखाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि कुल मांग के केवल उस स्तर को प्रभावपूर्ण मांग कहा जाएगा जिस पर वह कुल पूर्ति के बराबर हो।
2. कुल पूर्ति: कुल पूर्तिसे अभिप्राय रोजगार के विभिन्न स्तरों पर मिलने वाली कुल पूर्ति कीमत से है जो उत्पादकों को प्राप्त होती है ताकि उत्पादन के विभिन्न स्तर को कायम रखा जा सके। अल्पकाल में कुल पूर्ति स्थिर रहती है।
3. कुल मांग: कुल मांग से अभिप्राय उस तालिका से है जो रोजगार के विभिन्न स्तरों पर मिलने वाली उस कुल मांग कीमत को दिखाती है जिसकी सम्भावना है। कीन्स के अनुसार कुल मांग को दो भागों में बांट सकते है: उपभोग और निवेश
कीन्स के अनुसार बेरोजगारी का मुख्य कारण प्रभावपूर्ण मांग में होने वाली कमी है। प्रभावपूर्ण मांग कुल मांग का वह स्तर है जिस पर वह कुल पूर्ति के बराबर होती है। इस प्रकार प्रभावपूर्ण मांग को बढ़ाकर बेरोजगारी को दूर किया जा सकता है। कीन्स का यह विचार था कि बेरोजगारी को दूर करके पूर्ण रोजगार की स्थिति को प्राप्त करने के लिये सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक है।
कीन्स के रोजगार सिद्धांत की मान्यताएं
कीन्स के रोजगार सिद्धांत निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है:- कीन्स का रोजगार सिद्धांत अल्पकाल में लागू होता है।
- पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक बन्द अर्थव्यवस्था है जिसमें रोजगार तथा आय के स्तर पर विदेशी व्यापार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
- वस्तु की कीमतें और उत्पादन के साधनों की कीमतें स्थिर रहती है।
- श्रमिकों में मुद्रा भ्रान्ति है। इसका अभिप्राय यह है कि श्रमिक यह मानते है कि नकद मजदूरी जिस अनुपात में बढ़ेगी वास्तविक मजदूरी भी उसी अनुपात में बढ़ जाएगी।
- मुद्रा केवल विनियम के माध्यम का कार्य ही नहीं करती बल्कि इसके द्वारा मूल्य का संचय भी किया जाता है।
- सन्तुलन की स्थिति अपूर्ण रोजगार की अवस्था में भी सम्भव है।
- बचत आय का और निवेष ब्याज की दर का फलन है।
- ब्याज मौद्रिक तत्वों पर निर्भर करता है।
कीन्स के रोजगार सिद्धांत की व्याख्या
कीन्स के रोजगार सिद्धांत के अनुसार अल्पकाल में राष्ट्रीय आय या उत्पादन का स्तर पूर्ण रोजगार के स्तर से कम या उसके बराबर निर्धारित हो सकता है। इसका कारण यह है कि अर्थव्यवस्था में कोई ऐसी स्वचालित व्यवस्था नहीं होती जो सदैव ही पूर्ण रोजगार स्तर को कायम रख सके। कीन्स के अनुसार, अल्पकाल में राष्ट्रीय आय के अधिक होने का अर्थ है कि रोजगार की अधिक मात्रा और राष्ट्रीय आय के कम होने का अर्थ है रोजगार की कम मात्रा। इस प्रकार कीन्स का सिद्धांत रोजगार निर्धारण का सिद्धांत भी है और राष्ट्रीय आय निर्धारण का सिद्धांत भी है।डिल्लर्ड के अनुसार, “कीन्स के रोजगार सिद्धांत का तार्किक आरम्भ बिन्दु प्रभावपूर्ण मांग का सिद्धांत है।”
कीन्स के रोजगार सिद्धांत में प्रभावपूर्ण मांग महत्वपूर्ण तत्व है। प्रभावपूर्ण मांग और उसके तत्वों को निम्न प्रकार से स्पश्ट किया जा सकता है:
1. प्रभावपूर्ण मांग: प्रभावपूर्ण मांग कुल मांग और कुल पूर्ति पर निर्भर करती है अर्थात् कुल मांग और कुल पूर्ति के सन्तुलन को दिखाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि कुल मांग के केवल उस स्तर को प्रभावपूर्ण मांग कहा जाएगा जिस पर वह कुल पूर्ति के बराबर हो।
2. कुल पूर्ति: कुल पूर्तिसे अभिप्राय रोजगार के विभिन्न स्तरों पर मिलने वाली कुल पूर्ति कीमत से है जो उत्पादकों को प्राप्त होती है ताकि उत्पादन के विभिन्न स्तर को कायम रखा जा सके। अल्पकाल में कुल पूर्ति स्थिर रहती है।
3. कुल मांग: कुल मांग से अभिप्राय उस तालिका से है जो रोजगार के विभिन्न स्तरों पर मिलने वाली उस कुल मांग कीमत को दिखाती है जिसकी सम्भावना है। कीन्स के अनुसार कुल मांग को दो भागों में बांट सकते है: उपभोग और निवेश
- उपभोग: उपभोग वस्तुओं पर जो व्यय किया जाता है उसे उपभोग व्यय कहा जाता है। उपभोग व्यय मुख्य रुप से दो तत्वों अर्थात् उपभोग प्रवृत्ति और राष्ट्रीय आय पर निर्भर करता है।
- निवेश: पूंजीगत वस्तुओं जैसे मशीनों आदि पर जो व्यय किया जाता है उसे निवेश कहते है। अर्थात् निवेश से अभिप्राय उन खर्चो से है जिनके द्वारा पूंजी में वृद्धि होती है। निवेश मुख्य रुप से दो तत्वों अर्थात् ब्याज की दर और पूंजी की सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करता है।
कीन्स के रोजगार सिद्धांत की आलोचनाएं
कीन्स के रोजगार सिद्धांत की मुख्य आलोचनाएं इस प्रकार से है:- कीन्स के अनुसार एक अर्थव्यवस्था में सन्तुलन की स्थिति पूर्ण रोजगार से कम स्तर पर भी हो सकती है। अनेक अर्थशास्त्रियों ने कीन्स की इस धारणा की आलोचना की है।
- कीन्स का रोजगार सिद्धांत एक अल्पकालीन विश्लेषण है। यह दीर्घकाल से सम्बन्ध नहीं रखता है।
- कीन्स का रोजगार सिद्धांत पूर्ण प्रतियोगिता ही अवास्तविक धारणा पर आधारित है
- कीन्स का रोजगार सिद्धांत एक सामान्य सिद्धांत नहीं है क्योंकि यह सिद्धांत प्रत्येक प्रकार की समस्या का न तो समाधान करता है और न ही प्रत्येक अर्थव्यवस्था में लागू होता है।
- कीन्स का रोजगार सिद्धांत बन्द अर्थव्यवस्था की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है।
- कीन्स ने ब्याज की दर को केवल एक मौद्रिक घटना माना है। लेकिन हेन्सन, हिक्स आदि के अनुसार ब्याज की दर पर वास्तविक तथा मौद्रिक दोनों प्रकार के तत्वों का प्रभाव पड़ता है।
- कीन्स के रोजगार सिद्धांत में त्वरक धारणा का अभाव है। इस कारण से कीन्स का सिद्धांत पूर्ण नहीं माना जा सकता।
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