लार्ड कार्नवालिस के न्यायिक सुधार, कानूनों में सुधार, राजस्व सुधार

फरवरी, 1785 ई. में वारेन हेस्टिंग्स त्याग-पत्र देकर इंग्लैण्ड वापस चला गया। उसके स्थान पर काउंसिल का एक वरिष्ठ सदस्य जाॅन मैकफर्सन गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। सितम्बर, 1786 ई. में कार्नवालिस के आने तक वह इस पद पर रहा। वह 1786 ई. से 1793 ई. के बीच एवं 1805 ई. में भारत का गवर्नर जनरल रहा। कार्नवालिस भारत में अपने सुधारो के लिए जाना जाता है।

लार्ड कार्नवालिस के न्यायिक सुधार

कार्नवालिस का उद्देश्य भारत में एक ईमानदार और कुशल न्याय व्यवस्था स्थापित करना था। कंपनी संचालकों ने उसे मितव्ययिता तथा सरलता के आदेश देकर भेजा था। उसने न्याय को जन साधारण तक पहुँचाने का प्रयत्न किया। पी.ई. राबट्र्स का कथन है कि ‘‘दीवाने और फौजदारी न्यायलयों के संगठन में कार्नवालिस ने हेस्टिंग द्वारा आरंभ किये गये कार्य की पूर्ति की।’’ कार्नवालिस ने सन् 1787-1790 ई. और 1793ई. में न्याय विभाग में सुधार किये ये सुधार पहले बंगाल, बिहार, उड़ीसा और बाद में मद्रास तथा बम्बई ये लागू किये गये। इसके सुधारों का मुख्य उद्देश्य मितव्ययिता था। जिलों की संख्या 36 से घटाकर 23 कर दी गयी। प्रत्येक जिले में ईस्ट इंडिया कंपनी का शपथयुक्त अधिकारी कलेक्टर बनाया गया जिसका कार्य लगान एकत्र करना तथा दण्डाधिकारी व न्यायधीश के रूप में कार्य करना था। तीनों कार्य उसे अलग-अलग रूप में से करने थे। माल अदालत की अपीले बोर्ड आफ रेक्ेन्यू कलकत्ता ले जायी जा सकती थी। अंतिम अपील गवर्नर जनरल इन कौन्सिल के पास ले जायी जा सकती थी।

दीवानी मुकदमों में 1000 रूपये से अधिक के मामले सदर दीवानी अदालत में लें जाये सकते थे, जिसका निर्णय अंतिम होता था। 5 हजार रूपये से अधिक के मामले की अपील राजा के पास तक ले जायी जा सकती थी। रजिस्ट्रार का पद बनाया गया। कलेक्टर मांफ्युसिल दीवानी अदालत के न्यायाधीश की हैसियत से 200 रूपये तक के मालमे रजिस्ट्रार को भेज सकते थे। कलेक्टर द्वारा अभिप्रमाणित करने पर रजिस्ट्रार का फैसला वैध हो जाता था। 1787 की न्याय व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष कलेक्टर के हाथों में कई शक्तियाँ केन्द्रित करना था। यह शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत के विपरीत था। न्याय विभाग कार्यपालिका के दबाव में था। सन् 1790 ई.में कार्नवालिस ने फौजदारी विभाग में सुधार किये। सदर निजामत अदालत को कलकत्ता स्थानान्तरित कर दिया गया। इस अदालत की हप्ते में एक बैठक अनिवार्य कर दी गयी। कार्यवाही का नियमित रिकार्ड रखने का प्रावधान रखा गया। नबाव के नियंत्रण को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया। गवर्नर जनरल इन कौन्सिल मुख्य काजी और दो मुक्तियों की सहायता से अंतिम अपील सुन सकता था। चार दौरा अदालतों की स्थापना की गयी। बंगाल, बिहार, उड़ीसा, की चार विभागों में बाँट दिया प्रधानकाजी और मुफ्ती होते थे, जिन्हें गवर्नर जनरल नियुक्त करता था अथवा अक्षमता के आधार पर निकाल सकता था। ये अदालते अपने सर्किट में घूमकर न्याय करती थी।

इसके फैसलों को दण्डाधिकार कार्यान्वित करते थे। मृत्युदण्ड क्षमता आजीवन कारावास के फैसले की पुष्टि सदर निजामत से करनी होती थी। जिलाधीश को दण्डाधिकारी भी बना दिया गया। उसे शांति भंग करने वालों यथा खूनी, चोर, डकैत आदि को पकड़ने तथा उनकी प्रथम सुनवाई करने व निर्दोष पाने पर छोड़ देने का अधिकार दिया गया। मामूली वारदातों में वह अपराधी को दण्डित कर सकता था। उसे गंभीर अपराधों में उसे अपराधी को फौजदारी जेल में रखने अथवा सर्किट कोर्ट की बैठक तक जमानत पर छोड़ने का अधिकार था। खून एवं डकैती में जमानत नहीं होती थी। कार्नवालिस ने पाया कि कम तनख्वाहों की वजह से न्याय अधिकारी निचले तबके से जाते थे। इसलिए वे रिश्वत की ओर आकर्षित होते थे। कार्नवालिस ने वेतन अधिक आकर्षक बना दिये ताकि सच्चरित्र व कार्य कुशल योग्य व्यक्ति न्यायिक सेवाओं में भर्ती हो सकें। अगले सुधार 1793 ई में किये गये। माल अदालतें समाप्त कर दी गयी तथा सारे लगान संबंधी मामलों दीवानी अदालतों को जाने लगे। तीनों प्रांतों के प्रत्येक जिलों में एक दीवानी अदालत का प्रावधान रखा गया। प्रत्येक अदालत का संचालन कंपनी का कमानेण्टेड सर्विस का अधिकारी करता था तथा उसे न्यायधीश के रूप में कार्य करते समय विशेष शपथ लेनी होती थी। दीवानी अदालते लगान संबंधी तथा दीवानी मुकदमे दोनों पर विचार करती थीं परंतु फौजदारी पर नहीं। हिन्दु तथा मुस्लिम कानून से और दोनों के न होने पर सद्सद् विवेक से न्याय दिया जाता था।

इसी वर्ष पारित एक प्रस्ताव द्वारा कंपनी के कर्मचारियों को भी दीवानी अदालतों के आधीन कर दिया गया। भारतीय प्रजा भी अंग्रेज व्यक्तियों के खिलाफ 500 रू. से कम के मुकदमें दीवानी अदालतों में ला सकती थी। इससे अधिक के मुकदमें की सुनवायी सुप्रीम कोर्ट कलकत्ता में होती थी। कलकत्ता, पटना, मुर्शिदावाद, ढांका में चार प्रांतीय अपील अदालें का निर्माण किया गया। जहाँ अपील के अलावा सीधे मुकदमें भी जाते थे इनके अधिकारी कवनेण्टेड सेवाओं से आते थे। यहां एक हजार रूपये तक के मुकदमों की सुनवायी होती थी। 1000 रूपये से अधिक के मुकदमें सीधे सदर दीवानी अदालत में ले जाये जा सकते थे, जिसका फैसला 500 रूपयें तक अंतिम होता था। इससे ऊपर के मुकदमें राजा की कौन्शिल में ले जाये जा सकते थे। सदर अदालत निम्न अदालतों पर निरीक्षण व नियंत्रण भी रखती थी। 50 रूपये तक के मुकदमों की सुनवायी करने के लिये निचली अदालतों में मुन्सिफ रखे गये जो कार्य भार के अनुसार रखे जाते थे उनकी कार्यवाही दीवानी अदालत द्वारा अनुमोदित होनी आवश्यक थी। ये मुन्सिफ अवैतनिक होते थे। अतः इनके विरूद्ध घूसखोरी की शिकायतें आने लगी ।1793 ई. में कार्नवालिश ने कोर्ट फीस समाप्त कर दी। उसने वकीलों के व्यवसाय को भी नियंत्रित करने का प्रयत्न किया वकील केवल सरकार द्वारा निर्धारित फीस ही ले सकते थे। अधिक वसूली करने का प्रमाण मिलने पर उन्हें अपने व्यवसाय से वंचित किया जा सकता था। अपने न्यायिक सुधारों को 1793 ई. तक अंतिम रूप देकर कार्नवालिश ने उन्हें कार्नवालिश कोड (संहिता) के नाम से प्रकाशित किया। यह सुधार प्रसिद्ध ‘‘शक्तियों के पृथक्करण’’ के सिद्धांत पर आधारित था। उसने कर संग्रहण तथा न्याय प्रशासनों को अलग-अलग कर दिया। उस समय तक जिला कलेक्टर के पास भूमिकर विभाग तथा विस्तृत न्यायिक एवं दण्डाधिकारी की शक्तियाँ होती थी। 

अतः कलेक्टर के रूप में किये गये अन्याय का निराकरण स्वयं वही जब न्यायधीश के रूप में करता था। इस न्याय की विश्वसनीयता कृषक या जमींदार के पास कम हो जाते थी। अतः कलेक्टर से अब न्यायिक एवं फौजदारी के अधिकार ले लिये गये। और उसके पास केवल लगान वसूलने का अधिकार रह गया। जिला न्यायधीश के पद का निर्माण किया गया जिसे फौजदारी व पुलिस के कार्य भी दे दिये गये। कार्नवालिश ने कानून की संप्रभुता (साँवरेनिटी आफ लाॅ) का नियम स्थापित किया। देश के कानून व अदालतों में भारतीय प्रजा, कंपनी के कर्मचारी, यूरोपियन नागरिक अथवा स्वयं सरकार को भी लाया जा सकता था। सैटनकार ने लिखा कार्नवालिश कोड ने माल, पुलिस फौजदारी एवं नागरिक न्याय कर्तव्यों की पूरी व्यवस्था की।

अधिकारियों की शक्तियों को सीमित किया। अपील की व्यवस्था करके अन्याय को रोकने के लिये कानूनी व्यवहार किया तथा भारत की इस सिविल सेवा की स्थापना की जो आज भी उसी रूप में मौजूद हैं। कार्नवालिस कोड का प्रधान उद्देश्य हिन्दु मुसलमानों में समन्वय स्थापित करने, उनकी भावनाओं को शांत करने, उनकी धार्मिक भावनाओं व सामाजिक विचारों से छेड़खानी न करने तथा इसके साथ ही साथ अराजकता, अव्यवस्था एवं शक्ति के अनियंत्रित एवं अनियमित प्रयोग के स्थान पर व्यवस्था, नियम एवं क्रम स्थापित करना था। वारेन हेस्टिंग ने जिस प्रशासनिक इमारत की जीव रखी थी, कार्नवालिस ने उस पर विशाल भवन का निर्माण किया। लार्ड हेस्टिंग ने (1813-1823) इस कार्य को और आगे बढ़ाया तथा अब तक न्याय विभाग में आयी विसंगतियों को दूर करने का प्रयत्न किया।

लार्ड कार्नवालिस के फौजदारी कानूनों में सुधार

1790 ई. से 1793 ई. के मध्य कार्नवालिस ने फौजदारी कानूनों में भी सुधार किया। हत्या के मामले में हत्या की भावना पर अधिक बल दिया गया न कि हत्या में प्रयुक्त अस्रत अथवा ढंग पर। अंग-विच्छेद के स्थान पर कड़ी कैद की सजा पर बल दिया गया।

कार्नवालिस ने जो न्यायिक सुधार किये वे अत्यधिक जटिल थे। कानूनी प्रक्रिया लंबी खिंचने लगी। न्याय महँगा हो गया। मुकदमेबाजी बढ़ गई। यूरोपीय न्यायाधीश भारतीय रीति-रिवाज एवं परंपराओं से अनभिज्ञ थे।

लार्ड कार्नवालिस के पुलिस सुधार

पुलिस कर्मचारियों में ईमानदारी एवं स्फूर्ति लाने के लिए कार्नवालिस ने उनके वेतन में वृद्धि की। चोरों एवं हत्यारों के पकड़ने पर पुरस्कार देने की व्यवस्था की। जिलांे का े 400 वर्ग मील के क्षेत्र में विभाजित कर प्रत्येक क्षत्रे में एक दरागे ा की नियुक्ति की गई। अंग्रेजी न्यायाधीशों का े जिल े की पुलिस का भार दे दिया गया।

लार्ड कार्नवालिस के राजस्व सुधार

कार्नवालिस ने 1787 ई. में प्रांत को राजस्व क्षेत्रों में विभाजित किया एवं प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक कलेक्टर की नियुक्ति की गई। इनकी संख्या पहले 36 थी, अब घटकर 23 कर दी गई। 1790 ई. में कार्नवालिस ने जमींदार को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया। इन जमींदारों को कंपनी को वार्षिक कर देना होता थ। ठेके की राशि में से भी 1/11 भाग कम कर दिया गया। यह व्यवस्था पहले 10 वर्ष के लिए की गई थी, परंतु 1793 ई. मे उसे स्थायी कर दिया गया।

लार्ड कार्नवालिस के व्यापारिक सुधार

व्यापारिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार दूर करने हेतु कार्नवालिस ने आवश्यक व्यापारिक सुधार संपन्न किये। 1774 ई. में स्थापित व्यापार बार्डे में सदस्यों की संख्या 11 से घटाकर 5 कर दी। ठेकेदारों के स्थान पर गुमाश्तांे एव व्यापारिक प्रतिनिधियों द्वारा माल लेने की व्यवस्था लाग ू की। ये लोग पश्े ागी के रूप मे निर्माताओं का े धन दे देते थे और उसी समय भाव निश्चित कर देते थे। इससे कंपनी को सस्ता माल मिल जाता था।

कर संग्रह एवं व्यापार में लगे कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए इनके वेतन में वृद्धि की गई। कलेक्टर को मासिक वेतन 1500 रुपये एवं संगृहीत कर पर 1 प्रतिशत कमीशन देने की व्यवस्था की। वित्तीय एवं व्यापारिक मामलों में सिफारिशों को पूर्णतः समाप्त कर दिया।

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